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काव्यानुवादः संदर्भ और शब्दचयन

संस्कृत की ‘वद्’ धातु में ‘अनु’ उपसर्ग लगाने से अनुवाद शब्द निर्मित होता है, इसका सीधा अर्थ है ‘दोहराना’ या ‘किसी के कहे को कहना’ । अनुवाद के लिए भारतीय भाषाओं में छाया, टीका, भाष्य, उल्था भाषांतर, तर्जुमा, तर्जमा आदि शब्दो का प्रयोग होता है । सामान्यतः अंग्रेजी शब्द ‘Translation’ के हिन्दी रुपान्तरण को अनुवाद कहा जाता है। अनुवाद भाषा, भाव और अभिव्यक्ति के साथ परकाया प्रवेश की साधना है । अनुवाद के बारे में डॉ भोलानाथ तिवारी कहते हैं- ‘न जोड़ो न छोड़ो’ किंतु साहित्यिक अनुवाद में एक प्रकार का समझौता करना पड़ता है । शब्द को ब्रह्म कहा गया है । हम अपने दैनिक व्यावहार में शब्दों के पर्यायवाची शब्दों से काम चलाते हैं । वस्तुतः पर्यायवाची शब्द मूल शब्द नहीं होता । प्रायःपानी,जल,नीर शब्द का प्रयोग अथवा तारीख,तिथि,दिनांक,DATE आदि शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ के संदर्भ में करते हैं, किंतु प्रत्येक शब्द का निश्चित अर्थ एवं महिमा होती है । कोर्ट कचहरी में बहसों के लिए तारीखें दी जाती हैं, दिनांक या तिथि नहीं, तिथि का धार्मिक महत्व भी है । अंग्रेजी के डेट से कोई युगल डेटिंग पर जा सकता है, डेटिंग के लिए तारीख,तिथि,दिनांक कोई शब्द उपयुक्त नहीं है ।

अनुवादक को अनुवाद-संदर्भ एवं क्षेत्र को भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए । जैसे कि प्रयोजनमूलक हिन्दी में ‘Pay’ का अर्थ वेतन है किंतु बैंकिंग में ‘Pay’ का अर्थ भुगतान होता है । साहित्येतर अनुवाद में शब्दों के निश्चित अर्थ होते हैं, अनुवादक को अपनी ओर से वैसा कुछ जोड़ना-घटाना नहीं पड़ता जैसा साहित्यिक अनुवाद में । साहित्येतर- बैंकिंग, बीमा, विधि क्षेत्र के अनुवाद में शब्दकोष लगभग पूरी तरह सहायक है । एक शब्द का एक शब्द का एक ही अर्थ होता है । । जैसे कि हिन्दी शब्द ‘चाल’ ‘वेग’ ‘बल, और ‘शक्ति’ के लिए अंग्रेजी शब्द क्रमशः ‘Speed’, ‘Velocity’,’Force’ और ‘Power’ होगा । साहित्यिक अनुवाद में एक ही शब्द के पर्याय स्वरूप किस शब्द को चुनना कठिन कार्य होता है । अनुवादक यदि विधि क्षेत्र का है तो वह अनुवाद में किसी प्रकार की छूट नहीं ले सकता किंतु जब वह साहित्य का अनुवाद करेगा तो उसे अपनी भाषा-शैली बदलने के साथ-साथ भाव प्रदेश में भी प्रवेश करना होगा । काव्यानुवाद अपेक्षाकृत जटिल है । टैगोर की कृति ‘गीतांजलि’ गीति या काव्यरूप में है। टैगोर स्वयं अंग्रेजी के अच्छे विद्वान थे उन्होंने गीतांजलि का अनुवाद गद्य में किया, इसके बावजूद उन्हें नोबल पुरस्कार मिलता है तो निश्चय ही अनूदित कृति मूल कृति के समकक्ष एवं महान होगी।

काव्यमीमांसाकार ने कहा है- “नास्यचौयः कविजनो नास्त्वचौरो वाणिस्वनः” । काव्य का अनुवाद करते समय बहुत कुछ आयात करना पड़ता है। इस आधार पर कहें तो बृहत् रूप में पूर्वापर संबंध के कारण कवि की मूल कृति भी अंततोगत्वा अनुवाद ही होती है । किसी कविता का अनुवाद बेहतर ढंग से करने के लिए उसकी तह तक जाना होगा, निहित संदर्भों परिप्रेक्ष्यों एवं पृष्ठभूमि को जानना होगा। रूसी साहित्य के प्रमुख हिन्दी आनुवादक श्री मदनलाल ‘मधु’ के अनुसार “कविता को हमें उसके मूल से पकड़ना है । अगर वह छंदबद्ध है तो हमें उसे मुक्त छंद में अनुवाद नहीं करना है । हमें यह भी देखना पड़ता है कि हिंदी में मात्रिक छंद हैं अन्य भाषाओं में मात्रिक छंद नहीं हैं । कविता के अनुवाद में उसकी लय या संगीत नहीं छूटना चाहिए ।” कविता में शब्द-चयन, बिम्ब, प्रतीक, मिथक, अलंकार, निहितार्थ-व्यंग्य, संदर्भ, मुहावरे, कहावतों, भाषाशैली आदि का पूरा ध्यान रखना होता है ।भाषा प्रयोक्ता सापेक्ष होती है, बिम्ब, प्रतीक आदि समाज,संस्कृति एवं परिवेश सापेक्ष होते हैं। इन्हीं मुद्दों के आधार पर काव्यानुवाद की चर्चा करना इस लेख का उद्देश्य है। गुजराती गज़लकार मनोज खंडेरिया का एक शेर दृष्टव्य है-
પકડો કલમને કોઈ પળે એમ પણ બને ( पकडो कलमने कोई पणे एम पण बने
આ હાથ આખે આખો બળે, એમ પણ બને. आ हाथ आखे आखो बणे एम पण बने । )

यहाँ पर “આ હાથ આખે આખો બળે” का संदर्भ एकाधिक हो सकता है किंतु कवि को रासलीला रचाते कृष्ण और गोपियों का वह दृश्य अभिप्रेत है जिसे देखकर सभी अपनी सुधबुध खो बैठते हैं । ऱोशनी के लिए मशाल थामे खड़ा मशालची भी कृष्ण की लीला और माधुर्य से मोहित होकर भान खो बैठता है । उसे पता ही नहीं चलता कि मशाल के साथ-साथ उसका हाथ भी जलने लगा है । ठीक यही स्थिति रचना करते समय रचनाकार की होती है ।

शब्द चयनः अनुवाद मक्खी पर मक्खी बैठाने की कला नहीं है। साहित्यिक अनुवाद करते समय कभी-कभी एक शब्द का अनुवाद करने में हम निःसहाय हो जाते हैं, ऐसी स्थिति में मूल शब्द का ही चयन मूल शब्द का ही करना पड़ता है। अंग्रेजी के कई शब्दों का हिन्दी अनुवाद नहीं दुष्कर है । जैसे कि Ambulance, Sim, Mobile,Xerox आदि । शब्द चयन जब शीर्षक के संदर्भ में हो तो अनुवादक को कृति की कथावस्तु पात्र और उद्देश्य का पूरा-पूरा ध्यान रखना होता है । काव्य-सौंदर्य और अर्थ में क्षति न पहुँचे इसके लिए भी कभी-कभी मूल शब्द को ही रखना पड़ता है । उदाहरण के तौर पर दुष्यन्त का एक शेर देखिएः
‘ये सारा ज़िस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था तुम्हें धोखा हुआ होगा ।

यहाँ सजदे शब्द की जगह दूसरा शब्द रखना टेढ़ी खीर है। एक दूसरा उदाहरण दृष्टव्य हैः
किस्मत की खूबी देखिए टूटी कहाँ कमंद
दो चार हाथ जब कि लबे-बाम रह गया।

यहाँ ‘कमंद’ और ‘लबे-बाम’ शब्द से एक बिम्ब भी खड़ा होता है और विशिष्ट अर्थ ध्वनित होता है। अनुवाद करते समय ऐसे शब्दों में कठिनाई होती है ।

बिम्बः पारंपरिक एवं नवीन बिम्बों का उपयोग रचनाकार अपने ढंग से करता है । देश,काल,और परिवेश आदि में बदलाव के कारण बिम्ब के अर्थ में भी आता है। सूर्योदय,सूर्यास्त,नीली झील आदि बिम्बों के अर्थ देश-काल सापेक्ष हो सकते हैं । ‘निराला’ की कविता ‘भिक्षुक’ को पढ़कर वही लोग सौन्दर्यानुभूति करेंगे जिनमें यह वर्गचेतना जीवंत है । इसीप्रकार उनकी कविता राम की शक्ति पूजा का अनुवाद करते समय बिम्बों एवं उसकी अर्थ ध्वनियों में कठिनाई हो सकती है ।

प्रतीकः साहित्य में प्रतीक और उसके अर्थ भिन्न होते हैं । उदाहरण के तौर पर इंग्लैण्ड में उल्लू बुद्धिमानी का प्रतीक है और अमरीका का राष्ट्रीय प्राणी गधा है । हमारे यहाँ उल्लू और गधा प्रतीकों में अच्छा अर्थ नहीं रखते,व्यावहार में भी नहीं । इसीप्रकार रंगों और फूलों आदि के प्रतीकार्थ भी भिन्न होते हैं । सामान्यतः गुलाब को सौंदर्य का प्रतीक माना गया है किंतु निराला’ की कविता कुकुरमुत्ता में गुलाब पूँजीपति वर्ग का प्रतीक है । इसीप्रकार अज्ञेय की कविता में साँप शहरी सभ्यता का प्रतीक है जबकि फ्रॉयड ने साँप को सेक्स का प्रतीक माना है ।

शब्द सौंदर्यः प्रत्येक शब्द का अपना विशिष्ट अर्थ और सौंदर्य होता है, अनुवादक को शब्द चयन करते समय काव्य के सौंदर्य विधान का पूरा पूरा ख्याल रखना होता है । रस्म-रिवाज,खान-पान, तीज-त्यौहार, वेशभूषा कला,संस्कृति आदि में अनूदित शब्द मूल सौंदर्य को क्षति पहुँचा सकते हैं या सौंदर्यवृद्धि कर सकते हैं । काव्यानुवाद में शब्द सौंदर्य एवं शब्द-योजना का विशिष्ट महत्व होता है ।

बेगम अंजुम के शेर में शबाब के सौंदर्य से यह बात समझ सकते हैः
तलाक तो दे रहे हो गुरूरो कहर के साथ
मेरा शबाब भी लौटा दो मेरे महर के साथ ।

एक अन्य उदाहरण मलिक मुहम्मद जायसी से लेते हैः
पिउ सों कहेउ संदेसड़ा हे भौंरा हे काग
सो धनि बिरहै जरि मुई तेहिंक धुआँ हम्ह लाग ।

मिथकः मिथकों में धार्मिक-सांस्कृतिक धरोहर समाई हुई है । भारतीय वाड़्मय में शिखंडी मात्र एक शब्द नहीं है,त्रिशंकु मात्र कल्पना नहीं है । इनके संदर्भ पौराणिक कथाओं में निहित हैं । हमारे यहाँ प्रेम के देवता कामदेव हैं वे अति सुंदर माने जाते हैं । पश्चिम में प्रेम के देवता क्यूपिड हैं किंतु वे कुरूप हैं । वहाँ अपोलो स्वरूपवान हैं, काव्य और संगीत के देवता हैं, प्रेम के देवता नहीं है । भारत में गंगा केवल नदी नही है,हिमालय केवल पर्वत नहीं है,गाय केवल पशु नही है । हिन्दु देवी- देवताओं के वाहन जैसे कि गरुड़,चूहा,मोर,शेर आदि के महत्व और महिमा से अनुवादक अनभिज्ञ नहीं होना चाहिए । उसे मिथक एवं संदर्भ का ज्ञान होगा तभी वह सही अनुवाद कर सकेगा ।

व्यंग्य और अर्थ संप्रेषणः रचनाकार अपनी कृति में व्यंग्य के द्वारा जो अभिव्यक्ति करना चाहता है, वह उसके स्वभाव एवं प्रकृति से जुड़ी बात होती है ।व्यंग्य-संप्रेषण में शब्द-शक्ति,मुहावरे,कहावतों,अलंकार,शब्द-योजना,बिम्ब, प्रतीक आदि का विशेष महत्व होता है । कभी-कभी बिल्कुल सरल या अभिधात्मक रूप में कही गई बात से भी व्यंग्य उभरता है । नागार्जुन,धूमिल,अरुण कमल आदि कवियों की कविताओं में निहित व्यंग्यों की अभिव्यक्ति सरल किंतु धारदार है । कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैः
“बहुत दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास
बहुत दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास
बहुत दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त
बहुत दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त” - नागार्जुन

“एक आदमी रोटी बेलता है/ एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है /जो न रोटी बेलता है न रोटी खाता है
वह रोटी से खेलता है,
मैं पूछता हूँ यह तीसरा आदमी कौन है
मेरे देश की संसद मौन है” _ धूमिल

“ अपना क्या है इस दुनिया में सब कुछ लिया उधार
सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार ” - अरुण कमल

मुहावरों और कहावतों का अनुवाद जटिल होता है । गुजराती में “दूर ना डूंगर रणियामणा होय छे” के लिए हिन्दी में “दूर के ढोल सुहावने होते हैं” कह सकते हैं किंतु “न नौ मन तेल जलेगा न राधा नाचेगी” का विदेशी भाषाओं में अनुवाद करना कठिन हो सकता है । इसीप्रकार अनूदित कविता में नाद सौंदर्य को ज्यों का त्यों नहीं रखा जा सकता । उदाहरण के तौर पर निराला की निम्नलिखित काव्य पंक्तियाँ दृष्टव्य हैः
झूम-झूम मृदु गरज-गरज घन घोर
राग अमर अम्बर में भर निज रोर ।
झर झर झर निर्झर-गिरि-सर में
घर मरु तरु मर्मर सागर में
अरे वर्ष! के हर्ष बरस तू बरस रसधार ।

काव्यानुवाद करते समय इस बात का भी ध्यान रखना होता है कि लोक-काव्य की भाषा (बोली) परिनिष्ठित या माँजी-धुली नहीं होती, उसमें सरलता,सहजता के साथ एक प्रकार का बीहड़पन एवं खुरदरापन भी होता है । आवश्यक हुआ तो शीर्षक,पात्रों और स्थलों के नाम में भी बदलाव किया जाता है ।

अनुवाद एक जटिल प्रक्रिया है, कोई भी अनुवाद अंतिम नहीं कहा जा सकता । कवि की भावनाओं एवं विचारों को समझना सरल नहीं होता अतः काव्यानुवाद में गुंजाइश रहती है कि उसका मूल एवं निखरा रूप एकाधिक अनुवाद के बाद सामने आए । अनूदित साहित्य से सेतु का कार्य होता है ।अनूदित साहित्य के माध्यम से विश्व-साहित्य सुलभ हुआ है, वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना का प्रसार हुआ है । आज के वैश्वीकरण के युग में अनुवाद वरदान साबित हो रहा है ।

डा. ओमप्रकाश शुक्ल, गुजरात कॉलेज (सायં), अहमदाबाद. Mail id- ohshukla@yahoo.in