जंगल के दावेदार

'जंगल के दावेदार' में राष्ट्रीय चेतनाः-

'जंगल के दावेदार' लेखिका महाश्वेता देवी द्वारा रचित ऐतिहासिक कृति है। इस कृति के जरिये लेखिका ने भारतीय इतिहास की गौरव गाथा को मान दिया है। उपन्यास की भूमिका में स्वयं लेखिका ने लिखा है - ''इस उपन्यास को लिखने में सुरेशसिंह रचित Dust Storm and Hanging पुस्तक के प्रति मैं विशेष रूप से ऋणी हूँ। इस सुलिखित तथ्यपूर्ण ग्रंथ के बिना 'जंगल के दावेदार' का लेखन संभव न होता।''

'अरण्येर अधिकार' नामक मूल बंगला उपन्यास 1975 में 'बेतार जगत पत्रिका' में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत उपन्यास मूल पुस्तक का परिवर्धित, परिमार्जित और हिन्दी रूप है, जिसमें भारत के बंगाल प्रदेश के आदिवासी प्रजा का जीवन वास्तविकता के साथ प्रकट हुआ है।

भारत वर्ष के स्वाधीनता संग्राम के इतिहास में बीरसा मुंडा का नाम और विद्रोह अनेक दृष्टियों से स्मरणीय और सार्थक है। इस देश की सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि में उसका जन्म और अभ्युत्थान केवल एक विदेशी सरकार और उसके शोषण के विरूद्ध नहीं था। यह विद्रोह साथ ही साथ समकालीन सामन्ती व्यवस्था के विरूद्ध भी था। इस उपन्यास में अपनी अस्मिता और वजुद के लिए 'साम्राज्यवाद' के खिलाफ लड़ते लहुलुहान होते, मार खाते और पिसे जाते जन समूह और समाज का संघर्षमय चित्रण किया गया है। इसमें एक युद्धरत आदमी और आंदिवासी समाज को लेखिका ने पाठकों से प्रत्यक्ष कराया है। आजादी की लड़ाई में ये हाशिये पर पटके गये लोगों की कहानी है। इतिहास की मुख्यधारा में केवल गाँधीजी ही गाँधीजी है। हाशिये पर चल रहे आंदोलन और उनके नेता को इतिहास के पन्नों में जगह नहीं मिली है। बिरसा मुण्डा के नेतृत्व में हुआ आदिवासियों का आंदोलन भारतीय इतिहास के पन्नों में अंकित नहीं है। जहाँ इतिहास अपने को थका हुआ और लाचार पाता है, वहाँ उपन्यास कथ्यगत रूप से पूर्ण यथार्थ के साथ पाठकों के समक्ष रखा जाता है। लेखिका ने आदिवासी मुण्डा समाज को प्राधान्य देकर उनकी गरीबी, अज्ञानता, अंधश्रद्धा, शोषित मनोवृत्ति, परंपरागत रिवाज तथा विशेष रूप से जंगल प्रेम को अभिव्यक्त किया है।

इस उपन्यास में अशिक्षित मुण्डाओं का अंग्रेज सरकार एवम् तथा कथित जमींदार महाजन कैसे शोषण करते है उसका यथार्थ चित्रण प्रस्तुत किया गया है। बिरसा मुण्डा केन्द्रिय यह उपन्यास किसी व्यक्ति का जीवन नहीं है, बिरसा का भी नहीं। यह जनसंघर्ष की अभूतपूर्व गाथा है। इसमें बिरसा नामक व्यक्ति है जिसके इर्दगिर्द सारी कथा घुमती है पर वह व्यक्ति मात्र नहीं है। वह तो हर बिरसाई कबिलों में व्यापत है। वह तो घट घट में बिराजमान है, वह तो भगवान है।

इस उपन्यास का आरम्भ एक ऐतिहासिक तथ्य से होता है- ''9 जून, साल 1900 – राँची की जेल – बिरसा सबेरे 9 बजे मर गया।'' इस वास्तविक घटना से उपन्यास का आरम्भ इतिहास और कथा को एक दूसरे के इतने समीप खड़ा कर देता है कि दोनों एक दूसरे के रूप, रंग और स्पर्श को मेहसूस कर सकते है। फिर भी उपन्यास की विधा सदा ही अपनी आंगिक रीति मानकर चलती है। इस उपन्यास का भी इसी-लिए बिरसा की मृत्यु से अंत होता है। किन्तु जीवन विद्रोह- जो भी प्रचलित और प्रवाहित है उसकी सच्चाई किसी काल में किसी भी देश में नेता की मृत्यु से समाप्त नहीं हो जाती। कालान्तर में उत्तराधिकार के पथ पर वह बढ़ता रहता है। विद्रोह से जन्म लेती है क्रान्ति। इस उपन्यास के अंत के बाद भी उपसंहार के संयोजन से यही अभीष्ट है।

बिरसा मुण्डा इस उपन्यास का नायक है, जो बचपन से ही विद्रोही प्रकृति का है। वह स्वीकारता है कि जंगल उसकी पालक माँ है, परन्तु अंग्रेजों ने जंगल छीना, अपनी आजादी हड़प ली परिणाम उसका विद्रोह नये स्वर में प्रकट होता है। बिरसा मुण्डा की संघर्ष गाथा उपन्यासकार की प्रतिभूर्ति दर्शाती है। वे आदिवासी समाज का सच हमारे सामने रखना चाहती है कि किस प्रकार गैर-आदिवासियों (दिकू)ने इनके घर नष्ट किये। इन वनवासियों को बेधर किया और इसके विरूद्ध आवाज उठाई तो दिकू लोगों ने अंग्रेज साम्राज्यवादी ताकत से मिलकर इस 'कोम' को नेस्तनाबुद किया। होरी का सपना है 'गाय', चेप्पन का सपना है 'नाव', बिरसा का सपना है 'भात'। ये छोटे छोटे सपने उनके लिए काल बन जाते है। मुण्डा लोगों के जीवन में भात स्वप्न ही बना रहता है। उनका नित्य भोजन घाटा पीना था, परन्तु बिरसा की माँ करमी को तो घाटा में नमक भी नहीं मिलता था। ऐसी परिस्थिति में भी वे लोग शरीर से तंदुरस्त और स्वस्थ थे। परंतु भीतर से अंधविश्वास और अज्ञानता में डूबे हुए थे। उनकी इस अज्ञानता का लाभ लेकर गाँव के जमींदार, महाजन उनकी जमीन लेते रहते थे। गाँव में अकाल या अतिवृष्टि का ऐलान करके महाजन उनसे कर्ज करने के लिए समजाता रहता था, और वे सहज आस्था के साथ रूपये उधार करते जाते थे। परिणाम न भरपाई होने पर जमीन का पट्टा उनका हो जाता था। वैसे ही सुगाना मुण्डा जिनके पितृओं के नाम से छोटा नागपुर गाँव बना था, आज वह भिखारी से भी अधम। जिस के पेट में घाटा भी नहीं पड़ता, फटा कपड़ा पहने बिना किसी मकान के घूम रहा है। उसने भी अपनी दो लड़कियाँ-चम्पा और दासकिर की शादी भी महाजन से सुद देकर पैसे लेकर की। मुण्डाओं का कर्ज प्रतिदिन बढ़ता ही रहता है। महाजन चाहता है कि मुण्डा पट्टा लिख दे, खेत में काम करे, पालकी उठाये, नासमज बच्चे खेत पर पहरे देंगे, एक दाना भी चोरी न करेंगे और ठाकुर एवम् पूजापाठ से ज्यादा गभराते हैं। अपनी ही जमीन पर यह आदिवासी गुलाम है। अपने भाइयों को गुलामी से आजादी दिलाने के लिए बिरसा ने 'उलगुलान' की अलख जगाई। मुक्तिसंग्राम के द्वारा महानायक की अंग्रेजों ने हत्या कर दी। जिसका स्पष्ट उल्लेख उपन्यासकार ने किया है।

बिरसा लोगों को स्वतंत्रता दिलाना चाहता है। अंग्रेजो के अन्याय को समजने के लिए अक्षर जरूरी नहीं होते। अन्याय का दंश काफी होता है। उन्नीसवीं सदी में निरक्षर युवा बिरसा मुण्डा ने सहज ही समज लिया कि अंग्रेज अन्यायी है। अपने समाज को संगठित कर वे अंग्रेजों से लड़े। यह युद्ध भारतीय स्वाधीनता संग्राम की महागाथा है। इललिए उसने आंदोलन छेडा जिसका नाम है 'उलगुलान'। उनके शस्त्र थे तीर, बरछा, बलाया और पत्थर। वे रात के अंधेरे में एक गाँव से दूसरे गाँव जाकर अपना संगठन तैयार करता जाता था। बिरसा ने मुण्डाओं के आत्मविश्वास को पुनःजगाना चाहा। इसलिए भगवान बनकर बीरसा ने असुर पूजा, देओंरा और पहान की अलौकिक क्षमताओं में विश्वास तथा उनके बन्धनों का दूर हटाना चाहा। वह चाहता था कि धर्म, आचार, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, रीति-नीति का बोज छाती पर रहने से मुण्डा लोग सिर न उठा सकेगें। इसलिए एक सहज, सुन्दर, कर्मकांड और रूढ़िगत विश्वासों के बोज से रहित धर्म की आवश्यकता है। इसलिए बिरसा ने भगवान बनकर धर्म मंक आस्था में क्रान्ति लाना चाहा। वह जानता था कि भूखे मुण्डा लोग और उसके प्रार्थित लक्ष्य के बीचोबीच जो जात-पाँत की दीवारें-जमींदार, महाजन, बनिये, मजदूरों के ठेकेदार की दीवारें ऊँची हुई है उन्हें मिटा देने के उद्देश्य से वह भगवान बना था और अपने अधिकार के लिए सबको एकत्रित करके उलगुलान का मंत्र उनके कानों में भरता रहा। बिरसा के मंत्र से मानो मुण्डाओं के मन में अपार शक्ति भर गई। रक्त में कठोर विश्वास जाग्रत करवाया और उसी विश्वास की ज्वालाओं के साथ वे कहते थे – जमींदारो को लगान नहीं देंगे। बिना कर के जमीन चाहिए। मुण्डाओं का सबसे अधिक वांछनीय धन है – बिरसा का राज। बिरसा का धर्म। इस स्वर्ग समान स्वप्न को प्राप्त करने के लिए अपना रक्त बहाना पड़ेगा। बिरसाइत बनने के बाद वे गर्व से सिर ऊँचा करके चलते थे।

बिरसा ने मुण्डाओं से कह दिया कि उलगुलान के दो खंड़ है। पहले खंड़ में आग लगाकर तीर छोड़कर किरस्तानों को डराना होगा। दूसरे खंड़ में शुरू होगा सशस्त्र संग्राम। बिरसा ने एक विशाल, विराट, शक्तिशाली, प्रबल प्रशासिका व्यवस्था को बड़ा धोखा दिया। बिरसा ने मुण्डा जाति को अंग्रेजी सरकार के शेर के उठे पंजे के विरूद्ध खड़ा कर दिया।

मुण्डाओं का विद्रोह इतना प्रचलित हो उठा कि मिशन जलाये जाने लगा। अंग्रेजों और किस्तानों के साथ उनकी लड़ाई जोरों से प्रारंभ हुई। सभी मुण्डा पकड़े जाने लगे और पुलिस के पीटने पर भी खुद मारो मारो कह कर भगवान में अतूट श्रद्धा रखते हुए उनके कार्यो को पूरा करना चाहते थे। चारसो बयासी लोग पकड़े गये। कई लोगों की जेल में मृत्यु हुई। कई मुण्डा बिरसा की जंजीरे सुनकर बल प्राप्त कह रहे थे, और भगवान के साथ होने का अमूल्य आनंद भी।

लेखिका ने पूरी तरह से उन आदिवासियों को न्याय दिलाने की कोशिश की है। लगता है कि दिकूओं द्वारा मुण्डाओं पर किया गया अत्याचार अन्याय लेखिका को बिलकुल मान्य नहीं। लेखिका जैसे एक जज की भाँति उनके अधिकारों के प्रति जागरूक होकर उनके साथ रहकर वास्तविकता को झुठ के पर्दे से साफ सुधरे ढंग से निकाल कर हमारे सामने रख देती है।

बिरसा ने जो लड़ाई गैर-आदिवासियों के खिलाफ प्रारंभ की थी। वह कोई साधारण लड़ाई नहीं थी। एक सदी पहले जिसने जन जागृति का इतना प्रचंड़ शंखनाद किया था, जो सभी को हिला देता है। एक एक मुण्डा इसके ही कारण अपनी प्रिय मातृभूमि के लिए जान देने के लिए तत्पर बना हुआ था। एक अनपढ़ या सामान्य व्यक्ति का असाधारण बलिदान सचमुच एक भगवान होकर हो सकता है। बड़े जनसमुदाय को संगठित करना शायद बिरसा जैसा वीर युवक ही कर सकता है। भले ही बिरसा मर गया पर उसके द्वारा प्रारंभ किया गया उलगुलान उसकी अवाज आज भी मुण्डाओं के हृदय में हिलोरे ले रही है।

इस प्रकार अपने प्रति निरंतर अपमान, उपेक्षा, शोषण आदि के खिलाफ आदिवासियों का विद्रोहात्मक स्वर उठना स्वाभाविक है। आदिवासी संसाधनों और संस्कृति के रहते मन माना व्यवहार अशिक्षा और उससे उपजे असंतोष और प्रतिशोध-संघर्ष के कारण जन्म लेती है-एक क्राँति, एक संघर्ष जो दबाने पर भी दब नही सकता। जैसा कि लेखिका ने उपन्यास के उपसंहार में लिखा है - ''हम जिस तरह चिरकाल से है, संग्राम-बिरसा का संघर्ष भी वैसा है। धरती पर कुछ समाप्त नहीं होता – मुण्डारी देश, धरती, पत्थर, पहाड़, वन, नयी ऋतु के बाद ऋतु – का आगमन – संदर्भ भी समाप्त नहीं होता, इसका अंत हो ही नहीं सकता। पराजय से संघर्ष का अंत नहीं होता। वह बना रह जता है, क्योंकि मानुस रह जता है, हम रह जाते है।

संदर्भ ग्रंथः जंगल के दावेदारः लेखिका महाश्वेतादेवी

डॉ. फाल्गुनी अध्वर्यु, हिन्दी केन्द्र, तुलनात्मक भवन, वीर नर्मद दक्षिण गुजरात युनिवर्सिटी,सुरत-9