આસ્વાદ-સમીક્ષાલેખ

हिन्दीः घर-बाहर

‘हिन्दी दिन’ और ‘विश्व हिन्दी दिन’ से क्या आशय है ? हिन्दी को क्या सही मायने में उसका स्थान प्राप्त हो सका है ? यदि वर्षों बाद आज भी हिन्दी अपने ही घर में वह सम्मानपूर्ण स्थान नहीं प्राप्त कर सकी जो तर्किश, मंडारिन या अंग्रेजी को प्राप्त है, तो इसके क्या कारण हैं ? भाषा- जानकारी एवं प्रयोग की दृष्टि से विश्व में हिन्दी का कौन-सा स्थान है ? ऐसे कुछ मुद्दों की संक्षिप्त चर्चा इस लघु लेख में की गई है ।

भारतीय संविधान सभा द्वारा 14 सितंबर 1949 को ‘एक मत’ से यह निर्णय लिया गया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी । राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने हिन्दी के व्यापक प्रचार-प्रसार के लिए अनुरोध किया और देश की अन्य हिन्दी संस्थाएँ तथा हिन्दी प्रेमियों के प्रयासों के परिणामस्वरूप सन् 1953 से संपूर्ण भारत में प्रतिवर्ष 14 सितंबर ‘हिन्दी-दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। भारतीय संविधान भाग 17, 343(1) के अनुसार ‘संघ की राज भाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी । संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा ।’ समस्त विश्व मे हिन्दी के प्रचार-प्रसार, विकास तथा अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के रूप स्थापित करने के उद्देश्य से 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित हुआ । वास्तव में, यह तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की पहल और विश्व हिन्दी सम्मेलन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के सहयोग का ही परिणाम था । 10 जनवरी 2006 को तत्कालीन प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह ने प्रति वर्ष विश्व हिन्दी दिन के रूप मनाये जाने की घोषणा की और इसी के साथ भारतीय विदेश मंत्रालय ने विदेश में 10 जनवरी 2006 को पहली बार ‘विश्व हिन्दी दिन’ मनाया । इसीलिए यह दिन विश्व हिन्दी दिवस के रूप मे मनाया जाता है । और, तभी से विश्व हिन्दी सम्मेलनों की श्रृंखला शुरु होती है । अब तक नौ विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित हो चुके हैं— मारीशस, नई दिल्ली, मारीशस, त्रिनिदाद टोबेगो, लन्दन, सूरीनाम, न्यूयार्क और नौवाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन २२ से २४ सितम्बर २०१२ तक जोहान्सबर्ग में संपन्न हुआ ।

पराये लोगों द्वारा नहीं, अपनों के द्वारा अपने ही घर में हिन्दी को जो सहन करना पड़ रहा है, जो भुगतना पड़ रहा है— यदि कोई मनुष्य होता तो कहता— ‘अब मैं नाच्यौं बहुत गुपाल’ या ‘अब तो फंदा काटो, प्रभो !’ राजभाषा के रूप में स्वीकृत हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए सरकारी-गैर सरकारी प्रयास होते रहे हैं । विश्व के कुछ उदाहरणों से तुलना करें तो कहा जा सकता है कि ये प्रयास ऊँट के मुँह को जीरा तो नहीं ही थे । हाँ, सफलता की द़ृष्टि से भले ही कहें कि इस पर करोंड़ों रुपये पानी की तरह बहाया गया । तो बात यह बनती है कि कहीं हमारी नियत, सोच और इच्छाशक्ति में भारी ओट रह गई है । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय शिक्षा नीति ने विश्व-समुदाय के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने का प्रयास किया और इसे सराहनीय कार्य भी माना गया । लेकिन, इसका प्रभाव हमारी सभ्यता और संस्कृति पर किस तरह से पड़ रहा है इसे समझने का प्रयास लगभग नहीं हुआ । इससे ‘महतारी’, ‘माँ’, ‘माई’, ‘माता’, ‘अम्मा’, ‘बा’.... ‘ममी’ या ‘मोम’ में तब्दील हो गई । यह सिर्फ संज्ञाओं का बदलाव नहीं हैं इससे संस्कृति और सभ्यता भी प्रभावित हुई है । अरे, अब तो तथाकथित पढ़ी-लिखी माताएँ पुरानी संज्ञाओं से अपना इन्सल्ट महसूश करती हैं— यही बात पिता के संदर्भ में भी लागू होती है । बच्चे को अंकल और अंटी ही सिखाया जाता है तो भला वह मौसी-मौसा, नानी-नाना, मामी-मामा, बाबा-आजी काका-काकी, दादा-दादी, भैया-भौजी, के संबंध को क्या जाने . उन संबंधों की आत्मीयता को क्या जाने ? अरे प्रतियोगी परीक्षाओं में जब रिलेशन संबंधी प्रश्न पूछे जाते हैं तो शहरी या वेल क्वालीफाइड अभ्यर्थी के उत्तर भी ग़लत होते हैं । परीक्षाओं में ऐसे प्रश्नों का पूछा जाना यह भी साबित करता है कि प्रतियोगी को अपने समाज और सामाजिक रिश्तों की सही पहचान नहीं है । वास्तव में, लोक से नाता जोड़ने का काम भाषा ही करती है । लोक से नाता टूटने की परिणति किसी गंभीर ट्रेजेड़ी से कम नहीं होती । लेकिन, वहाँ नियति के लिए अवकाश होता है, यहाँ तो वह भी गुंजाइश नहीं ।

आज की हिन्दी बहुत कुछ मायने में खिचड़ी हो चली है । किन्तु इस बात को डॉ. रघुवीर जैसे हिन्दी के प्रबल पक्षधर कई विद्वान स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, उन्हें किसी भी शब्द के लिए संस्कृत ही एकमात्र ग्राह्यभाषा है । कोई भी पारिभाषिक शब्दावली शुरुआत में कठिन ही होती है, किन्तु व्यावहारिक उपयोग की बात अलग है । हम अभिजात भाषा और संस्कृति के आदी हो चुके हैं । अनपढ़, देहाती और मज़दूर-किसानों की भाषा को दोयम दर्जे की मानना अब मानसिकता हो चली है । तो, दूसरी ओर कोर्ट-कचहरी की भाषा और उसकी शब्दावली से तो मुद्दई ही अनभिज्ञ होता है। देश-विदेश से व्यापार एवं राजनीतिक मजबूरियों आदि के कारण स्वदेशी भाषा दब कर रह जाती है । केरल राज्य के गृह मंत्री रमेश चेन्नीथला ने एक प्रश्न का उत्तर देते हुए हिन्दी भाषा का प्रयोग किया इस पर विधानसभा के उपाध्यक्ष एन. सकथन ने आपत्ति उठाते हुए कहा कि सदन में हिंदी भाषा का प्रयोग नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह आधिकारिक भाषा नहीं है । अपने ही देश मे किसी विधानसभा में राष्ट्रभाषा हिन्दी को आधिकारिक भाषा के रूप में दर्जा प्राप्त न हो इससे अधिक शर्मनाक बात क्या हो सकती है? विधायक केंगाम सूर्य राव 16 जून को फेलिन चक्रवात से प्रभावित किसानों की सहायता के संदर्भ में हिंदी में बोल रहे थे तो उड़ीसा विधानसभा के अध्यक्ष निरंजन पुजारी ने हिन्दी में बोलने की इजाजत नहीं दी । हालांकि कुछ दिन बाद उन्होंने हिन्दी में अपनी बात कहने की अनुमति दे दी । नियमों (केरल 305) के कारण या भाषण रिकॉर्डिंग, अनुवाद या रिपोर्टिंग की समस्या (उड़ीसा आदि राज्यों में) आदि के कारण हिन्दी को काफी सहना पड़ता है । मानसिक गुलामी और दृढ़ मनोबल के अभाव में जीनेवाली जनता को अब उबरना होगा, उसे वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हिन्दी की स्थिति और संभावनाओं को जानना समझना होगा । सदियों तक आयरलैंड के लोग अंग्रेजी बोलते रहे, 1922 में जब वे आजाद हुए तब वहाँ मात्र 2 प्रतिशत लोग ही अपनी मातृभाषा जानते-समझते थे । हाँ, गाँव के किसानों, मजदूरों, अनपढ़ या कम पढेंलिखे लोग अपनी भाषा का प्रयोग करते थे । आजादी के बाद लॉर्ड, बड़े-बड़े राजनेताओं, और सरकारी अधिकारियों ने किसानों-मजदूरों से अपनी मातृभाषा सीखी और देखते ही देखते गैलिक भाषा ने अंग्रेजी का स्थान ले लिया । इसी तरह तुर्की जब आजाद हुआ तो राष्ट्रपति अब्दुल कलाम पाशा ने नेताओं, जनप्रतिनिधियों से पूछा कि क्या हमारी भाषा राष्ट्रभाषा बन सकती है ? इस पर कुछ संकोच भाव से समिति ने उत्तर दिया कि आगामी 15 वर्षों में तर्किश राष्ट्रभाषा बन सकती है । पाशा ने कहा कि उन्हें खुशी है कि समिति यह मानती है कि हमारी भाषा भी राष्ट्रभाषा बन सकती है । सभा समाप्त होने से ठीक पहले वे एक तानाशाह की तरह आदेश देते हुए बोले- 15 साल का समय कल के सूर्योदय से पहले खत्म हो जाना चाहिए । और, दूसरे दिन से ही तर्किश राष्ट्रभाषा बन गई । //media.bloomberg.com/bb/avfile/roQIgEa4jm3w अनुसार व्यावसायिक कार्यों में अंग्रेजी के अलावा प्रयुक्त होनेवाली अन्य भाषाओं की सूची दी गयी है, मजे की बात है कि तर्किश मात्र एक ही देश में और केवल 6-7 करोड़ लोगों द्वारा बोली जानेवाली भाषा इसमें शामिल है, भारत का कहीं नाम नहीं है। राष्ट्रभाषा और राजभाषा के रूप में हिन्दी के प्रति स्वाभिमान हो, लघुताग्रंथि से सभी मुक्त हों और विदेशों में बसे गैरनिवासी भारतीय तथा, समस्तहिन्दी प्रेमियों में श्रद्धा का भाव जागृत हो, ऐसे तमाम प्रयास सिर्फ कागज़ों पर ही नहीं, वास्तविक धरातल पर किए जाने चाहिए । हिन्दी को रोजगारपरक भाषा के रूप में विकसित करने के प्रयास हुए हैं लेकिन अभी बहुत कुछ करना बाकी है ।

संख्या की दृष्टि से देखा जाए तो दुनिया भर में अंग्रेजी से ज्यादा (लगभग 70 करोड़) लोग सिर्फ भारत में ही हिंदी का प्रयोग करते हैं। पाकिस्तान, अफगानिस्तान बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, तिब्बत, म्यांमार में लाखों लोग हिंदी बोलते और समझते हैं । मोटे तौर पर कहें तो हिंदी लगभग एक अरब का आंकड़ा पार कर चुकी है । ध्यान रहे कि चीन की मंडारिन भाषा पूरे चीन में नहीं बोली जाती; बीजिंग में बोली जाने वाली भाषा, शंघाई की भाषा से अलग है । चीन में स्थानिक भाषाएँ अलग-अलग हैं । इसतरह हिंदी केवल अंग्रेजी से ही नहीं मंडारिन से भी आगे निकल जाती है । किन्तु, इसके साथ दुखद यह भी है कि कुछ विशेष लोगों द्वारा विशेष एजेंडा के तहत देश के हिन्दीभाषी क्षेत्रों को बाँटने का प्रयास हो रहा है। भोजपुरी, अवधी, ब्रज, मगही आदि को अलग कर दिया जाय तो खड़ीबोली के नाम पर हिन्दी बोलनेवालों की संख्या कितनी रह जाएगी ? ध्यान रहे कि 1952 में हिन्दी प्रयोग करनेवालों की संख्या- दृष्टि से हिंदी विश्व में पांचवे स्थान पर थी । 1980 के आसपास चीनी और अंग्रेजी क़े बाद हिन्दी तीसरे स्थान पर आ जाती है । 1991 की जनगणना में जिन लोगों ने हिंदी को मातृभाषा के रूप में स्वीकार किया, वह संख्या बल देखें तो यह अंग्रेजी भाषियों की संख्या से अधिक है। टोकियो विश्वद्यालय के प्रो. होजुमि तनाका ने सन् 1999 में मशीन ट्रांसलेशन शिखर बैठक में भाषाई आंकड़े प्रस्तुत करते हुए बताया कि चीनी भाषा बोलनेवाले प्रथम स्थान पर और हिन्दी का प्रयोग करनेवाले द्वितीय तथा अंग्रेजी का तृतीय स्थान है । लेकिन, 1998 में यूनेस्को द्वारा भेजी गई प्रश्नावली के आधार पर भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन ने रिपोर्ट तैयार की तथा उन्होंने अपने लेख "संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाएँ एवं हिन्दी" में भी सप्रमाण स्पष्ट किया कि मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में चीनी भाषा के बाद हिन्दी के बोलने वाले अधिक हैं । अमेरीका के सेंट्रल इंटेलीजेंस एजेन्सी ने 2005 की सी.आई.ए. वर्ल्र्ड फैक्ट बुक में कहा है कि धरती पर बोली जानेवाली तमाम भाषाओं में से हिंदी सबसे प्रभावशाली चतुर्थ भाषा है । लेकिन, अब विश्व स्तर पर भी यह स्वीकृत हो चुका है कि हिन्दी विश्व की दूसरी सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषा है । यहाँ पर यह भी ध्यान रखने जैसी बात है कि हिन्दी का प्रयोग क्षेत्र अंग्रेजी से कम लेकिन चीनी(मंडारिन) से अधिक है । नए शोध के अनुसार हिन्दी प्रथम स्थान पर पहुँच चुकी है। डॉ जयंती प्रसाद नौटियाल ने अपने 20 वर्ष के अथक शोध-प्रयासों से सिद्ध किया है कि विश्व में हिंदी प्रयोग करने वालों की संख्या चीनी से भी अधिक है और हिंदी अब प्रथम स्थान पर है । डॉ.नौटियाल ने 2012 के अपने नवीनतम शोध से पुनःसिद्ध किया कि विश्व मे हिंदी जानने वाले सर्वाधिक हैं । चीनी जानने वाले 1050 मिलियन के सामने हिंदी जानने वाले 1200 मिलियन हैं । नवीन भाषाई सर्वे में अनुमान किया गया है कि विश्व में बोली जानेवाली कुल छह हज़ार आठ सौ नौ भाषाओं में से 905 भाषाएँ ऐसी हैं जिनके बोलनेवालों की संख्या एक लाख से कम है । इन दिनों एक तथ्य यह भी सामने आया है कि विश्व की 3 हज़ार भाषाओं और बोलियों का अस्तित्व खतरे में है, ये भाषाएँ और बोलियाँ वर्ष 2050 तक समाप्त हो जाएँगी ।

सभी जानते हैं कि रुपर्ट मरडोक स्टार चैनल लेकर आए थे और उन्होंने अंग्रेजी में बडी धूमधाम से चैनल शुरू किया था । इसके बाद सोनी, जी.टी.वी., जी न्यूज, स्टार न्यूज, डिस्कवरी, नेशनल ज्योग्राफिक आदि टी.वी.चैनलों ने अपने कार्यक्रम शुरु किए, लेकिन बड़ी जल्दी वे यहाँ की भाषा-स्थिति समझ गए और हिन्दी में कार्यक्रम देने लगे । ध्यातव्य रहे कि भारत में व्यापार और कमाई करने के उद्देश्य से आनेवाले सेटेलाइट चैनलों ने शीघ्र ही यहाँ की स्थिति समझ ली और उन्होंने जहाँ अपने कार्यक्रमों का आरम्भ केवल अंग्रेजी भाषा में किया था; वहीं उन्होंने अपनी भाषा नीति में परिवर्तन करके हिन्दी में कार्यक्रम तैयार किए । लेकिन दुख की बात है कि हमारे कुछ राजनेता, कुछ संस्थाएँ एवं कुछ नागरिकों को यह बात अभी तक समझ में नहीं आई । भारतीय लोकतंत्र में आरक्षण, जाति एवं धर्म, के साथ भाषा भी प्रभावी मुद्दा रहा है । अभी कुछ ही दिन पहले राजभाषा विभाग ने सोशल साइट्स पर अंग्रेज़ी के साथ-साथ हिंदी के भी इस्तेमाल की बात क्या कही, मीडिया को मैटर और मसाला मिल गया । अंग्रेजी समाचार पत्रों और टीवी चैनलों ने जमकर खिंचाई की, मानों किसी हिन्दीविरोधी की प्रतिक्रिया हो । राम मनोहर लोहिया जी ने हिन्दी के साथ साथ अन्य भाषाओं के विकास की बात कही थी, और यह सच है कि समस्त भारतीय भाषाओं के विकास में ही हिन्दी का वैभव निहित है । पिछले दिनों यह बराबर एहसास होता रहा कि मु. श्री अखिलेश यादव और मु. श्री उमर अब्दुल्ला को हिन्दी से ज्यादा उर्दू का ख़याल रखते हैं, इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि राजनीति में यह उनके अस्तित्व से जुड़ी बात है । यही बात जयललिता और करुणानिधि की तमिल प्रेम से जुड़ी है । इस बहाने ही सही, यदि तमाम भारतीय भाषाओँ का गौरव बढ़ता है । लेकिन, हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए पं.कमलापति त्रिपाठी के दृढ़मनोबल से रेल मंत्रालय का कामकाज हिन्दी में होने लगा । तत्कालीन मान. मु.मंत्री श्री मुलायमसिंह जी ने सारी फाइलें हिन्दी में भेजने का आदेश दिया और चंद दिनों में उत्तर प्रदेश प्रशासन का कामकाज हिन्दी में होने लगा, इसी प्रकार वे जब रक्षामंत्री थे तो उनके दृढ़ मनोबल और प्रयासों से रक्षा मंत्रालय का कामकाज हिन्दी में होने लगा, यह परंपरा आज भी जारी है । क्या अन्य मंत्रालय या मुख्यमंत्री ऐसा नहीं कर सकते ? भारत की भाषा फुलवारी विविध भाषा-फूलों से सुशोभित हो, इसी में देश का गौरव और कल्याण है । हिन्दी का विरोध किसी भारतीय भाषा से नहीं है— भारतीय भाषा ही नहीं किसी भी भाषा से नहीं है, लेकिन राजभाषा के रूप में जो स्थान अंग्रेजी, तर्किश या मंडारिन को प्राप्त है, वह स्थान हिन्दी को भी मिलना चाहिए ।

'कौन बनेगा करोडपति' की लोकप्रियता को कौन नकार सकता है ? डिस्कवरी, नेशनल ज्योग्राफिक चैनल हिन्दी का बेहतर प्रयोग कर रही हैं । लेकिन, यहाँ एक प्रश्न यह भी उभरता है कि विदेशी सेटेलाइट चेनलों ने व्यापार और कमाई के लिए जिस तरह हिन्दी का उपयोग किया, क्या भारतीयों एवं हिन्दी प्रेमियों को केवल उतना सरोकार ही रखना चाहिए या उससे कहीं आगे बढ़ कर हिन्दी को जीवन में उतारना चाहिए ? साफ है, हमारी कथनी-करनी में अंतर है । सर्वाधिक फ़िल्में हिंदी में बन रही हैं, एक बहुत बड़ा उद्योग के रूप में इसे देखा जा रहा है । फिल्मों के माध्यम से हिन्दी सीखनेवालों की संख्या कम नहीं है । इस क्षेत्र में काफी संभावनाएँ हैं । यह सच है कि विज्ञान और टेक्नोलॉजी से संबंधित आधुनिक तमाम शाखाओं का अभ्यासक्रम और पुस्तकें अंग्रेजी में ही उपलब्ध होती हैं, जिससे हिन्दी माध्यम या किसी भी प्रादेशिक भाषा में माध्यमिक स्तर तक अध्ययन करनेवाला विद्यार्थी न चाहते हुए अंग्रेजी में पढ़ने के लिए विवश होता है । अनुवाद के द्वारा इस समस्या से बहुत कुछ निजात पाया जा सकता है । लेकिन पारिभाषिक शब्दावली या शब्दचयन में हमें बड़ी सूझबूझ और उदारता से काम लेना होगा । भारतीय विद्यार्थी मेडिकल अभ्यास के लिए रशिया, चीन या अन्य देशों में जाते हैं तो उन्हें वहाँ की भाषा सीखनी पड़ती है और वे सीख भी लेते हैं तो अपने ही देश में हिन्दी या अन्य भारतीय भाषा सीखने ऐसी दिक्कत क्यों पैदा होती है ? वास्तव में, सरकारी भाषा नीति और उसके अमलीकरण की बात भी राजनीति से जाकर ही जुड़ती है । भाषा का घटिया राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए । हमारी बन चुकी मानसिकता - कि हमें तमिल या मलयालम या गुजराती-बंगाली नहीं सीखना, अंग्रेजी से काम चला लेंगें या हिन्दी नहीं सीखना क्यों कि अंग्रेजी जानते है— में बड़े परिवर्तन की आवश्यकता है । अपना देश-अपनी भाषा तो हमारा स्वाभिमान है । आज दुनिया के लगभग 120 देशों में भारतीय मूल के लोग रहते हैं, बहुत से लोग अपनी मूलभाषा भूल चुके हैं किन्तु पुनः सीखना चाहते हैं । जो लोग हिन्दी जानते हैं और बोलते हैं उनमें काफी वैविध्य है— बंबइया, मद्रासी और हैदराबादी हिन्दी का अलग ठाठ दिखता है, तो ब्रिटेन की हिंग्लिश इन सबसे अलग दिखती है । उनके लिए भी बेहतर प्रयास किए जाने चाहिए ।

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संदर्भः–

1. देवेन्द्रनाथ शर्माः राष्ट्रभाषा हिन्दी की समस्याएँ तथा समाधान
2. डॉ. विनोद गोदरेः प्रयोजनमूलक हिन्दी
3. गुर्जर राष्ट्रवीणा,विश्व हिन्दी विशेषांक-सित.2007
4. //media.bloomberg.com/bb/avfile/roQIgEa4jm3w
5. www.rajbhasha.nic
6. //hi.wikipedia.org

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डॉ. ओमप्रकाश शुक्ल