Download this page in

राजस्थान का वात-साहित्यः साहित्य की इतिहास आधारित विधा

किसी भी भाषा-साहित्य को उसकी विविध विधाएँ ही समृद्ध बनाती हैं। राजस्थानी भाषा-साहित्य की समृद्धि में उसकी विभिन्न विधाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। रचना-पद्धति की विविधता रचनाकार की अभिव्यक्ति को समृद्ध बनाती है और रचनाकार जिस देश-काल-परिस्थिति का वर्णन करना चाहता है उसके लिये पर्याप्त विकल्प उपलब्ध कराती है। राजस्थानी भाषा का उद्भव नवीं सदी के आसपास होना माना जाता है। तब से राजस्थानी की विकास यात्रा को तीन कालखण्डों में बांटा गया है। नवीं से पंद्रहवीं सदी तक का काल आदिकाल, पंद्रहवीं से उन्नीसवीं सदी का काल मध्यकाल एवं उससे आगे का समय आधुनिक काल। 15वीं से 19वीं सदी की लम्बी यात्रा में राजस्थानी साहित्य का भरपूर विकास हुआ, इस कारण उसे स्वर्णयुग की तरह भी माना जा सकता है।[1] भाषाविद् सम्पूर्ण राजस्थानी भाषा को रचनाओं के शैली के आधार पर चार मुख्य भागों में बांटते हैं – जैन साहित्य, चारण साहित्य, भक्ति साहित्य एवं लोक साहित्य।[2] किसी भी भाषा की तरह राजस्थानी भाषा का साहित्य भी पद्य एवं गद्य दोनों ही स्वरूपों में प्राप्त होता है। राजस्थानी भाषा के आदिकाल में पद्य रचनाओं का ही प्रभुत्व रहा। लेकिन मध्यकाल तक आते-आते पद्य के साथ-साथ गद्य रचनाओं की शुरूआत हो जाती है।[3] उसके पश्चात तो पद्य और गद्य दोनों में ही प्रचुर मात्रा में रचनाएँ प्राप्त होती है। पद्य रचनाओं में रासो, प्रकास, विलास, वेलि, रूपक, निसांणी, झमाल, झूलणा, सिलोका, गीत, दूहा, सोरठा, परची, कवित्त आदि प्रमुख विधाएँ हैं। आदिकाल में सर्वप्रथम रचित ग्रन्थों में रासो ग्रन्थ सबसे पहले की रचनाएँ हैं। इनमें खुम्माण रासो[4] या विसलदेव रासो[5] शुरूआत की रचनाएँ मानी जाती है। इसी प्रकार मध्यकाल तक आते-आते गद्य शैली में रचनाओं का विकास प्रारम्भ होता है। इन रचनाओं में वात, ख्यात, हाल, हकीकत, विगत, कथा, तवारीख, वंशावली, याददास्त, फरसत, बही, पट्टे-परवाने आदि प्रमुख विधाएँ हैं। यद्यपि शिलालेख एवं ताम्रपत्र वगैरह भी गद्य शैली की ही रचनाएँ है किन्तु साहित्येतिहासकारों ने प्राचीनतम गद्य रचना के रूप में एक गोरखपंथी ग्रन्थ और 1336 में संग्रामसिंह रचित बाल शिक्षा व्याकरण को स्वीकार किया है।[6] लेकिन पूर्ण विधा एवं संपूर्ण रूप में गद्य शैली की रचनाओं का सिलसिला सोलहवीं सदी में शुरू होता है। राजस्थानी सबद कोस के रचियता सीताराम लालस लिखते हैं कि,
धीरे-धीरे गद्य का विभिन्न रूपों में विस्तार होने लग गया था। आवश्यकतानुसार विभिन्न विचार- प्रवाह के रूप में गद्य का प्रयोग किया जाने लगा। इस प्रकार सोलहवीं सदी में विभिन्न रूपों में गद्य-लेखन आरम्भ हो चुका था। वात, ख्यात, पीढ़ी, वंशावली, टीका, वचनिका, हाल, पट्टा, बही,शिलालेख, खत आदि के माध्यम से समाज के संघर्षपूर्ण तत्वों, सौन्दर्य-भावनाओं, सृजनात्मक प्रवृत्तियों तथा अन्य कितने ही कार्य-व्यापारों का सुन्दर चित्रण हुआ है।[7]

राजस्थानी भाषा की इन गद्य विधाओँ में से अनेक की विषयवस्तु मुख्य रूप से सामन्ती समाज या शासक वर्ग की गतिविधियाँ रही हैं। जैसे ख्यात-साहित्य विशेष रूप से लिखित इतिहास ग्रन्थ हैं, पीढ़ी या वंशावली भी इतिहास-लेख की तरह ही है[8] , पट्टा-बही या शिलालेख भी इतिहास को समर्पित सामग्री का निर्माण करते हैं। इसी प्रकार विगत, हाल, हकीकत आदि भी इतिहासाधारित साहित्य हैं।[9] इन्हीं में वात साहित्य एक महत्वपूर्ण साहित्यिक विधा है जो कि विषयवस्तु के संदर्भ में सम्भवतया सर्वाधिक विविधता लिए हुए है।

राजस्थानी का वात-साहित्य समृद्धता की दृष्टि से सबसे अधिक महत्वपूर्ण गद्य रचनाएँ हैं। वात-साहित्य की विषय-वस्तु का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक रहा है। शासक वर्ग से लेकर आम जन-जीवन वात-साहित्य का संदर्भ रहा है इसलिये यह शैली न सिर्फ साहित्य को समृद्ध बनाती है बल्कि इतिहास-लेखन के लिये भी अत्यन्त महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध कराती है। राजस्थानी साहित्य एवं इतिहास के विद्वान डॉ. नारायणसिंह भाटी लिखते हैं कि,
पहले जहाँ इतिहास की खोज व अध्ययन के लिये केवल राजस्थानी ख्यातें ही महत्वपूर्ण मानी जाती थीं वहाँ अब वात, विगत, हकीकत व रुक्के परवानों आदि का भी महत्व स्वीकार किया जाने लगा है क्योंकि इतिहास केवल शासकों के सन्धि-विग्रह और चढाईयों तक ही सीमित न रह कर समाज की नाना प्रवृत्तियों और उनमें परिवर्तन लाने वाली प्रेरक शक्तियों का परिचय प्राप्त करना भी अपना उद्देश्य समझता है। वास्तव में जनजीवन के समीप पहुँचने और पूरे समाज की गतिविधियों को समझने-जोखने का यही सही रास्ता है। इस प्रकार वात-साहित्य का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है और इतिहास व साहित्य की खोज व समझ एक दूसरे के पूरक हो गए हैं।[10]

राजस्थानी वात-साहित्य को डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी मुगलों की किस्सागोई या दास्तानगोई का क्षेत्रीय भाषाई संस्करण की तरह मानते हैं[11] किन्तु यह एक भ्रामक अवधारणा है क्योंकि राजस्थान में बातों को कहने की परम्परा उससे भी पहले से चली आ रही है। यद्यपि यह सही है कि लिखित स्वरूप में सत्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध से ही वात-साहित्य उपलब्ध हो रहा है[12] किन्तु इससे यह नहीं माना जा सकता कि, यह मुगलों की किस्सागोई या दास्तानगोई का महज भाषाई संस्करण है। वस्तुतः बातों की परम्परा पहले मौखिक स्वरूप में रही थी। बातों को कहने की परम्परा राजस्थान में सामन्तीयुग के प्रारम्भ से रही होगी और तब सम्भवतया ये एक रोजगार के रूप में भी विकसित हुआ होगा। रानी लक्ष्मीकुमारी चुण्डावत इस संदर्भ में लिखती हैं कि, बातों को कहने वाले लोगों को राजा-महाराजा इज्जत और रोजगार देकर अपने यहाँ रखते थे। इनको बड़ा सम्मान मिलता था, सभा के समक्ष ये लोग अपनी कला का प्रदर्शन करते थे और इतिहास की शिक्षा ज्यादातर इन बातों के माध्यम से दी जाती थी। इस प्रकार ये बातें राजस्थानी भाषा-साहित्य की मौलिक शैली के रूप में विकसित हुई। इन पर मुगल किस्सागोई या दास्तानगोई का असर भले ही पड़ा हो किन्तु राजस्थानी में वात-साहित्य सम्बन्धी रचनाएँ मुगलों के भारत में आने से पहले ही निर्मित होती रही है।[13]

वात-साहित्य का वर्गीकरण करते हुए साहित्येतिहासकारों ने कथानक के आधार पर वर्गीकरण करते हुए ऐतिहासिक एवं अर्द्ध-ऐतिहासिक बातों का उल्लेख किया है। ऐतिहासिक बातों को इतिवृत्त के रूप में लिखा गया वहीं अर्द्ध-ऐतिहासिक बातों में या तो पात्र ऐतिहासिक होते हैं या फिर घटनाएँ। इस प्रकार इन दोनों प्रकार की बातों का सीधा सम्बन्ध ऐतिहासिकता से है, चाहे वो न्यूनाधिक रूप में ही क्यों ना हो। हालांकि ऐतिहासिक एवं अर्द्ध-ऐतिहासिक बातें भी साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है किन्तु इन दोनों के अतिरिक्त जितने भी प्रकार की बातें हैं वे विशुद्ध रूप से साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मानी गई हैं, क्योंकि इनमें तथाकथित रूप से ऐतिहासिक पात्रों या घटनाओं का प्रत्यक्ष रूप से वर्णन प्राप्त नहीं होता। किन्तु यह कहना भी अनुचित होगा कि बाकी सभी प्रकार की बातें इतिहास को प्रस्तुत नहीं करती।

वास्तव में जिन्हें ऐतिहासिक एवं अर्द्ध-ऐतिहासिक बातें माना जाता है वे मूल रूप से शासक वर्ग का या फिर राजनीतिक इतिहास को प्रस्तुत करती हैं। इनके जो पात्र या घटनाएँ हैं वे प्रत्यक्ष रूप से वास्तविक हैं। अन्य प्रकार की बातों में चाहे सीधे रूप में ऐतिहासिक पात्रों एवं घटनाओं को नहीं रखा गया है किन्तु उनकी विषयवस्तु, कथानक आदि समकालीन समाज एवं संस्कृति का चित्रण अवश्य करते हैं।

अतः इस विधा को महज कहानी या किस्सागोई या फिर शासक वर्ग को खुश करने के लिये रचित कल्पना साहित्य ही नहीं कहा जा सकता बल्कि इसकी व्यापकता और महत्व इससे कहीं अधिक है। वात-साहित्य मूल रूप से दो तरह से प्राप्त होता है। एक, ख्यात साहित्य के एक अंग या प्रकरण के रूप में और दूसरा, स्वतन्त्र रूप से रचित बातें। ख्यात में जिन बातों का समावेश किया गया है वे सभी ही बातें ऐतिहासिक बातें हैं क्योंकि ख्यातें मूल रूप से इतिहास ग्रन्थ ही हैं।[14] ख्यात साहित्य के अंग या प्रकरण के रूप में प्राप्त होने वाली बातों के श्रेष्ठ उदाहरण हमें मुंहता नैणसी री ख्यात एवं बांकीदास री ख्यात में देखने को मिलते हैं। इसी प्रकार स्वतन्त्र रूप से भी बातों की रचना हुई है जिनमें सभी प्रकार की बातों का समावेश होता है, जैसे – ऐतिहासिक, अर्द्ध ऐतिहासिक, काल्पनिक एवं पौराणिक, प्रेम-प्रधान, हास्य-प्रधान, नीति-प्रधान आदि।

वात साहित्य एवं इतिहास

वात साहित्य के उद्भव, प्रकृति एवं प्रकार के उपरोक्त विवेचन के पश्चात उसके इतिहास के साथ संबंध को भी देखना आवश्यक है। जिन बातों को ऐतिहासिक या अर्द्ध ऐतिहासिक बातों की श्रेणी में रखा गया है वे बातें मुख्य रूप से किसी ना किसी राजनीतिक घटना यथा – किसी शासक का अन्य राज्य से संघर्ष, मित्रता अथवा किसी सामन्त या जागीरदार का संघर्ष आदि को दर्शाती हुई ये बातें अनेक बार देश-काल की इतिहास की अनिवार्य शर्तों को पूरा करती हैं। मुख्य रूप से मध्यकालीन सामन्ती राजस्थानी समाज की साहित्यिक रचनाओं के रूप में इन बातों को देखा जा सकता है। ये बातें ना सिर्फ सामन्ती समाज के ढाँचे के विभिन्न पहलुओं का विवरण प्रस्तुत करती हैं बल्कि समकालीन छोटी-छोटी घटनाओं को जिनको कि समकालीन एवं परवर्ती इतिहासकारों (राजनीतिक इतिहास लेखन) द्वारा देखा नहीं गया या फिर महत्वपूर्ण नहीं माना गया इस प्रकार की घटनाओं को इतिहास में स्थान दिलवाने का एक महत्वपूर्ण स्रोत हैं। यहाँ हम इसी प्रकार के कुछ उदाहरणों के द्वारा वात-साहित्य का इतिहास के साथ संबंध देखने का प्रयास करेंगे।

वात-साहित्य और इतिहास की जब चर्चा की जाती है तो सबसे पहले सत्रहवीं सदी के राजस्थान के इतिहासकार मुहणोत नैणसी[15] का जिक्र आवश्यक हो जाता है। वस्तुतः मुहणोत नैणसी ने दो ग्रन्थों की रचना का कार्य किया था। इन दो में से एक की रचना स्वयं नैणसी ने की थी जिसे हम ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ के रूप में जानते हैं। दूसरा ग्रन्थ वह तैयार करना चाहता था किन्तु दुर्भाग्यवश वह उस ग्रन्थ को पूर्ण नहीं कर सका और उसकी संकलित सामग्री के आधार पर जो ग्रन्थ तैयार किया गया वो था ‘मुहणोत नैणसी री ख्यात’। यद्यपि ख्यात और वात दोनों में बुनियादी अन्तर है। ख्यात रचनाओं में ऐतिहासिक चरित्रों, घटनाओँ और प्रसंगों का वर्णन मिलता है और वात में ऐतिहासिक एवं काल्पनिक दोनों प्रकार की रचनाएं मिलती है।[16] इसके अतिरिक्त वात एवं ख्यात में फर्क के लिये नैणसी री ख्यात का ही एक उदाहरण लिया जा सकता है। नैणसी ने अपने संकलन में जो सामग्री इकठ्ठी की था उसमें ख्यात एवं वात के अलग-अलग शीर्षकों से सामग्री को विभाजित किया था। नैणसी री ख्यात का ही एक उदाहरण लें तो एक शीर्षक है ‘वात राव सलखेजीरी’। यह एक छोटी सी बात है जिसमें मारवाड़ के राव सलखा के पुत्र मल्लिनाथ के जन्म के विषय की बात है। मूल रूप से यह बात एक काल्पनिक या मौखिक-इतिहास का स्वरूप है। एक अन्य ‘वात राव सीहोजी रे वंश री’ है जिसमें मारवाड़ के राठौड़ वंश के मूल पुरूष राव सीहा के वंशजों की सूचि दी हुई है। जिसमें कल्पनात्मकता का पुट नहीं है बल्कि नामावलियाँ और सूचनाएँ ही अंकित है। किन्तु इस प्रकार के उदाहरण इसमें कम ही देखने को मिलते हैं। अन्यत्र जहाँ-जहाँ वात के शीर्षक से रचनाएँ हैं वहाँ वर्णनात्मकता और रोचकता की प्रकृति देखने को मिलती है। वहीं जहाँ-जहाँ ख्यात शीर्षक की रचनाएँ हैं वहाँ नाम, स्थल, समय आदि को अधिक महत्व दिया गया है। इस प्रकार स्वयं नैणसी वात एवं ख्यात में अन्तर करता नजर आता है। यद्यपि वह वात नामक रचनाओँ को इतिहास में महत्वपूर्ण मानता है इसलिये अपने इतिहास विषयक संकलन में इन वातों तो वह शामिल कर रहा है। इन्हीं वातों के माध्यम से नैणसी अपने संकलित इतिहास की टूटी कड़ियों को जोड़ने का प्रयास किया है।

एक अन्य उदाहरण ‘बांकीदास री ख्यात’[17] का लिया जा सकता है। यह ख्यात उन्नीसवीं सदी के मध्य में मारवाड़ के राजकवि बांकीदास आशिया ने तैयार की थी। मूल रूप से यह एक दैनिक डायरी की तरह थी। जिसमें बांकीदास आशिया ने अपनी याददास्त के रूप में अनेक घटनाएँ एवं तथ्य संकलित किये थे। इन घटनाओँ और तथ्यों को बांकीदास बातों के शीर्षक के रूप में रखता है। इन्हीं बातों के संकलित रूप को बांकीदास री ख्यात के रूप में हम जानते हैं। लगभग 2000 स्फुट छोटी-बड़ी बातों का यह संग्रह मूल रूप से इतिहास का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। इसमें समकालीन राजपूताना के लगभग सभी ही प्रमुख राजवंशो के विषय में बातों का संकलन है। जो कि इन राजवंशो को इतिहास की जानकारी देती हैं। इन बातों में इन महज इन राजवंशों की वंशावलियाँ ही नहीं दी गई हैं बल्कि इनसे संबंधित अनेक अन्यान्य जानकारियाँ दी गई है। राजपूतां री वातां, राठौडां री वातां, गहलोता री वातां, यादवां री वातां, कछवाहां री वातां, पड़िहारां आदि री वातां, चौहाणां री वातां आदि शीर्षकों से संग्रहित इस सामग्री में ज्यादातर वंशावलियाँ या नामावलियाँ मिलती है किन्तु साथ ही इन नामांकित व्यक्तियों के संबंध में महत्वपूर्ण सूचनाएँ भी अंकित हैं जो कि इतिहास के लिये महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध कराती है। डॉ. नारायण सिंह भाटी इस विषय में लिखते हैं कि,
इस ख्यात में यहाँ के लोगों की धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक मान्यताओं के बारे में अनेक उपयोगी संकेत मिलते हैं जो मध्यकालीन समाज के समाजशास्त्रीय अध्ययन और उस समय की जातियों के आपसी संबंध तथा धर्म परिवर्तन आदि के कारणों पर भी प्रकाश डालते हैं तथा यहाँ के लोगों के रहन-सहन, रीति-रिवाज,वस्त्र-आभूषण, खान-पान, आचार-विचार आदि की जानकारी भी देते हैं। कुछ बातें ऐसी भी हैं जो बादशाहों,वजीरों, नवाबों आदि के बारे में भी रोचक जानकारी प्रस्तुत करती हैं। भौगोलिक विषय से संबंधित बातें, गाँवों के नामकरण, अन्य गाँवों से उनकी दूरी और भोगोलिक विशेषताओं पर प्रकाश डालती हैं। इस प्रकार इन छोटी-छोटी बातों में अनेक प्रकार की जानकारियाँ हैं, जो महत्वपूर्ण संकेतों का काम देती है।[18]

नैणसी और बांकीदास की ख्यातों में आई इन बातों के अलावा भी अनेक अन्य स्वतन्त्र शीर्षक से वातों की रचना हुई है जो कि इतिहास विषयक वातों की श्रेणी में आती हैं। जैसी – राव रिणमल री वात, राव जोधाजी रे बेटां री वात, रावल राणाजी री वात[19] , प्रताप महोकम सिंह री वात, राजा जयसिंह री वार्ता, सूरे खींवरे कांधलोत री वात आदि। ये वातें ना सिर्फ समकालीन राजनीतिक घटनाओं को उजागर करती हैं बल्कि उस इतिहास को भी दर्शाती हैं जो कि नामावलियों या वंशावलियों के लेखन कार्य के बाद कहीं छुप जाता था और महत्वपूर्ण नहीं माना जाता था। यद्यपि यहाँ इसका ध्यान रखना आवश्यक है कि इन वातों को अन्य स्रोतों के माध्यम से जाँच लेना आवश्यक है क्योंकि इनकी रचना का उद्देश्य साहित्यिक अधिक था ऐतिहासिक कम।

इस प्रकार इन दो उदाहरणों के साथ यह देखा जा सकता है कि वात साहित्य में जहाँ कल्पना का पुट होता है वहीं इनकी विषयवस्तु कहीं ना कहीं किसी ना किसी समाज या समय को ही इंगित कर रही होती है। इसलिये ये वस्तुतः साहित्य का अंग होने के बावजूद इतिहास के लिये महत्व की रचनाएँ हैँ। साथ ही अब जबकि इतिहास महज शासकों के परिचय और उनके कृतित्व से बाहर आ चुका है और इतिहास अब भूतकाल के जन-मानस के कार्यों और उनके जीवन की झांकी को दिखाने, समझने का एक साधन बन रहा है तब इस प्रकार के सामाजिक साहित्य का महत्व और भी बढ़ जाता है।

Works Cited :
अमरावत विक्रमसिंह, ख्यात साहित्य और इतिहास लेखन, पृ.25-26
लालस सीताराम, राजस्थानी सबद कोस – प्रथम खण्ड, पृ. 84
वही, पृ. 184
शुक्ल रामचन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 33
लालस सीताराम, राजस्थानी सबद कोस – प्रथम खण्ड, पृ. 93-94
लालस सीताराम, राजस्थानी सबद कोस – प्रथम खण्ड, पृ. 184-185
वही, पृ. 189
भाटी नारायण सिंह, राजस्थानी वात साहित्यः एक अध्ययन (परम्परा – भाग – 42-43), 1976, पृ. 4
भाटी हुकमसिंह, राजस्थानी साहित्य की विधाएँ और लेखन (परम्परा – भाग – 158-59), 2009
भाटी नारायण सिंह, राजस्थानी वात साहित्यः एक अध्ययन (परम्परा – भाग – 42-43), 1976, भूमिका
लालस सीताराम, राजस्थानी सबद कोस, भाग- 1, पृ. 189
दईया पूनम, राजस्थानी वात साहित्य, राजस्थानी साहित्य अकादमी उदयपुर, 1969, पृ. 11
लालस सीताराम, राजस्थानी सबद कोस, भाग- 1, पृ.
ख्यात साहित्य के विषय में विस्तृत जानकारी के लिये देखें - अमरावत विक्रमसिंह, ख्यात साहित्य और इतिहास लेखन
मुहणोत नैणसी और उसके ग्रन्थो के विषय में अधिक जानकारी के लिये देखें – इतिहासकार मुहणोत नैणसी और उसके इतिहास ग्रन्थ, डॉ. मनोहरसिंह राणावत, जोधपुर, 1981.; मुहणोत नैणसी- इतिहासविद् मुहणोत नैणसीः व्यक्ति एवं कृतित्व, डॉ. नारायणसिंह भाटी (संपादक), परम्परा, अंक-39-40, 1974.; नैणसी री ख्यात का संपादन डॉ. बदरी प्रसाद साकरिया ने चार भागों में किया था जो राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान से प्रकाशित हुए हैं। इसके अलावा श्री रामनारायण दूगड़ ने ख्यात का अनुवाद किया था जिसका संपादन गौरीशंकर हीराचन्द औझा ने किया था। जो कि सर्वप्रथम 1934 में प्रकाशित हुआ था।
दईया पूनम, राजस्थानी वात साहित्य, राजस्थानी साहित्य अकादमी उदयपुर, 1969, पृ. 18
बांकीदास री ख्यात का संपादन प. नरोत्तमदास स्वामी ने किया जो कि राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान से सन् 1989 में प्रकाशित हुई।
भाटी नारायणसिंह, ऐतिहासिक इबारत के संग्रहकार बांकीदास, [राजस्थान के इतिहासकार – डॉ. हुकमसिंह भाटी (संपा)], प्रताप शोध प्रतिष्ठान, उदयपुर,1988, पृ. 35-36
रावल राणा जी री वात का संपादन डॉ. हुकमसिंह भाटी ने किया जो कि प्रताप शोध प्रतिष्ठान उदयपुर से सन् 1993 में प्रकाशित हुई।

विक्रमसिंह अमरावत, इतिहास एवं संस्कृति विभाग, महादेव देसाई ग्रामसेवा महाविद्यालय, सादरा संकुल गूजरात विद्यापीठ, vsamarawat@gmail.com +91-9512176710