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कुंकणा भाषा के लोक साहित्य में पुराकल्पन/मिथक

ग्रीक शब्द ‘Methos’ (मुथोस) और लेटिन शब्द Mythus (मिथस) से अंग्रेजी में ‘Myth’ शब्द बना है । ‘Myth’ को हिंदी में पुराकल्पन या मिथक मान लिया गया है । जिसका अर्थ है, पौराणिक कथा, परंपरागत कथा, कल्पित कथा, प्राचीन लोककथाएँ । ‘पौराणिक कथा के तत्त्व / अंश को नयें तरिके से कहा जाने को हम मिथक कह सकते हैं । या प्राचीन पुराकथा-प्रसंग के किसी घटना, पात्रों, विषय-अंशों को प्रवर्तमान समय में सहानुभूति के साथ प्रस्तुत करते हुए उसमें निहित मानवीयता को उजागर करना भी पुराकल्पन है ।’

“प्रकृति के साथ अपने संबन्धों को, अनुभवों को रुपक या रुपककथा के रुप में वह अवतरित होता है । देव-देवियों के अलौकिक सत्ता के प्रभाव के तले जीवित मानव समूह के लिए यह कथा-वार्ता बडी सोगाद बनती है । मानव सभ्यता के विकास के इस मोड पर यूं ही पुराकल्पन का उद्भव हुआ । प्रकृति के साथ उनका मनोजगत भी क्रमशः संकलित होने लगा । सूर्य, चंद्र, तारा, ग्रहो, प्रकाश-अंधकार, पशु-पंछी, पर्वत, नदी, सागर, जल, अग्नि, वृक्ष जैसे तत्व भी धीरे-धारे उनकी जेतना में प्रवेश पाते हैं, उनके बारे में वह विमर्श करने लगता है । मृत्यु और जीवन भी उनके रस के विषय बनते हैं । यह पार्थिव-अपार्थिव तत्वों, पंचेन्द्रियों द्वरा जितने और जिस रुप में स्पर्शे अथवा तो मनोगत में वे अनुभवों का जिस-जिस रुप में चित्र उभरता गया, उनको उसी रुप में वह वही रुपकों-प्रतीकों द्वरा मृतरुप देता गया । लोकशास्त्र के तजज्ञों और नृवंशशास्त्रियों ऐसा मानते हैं कि ‘पुराकल्पन’ (Myth) इसमें से अवतरित हुए ।”१ यूं तो विश्व के कई विद्वानों ने भिन्न-भिन्न कई मत इसके बारे में रखे हैं परंतु इस अवधारणा से लोक साहित्य में पुराकल्पन या मिथक का रुप स्पष्ट हो जाता है । अतः यहाँ पुराकल्पन या मिथक क्या है ? इस गहन विषय के बारे में चर्चा करना हम उचित नहीं मानते । यहाँ हम कुंकणा भाषा के लोक साहित्य में पुराकल्पन को देखने का प्रयास करेंगे ।

‘राजा मानसिंह और साळवां राणी’ की कथा में आरंभ से अंत तक की कथा में हमें कई जगह पुराकल्पन का चित्रण दिखाई देता है, जैसे कथा के आरंभ में -
“पहेला नमीन, पहेला नमीन सरस्वतीदेवीला केलां वअ.....
दुसरां नमीन, दुसरां नमीन महादेव गुरुला केलां वअ.....
तीसरां नमीन सहदेवला, ईन्द्रदेवला, सेन्द्रदेवला केलां वअ.....
... ... ... ... ... ... ... ... ... ... .... ...,
ए आयकजा हो देवां, तुमने मांडीवरना, मां नादान बाळ, इ कथा लावुला बीसना तअ.. भूलचूक क्षमा करजा वअ...”२
अर्थात, ‘प्रथम नमन सरस्वतीदेवी को, दूसरा नमन महादेव गुरु को, तीसरा नमन सहदेव, ईन्द्रदेव को......., हे देव, तुम्हारे गोद का, मैं तुम्हारा नासमझ पुत्र, मैं कथा कहने बेठा हूँ, गलतियाँ हो जाएँ तो क्षमा करना ।’ इस कथा में संस्कृत ग्रंथो की परंपरा की तरह कथा का आरंभ ईष्टदेव की स्तुति से हुआ है । वैसे ही कुंकणा भाषा में कई प्रचलित लोककथाओं का आरंभ ईष्टदेव की स्तुति से होता हुआ दिखाई देता है । इस कथा मंष आगे की एक घटना में पुराकल्पन का वर्णन आता है, जिसमें महाभारत कथा में द्रौपदी चीरहरण प्रसंग अंश को अलग ही रुप में प्रस्तुत होता हुआ दिखाई देता है । जैसे -
“देवसभा खोचोखीच भरायनेल आहा.... ..
साळवां नाचुला मंडनी रे, नाचुला मंडनी रे,
देवद्वारका मधीनां जीगनां जी ।
मानसिंह मृदंगी वाजवअ रे, मृदंगी वाजवअ रे,
देवद्वारका मधीनां जीगनां जी ।
नीं रहनां कपडांना भान, नीं रहनां कपडांना जातनां भान, नाचतां नाचतां चोळीबंध तुटना, कटीबंध तुटना, आज मजअ साळवां राणी नग्न हुयनी । आंगावर एक पण जातनां कपडां नीं रहनांत । साळवां राणी आइसने खोळे जनमनेल तीसी ज हुयनी ।
साळवां नग्न झाली रे, नग्न झाली रे,
देवद्वारका मधीनां जीगनां जी ।
ईन्द्रदेव, सेन्द्रदेव, सहदेव, महादेव, नारणदेव, वारदेव, इजदेव हेरी रहनांत । देवा देवा । साळवां राणी नग्न हुयनी । आज मजअ देव द्राकानी मर्यादा लोपायनी । देव द्वारकानी इज्जत जाल ।
मृदंगी विरा, मृदंगी बंध कर । मृदंगी आयकअ नीं ।
साळवां राणी, नाचुला बंधकर । साळवां आयकअ नीं ।
वारदेवनीं बाजी हाथमां लीधी । फरफरफरफर वारा आना । साळवांना फडकां उडवांत । कटीबंध बांधा, चोळीबंध बांधा । हन् मृदंगीनीं मृदंग बंध के । राणी साळवांनीं नाचुला बंध के ।”३
अर्थात, ‘देवों की सभा भरी है । सभा में मानसिंह मृदंग बजा रहे हैं और नर्तिका साळवां नाचने लगी है । वे दोनों नाचने में इतने मग्न हो जाते हैं कि नाचते-नाचते साळवां राणी के तन पर पहने हुए सारे आभूषण एवं कपड़े निकल जाते हैं और साळवां नग्न हो जाती है । जिसका उन्हें पता तक नहीं चलता है और वह तो नाचे ही जा रही है, मानसिंह मृदंग बजाते ही जा रहे हैं । सभा में ईन्द्रदेव, पवनदेव, महादेव, सहदेव आदि बैठे हैं वह यह दृश्य देखकर कहने लगते हैं कि यह ठीक नहीं हो रहा, कोई उन्हें रोक लो । यहाँ दोनों को रोकने का प्रयास विफल होता है तब पवनदेव अपनी शक्ति से पवन बहाता है और साळवां के नग्न हुए तन पर एक बाद एक, सारे आभूषण एवं कपड़े पहना देता है । फिर मृदंगी मृदंग बजाना बंध करते हैं और साळवां का नाचना बंध होता है ।’ जब महाभारत की कथा में द्रौपदी चीरहरण प्रसंग को सभा में बैठे कई सज्जन लोग मौन धारण किए देखते जाते हैं तब कृष्ण द्रौपदी के चीर पूरते हैं और द्रौपदी की लाज बच जाती है । यहाँ तो नर्तिका साळवां जब नाचते-नाचते पूर्णतः नग्न हो जाती है तब सभा में बैठकर नृत्य का लुप्त उठा रहे सभी देवों को एहसास होता है कि यह अच्छा न हुआ और फिर पवनदेव अपनी शक्ति से चीर पूरते हैं । दूसरी ओर मृदंगी और नर्तिको इस घटना का कुछ भी पता नहीं चलता है ।
कुंकणा जनजाति में मावली या डुंगरदेव (पर्वतदेव) की पूजा के वक्त ‘उना’ कथा कही जाती है । इस के आरंभ में पुराकल्पन का चित्रण हुआ है, जैसे -
“धवळेगीरवर रहनार महादेवला एक वखत मीरत भोमकावर जीं चाली रहनां हां तीं हेरुला जावलाना विचार आना । महादेव तैयार झाला । तेनी मीरत भोमकाना रस्ता धरा । जातां जातां महासती जठअ तप करअती ती जागा आनी । महासती नीजमां हती । महादेवनीं महासतीमाता कडअ नजर करी । महासतीमाता सोळमां सेवरी हन् हजारमां नवरी हती । काय भगवाननां करनां महासतीला हेरी हन् महादेवनां मदन खरनां । मदन खरअ ती ठीक नी मीळअ । धरतीवर पडअ तअ मदन नकामा बगडीलल ।....... हन् आतां ए मदननां काय करुला तेनां विचारुला लागना । खरील मदन दढेमां ठरवां हन् मागुन तीं मदन महासतीने नाकमां उभरी दीधां । काय भगवाननी करणी, मदन होतां सतीने नाकमां गेलां हन् देवना करमे हन् शरीरना धरमे सतीना गर्भ ठरना ।”४
अर्थात, ‘एक बार दवलेगीर रहते महादेव को मृत्युलोक में क्या चल रहा यह जानने की ईच्छा हुई । इसलिए वे मृत्युलोक के रास्ते चल पडे । चलते-चलते महासती माता तप कर रही थी वह स्थल आया । महासती माता नींद में थी । उनका बहुत ही सुंदर रुप देखकर महादेव का वीर्य स्खलन हो गया । वीर्य स्खलन होना अच्छा नहीं है । धरती पर गिर जायेगा तो वीर्य बिना काम का हो जायेगा । अब इस वीर्य का क्या करुँ ? यह सोचकर उन्होंने तुरंत उसे पत्ते में भरकर महासती माता के नाक में डाल दिया । जिससे महासती माता गर्भ रह जाता है ।’
‘कुंकणा देवकारें’ कथा के आरंभ में एक के बाद एक सभी देवों का स्मरण किया जाता है, वहाँ पर राम और महादेव को प्रणाम किया जाता है । जैसे, “फंडवा - ४०
सुरेदेव कायच व करल... सुरेदेव बयला व गवस.... सुरेदेव मसुटी गवस.... सुरेदेव कायना गवस.. सुरेदेव नाथी व गवस... सुरेदेव दोराना गवस... सुरेदेव नांगरा व गवस...”५ अर्थात, सूर्यदेव क्या कर रहे हैं.. सूर्यदेव बैल और उसे बांधने के लिए रस्सी ढूँढ रहे हैं । फिर खेत में जोतने के लिए हल ढूँढ रहे हैं ।
कुंकणा जनजाति में ‘देवी शादी’ उत्सव-प्रसंग मनाया जाता है उस वक्त देवीगीत गाए जाते हैं । जिसमें भिन्न-भिन्न देवों को शादी का न्योता दिया जाता है, वहाँ पर पुराकल्पन दिखाई देता है जैसे–
“चांद-सुरेदेवानां नावां व नींगल..., चांद-सुरे व तुं कठ जाय दपील....
कृष्नुंदेवानां नावां व नींगल..., कृष्नुंदेवा व तुं कठ जाय दपील....
विष्णुदेवानां नावां व नींगल..., विष्णुदेवा व तुं कठ जाय दपील....”६
अर्थात, ‘चन्द्र-सूर्य देव, कृष्णदेव, विष्णुदेल आदि का नाम निकला है, तो ये सभी देव कहाँ जाकर छूपेंगे ?’ यहाँ देवों को सगे-संबन्धियों की तरह दिखाया गया है । क्योंकि सगे-संबन्धी तो छूपकर भी नहीं छूप सकते है । शादी का न्योता दिया गया है तो आना ही पडेगा ।
कुंकणा जनजाति शादी ब्याह में सुबह के वक्त गाए जाने वाले एक गीत में पुराकल्पन का सुंदर चित्रण हुआ है, जैसे –
सुरेदेवु नीगला,
सुरेदेवु नीगेला व मयना दुनेला उजेड,
दुनेला उजेड व मयना दुनेला उजेड व ।
चन्द्रदेवु नीगला,
चन्द्रदेवु नीगेला व मयना दुनेला उजेड,
दुनेला उजेड व मयना दुनेला उजेड व ।
शंकरदेवु नीगला,
शंकरदेवु नीगेला व मयना दुनेला उजेड,
दुनेला उजेड व मयना दुनेला उजेड व ।
ब्रह्मदेवु नीगला,
ब्रह्मदेवु नीगेला व मयना दुनेला उजेड,
दुनेला उजेड व मयना दुनेला उजेड व ।
क्रिष्नादेवु नीगला,
क्रिष्नादेवु नीगेला व मयना दुनेला उजेड,
दुनेला उजेड व मयना दुनेला उजेड व ।७
अर्थात, सुबह सूर्यदेव निकला है जिससे सारे जहाँ में प्रकाश फेल गया है । वैसे ही रात के वक्त चंद्र से । उसी तरह शंकरदेव, ब्रह्मादेव और कृष्णदेव आदि देवों के आने से प्रकाश-तेज फैल जाता है । यहाँ पुराकल्पन में जीवन का संचार होता हुआ दिखाई देता है ।
कुंकणा जनजाति में गाए जाने वाले शादी ब्याह का ही एक दूसरा गीत देखते हैं, जिसमें पुराकल्पन का विनिमय बहुत ही अच्छी तरह से हुआ है –
राम कळे तोडअ (२)
सीता माळी व गुफअ (२)
पहली माळअ व (२)
गांव देवीचे गळअ.... (२)
दूसरी माळअ व (२)
गांव मारुतेलअ व.... (२)८
अर्थात, कहा गया है कि ‘राम क्या कर रहे हैं राम पुष्प तोड रहे हैं । सीता क्या कर रही है ? सीता फूलो की माला बना रही है । पहली माला किसके लिए ? पहली माला गांवदेव के लिए । दूसरी माला किसके लिए ? दूसरी माला हनुमान के लिए ।’ यहाँ शादी ब्याह में जो स्त्री-पुरुष दूल्हा-दुलहन के लिए फूलों की माला बना रहे हैं, उनका राम-सीता के रुप में साधारणीकरण किया गया है ।
कुंकणा जनजाति के शादी ब्याह के एक और गीत में पुराकल्पन का सुंदर चित्रण हुआ है, जैसे –
“राम लक्ष्मण दोगो बंधु, शिकारेला गेले व (२)
शिकारेला नाही वअ (२) धरातरीदेवीचा लगन झाले,
लगनाला गेले वअ (२) राम लक्ष्मण....”९
अर्थात, स्त्रियाँ गाती है कि राम और लक्ष्मण दोनों भाई शिकार करने गये हैं । शिकार नहीं, वह तो धरती माता की शादी ब्याह में गये हैं ।
मूलत: कुंकणा भाषा के लोक साहित्य में पुराकल्पन का चित्रण पुरी तरह से श्रध्दा-आस्था से जूड़ा हुआ है और वह भी सहज मानवीय भावों के साथ समाज में आदर्श स्थापित करने का प्रयास हुआ है, ऐसा कहने में अतिश्योक्ति न होगी ।

संदर्भ ग्रंथ :

  1. पुराकल्पन, प्रविण दरजी, प्र.सं. – १९८९, प्रकाशक- युनि. ग्रंथ निर्माण बोर्ड, अमदावाद, पृ.क्र. ७
  2. कुंकणा काथाओ, डाह्याभाई वाढु, प्र.सं. - २०००, प्रकाशक- साहित्य अकादेमी, दिल्ही, पृ.क्र. ३७
  3. वही, पृ.क्र. ६४,६५,६६
  4. वही, पृ.क्र. १४५
  5. कुंकणा देवकारें, कमलेश गायकवाड, दिपेश कामडी, प्र.सं. - २०१४ प्रकाशक- स्वयं, पृ.क्र. ७६
  6. कुंकणा लोकसंस्कृति अने साहित्य, डॉ. कमलेश आर. गायकवाड, प्र.सं. – २०१७ ज्ञानमंदिर प्रकाशन, अमदावाद, पृ.क्र. ६७,६८
  7. डांगी लग्नगीतो एक अभ्यास, डॉ. प्रभु आर. चौधरी, प्र.सं. - २०१२ पाश्व पब्लिकेशन, अमदावाद, पृ.क्र. १०
  8. वही, पृ.क्र. १११
  9. वही, पृ.क्र. १२२

रोशनकुमार पी. चौधरी , पीएच.डी. शोधार्थी, वीर नर्मद दक्षिण गुजरात युनिवर्सिटी सुरत ।