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मोहनदास नैमिशराय कृत ‘अपने-अपने पिंजरे’ (भाग – 1, 2) में अभिव्यक्त दलित चेतना

आत्मकथा साहित्य की प्राचीन विधा है । आत्मकथा आत्मकथाकार की सच्ची कथा होती है । दुनिया में कोई भी ऐसा देश और किसी भी भाषा का साहित्य नहीं है जहाँ आत्मकथाओं का विशेष महत्व न रहा हो । दलित आत्मकथाएँ दलित संघर्ष की सार्थकता को रेखांकित करती है । किसी भी दलित लेखक द्वारा लिखी गई आत्मकथा उनकी जीवन-गाथा के साथ-साथ उनके समाज की भी गाथा होती है । दलित आत्मकथाओं में एक व्यक्ति को संपूर्ण समाज व्यवस्था से विरोध है । ये आत्मकथाएँ नई संवेदना, नये अनुभव लेकर आती है जिसमें चेतना का स्वर ओत-प्रोत है । डॉ. बाबा साहब आम्बेडकर से प्रेरणा लेकर दलितों में चेतना आने लगी थी जिसकी शुरूआत आत्मकथा लेखन में दिखाई देती है । दलित आत्मकथाएँ एक नये समाज के जीवन से परिचय कराती है जो सदियों से पशु से भी बद्तर जीवन जीता रहा है । उन्हें न बोलने दिया, न पढ़ने दिया, यहाँ तक कि उन्हें उनके मूलभूत अधिकारों से भी वंचित रखा । उन्हीं यातनाओं को पूर्ण सत्यता के साथ दलित आत्मकथाकारों ने उजागर किया है ।

हिन्दी के वरिष्ठ दलित लेखक मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे’ सन्‌ 1995 में प्रकाशित हुई । इसका दूसरा भाग सन्‌ 2000 में प्रकाशित हुआ । तीसरा भाग ‘रंग कितने संग मेरे’ नाम से 2019 में प्रकाशित हुआ है । इस आत्मकथा को हिन्दी की पहली आत्मकथा होने का सम्मान मिला है । डॉ. बाबा साहब के परिनिर्माण के बाद दलितों में क्रांतिकारी परिवर्तन और जीवन के प्रति संघर्ष करने की चेतना का निर्माण ही इस आत्मकथा की विशेषता है । लेखक ने आत्मकथा का आरंभ मेरठ शहर के परिचय से किया है – “शहर बहुत बड़ा न था । पर बड़ी थी, उसकी बात, संस्कृति और परंपरा । बड़ा था उसका इतिहास, समय-समय पर जिसका लोग गौरवगान किया करते हैं । नेताओं के भाषणों में अक्सर इसी शहर की बखानगी होती थी ।”(1) इसी मेरठ शहर से 1857 की पहली लड़ाई का आरंभ हुआ था । बचपन में ही लेखक की माँ की मृत्यु हो गई थी । ताई माँ ने नैमिशराय को गोद ले लिया और उनका पालन-पोषण किया । नैमिशराय जहाँ रहते थे उस बस्ती का नाम चमार गेट था फिर चमार दरवज्जा हुआ । जिसे लोग चमार दरवज्जा ही अधिक कहते थे । बस्ती के किनारे सवर्णों का एक मंदिर था । दलितों को मंदिर में जाने की मनाई थी । शाम को आरती होने के बाद पुजारी मंदिर के आँगन में बच्चों को प्रसाद बाँटता था । आसपास के सभी बच्चे प्रसाद लेने के लिए आते थे । पुजारी दलित बच्चों से छुआछूत रखता था । वह दलित बच्चों को हाथ ऊपर करके प्रसाद देता था । जिससे प्रसाद गिर भी जाता था जिसे बच्चों को उठाना ही पड़ता था । न उठाये तो अगले दिन प्रसाद नहीं मिलता था । एक दिन प्रसाद देते हुए पुजारी की अंगुलियाँ नैमिशराय के हाथ से छू गई तो पुजारी गुस्सा हो जाता है और चिल्लाता है – “तु चमार का है न । सब कुछ भरस्ट कर दिया । कितनी बार कहा तुम ढोरों से, प्रसाद दूर से लिया करो ।”(2) यह सुनकर नैमिशरायजी को भी गुस्सा आ जाता है और आवेश में आकर पुजारी के सामने थूक देते हैं – “थू तुम्हारा मंदिर और तुम्हारा प्रसाद... ।”(3) यहाँ नैमिशराय में दलित चेतना देखने मिलती है । सवर्णों के प्रति उनका आक्रोश देखने को मिलता है । इस घटना के बाद नैमिशराय को भगवान के प्रति नफरत सी हो गई थी ।

लेखक ने गंगा में मेले की बात कही है । दलित बस्ती के लोग कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर गंगा स्नान करने जाते हैं । मेले में जाने पर लेखक ने वहाँ महसूस किया कि जाति के नाम पर तंबु डेरे अलग करने की विवशता । लेखक के शब्दों में – “गंगा के घाट पर हमारी जात के तंबु डेरे अलग लगे । एक चमारवाडा भी ऊभर आया था ।”(4) जात-पात के नाम पर दलितों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार करनेवालों के प्रति लेखक के मन में प्रतिरोध और आक्रोश उभरकर आता है । बड़ी बहन के ससुराल जाने की घटना से लेखक का अर्न्तमन कई बार रोया था । लेखक अपने बड़े भाई के साथ अपनी बहन के ससुराल जाते हैं । रास्ते में उन्हें प्यास लगती है तो पानी माँगते हैं लेकिन जैसे ही सवर्ण व्यक्ति को पता चलता है तो वह पानी देने से इंकार कर देते हैं । इस यातनाओं को झेलते हुए लेखक ने लिखा है कि – “जोहड के पानी में गर्मी से बचने के लिए अपनी टांगे सिकोड़े दो-तीन भैंस बैठी थी । पानी में हर जगह कालापन था । एक जगह से चुल्लूभर पानी देकर मुँह में डाला । सवर्ण जाति के लोगों ने तो हमें आदमी ही मानने से इंकार कर दिया था । तभी तो मुझे जानवरों के साथ पानी पीना पड़ा था ।”(5‌) आत्मसम्मान की जिंदगी पर दलितों का भी अधिकार है । यही लड़ाई लेखक अपने सशक्त कलम से लड़ रहे हैं । इसीलिए बहन का ससूर शाम को शराब पीकर ब्राह्मणों को गालियाँ देकर कहता है कि – “स्साले बामन, म्हारे मेहमान को पानी देने से मना कर दिया । तम इत्ते उच्चे हो गए । ठहर जाओ, म्मै तमारे पानी में पिसाब कर दूंगा । थूक्कूंगा, फेर पीना उस्से । म्हारे मेहमान ढोर-डांगरों के साथ पानी पियै ...।”(6) कितना बड़ा आक्रोश भरा दर्द है । यही दर्द विद्रोह कर उठता है । यही चेतना मुक्ति का मार्ग है । लेखक अपने शहर मेरठ भाई के साथ जाते समय उसी घर की चोपाल पर थूंकता है तभी आक्रोश का समाधान होता है ।

आत्मकथा का दूसरा भाग लेखक की बंबई से घर लौटने की घटना से होता है । एक सप्ताह के बाद नैमिशराय बंबई से घर आते हैं । लेखक के आने से ताई माँ बहुत खुश हो जाती है । नैमिशराय का एडमिशन देवनागरी इन्टर कॉलेज में हो गया था । इनके विषय अंग्रेजी, हिन्दी के साथ इतिहास और नागरिकशास्त्र था । इतिहास के अध्यापक हरबंससिंह का व्यवहार लेखक के प्रति अच्छा था । उनके अलावा कोई अध्यापक घर के बारे में न पूछते थे । शहर की अन्य दलित बस्ती की औरतों की तरह लेखक की बस्ती की औरतें जंगल जाती थीं । उन्हें अकेला पाकर सवर्ण व्यक्ति उनके शरीर को नोचने के लिए तैयार बैठे रहते थे । उनमें से कुछ बच जाती थीं तथा कुछ अपनी इज्जत गंवाए बिना भाग आती थी । एक दिन कोई काश्तकार बस्ती में आया । वह जाट जाति का था । बस्ती के लोग उसे जानते थे । वह झुनिया को बुला रहा था – “झुनिया के घर के सामने इक्का-ताँगा रोककर वहीं से गरजा । अरी ओ झुनिया, झुनिया का बेटा बुखार से तप रहा था । वह उसके पास बैठी थी । उसने फिर पुकारा – सुनती नई, तेरी खाल मसाला माँग रही है क्या ? अब तक चार छ: मर्द-औरत वहाँ जमा हो गए थे । वहीं काश्तकार इक्के-ताँगा पर बैठा-बैठा आल-बवाल बोल रहा था । किसी ने टोक दिया – “ऐसा क्यूं कह रिया है भई ?”
“तू कौन है बे भोसड़ी के ।”
सुनकर बस्ती के मर्द-औरत की खोपड़ी गर्म हो गई थी । बाहर हल्ला सुनकर अब तक झुनिया भी आ गई थी । उसे देख वह बोला – “चल री चल म्हारे खेते में भौत काम पड़ा है ।” बस्ती के ही दो लोग बीच में बोल उठे – “तू कैसे ले जाएगा जबरजस्ती ।” बस्ती के ही दो-तीन मर्द अब सामने आ गए थे । एक ताँगे में पीछे से चढ़ा – दूसरा आगे से । इक्के-ताँगे में जुती घोड़ी भागने को हुई, उसकी लगाम उसने मजबूती के साथ पकड़ रखी थी । परिणाम स्वरूप मार-पिटाई हो गई । ”(7) यहाँ दलितों में चेतना और भाईचारे की भावना देखने मिलती है । उस दिन की वह घटना मेरठ के इतिहास में भले ही न जुड़ पाए, पर दलितों की अस्मिता के संघर्ष के इतिहास में अवश्य ही जुड़ गयी थी । आरंभ में मेरठ शहर में नैमिशरायजी होमगार्ड में भर्ती हो गए । जिसकी परैड के लिए घर से दो मील दूर ‘भैसाली ग्राउन्ड’ में सुबह पाँच बजे जाना पड़ता था । इन्टरमीडिएट बोर्ड की परीक्षा समाप्त होने के बाद दो माह की छुट्टियाँ थी । होमगार्ड्स की एक शिबिर थी जिसमें लेखक ज्वाईन हुए थे । शिबिर में पहले ही दिन एक घटना होती है – “हम दो तीन साथी रसोई में चले गए और वहाँ क्या बना था, इसकी जाँच-पड़ताल करने लगे, मैंने एक टब को उघाड़ कर जैसे ही भीतर रखी सब्जी देखनी चाही रसोईए ने इसका एतराज़ उठाते हुए गुस्से में कह दिया “न जाने तुम लोग कहाँ से आए हो, कौन हो । सब्जी का बर्तन ही छू दिया ।” हमें भी गुस्सा आ गया, हमने चिल्लाते हुए कहा “हम चमार हैं और इसी शहर से ही आए हैं ।”
“तब और भी गड़बड़ हो गया ।”
रसोईया उफनते हुए बोला ।
“क्या गड़बड़ हो गया ?” हमने भी उफनते हुए पूछा ।
“यही कि सब्जी खराब हो गयी ?” हमारे स्वर गर्म थे । राम, राम, राम ,,,, सब कुछ भरस्ट हो गया । हमें क्या मालूम था कि …. ।”(8) लेखक और उनके साथी गुस्से में आकर तेज आवाज़ में बोलने लगे । जिससे भीड़ इकठ्ठा हो गई । कंपनी कमांडर शर्मा भी वहाँ पर आ गए । लेखक और उनके साथियों ने कह दिया – “जब तक इस पंडित को यहाँ से नहीं भगाया जाता है, हममें से कोई भी भोजन नहीं लेगा ।
“हाँ हाँ कोई भी रोट्टी नहीं खाएगा ।””(9) यहाँ लेखक और उनके साथियों में चेतना के स्वर दिखाई देते हैं । इसका नतीजा यह हुआ कि मैस के इन्चार्ज ने रसोइए की तत्काल छुट्टी कर दी । मेरठ से दो-तीन अखबार निकलते थे । लेखक को भी तभी से कुछ लिखने की इच्छा जागृत हुई थी । बी.ए. करने के बाद लेखक चाहते थे कि वह एक हिन्दी साप्ताहिक आरंभ करे । उन्होंने ‘समताशक्ति’ नाम से साप्ताहिक अखबार निकाले जो एक-दो अकं निकलने के बाद ही बंद हो गया ।

निष्कर्षत: कह सकते हैं कि अपने-अपने पिंजरे (भाग 1,2) नैमिशरायजी की आत्मकथा ही नहीं, बल्कि अपने दलित समाज की व्यथा, पीड़ा, घृणा, यातना, घुटन और जीवन संघर्ष की कथा है । नैमिशराय की आत्मकथा यथार्थवाद पर केन्द्रित रही है इसीलिए कहा जा सकता है कि नैमिशरायजी ने आत्मकथा के क्षेत्र में एक नई दृष्टि दी है । लेखक ने जो भोगा है उसकी अभिव्यक्ति प्रामाणिक रूप से की है । गहन पीड़ा की अनुभूति को पचाकर समाज को दलित की आँखों से देखने का अवसर दिया है । दलितों की व्यथा को आत्मीयता से वाणी देकर उनका जीवन उन्नत करने का प्रयास ही इस आत्मकथा में मिलता है । इसमें दलित चेतना उभरकर आई है । इस वजह से यह आत्मकथा सराहनीय और लोकप्रियता की हकदार है ।

संदर्भ-ग्रंथ सूची :

  1. अपने-अपने पिंजरे, भाग – 1, मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, आवृत्ति – 2009, पृ. सं. – 09
  2. अपने-अपने पिंजरे, भाग – 1, मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, आवृत्ति – 2009, पृ. सं. – 031
  3. अपने-अपने पिंजरे, भाग – 1, मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, आवृत्ति – 2009, पृ. सं. – 32
  4. अपने-अपने पिंजरे, भाग – 1, मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, आवृत्ति – 2009, पृ. सं. – 65
  5. अपने-अपने पिंजरे, भाग – 1, मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, आवृत्ति – 2009, पृ. सं. – 69
  6. अपने-अपने पिंजरे, भाग – 1, मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, आवृत्ति – 2009, पृ. सं. – 70
  7. अपने-अपने पिंजरे, भाग – 1, मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, आवृत्ति – 2009, पृ. सं. – 28
  8. अपने-अपने पिंजरे, भाग – 1, मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, आवृत्ति – 2009, पृ. सं. – 56-57
  9. अपने-अपने पिंजरे, भाग – 1, मोहनदास नैमिशराय, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, आवृत्ति – 2009, पृ. सं. – 57

सुनिलकुमार आर. परमार, पीएच.डी. शोधछात्र, हिन्दी विभाग, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद, गुजरात (मो.) – 87329 37394