Download this page in

दों कविताएँ

(१ )
   हमारी सभ्यता |

मेरे घर के आगन में महुवे का पेड़
      कोई दिन में आकर
      रात को काट के ले गया
फिर भी आरोप मुझ कंधे पर
     महुवे पर कविता करनी चाही
    कहते हो, तुम ऐसा नहीं लिख सकते
तुम्हारे हाथों में जंजिर डाल दी जायेगी
ओ शहर जाकर बसने वाले मेरे भले आदमी ! 
तुम पेड़ काटकर ले गये थे
        हम तो तब के मर गये है
अब मेरी स्वतंत्रता पर जंजिरें कैसे हो सकती ?
कभी लगता था कि तुम मेरे
अपने ही थे
         पर तुम अपने कैसे हो सकते ?
तुम्हें बस काटना ही आता है
         पेड़ हो
              पहाड़ हो
या
      हमारी सभ्यता |

(२)
मैं भी तुम्हारें जैसा ही हूँ ।

वो शहर के
एक छोर पर
झुग्गियों में रेनबसेरा करने वाले
आज मैं भी तुम्हारें जैसा ही हूँ ।
बारीश गिर रही है औंर कि
प्लास्टिक की छत मेरे सिर पर,
कुछ सामान ऐसे रखने पर मजबूर हुआ
कि न इधर चल सकता, न उधर ।
आँखों में निंद अगर खरिद के ला सकते तो ?
तुम भी दिन भर कुछ पैसे इकठ्ठे कर लेते,
खरिदने के लिए कुड़ा ही उठाना पड़ता !
फिर चैन से सो जाते
पीने की आदत सी हो गई होती तो
शायद तब निंद तो आ जाती, है ना...
शुक्रिया ऊँपरवाले का
ये लम्हा कुछ ऐसे बीताने का मौका तो दिया ।
वरना दूसरे का दर्द यहाँ कौन बाटना चाहता है,
सुनने तक भी आदि नहीं है ।
पर मैं सूनुँगा आप की हर पीड़ा
क्योंकि आपकी बीती हुई दास्ता
अब मेरे जिगर-ए-खून में बून गई है ।
तुम्हारी पीड़ा सिर्फ तुम्हारी न रह गई है
वो मेरी बी हो गई,
व जो कि जबतक साँसे चलती रहेगी मेरे साथ होगी ।
ओ, झुग्गियों के मेरे हमदम !
हमें अब ख्वाब़ देखना छोड़ देना होगा ।
फिर मत पुछो कि क्यों ?
तुमने नहीं देखा कि
इस शहर के लोगोंने
हमारी औकात दिखाने में
कभी भी देरी की होगी ।

रोशनकुमार पी. चौधरी , पीएच.डी. शोधार्थी, वीर नर्मद दक्षिण गुजरात युनिवर्सिटी सुरत । दूरभाष : ९७२६५ ६५५७६ Email : roshanumarvavduri@gmail.com