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बिहार की लोक क़सीदाकरी- एक परिचय

भारत प्राचीनकाल से ही कला के क्षेत्र में अतिसमृद्ध रहा है। यहाँ कला के विविध एवं अनोखे रूप दिखायी पड़ते हैं, जिनमें कसीदाकारी का एक महत्वपूर्ण स्थान है। सामान्य बोलचाल की भाषा में कढ़ाई के नाम से प्रचलित कसीदाकारी को सुई द्वारा निर्मित चित्रकारी भी कहते हैं। कसीदा अत्यन्त गहन श्रम द्वारा कलाकार की भावनाओं की रचनात्मक व सौंदर्यात्मक अभिव्यक्ति का माध्यम रही है।अन्य कलाओं की भांति कसीदाकारी भी उसके निर्माताओं की सांस्कृतिक परम्पराओं व सामाजिक स्थितियों को प्रतिबिम्बित करती है। भारत के प्रत्येक प्रान्त की कसीदाकारी की अपनी एक विशिष्ट परम्परा रही है, अतः कलाकृतियों के आधार पर उससे संबंधित क्षेत्र या प्रान्त का बखूबी अनुमान लगाया जा सकता है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि भारतीय कसीदाकारी शैली की जन्मदाता ग्रामीण महिलायें रही हैं तथा इस कला का विकास मुख्यतः घरेलू कला के रूप मे हुआ। जिसके कारण प्रत्येक क्षेत्र की कसीदाकारी वहां के स्थानीय रीति-रिवाज, चरित्र-संस्कार व विचारधारा को दर्शाती है।

भारत के प्रत्येक भौगोलिक क्षेत्र की कसीदाकारी आंचलिक लोक-संस्कृति की उपज है तथा उस पर आधारित है। जिसके कारण प्रत्येक क्षेत्र की कसीदाकारी की अपनी विशिष्टता, अलंकरण, रंग संयोजन एवं विशिष्ट तकनीक है।

इन कसीदाकारी शैलियों में बिहार की लोक कसीदाकारी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। बिहार में ‘कसीदा’ के नाम से प्रचलित सुईकारी की कला मूलतः घरेलू शिल्प के रूप में विकसित हुई। इस पर धार्मिक भावनाओं, आस्था एवं जीवन शैली का गहरा प्रभाव देखने को मिलता है। बिहार में कसीदा की कई शैलियाँ प्रचलित रही हैं, जिन्हें तीन तरह के विशिष्ट टांकों के प्रयोग से बनाया जाता है। पूर्णतया घरेलू महिलाओं द्वारा की जाने वाली इन कढ़ाई शैलियों में ‘‘सिक्की’’ नामक कसीदाकारी काफी प्राचीन होने के साथ-साथ काफी प्रसिद्ध भी है।[1] इस कसीदाकारी की विषयवस्तु मिथिला क्षेत्र की विश्वप्रसिद्ध लोक-भित्ति चित्रकारी से प्रभावित हो कर बनायी जाती है। मिथिला चित्रकारी की सम्पूर्ण दार्शनिकता व कलात्मकता इस कसीदाकारी में परिलक्षित होती है। जिसके मुख्य नमूने, शंख, चक्र, गदा, वज्र, त्रिशूल, ढोलक, सूर्य, चन्द्रमा इत्यादि हैं और ये सभी प्रतीकात्मक नमूने धार्मिक रुप से महत्वपूर्ण है। [2]

बिहार के आदिवासी इलाकों में प्रचलित ‘कसीदा’ कढ़ाई में दक्ष महिलायें, काफी नजदीक रखे जंजीरा व कच्चे टांके के द्वारा इस तरह से कढ़ाई करती है कि कपड़े पर कसीदा का प्रभाव उभरा या बुना हुआ दिखायी देता है। [3]इस कढ़ाई को ‘झींकना’ के नाम से भी पुकारा जाता है। [4] इस कसीदा का प्रयोग स्त्रियां अपनी साड़ी के किनारों, चोली तथा तकिये के खोल इत्यादि पर करती हैं। इन पर चित्ताकर्षक अमूर्त अलंकरणों, ज्यामितीय आकारों एवं फूलों के अलंकरणों को काढ़ा जाता है। इस ‘कसीदा’ कढ़ाई का एक दूसरा रुप ‘भरत’ नाम से प्रचलित है, जो पंजाब की फुलकारी (बाग) से काफी मिलता-जुलता है। इसके टांके कपड़े के ताने व बाने के साथ चलते हैं, इसमें मूरमूरे व कच्चे टांको का प्रयोग किया जाता है। [5] इस कढ़ाई में फूलों व ज्यामितीय आकारों को लाल व सफेद रंग की पृष्ठभूमि पर भड़कीले विरोधाभासी रंगों के अद्भुत संयोजन से, बिना ऐंठे रेशमी धागों से काढ़ा जाता है। [6] इसके अलावा ज्यामितीय नमूनों को लम्बे-छोटे टांकों के प्रयोग द्वारा भी काढ़ा जाता है। जिसमें अलंकरणों की बाह्य रेखा को कच्चे टांके की इकहरी व दोहरी रेखाओं से बनाया जाता है।

उत्तरी बिहार का अंचल वहां की ‘कांथा’ व ‘सुजनी’ कढ़ाई के लिये जाना जाता है। यह कसीदाकारी बंगाल प्रान्त में प्रचलित कांथा कढ़ाई से काफी समानता रखती है। [7] यह बिहार की ग्रामीण महिलाओं के विचारों, दृष्टिकोण, रचनात्मकता तथा व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इस कढ़ाई में पहले पुरानी सूती साड़ियों के कटे एवं फटे हिस्सों को काट-छांट कर एक नाप की कई तहों को तैयार किया जाता है। उसके बाद इन सभी तहों (लगभग 6 से 8) को उन्हीं साड़ियों में से ही निकाले गये सफेद धागों की सहायता से महीन रफू टांको द्वारा आपस में टांक कर सिल दिया जाता है। तदोपरांत उनकी सतह पर चित्ताकर्षक अलंकरणों की कढ़ाई कर सजाया जाता है। जिसमें कपड़े के मध्य में तैरती मछलियों, चिड़ियों, फूलों एवं प्राकृतिक दृश्यों के मनोहारी चित्र लोक शैली में बनाकर काढ़े जाते हैं। इस कढ़ाई के प्रयोग से आकर्षक तोषकों, दुशालों व ओढ़न जैसे उपयोगी वस्त्रों को बनाया जाता है। बिहार में कहीं-कहीं सोने के तारों की कढ़ाई भी देखने को मिलती है, जिसका प्रयोग पुराने जमाने में उत्सवों पर पहने जाने वाले कोट, दुपट्टों व टोपियों को सजाने में किया जाता था। [8]



बिहार का कटावदार पत्ती का काम (एप्लीक) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, जिसे ‘खत्वा’ के नाम से भी पुकारा जाता है। [9] यह तकनीक न सिर्फ ऊपर वर्णित सभी कसीदा तकनीकों से पूणर्तः भिन्न है। इसमें बिहार की महिलाओं की कल्पनाशीलता एवं कढ़ाई में उपयोग होने वाले टांकों का कलात्मक प्रयोग का दिखता है। पहले ‘खत्वा’ का प्रयोग मुख्यतः शादी जैसे उत्सवों में प्रयुक्त होने वाले तम्बुओं और चंदवा को अलंकृत करने के लिये किया जाता था।[10] लेकिन आजकल यह काम स्त्रियों की चोलियों, बच्चों की टोपियों, दैनिक प्रयोग के पहनावों, पर्दे, कुशन कवर व चादर इत्यादि पर भी होनेे लगा है। इसके अलंकरणों में मुख्यतः पर्शियन शैली के फूल-पत्तियों, फलों, पशु-पक्षियों (मोर, हाथी) को बनाया जाता है। कसीदाकारी की इस तकनीक में विरोधाभासी रंगों के कपड़ें के टुकड़ों को अलग-अलग आकार मे काट कर, उन्हें कपड़े की सतह पर 'काज टांकों' से जड़ कर सिल दिया जाता है। इसी प्रकार कपड़े की लम्बी-लम्बी पट्टियों में अलंकरणों को काटकर उन्हें कपड़े के किनारों पर टांक दिया जाता है, जिससे कपड़े के किनारे आकर्षक हो जाते हैं। एप्लीक व पैबन्द का काम सामान्यतः लाल अथवा नारंगी रंग के कपड़े पर सफेद रंग के कपड़े को जड़ कर किया जाता है। कपड़े पर अलंकरणों को काटने का कार्य पुरुषों द्वारा तथा टांकने का कार्य स्त्रियों द्वारा किया जाता है।[11]

एक अन्य प्रकार की कसीदा शैली में हमें जंजीरा टांके तथा कटावदार काम (एप्लिक) के संयोजन से बुनी हुई पट्टियों से टोपियों तथा चोलियों की सजावट के रूप में दिखाई देता है। इसमें विभिन्न प्रकार के कपड़ो के टुकड़ों का प्रयोग किया जाता है। यह संयोजन इतना आकर्षक एवं अनूठा होता है कि बमुश्किल कोई दो टोपियां व चोलियां एक जैसी दिखतीं हैं। इसके प्रचलित नमूनों में पंख फैलाये अथवा उड़ान भरते तोते, पूरी तरह खिला हुआ कमल, तालाब में तैरती मछली, हाथी सवार पुरूष, वृक्ष, इत्यादि हैं। कुछ नमूने पौराणिक कथाओं में वर्णित शेर पर सवार दुर्गा माता, सती-देवी आदि से भी प्रेरित हो कर बनाये जाते हैं।

इन सभी कसीदा शैलियों, तकनीकों तथा इनके पारम्परिक अलंकरणों को संरक्षित रखने की एक अनोखी परम्परा भी बिहार में प्रचलित रही है। जिसके अंतर्गत सम्पूर्ण टांकों तथा अलंकरणों को एक ही कपड़े के टुकड़े पर मास्टर चार्ट (मुख्य सूची) के रूप में एकत्र कर लिया जाता है। इस चार्ट को ‘‘श्वालखाना’’ के नाम से जाना जाता है।[12] कसीदा के समस्त अंगों व विशिष्टताओं के संरक्षण की यह एक अनूठी प्रणाली है जो भावी कसीदाकारों के लिए मार्गदर्शक का काम करती है।

वर्तमान में भी बिहार की सभी कसीदा तकनीक समान रूप से प्रचलित है। बिहार की इन चित्ताकर्षक कसीदा ने अब घरेलू कला से निकलकर व्यवसायिक रूप धारण कर लिया है। बिहारी कसीदा के व्यवसायीकरण से इसमें उपयोग होने वाले अलंकरणों में भी बदलाव आये हैं। आज इस कसीदा में समकालीन विषयों का समावेश देखने को मिलता है। जिसमें सामाजिक कुरीतियों, बदलावों और जनोपयोगी विषयों को स्थान मिला है। इस परिवर्तन के चलते आज क़सीदा में गोबर गैस संयत्र, मातृत्व महत्ता, एड्स से बचाव इत्यादि विषय देखने को मिलते हैं। कसीदा को घरेलू दहलीज से निकाल इसे व्यावसायिक रूप दे कर आर्थिक आत्मनिर्भरता का माध्यम बनाने में बिहार हस्तशिल्प बोर्ड और स्वयंसेवी संस्थाओं का महती योगदान है।

संदर्भ ग्रन्थ सूचीः-

  1. इनाक्षी भवनानी, डेकोरेटिव डिजाइन एण्ड क्राफ्ट्स ऑफ इण्डिया,डी बी तारापोरवाला, इण्डिया, 1969, पृ.सं. 25
  2. उपरोक्त; पृ.सं. 25
  3. उपरोक्त; पृ.सं. 25
  4. कमलादेवी चट्टोपाध्याय, हैंडीक्राफ्ट्स ऑफ इण्डिया, 1975, इण्डियन काउंसिल ऑफ कल्चरल रिलेशन्स, पृ.सं. 58
  5. जमीला बृजभूषण, इण्डियन इम्ब्राइडरी, पब्लिकेशन्स डिवीजन, मिनिस्ट्री ऑफ इन्फॉर्मेशन एण्ड ब्रॉडकास्टिंग, गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया, 1990, पृ.सं. 40
  6. कमलादेवी चट्टोपाध्याय, उपरोक्त वर्णित, 1975, पृ.सं 58; इनाक्षी भवनानी, उपरोक्त वर्णित, 1969, पृ.सं. 25
  7. जमीला बृजभूषण, उपरोक्त वर्णित, 1990, पृ.सं 40
  8. इनाक्षी भवनानी, उपरोक्त वर्णित, 1969, पृ.सं 26
  9. कमलादेवी चट्टोपाध्याय, उपरोक्त वर्णित, 1975, पृ.सं. 58; जमीला बृजभूषण, उपरोक्त वर्णित, 1990, पृ.सं. 41
  10. उपरोक्त; पृ.सं.41
  11. इनाक्षी भवनानी, उपरोक्त वर्णित , 1969, पृ.सं. 26
  12. शैलजा डी नाइक, भारत की पारम्परिक कढ़ाई, 1996, ए0 पी0 एच0 पब्लिशिंग, दिल्ली, पृ.सं. 14


डा. जसमिंदर कौर, एसोसिएट प्रोफ़ेसर, टेक्सटाइल डिजाइनिंग, दृश्य कला संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी- 221005