Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
इतिहास की वर्तमान यातना का दस्तावेज़: सात आसमान

रूसी भाषा में एक कहावत है कि अतीत का विचार करोगे तो अपनी एक आँख गँवा बैठोगे और अतीत को छोड़ दोगे, भूल जाओगे तो अपनी दोनों आँखें गँवा बैठोगे । इसी बात को असग़र वज़ाहत जी ने अपने उपन्यास सात आसमान में पाठकों को रूबरू अंकित करने का प्रयास किया है । आम तौर पर कहा जाता है कि मनुष्य अपनी पीछली गलतियों से सीखकर आगे बढ़ता है औऱ बच्चे अपने बड़ों की गलतियों से सीखते हैं । इसी प्रकार एक पीढ़ी अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी की गलतियों से बहुत कुछ सीखती है, ग्रहण त्याग करते हुए आगे बढ़ती है और अपने को समायानुसार ढालती है, मनुष्यता और भौतिक विकास के पथ पर । पीढी-दर-पीढ़ी संघर्ष की गाथा ‘सात आसमान’ में चार पीढ़ियों की कथा प्रस्तुत करते समय उपन्यासकार असग़र वज़ाहत ने इसे उपन्यास की संरचना में कुछ इस प्रकार अनुस्यूत किया है कि पाठक इस अनुभव से लगातार गुजरता ही नहीं, प्रत्येक पीढ़ी के कई सदस्यों द्वारा किए जा रही गलतियों पर खीजता-कुढ़ता भी है । रूप के स्तर पर उपन्यास की यह बहुत बड़ी सफलता कही जा सकती है कि वृत्तात्मक होते हुए भी पाठक प्रत्येक पीढ़ी के पात्रों एवम् उनकी प्रत्येक कार्यवाही तथा संघर्ष में सहभागी होने की बजाए उनके विरुद्ध सोचने लगता है । ऐसा प्रत्येक पात्र के संघर्ष के साथ भले ही न होता हो, लेकिन अधिकांश के साथ यही होता है । इसका कारण है यह उपन्यास किसी सामान्य व्यक्ति का जीवन-संघर्ष नहीं, अपितु सामन्तवादी ढाँचे में कैद खानदानों की कथा है और उनका संघर्ष इस ढाँचे को तोड़ने का नहीं, उसमें गढ़ते चले जाने का है । पाठक की खीच सबसे ऊँचाई पर तब पहुँचती है, जब इसी सामन्तवादी ढाँचे एवं मानसिकता के कारण पीड़ा एवम् अपमान झेलनेवाले पात्र भी इसको बनाए रखने के लिए संघर्ष करते हैं और स्वयं को गुलाम बनाए रखने में आनन्द पाते हैं । इसे रचनाकार बड़ी ही कुशलता से पाठक के मन पर अंकित करता चलता है, प्रस्तुत रूप में वर्णन करने से बचते हुए । यदि वह ऐसा करता तो पहले से वर्णनात्मक-वृत्तात्मक रूप में लिखित यह उपन्यास उतना सफल नहीं कहा जा सकता था, जितना वह है ।

यह उपन्यास आम तौर पर चार पीढ़ियों की कथा के रूप में चिन्हित किया जा सकता है, किन्तु इसके आन्तरिक ढाँचे को देखे तो यह सामन्तवाद द्वारा समयानुसार अपने आप-आपको बचाए रखने की दास्ताँ अधिक है । सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथा सर्वप्रथम उल्लेखनीय सकारात्मक पक्ष यह है कि लेखक की ‘पीढ़ियों’ या ‘परिवार’ की अवधारणा । सामन्तवादी ढाँचे में ‘पीढ़ियों’ की अवधारणा में सन्तति के ननिहाल पक्ष को सम्मिलित नहीं किया जाता है । सन्तति अपने पिता के परिवार को ही आगे बढ़ाती है । ऐसा सामन्ती ढाँचे में स्त्री का दूसरे दर्जे, या उससे भी निचले, का सदस्य मानने को कारण होता आया है । उपन्यासकार भी अपने ‘कथावाचक’ के पिता पक्ष की पीढ़ियों की कथा प्रस्तुत कर रुक सकता था, किन्तु उसने उतना ही महत्व कथावाचक के ननिहाल पक्ष की कथा को भी दिया है । कहीं भी दोनों पक्षों की कथा में तुलनात्मक उन्नीस-बीस का रूप नहीं देता है । अर्थात सामन्तवाद की कथा कहते हुए भी स्त्री दृष्टिकोण से वह सामन्तवाद के अन्तर्विरोधों का शिकार होने से बचते हुए अपना कथ्य प्रस्तुत करता है ।

जैसाकि कहा गया है उपन्यास सामन्तवादी परिवारों की अपने तंत्र को बनाए रखने की जद्दोजहद की कथा प्रस्तुत करता है । ऐसा नहीं कि यह उपन्यास उस समय से आरंभ होता है जब सामन्तवाद के उतरते हुए दिनों की कथा मात्र है । वस्तुतः यह उपन्यास सामन्तवादी व्यवस्था के शिखर के दिनों से शुरु होती है और क्रमशः उसके अपने ही अन्तर्विरोधों में घिरकर टूटन की तरफ बढ़ते जाने की कथा है । इस टूटन के लिए बाहरी और आन्तरिक दोनों कारणों को लेखक ने कथा में अनुस्यूत कर उसका अंग बना दिया है । अर्थात् ऐसा भी नहीं है कि इसके सभी पीढ़ियों के सभी पात्र सामन्तवाद को बचाने के लिए संघर्ष करते हुए दिखाए गए हैं, बल्कि उनमें से अधिकतर सामन्ती जीवन-शैली में डूबकर उसके ध्वस्त होने के कारण भी बनते हुए भी दिखाए गए हैं । इस उपन्यास के सामन्तवादी चारों पीढ़ियों के विभिन्न परिवारों परिवेश, स्थितियों, शासन-तंत्र, पद्धतियों, संघर्ष, मानसिकता में कई अन्तर हैं, किन्तु उनका सामन्तवादी ढाँचा कायम रहता है । यही कारण है कि जब तक मानसिकता में एवं ढाँचे में अमूलचूल परिवर्तन नहीं आता तब तक पात्रों की स्थिति दयनीय होती जाती है ।

उपन्यास के चारों पीढ़ियों के विभिन्न परिवारों के ढाँचों को देखा जाए तो पुरुषों की स्त्रियों की प्रति मानसिकता, रखैल रखने की पुरुषों की प्रवृत्ति, नौकरों-सेवकों के प्रति रवैया और उन पर आश्रित होते जाना, पिता का अपनी संतानों के भविष्य के प्रति चिन्तित होना, पुत्र का अपने पिता को अन्तिम दिनों में उपेक्षित करना ही नहीं घृणा करना, अमाप संपत्ति उड़ाना, जालसाज़ी करते चले जाना, संपत्ति और शानो-शौकत का दिखावा करना, गुण्डों-मवालियों की मदत लेना किन्तु अपना दामन साफ रखने का प्रयास करना, अवैध सन्तानों की स्थिति आदि कई प्रवृत्तियों की समानता देखने को मिलती है । कथावाचक के अब्बा को अपवाद माना जाए तो उपन्यास में कोई भी पात्र अपनी पत्नीन की किसी भी बात को शायद ही मानता हो । उधर रखैल कही जानेवाली स्त्रियों की स्थिति भी शोचनीय ही थी । सामन्तवाद स्त्री को स्त्री के विरुद्ध इसी प्रकार खड़ा करता है और यह प्रवृत्ति सारे उपन्यास में देखने को मिलती है । ऐसे में इस उपन्यास को चाहे तो कोई चार पीढ़ियों की कहानी न कहकर कुएँ के पानी की तरह ठहरे हुए सामन्ती परिवार की विभिन्नस समयों की कथा भी कह सकता है । एक ऐसा कुआँ, जो न तो उपयोग में है और न जिसका मालिक उसका उपयोग किसी को करने देता है । जिस कुएँ के पानी में सडाँध ने पैर जमा लिए हो ।

उपन्यास का आरंभ कथावाचक के संस्मरणों या कहानियों के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसका ढंग यथार्थवादी है । बाद में कथावाचक भी कहानी का एक पात्र बनकर सामने आता है, जो चार में से पूर्व-अन्तिम पीढ़ी के एक पात्र का रूप ग्रहण करता है । आम-तौर पर लगता है कि कथावाचक की पीढ़ी इस उपन्यास की अन्तिम पीढ़ी है, किन्तु वास्तव उसके बच्चे इस उपन्यास की अन्तिम पीढ़ी है । भले ही कथावाचक के बच्चों की कहानी इस उपन्यास में प्रस्तुत नहीं की गयी है, किन्तु उनका नजरिया और अपनी परम्परा को जाने बगैर गाँव, गाँव का जीवन, शहरी मानसिकता, कस्बाई नॉस्टेलिजिया आदि जो अभिव्यक्त हुआ है, वह अस्सी के दशक के लोगों की मानसिकता को अभिव्यक्त करता है । इस रूप में उपन्यास का समकाल हमारा भी समाकाल बनता है और गाँव एवं वहाँ की व्यवस्था के प्रति पाठक की फैन्टसी टूटती है, क्योंकि हम शिक्षित शहरी मध्यवर्गीय पाठकों की गाँव के प्रति कुछ-कुछ इसी प्रकार दृष्टि बनी हुई है । इस रूप में खत्म होते होते उपन्यास पाठक के कई सब्ज़बाग़ों को भी उजाड़कर गाँव एवं उसके व्यवस्था का तपा हुआ यथार्थ इतिहास के साथ अनुभव क्षेत्रों से गुज़ारता है ।

भारत में मुस्लिमों के आधुनिकीकरण को स्वीकार करने न करने के कारणों का खुलासा भी उपन्यास के माध्यम से होता चला जाता है । सामान्य धारणा यह है कि इसके लिए मुस्लिम समाज में मौजूद धार्मिक परम्पराएँ इसके लिए जिम्मेदार हैं । दूसरे कारण के रूप में निर्धनता को भी प्रस्तुत किया जाता है । किसी भी समाज या वर्ग-समूह की शिक्षा, स्वयंरोज़गार और सरकारी नौकरियों में भागिदारी के साथ-साथ मानवीय चेतना को आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से जोड़कर देखा जा जाता है । इसके साथ ही समाज के दूसरे समूहों-वर्गों प्रति दृष्टिकोण एवं व्यवहार को भी आधुनिकीकरण के पैमाने में सम्मिलित किया जाना चाहिए । इन पैमानों पर देखा जाए तो उपन्यास कई समस्याओं पर से पर्दे उठाता है । उपन्यास में आयी प्रत्येक पीढ़ियों का प्रत्येक परिवार असामान्य रूप से धनी हैं, किन्तु इनमें प्रायः आधुनिक शिक्षा का अभाव देखा जा सकता है । आधुनिक शिक्षा के अभाव के कारण इन्हें सरकारी कारिन्दों से लेकर स्वयम् उनके निजी नौकर-मातहत तक ठगते हैं, जो उनके पतन का कारण बनते हैं । इनके अतिरिक्त उनके पास जो व्यावहारिक ज्ञान है, वह उन्हें एक समय तक तो बचाता है, किन्तु एक हद के बाद उनमें बदलाव न लाने के कारण उनके ही विरुद्ध प्रयोग होता हुआ दिखाई देता है । सामन्तवादी व्यवस्था में आधुनिक शिक्षा से अधिक व्यावहारिक ज्ञान पर अधिक आश्रित इन पात्रों को देखा जा सकता है, किन्तु यह व्यावहारिक ज्ञान दूसरों पर विश्वास एवम् उनके द्वारा विश्वास-पात्र बने रहने पर आश्रित होता है । उपन्यास में जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, नौकरी-मातहतों की ढगी में बढ़ोतरी होती जाती है और दूसरी तरफ से सरकारी रहमों करम उठ जाने के कारण सामन्तवादी मूल्य चूर-चूर होते जाते हैं । कथावाचक के पिता का अपने मातहतों-नौकरों पर वैसा ही विश्वास बना रहता है, किन्तु वे उनकी खुले आम लूट शुरु कर देते हैं और वे कुछ नहीं कर सकते । इस प्रकार आधुनिकीकरण तथा आधुनिक शिक्षा की आवश्यकता उपन्यास के केन्द्र में है और इसी के अभाव के कारण इन परिवारों के बिखराव का कारण उपन्यास में अनुस्यूत है ।

इसी परिवार के जिन-जिन पात्रों को आधुनिक शिक्षा एवं व्यवस्था की तरफ मुड़कर स्वयं को आगे बढ़ाते हुए दिखाया गया है, उनका वैसा आर्थिक एवं सामाजिक पतन न हुआ और न ही मानसिक-सांस्कृतिक पतन । कथावाचक का चजाज़ाद भाई वकील बनता है, काँग्रेस पार्टी में अपनी पैठ जमाता है, छोटे-मोटे चुनाव भी लड़ता है, उसके पिता से सारे मुकदमे जीतता है, सरकारी कार्यालयों में अपनी जान-पहचान बना लेता है और यह सब कर वह अपनी जायज़ाद और अपना पुराना रुतबा कायम रखने में कामयाब हो जाता है । इस पात्र द्वारा यह सब किया जाता हुआ दिखाना राजनीतिक विमर्श का एक हिस्सा है । ध्यातव्य है कि वह उन सारे हथियारों-तकनिकों का प्रयोग लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी बखुबी कर लेता है, जो वास्तव में सामन्तवादी समाज-तंत्र के सफल हथियार रहे हैं । जिन जालसाज़ियों एवं धोखो-हत्याओं का सिलसिला चलाकर मोतमुद्दौला अवध के राजा के यहाँ शासन के सर्वोच्च पद पर पहुँचक शाही खज़ान, जनता और सरकारी नौकरों की अमाप सम्पत्ति की लूट करता है, ठीक वही हथकंड़ों और तिकड़बाज़ियों से राजनीति और प्रशासन में अपना स्थान बनाकर अपना लूटतंत्र लोकतंत्र के दायरे में ला लेता है ।

शिक्षा एवं सरकारी नौकरियों के प्रति भी सामन्तवाद में एक खास प्रकार का दृष्टिकोण रहा है, जो उसके पतन के साथ बदल तो आवश्य किन्तु अपनी सारी कुप्रवृत्तियों को सरकारी कार्यालयों एवं प्रशासन में भी लेजाकर वहाँ भी अपना एकछत्र साम्राज्य प्रस्थापित करने में सफलता पायी । पहली चार पीढ़ियाँ जहाँ सरकारी नौकरी करने का सख़्त विरोध करती हैं, वहीं कथावाचक की पीढ़ि में नौकरी के लिए अपनी जमीन से उखड़ने की प्रक्रिया देखी जा सकती है । दोनों की स्थितियाँ दो ध्रूवों पर स्थित है । ऐसा नहीं है कि जमींदारी के शोषण तंत्र को समाप्त कर और लोगों के शोषण को छोड़कर कथावाचक की पीढ़ी ऐसा करने को उद्यत होती है, अपितु शहरी सुख-चैन एवं जीवन-शैली की ओर आकर्षित होकर वह ऐसा करते हैं । कथावाचक और उसके भाई में यह बात देखी जा सकती है । अर्थात् जमींदारी या सामन्ती जीवन-शैली की मानसिकता उनमें भी कायम रहती है । अबू साहब बार बार अपने बेटों और उनके परिवारों को अपनी जमीन की तरफ आकर्षित करने के प्रयास करते हैं । बाहरी साज-सज्जा और शहरी सुविधाओं से युक्त मकानों का निर्माण करते हैं तथा अन्य भौतिक सुविधाओं को गाँव तक पहुँचने का बार-बार उल्लेख करते हैं, गाँवों में शिक्षा व्यवस्था के पहुँचने की दुहाई देते हैं, किन्तु शहरी वातावरण के अभ्यस्त शिक्षित नयी पीढ़ी के लोग गाँवों से नफरत सी करने लगते हैं और उसकी तरफ से मुँह मोड़ लेते हैं । सत्तर और अस्सी के दशक से यह मानसिता हमारे शिक्षित वर्ग में घर करती चली गयी, जिसकी चरम परिणती ने भारत को नव-उपनिवेशवाद के भँवर में फँसा दिया।

उपन्यास में पात्रों का एक ऐसा वर्ग है, जिसमें लगातार बदलाव आते गए हैं, वह है नौकरों और निम-गुलामों का वर्ग । यह नौकरों, निम-गुलामों का वर्ग दो तरह का है-एक अपने स्वामी के प्रति ईमानदार, वफादार और पीढ़ियों से सेवा करनेवाला, दूसरा समयानुकूल बदलनेवाला । इस रूप में उपन्यास पारम्पारिक मूल्य बनाम आधुनिक मूल्य के नहीं बल्कि मानवीय मूल्य बनाम भौतिक मूल्य के द्वन्द्व को प्रस्तुत करता है । चाहे जो शासन, सत्ता एवं व्यापार तंत्र हो, वह अपने मजदूरों, गुलामों, नौकरों से बिना प्रश्न किए चुपचाप सेवा करने की उम्मीद रखता है । उपन्यास में की ऐसे नौकर दिखाए गए हैं, जो पीढ़ियों तो जमींदार परिवारों की सेवा करते हैं, इसके अतिरिक्त ऐसे भी हैं जो अपने मालिकों को अमाप रूप से ठगते हैं । हर पीढ़ी में ऐसे नौकर दिखाए गए हैं । खास बात यह है कि इस उपन्यास का हर पात्र किसी-न-किसी का नौकर या गुलाम है । स्वतंत्र कोई नहीं । किसी-न-किसी तंत्र का अंग है । और जो कोई इससे इन्कार करता है, उसका हश्र सबसे बुरा होता है । इस रूप में प्रत्येक पात्र दयनीय तो है किन्तु अनुकरणीय नहीं, क्योंकि शोषक किसी अन्य के लिए शोषित भी है ।

उपन्यास का आरंभ कथावाचक लगभग ‘मिथक’ के लहज़े में करता है । एक कुआँ है । कुएँ का एक मिथक है । कुएँ का पानी मिथकीय शक्तियों से युक्त है । व्यक्ति को वह रुका देता है, स्वयं की तरह । लगभग मिथकीय लहजे में उपन्यासकार लिखता है, “कुएँ जैसी ठहरी, गठी हुई ज़िंदगी के पता नहीं कितने चेहरे हैं । एक-एक चेहरा एक-एक किताब है । उनके बारे में कोई नहीं लिख सकता ।”(वजाहत, 2012:7) फिर भी वह लिखता है । अब्बू साब इसी ज़िन्दगी का हिस्सा बनकर रह जाते हैं । अपने मुल्क, जन्मभूमि को छोड़कर । नयी कर्मभूमि तलाश लेते हैं । अगली दो पीढ़ियों तक आजीवन वे अपनी ईमानदारी से अपना काम करते हैं । वह कौन-सा मोह है जो उन्हें यहाँ जोड़ देता है, जो मेहमान बनकर आए थे और बाशिन्दे बनकर रह गए? क्या जीवन-शैली इसका उत्तर नहीं है? यह उपन्यास का आरंभ है । इसके बाद प्रत्येक पात्र अपने जगह, अपनी जन्मभूमि छोड़कर जाने को तैयार नहीं । मौतमुद्दौला भी नहीं । वह अपने साथ जीवन-शैली लेकर जाता है । ये उपन्यास का मध्यभाग है । सभी एक ही व्यवस्था के अंग हैं । अन्त में आता है कथावाचक । नौकरी, भविष्य और शहरी जीवन-शैली के कारण अपनी जन्मभूमि और सबकुछ छोड़कर चला जाता है । अब्बू साब के रुक जाने, सर्वस्व त्यागकर नौकर बन जाने के लिए कुएँ के पानी का मिथक था । मौतमुद्दौला के पास उसकी जालसाज़ी और मक्कारी का कारण था । कथावाचक अपने लिए कोई कारण नहीं देता है । अब्बा ठीक शहर जैसी ही भौतिक सुविधाएँ गाँव में भी निर्माण करते हैं । फिर क्यों नहीं अपनी पुश्तैनी जायज़ाद और घर में कथावाचक रुक जाता है? क्या यही विकल्प अब्बू साब के पास रहा होगा? कहाँ गया वह कुआँ और उसका पानी? क्या शहर में भी कोई कुआँ था, जिसका पानी उतना ही मिथकीय रहा होगा, जो शिक्षित युवकों को अपनी तरफ उसी प्रकार आकर्षित कर रहा था? यह है व्यवस्था परिवर्तन । सामन्तवाद अपने को मिथक के माध्यम से सही ठहराता था । पूँजीवादी शहरी व्यवस्था आपके दिमाग से खेलती है । उसके पास फ्लैट, परमोशन, कॉन्वेन्ट आदि का अपना मायाजाल है । भविष्य के लिए सपने और डर एक साथ हैं । वह आपको अपनी जड़ों से उखाड़ती हैं । आपकी मर्जी से और इतना हक के साथ कि आप उसके शिकार ही नहीं, एजेन्ट भी बन जाते हैं । उसे कुएँ और उसके पानी के मिथक निर्मित करने की आवश्यकता नहीं, उसके मिथक अधिक यथार्थवादी होते हैं । वर्चुअल रिअलिटी जैसे ।

एक तरफ कथावाचक के दादा जी हैं तो दूसरी तरफ नाना जी, दोनों की स्थितियों में से किसकी अधिक दयनीय है, कह पाना मुश्किल है । यहाँ तक आते-आते उपन्यास की कथा ‘कहानी’ से बढ़कर आँखों देखी में तब्दिल हो जाती है । कथावाचक इसका दृष्टि बनकर प्रस्तुत होता है, अधिकांश । दोनों ने अपने जीवन का अधिकांश ऐय्याशी और एक-खास जीवन-शैली में बिताया, किन्तु नाना जी के पास इतना बचा ही नहीं था कि जिसे बचाने का प्रयास किया जाता । दादा जी के पास इतना बचा था और उन्होंने बचाया भी । इस संघर्ष का नतिजा क्या निकला । उनका जीवन एक बन्द कोठरी में एक नौकर के सहारे दयनीय स्थिति में समाप्त हो जाता है । इसे चाहे तो कोई कैद भी कह सकता है । मरने तक दोनों ने रखैल रख छोड़ी थी । यह कु-प्रवृत्ति या स्त्री-देह को एक ऐय्याशी का साधन मानने की मानसिकता उन्होंने अपनी अगली पीढ़ी को भी दी, चचा से होते हुए चचाजाद भाई तक पहुँचती है । ध्यातव्य है कि इन रखैल रखने की प्रवृत्ति के कारण दादा और नाना दोनों को अपने परिवार और बच्चों से तक ज़लील होना पड़ता है । रखैल भी एक औरत होती है । अपने बच्चों की उम्र के सौतेले बच्चों से वह पिटती हुई दिखाई गयी हैं । इस परम्परा में न बेटों का नुकसान होता था न बाप का, जीवन और मान-सम्मान तो नष्ट होता था उस स्त्री और उससे उत्पन्न बच्चों का । कथावाचक की पीढ़ी कहीं इससे तो भागकर शहर पलायन नहीं कर जाती है कि वह अपने पूर्वजों जैसी जीवन-शैली में जीवन नहीं बिता सकती है और न बिताने पर जो कंगाली के ताने मिलते हैं, उसे सहन नहीं कर सकती? यह सवाल उपन्यास अपनी संरचना में छोड़ता हुआ आगे बढ़ता है ।

उपन्यास कई व्यक्ति-चरितों के माध्यम से अपने कथ्य को प्रस्तुत करता है । गौर से देखने पर प्रत्येक चरित्र की भले ही अपनी विशेषताएँ, समयानुकूलता, मजबूरियाँ, चारित्रिक बनावट एवं बुनावट, उलझने, परेशानियाँ आदि विभिन्न हैं, किन्तु इनके सामने आनेवाली परिस्थितियाँ लगभग एक जैसी हैं, वह है अपने ऐश्वर्य एवं रुतबे के साथ जायज़ाद को बचाए रखना और उनका दिखावा करना । इसके लिए जूझते हैं तो कई परिस्थितियों के आगे विवश नजर आते हैं । दोनों की नियति एक जैसी होती चली जाती है । इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण अपने संघर्ष को समायानुकूलता का रूप न दे पाना । कथावाचक की पीढ़ी का शहर की ओर पलायन इसी क्रम में देखा जा सकता है । अब्बा का संघर्ष इस उपन्यास में सारी पूर्वरर्तियों के सार के रूप में सकारात्मक ऊर्जा देता है, किन्तु पूर्वपीठिका को देखते हुए उनकी दयनीय स्थिति उनके पतन में ही सार्थकता पाती हुई दिखाई देती है । इस स्थिति पर स्वयं उनकी सन्तानों को दया नहीं आती । कई बार पाठक को लग सकता है कि रचनाकार ने कुछ अधिक ही सख़्त होकर कथावाचक की पीढ़ी द्वारा अपने माता-पिता के प्रति कुछ अधिक ही उपेक्षित दिखाया है, किन्तु क्या इसके पूर्व की पीढ़ियों के अधिकांश परिवार में माता-पिता के प्रति सन्तानों में ममता नहीं है । यदि कहीं है भी तो बेटियों में, बेटों में वह न के बराबर है ।

सत्तातंत्र धर्म का बखूबी इस्तेमाल करना जानता है । उपन्यास में धर्म को लेकर कोई भी पात्र-चरित्र उतना गंभीर नहीं दिखाई देता है और न ही लेखक ने कोई विमर्श प्रस्तुत रूप में नहीं किया है । यह न तो उपन्यास की न्यूनता है और न पात्रों की । एखाद दो स्थानों पर जाहिर रूप में ऐसे सन्दर्भ आए हैं, जहाँ अब्बा मियाँ बीड़ी के कारखाने में शिया लोगों को ही काम पर लगाने की बात करते हैं या फिर नौकरों का चुनाव धर्म-जाति-पंथ देखकर किया जाता है । जाहिरा तौर पर इन पात्रों के जीवन में धर्म का और धर्म में इन पात्रों का कम ही दखल दिखाई देता है । सामान्य व्यक्ति की तरह लगभग सभी पात्र धर्म का पालन अपने वृत्त में रहकर करते अवश्य हैं, किन्तु वह न तो उनकी नैतिकता का मापदण्ड बनता है और न आर्थिक या किसी भी व्यवहार का । उन्हें धर्म से अधिक उनका शासनतंत्र एवं व्यवस्था अधिक नियंत्रित करती है, बजाए धर्म के । यही बात उनकी राजनीतिक दृष्टिकोण के सन्दर्भ में कही जा सकती है । उन्हें कोई अन्तर नहीं पड़ता है कि किसका राज है या कौन सत्ता में बना रहेगा । उनके लिए उसका सत्ता में बना रहना अनिवार्य है, जो उनकी सत्ता को बनाए रखे । न तो राजा के धर्म से उनका मतलब है और न उसकी नैतिकता से । अब्बा मियाँ “जमींदारी खत्म होने के बाद कांग्रेस के पक्के दुश्मन हो गये थे । उनका ये मानना था कि ज़मींदारी कांग्रेस ने ही खत्म की है । ज़मींदारी खत्म होने के बाद उनके ऊपर ऐसा मनोवैज्ञानिक असर पड़ा कि राजनीति से ही दूर हो गए थे ।”(वजाहत, 2012:154) किन्तु अब्बा मियाँ ने कांग्रेस की राजनीति को समझने में भूल की थी । उन्हें देर से समझ में आया कि व्यवस्था के भीतर रहकर उसे अपने अनुकूल बनाया जा सकता है । आरंभ में अब्बा भी इसे नहीं समझ पाते हैं । यही कारण है कि अब्बू मियाँ ने अब्बा के कई बार मना करने के बाद भी ऑनरेरी मजिस्ट्रेट बनात हैं । अब्बा को बाद में समझ में आता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के भीतर रहकर उसे भेदा जा सकता है, किन्तु वे इसका बेहतर ढंग से प्रयोग नहीं कर सके । इस भूल को अब्बा ने सुधारते हुए सरकारी नीतियों के साथ अपनी सत्ता सुधारने की कवादतें शुरु की, उन्हें सीमित सफलता मिली, जिसे असफलता ही कहना उचित होगा । उनकी असफलता का कारण व्यवस्था के बाहर रहकर उन्होंने यह प्रयास किए । जैसे वे सरकारी स्कीमों के माध्यम से अपनी जमीन चकबन्दी और सीलिंग से बचाने की कवायद करते हैं, वह भी मुंशी जी, मैकू और मैनिजर के कंधों पर सवार होकर : “मुंशीजी से मिलने के बाद अब्बा को लग कि न सिर्फ जमीन बचायी जा सकती है बल्कि खेतों को अच्छा चलाने के लिए पैसा भी मिल सकता है और वह पैसा न सिर्फ आसान क़िस्तों पर मिल सकता है बल्कि उसमें भी छूट होगी ।”(वजाहत, 2012:173) इसके बाद स्कीमों के भँवर में फँसकर अब्बा अपनी जमीन को बचाने के काम में लग जाते हैं, जहाँ उन्हें मुंशीजी, मैकू और मैनेजर खूब लूटते हैं । यह सारा प्रसंग न केवल एक जमींदार के लूट का है, जो स्वयं लूट पर खड़ा था, बल्कि सरकारी स्किमों के असफलता के कारणों का भी जायज़ा लेता है । किस प्रकार अधिकांश सरकारी स्कीमों का फायदा लेनेवाले बड़े जमींदार, चकबन्दी और भूमि-वितरण का नाटक स्वातंत्र्योत्तर भारत में सरकारी अफसरों के हत्थे चढ़कर असफल हो गया, इसका सामाजिक इतिहास इस कथा-प्रसंग के माध्यम से लेखक प्रस्तुत करता है ।

लेकिन लक्खू मियाँ ने राजनीति में प्रवेश कर इस सरकारी अफसरों के हाथों से ही उसे भेदा और अपनी सत्ता और रुतबा कायम रखने में कामयाब हुए । यहाँ लक्खू मियाँ को धर्म के कारण कई दिक्कते आती हैं : “दूसरे इलेक्शन के दौरान लक्खू मियाँ खुलकर राजनीति में आ गए थे । लेकिन उनके सामने दो बड़ी दिक्कतें थीं । ...मुसलमान होने से बड़ी दिक्कत ये थी लक्खू मियाँ के समाने ये थी कि वो शिया मुसलमान थे । शिय मुसलमानों को आम तौर पर सुन्नियों के वोट नहीं मिलते सकते थे और वोट सुन्नियों के ही थे ।” (वजाहत, 2012:168) ऐसे में राजनीतिक दल लक्खू मियाँ को टिकट नहीं दे सकते थे । उन्होंने दूसरा रास्ता चुना और एम.एल.ए. बनने से बेहतर लक्खू मियाँ ने उन्हें ही अपना आदमी बना डाला । इस प्रकार उन्होंने अपनी परेशानियों की काट निकाली । मौतमुद्दौला ने भी स्वयं नवाब बनने की कभी नहीं सोची, न वे बन सकते थे । लेकिन उन्होंने नवाबियत को इतना लाचार करके रख दिया था कि वह उनकी खुली लूट के आगे चूँ तक नहीं कर सकती थी । लक्खू मियाँ ने भी वही रास्ता अपनाया, लेकिन लोकतंत्र के हिसाब से अपने पैंतरे बदलते हुए । न अब्बू मियाँ को यह रास्ता नजर आया न अब्बा को ।

भारत के विभाजन और उसकी त्रासदी को अभिव्यक्त करनेवाला बहुत सारा साहित्य हिन्दी में लिखा गया है । इस चार पीढ़ियों के सफरनामे में भी स्वतंत्रता संग्राम, विभाजन एवं स्वातंत्र्योत्तर भारतीय राजनीति के कई सन्दर्भ आए हैं । यह सन्दर्भ अधिकतर या तो संकेत रूप में हैं अथवा पृष्ठभूमि में हैं । उपन्यासकार ने सीधे-सीधे उस पर टिप्पणी न कर पात्रों की सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर उन पर पड़नेवाले प्रभावों एवं स्थितियों को चित्रित किया है । जैसे चकबन्दी, सीलिंग का उल्लेख ऊपर हो चुका है । इसी प्रकार अवध पर अंग्रेजों का कब्जा, देश विभाजन, विभाजन के दौरान हुए दंगे, सत्ता हस्तांतरण आदि राजनैतिक घटनाओं का उल्लेख पृष्ठभूमिक के रूप में ही हुआ है । चूँकि यह एक जमींदार सामन्ती परिवार की कहानी है, तो दंगों, आगजनी जैसी घटनाओं का इन पर अधिक प्रभाव नहीं पड़ा । जो थोड़ा बहुत प्रभाव पड़ा उसे पृष्ठभूमि के रूप में प्रस्तुत किया गया है । “अब्बा मियाँ की हमदर्दी पाकिस्तान के साथ थीं । लेकिन पाकिस्तान जाने की सोची तक नहीं ।” (वजाहत, 2012:155) क्योंकि भले ही उन्हें वहाँ भी जमींदारी मिल जाती, किन्तु वहाँ उसे चलाना उन्हें आसान न होता । वे जवाहरलाल नेहरू और जिन्ना दोनों को पसन्द करते थे । इस प्रकार राजनीतिक सत्ता हस्तांतरण और स्वतंत्रता संग्राम के दौरान एवं बाद में भी इस परिवार के पुरुषों का राजनीतिक झुकाव उनकी अपनी सत्ता बनाए रखने को लेकर ही तय हुआ है, धर्म या जाति के आधार पर नहीं ।

मुसलमानों का बहुत बड़ा तबका शहरीकरण का हिस्सा बनता चला गया । उसके कई कारणों का खुलासा इस उपन्यास में होता है । आज अधिकांश मुस्लिम आबाद शहरों में बसती है । भारत में मझोले पूँजीवादी वह बने हैं, जो चकबन्दी और सीलिंग से पहले जमींदार हुआ करते थे । औपनिवेशिक समय में जो सत्ता की गलियारों में टहलते थे, वही पूँजीवादी बनकर आज भी सत्ता की बागडोर अपने हाथों लिए हुए हैं । यह दिलचस्प है कि भारतीय सामन्तवाद मानसिक और भौतिक स्तर से समाप्त नहीं हुआ है, बल्कि वह किसी बीमारी के किटाणुओं की भाँति रूप बदलकर समाज को खोखला कर रहा है । असगर वज़ाहत ने ‘सात आसमान’ में दो तरह के सामन्त परिवार दिखाए हैं - एक स्वतंत्रता के बाद सीलिंग की चपेट में आकर अपनी सत्ता खो बैठे, दूसरे चालाक किस्म के जमींदार जिन्होंने अपने नौकरों, रिश्तेदारों, मातहतों के नाम जमींन के टुकडे कर व्यवहार में जमींदार बने रहे और फिर बाद में उसे बेचकर शहर की तरफ और उद्योगपति बन गए । इन्हीं उद्योगपितियों का राजनीति से लेकर जमींनों पर आज कब्जा है । इन दोनों तरह के जमींदार परिवार शहर की ओर पलायन करते गए । मौतमुद्दौला का खानदान बर्बाद होकर शहर में आ जाता है । अब्बू साब का परिवार दूसरी कोटी का बनता है । कथावाचक की पीढ़ी आधुनिक शिक्षा एवं जीवन-शैली की ओर आकर्षित होकर गाँव के जीवन को ठुकरा देती है । इस तरह यह उपन्यास एक सामाजिक प्रक्रिया को बड़े ही भोलेपन से अभिव्यक्त करता है । भोलेपन से इसलिए कि कहीं भी लेखक स्थितियों या पात्रों के निर्णयों, कृत्यों पर कोई टिप्पणी नहीं करता है । वह केवल वर्णन करता चला जाता है ।

उपन्यास बगैर किसी भूमिका या लाग-लपेट के सीधे वर्णननात्मक ढंग से कहानी कहता चला जाता है । कहानी के रूप में उपन्यास में चरित्रों की झड़ी है । अनेकानेक चरित्रों के माध्यम से कथा बुनने का प्रयास किया गया है । चरित्रों पर इतना अधिक केन्द्रिकरण हुआ है कि कई बार परिवेश धुँधला पड़ गया है । इसीलिए इसे परिवारों की कहानी कहना ही उचित होगा । समाज मान्यताओं और पृष्ठभूमि में चला गया है । पीढ़िवार जो भाषा और लहजें में बदलाव आने चाहिए थे, उस तरफ उपन्यासकार ने पता नहीं क्यों ध्यान नहीं दिया । पढ़े-लिखे, अपढ़, देहाती, शहरी आदि की भाषाओं के लहजे में बहुत अधिक अन्तर नहीं देखने को मिलता है । अवध आदि क्षेत्रानुसार भाषा के लहजे की तो हम सोच भी नहीं सकते । सभी खालिस हिन्दुस्तानी बोलते हैं । शहरी भाषा । वह भी अधिकांश आज की । जमींदारीं परिवार पर लिखे गए उपन्यास में भ लोक-तत्व हो सकता है, अपनी क्षेत्रीय पहचान हो सकती है, जातीय अस्मिता हो सकती है, इसे रचनाकार भूल गया । परत-दर-करत उधेड़ा जाने पर उपन्यास का कथ्य जोरदार है, किन्तु शैली ढीली-ढाली वर्णनात्मक है । उपन्यास महा-अख्यान है तो ‘सात आसमान’ महावृत्तान्त कहा जा सकता है ।

संदर्भ सूची :-

  1. वजाहत, असग़र (दूसरी आवृत्ति 2012): सात आसमान, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली.


डॉ. हसन पठान, सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, सेन्ट. जोसेफ्’स कॉलेज (स्वायत्त), बेंगलुरु. फोन नं. 8050694080. ईमेल- hasanpathan09@gmail.com