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हिन्दी साहित्यानुसंधान : चुनौतियाँ एवं सम्भावनाएँ

अनुसंधान के लिए हिन्दी में गवेषणा, अन्वेषण, निरीक्षण, परीक्षण, जाँच, खोज आदि शब्द प्रचलितहैं। इन शब्दों में शोध एवं अनुसंधान शब्दों का प्रयोग व्यापक रूप से होता है । वामन शिवराम आप्टे के अनुसार शोध का अर्थ है - शोधन, संशोधन, परिष्कार, परिमार्जन । शोध आज एक पारिभाषिक शब्द के रूप में अनुसंधान के लिए रूढ़ हो गया है । इसी तरह अन्वेषण का अर्थ है खोजना, ढूँढना तथा देखभाल करना (वामन शिवराम आप्टे) । पर हम जानते हैं कि अनुसंधान के क्षेत्र में सिर्फ खोज या देखभाल ही पर्याप्त नहीं है । गणवेषा का अर्थ भी ढूँढना, खोजना, प्रयत्न करना, पूछताछ करना एवं प्रबल उद्योग करना है। अतः इन सभी शब्दों की अपेक्षा अनुसंधान ही ज्यादा उपयुक्त है । अनु - (क्रमानुसार) - सम् (सम्यक रूप से) धान (धारण करना या विचार करना) अर्थात् अनुसंधान का अर्थ हुआ किसी विषय पर सम्यक रूप से या क्रम से विचार करना। आधुनिक काल में अनुसंधान का प्रयोग अंग्रेजी के (Research) रिसर्च शब्द के हिन्दी समतुल्य के रूप में स्वीकृत एवं मान्य है।

बाबू गुलाबराय के अनुसार अनुसंधान एक व्यापक शब्द है । साहित्यिक अनुसंधान के विषय में उनका मत है:
"साहित्यिक अनुसंधान में नवार्जित ज्ञान की पूर्वार्जित ज्ञान के आलोक में व्याख्या करके संगति बैठाई जातीहै ।"[1]

डॉ . नगेन्द्र के अनुसार :
"अनुसंधान का अर्थ है दिशा और अनु का अर्थ है पीछे, इस प्रकार अनुसंधान का अर्थ हुआ किसी लक्ष्य को सामने रखकर दिशा विशेष में बढ़ना – पश्चाद्गमन अर्थात किसी तथ्य की प्राप्ति के लिए परिपृच्छा परीक्षण आदि करना ।"[2]

डॉ . नगेन्द्र ने अनुसंधान शब्द की कोई सम्यक परिभाषा नहीं दी है, उन्होंने केवल उसका व्युत्पत्तिमूलक अर्थ बताकर छोड़ दिया है । आज के दौर में अनुसंधान केवल लक्ष्य की ओर बढ़ना ही नहीं अपितु क्रमबद्ध, व्यवस्थित और स्वीकृत प्रणाली द्वारा निरीक्षण – परीक्षण कर मौलिक शोध रचनाओं तक पहुँचना है । शोध जो आज अनुसंधान के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता है, उसके विषय में आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी का मत दृष्टव्य है :
"शोध शब्द में किसी अज्ञात तथ्य को प्रकाश में लाने और प्रतिष्ठित करने का आशय निहित है । शोध में बिखरे हुए तथ्यों का समाहार और संयोजन भी किया जाता है । .... विरोधी मतों का खण्डन और निराकरण कर नए निर्णय की प्रतिष्ठा की जाती है । यह नया निर्णय एक स्वतंत्र विचारसरणी के रुप में उपस्थित होता है , तब उसे ' थीसिस ' या प्रबन्ध कहते हैं ।"[3]

यह परिभाषा निश्चित ही अनुसंधान के स्वरूप को समझने में हमारी मदद करती है । अतः यह कहा जा सकता है कि अनुसंधान किसी विषय के अध्ययन की विशिष्ट वैज्ञानिक पद्धतिहै । यह सोचना भी जरूरी है कि अनुसंधान क्यों किया जाये? क्या आज यह सिर्फ धनोपार्जन का जरिया हो गया है ? अनुसंधान का औचित्य तो स्वतः सिद्ध है, उसकी वजह से न केवल हम पूर्व अर्जित ज्ञान की परंपरा में विस्तार करते हैं अपितु नए ज्ञान के क्षेत्र भी खोजते हैं । मनुष्य स्वभाव से ही जिज्ञासु है, अज्ञात को जानने की तीव्र इच्छा उसे शोध की प्रेरणा देती है । आज जो कुछ हम जानते हैं वह अतीत में हुए अनुसंधान कार्यों की ही देन है । आगे भी जो कुछ हम जानेंगे वह हमारी शोध प्रवृत्ति के कारण ही मुमकिन होगा । अतः यह बेहद जरूरी है कि हमें अपने विषय से लगाव हो, यही वजह है कि विषय का चुनाव अनुसंधान प्रक्रिया का बेहद महत्वपूर्ण चरणहै । विषय का चयन करते समय अनुसंधान उत्सुक को अनेक महत्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना आवश्यक है । ऐसा विषय चुनना चाहिए जो मौलिक हो, न अति विस्तृत हो और न संकुचित, जिस पर शोध साम्रगी उपलब्ध हो या उसकी उपलब्धि की संभावना हो, जो एक निश्चित समय अवधि में शोध निष्कर्ष तक पहुँच सके, जिस विषय में शोधार्थी की रुचि हो और जो ज्ञान-परंपरा के विकास में अहम भूमिका का निर्वाह करे । "

“टाइरस हिल्वे ने विषय के चुनाव के बारे पाँच प्रश्न प्रस्तुत किये हैं :
1. क्या, विषय दिलचस्प है ?
2. क्या, वह नया है ?
3. क्या, उससे ज्ञान – क्षेत्र का विस्तार हो सकता है ?
4. क्या, वह प्रायोगिक रुपमें सफल हो सकता है ?
5. क्या, उस पर पहले और किसी ने शोध किया है ?

विषय के दिलचस्प होने का तात्पर्य यही है कि उसमें कुछ अज्ञात तत्वों का होना आवश्यक है, जिनका उद्घाटन ही शोध है । वस्तु के वैचित्र्य के संजात सतही दिलचस्पी नहीं, गहन तथ्यों और सत्यों को जानने कीइच्छा ही यहाँ दिलचस्पी से संकेतित है । विषय का नया होना भी शोध की मौलिकता के लिए अपेक्षित है ।”[4]

यहाँ 'मौलिकता' शब्द पर विचार करना आवश्यक है खासकर साहित्य में, क्योंकि अन्य उपयोगी अनुशासनों में मौलिकता की अवधारणा ज्यादा स्पष्ट है । लेकिन साहित्य में 'मौलिक शोध-दृष्टि' को परिभाषित करना काफी कठिन है क्योंकि साहित्य विज्ञान एवं तकनीक की अपेक्षा ज्यादा सापेक्षिक अध्ययन है, इसके पढ़ने वाले का दृष्टिकोण पाठक की कई व्याख्याएँ संभव बनाता है । यहाँ अनेकार्थता गुण है, विज्ञान की तरह दोष नहीं और किसी भी पाठ सामग्री का विश्लेषण अनेक कोणों से हो सकता है । यहाँ 'सत्य' एवं 'बोध' भी पूरी तरह निरपेक्ष एवं वस्तुनिष्ठ नहीं होता । एस. एन. गणेशन के अनुसार :
"अगर कोई अनुसंधान कार्य उस विषय के क्षेत्र में प्रवाहित विचारधाराओं में भव्यमान परिवर्तन ला सकता है, प्रचलित विश्लेषण – पद्धतियों को अधिक सूक्ष्म बना सकता है या प्रचलित सिद्धान्तों को संशोधित अथवा परिवर्तित कर सकता है, तो उस कार्य को मौलिक और महत्वपूर्ण माना जाएगा ।"[5]

शोध को महत्वपूर्ण बनाने वाला निर्णायक तत्व हैं : मौलिकता । अंग्रेजी के कवि राबर्ट फ्रास्ट का कथन है :
" दो राहें निकली एक वन में
और मैंने वह राह ली,
जिसको लेते हों कमराही,
अन्तर था, बस इतना ही ।"[6]

ध्यातव्य है कि मात्र तथ्यों का संकलन अनुसंधान नहीं हो सकता । हाँ वह अनुसंधान की राह प्रशस्त करने में सहायक अवश्य हो सकता है ।

यहाँ साहित्यिक अनुसंधान को वैज्ञानिक एवं समाज वैज्ञानिक अनुसंधान से अलगाना जरुरी है । साहित्येतर जगत में अनुसंधान की सामाजिक उपयोगिता का निश्चयन आवश्यक है किन्तु साहित्य में कई बार अनुसंधान की प्रत्यक्ष रूप से कोई उपयोगिता नहीं होती । उसी तरह विज्ञान में हम कई बार 'परिकल्पना' या 'शून्यपरिकल्पना' लेकर चलते हैं और प्रायोगिक अध्ययन कर अपने शोध-निष्कर्षो तक पहुँचते हैं । यह तय है कि अनुसंधान के लिए तटस्थ दृष्टिकोण अत्यंत आवश्यक होता है- इसीको हम वैज्ञानिक पद्धति भी कह सकते हैं पर साहित्यिक अनुसंधान में आलोचना और अनुसंधान की विभाजक रेखा बहुत साफ नहीं होती जिसकी वजह से कई बार अनुसंधित्सु आलोचना को ही अनुसंधान समझ बैठता है । दरअसल अनुसंधान भी 'विचार' की ही उपज है और जब तक अनुसंधान दस्तावेजी नहीं है वैचारिक पृष्ठभूमि से उसे अलगाना पूरी तरह संभव नहीं है । यहाँ तक कि वैज्ञानिक अनुसंधान में भी पद्धति चाहे जितनी वस्तु निष्ठ क्यों न हो मूल विचार व्यक्ति – सापेक्ष ही होता है, शोध प्रश्न किसी अध्येता के मौलिक विचार ही होते हैं । यदि न्यूटन ने यह सोचा न होता कि सेव वृक्ष से टूटकर नीचे क्यों गिर रहा है, ऊपर क्यों नहीं जाता तो गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त नहीं आ पाता । अतः बिना हिचक यह कहा जा सकता है कि किसी भी भौतिक अनुसंधान का स्रोत कोई नया विचार ही है। आजकल अनुसंधान की सामाजिक उपयोगिता पर बहुत बल दिया जाता है, जो कि निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है पर पूरी विनम्रता से कहना चाहती हूँ कि जैसे अनुप्रयुक्त गणित तो गणित का अनुप्रयुक्त पक्ष है , उसकी उपयोगिता स्वतः सिद्ध है । इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि विशुद्ध गणित में अनुसंधान की जरुरत नहीं । इसी तरह साहित्य की सीधी उपयोगिता प्रमाणित होना हमेशा मुमकिन नहीं होता । कविता, कहानी, उपन्यास आदि के लाभ एवं सामाजिक उपादेयता निश्चित रूप से रोटी बनाने की मशीन और कोरोना की वैक्सीन से भिन्न है पर जीवन के सघन अंधकारमय क्षणों में साहित्य एवं कलाएँ ही आपको प्रेरणा एवं संबल प्रदान करती हैं। नागार्जुन लिखते हैं :
"घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल !
याद आता है तुम्हारा सिन्दूर तिलकित भाल !
कौन है वह व्यक्ति जिसको चाहिए न समाज ?
कौन है वह एक जिसको नहीं पड़ता दूसरे से काज ?
चाहिए किसको नहीं सहयोग ?
कौन चाहेगा कि उसका शून्यमेंट कराए यह उच्छवास ।"[7]

इसी तरह पाश की कविता है :
"सबसे खतरनाक है हमारे सपनों का मर जाना ।
सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शान्ति से भर जाना
न होना तड़प का सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौट कर घर जाना
सबसे खतरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना ।"[8]

यदि हम साहित्य और कलाओं के बिना जीवन की परिकल्पना करेंगे, 'गेहूँ बनाम गुलाब' में सिर्फ गेहूँ को चुनेंगे तो जल्द ही वह दिन आ जाएगा जब हमारे सपने रुठ जाएँगे । अतः साहित्य को विज्ञान एवं तकनीक के निकष पर रखकर उसका आकलन नहीं किया जा सकता पर ऐसी स्थिति के लिए साहित्य से जुड़े लोग स्वयं जिम्मेदार हैं क्योंकि वे यह तो कहतेहैं कि विज्ञान के नियम साहित्य पर लागू नहीं होते पर वे साहित्यानुसंधान के नए प्रतिमान नहीं गढ़ते।

इस तरह हम देखते हैं कि साहित्य किसी बढ़ई की तरह मेज, कुर्सी तो नहीं बना सकता लेकिन हमारे 'मनुष्य' बने रहने के लिए 'संवेदनशील' बने रहने के लिए साहित्य एवं अन्य कलाओं का बचा रहना बेहद जरुरी है। अतः अन्य उपयोगी कलाओं की तरह सामाजिक उपादेयता साहित्यिक अनुसंधान की कसौटी नहीं हो सकती । आज जिस उपभोक्तावादी दौर में हम जी रहे हैं उसमें मनुष्य को भी वस्तु बनाकर उसका उपयोगिता मूल्य तय कर दिया जाता है और संभवतः इसीलिए अनुसंधान का भी उपयोगिता मूल्य निर्धारित करने की दिशा में पहल हो रही है किन्तु साहित्य वस्तु नहीं है और इसलिए मानव जीवन के लिए बेहद जरूरी होने पर भी उपभोग की वस्तुनहीं बनता पर साहित्य में सीधे तौर पर कोई उद्देश्य या संदेश हो या न हो,हमारे मानवीय मूल्यों को जीवित रखने में उसकी कारगर भूमिका असंदिग्ध है।

साहित्य में कुछ विधाएँ प्रायोगिक हैं जैसे नाटक, जिसे भरत मुनि ने भी 'प्रयोग - विज्ञान' कहा है। जन-नाटकों की सामाजिक उपादेयता स्वतः सिद्ध है पर पूरा साहित्यिक वाङ्मय सोद्देश्य हो ऐसा आवश्यक नहीं है । अतः यह तय है कि साहित्यानुसंधान वैज्ञानिक प्रक्रियाओंके बावजूद पूरी तरह वस्तुनिष्ठ नहीं हो पाता । आज साहित्यिक अनुसंधान की सबसे बड़ी चुनौती है अपने वैचारिक आग्रहों को अपनी शोध स्थापनाओं पर हावी न होने देना और यथा संभव तटस्थ पद्धतियों को शोध प्रक्रिया में अपनाना ।रचनात्मक प्रतिभा के संस्पर्श के साथ मानवीय मूल्यों एवं वैज्ञानिक पद्धति के प्रति निष्ठा साहित्यिक अनुसंधान की अनिवार्य शर्त है ।

इस विषय पर आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का उद्धरण ध्यान देने योग्य है :
"विश्वविद्यालय शोधार्थी से भी यह आशा रखते हैं कि वह व्याख्यात मन्तव्यों की नई व्याख्या भी करें । यह क्षेत्र तो सच्चे अर्थो में असीम है । इसलिए विषय दारिद्रय केवल बात की बात है । काम करने योग्य विषयों की बिल्कुल कमी नहीं है । भीतर से कुछ नया देने की उमंग होनी चाहिए । जीविका वाले प्रश्नों को अन्य उपायों से हल करने का प्रयत्न करना चाहिए । यह क्षेत्र सम्पूर्ण रूप से ज्ञान साधना का क्षेत्र होना चाहिए । ऐसा अगर किया जा सका तो विषय दारिद्रय का प्रश्न कभी नहीं उठेगा ........ मैं कुछ जोर देकर कहना चाहता हूँ कि शोध–कार्य केवल तथ्यों का निर्जीव पुलिंदा नहीं होना चाहिए । उसमें रचनात्मक प्रतिभा का स्पर्श होना बहुत आवश्यक है । निःसंदेह वैज्ञानिक पद्धति का अनुसरण होना चाहिए और वैज्ञानिक पद्धति का मूल-मंत्र है परिणामों के प्रति अनासक्ति लेकिन सच्चाई सब क्षेत्रों में वांछनीय है और सच्चाई हमेशा मानवीय होती है । हम ऐसी सच्चाई का कुछ भी ज्ञान नहीं रखते जो मानवीय धारणाओं से अस्पृष्ट और मानवीय मूल्यों से अनासक्त है।"[9]

विषय के आधार पर अनुसंधान पद्धतियों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है -
1. ऐतिहासिक अनुसंधान पद्धतियाँ- इसके अन्तर्गत तथ्यों की व्याख्या एवं विवेचन किया जाता है । ऐतिहासिक पद्धति का स्पष्ट संकेत तथ्य प्रधानता की ओर है जिसमें सिलसिलेवार व्याख्या की जाती है । इस वर्ग में सूचनात्मक या दस्तावेजी, प्रवृत्त्यात्मक, रूपात्मक एवं तुलनात्मक अनुसंधान पद्धतियाँ शामिल हैं । अनुसंधित्सु चयनित विषय को ध्यान में रखकर पद्धति या प्रक्रिया अपनाते हैं, यदि किसी कालखंड की पाठ्यसामग्री को संकलित कर विश्लेषण करना है तो दस्तावेजी पद्धति को अपनाना होगा जैसे , महेश आनंद की पुस्तक ' रंग - दस्तावेज़ ' दस्तावेजी अनुसंधान पद्धति का अप्रतिम उदाहरण है । इस तरह के शोध को कुछ विद्वान कमतर आँकते हैं पर वास्तविकता यह है कि यह न केवल श्रमसाध्य अपितु बेहद महत्वपूर्ण कार्य है । इसी तरह यदि हम किसी प्रवृत्ति विशेष को आधार बनाकर शोध करें , जैसे छायावाद, प्रयोगवाद आदि तो उस कार्य को प्रवृत्यात्मक अनुसंधान पद्धति के अन्तर्गत शुमार किया जाएगा । रूपात्मक अनुसंधान पद्धति में साहित्य के शिल्प या रूप तत्व को प्राथमिकता मिलती है जैसे श्रीमती रेखाखरे का शोध प्रबन्ध " निराला की काव्यभाषा । तुलनात्मक अनुसंधान तो नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें दो या दो से अधिक समतुल्य लेखकीय कार्यों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है, जैसे जयशंकर प्रसाद एवं डी. एल. राय के नाटकों का तुलनात्मक अध्ययन ।

1. समाज वैज्ञानिक अनुसंधान पद्धतियाँ- इस वर्ग के अन्तर्गत साहित्य का मार्क्सवादी, मनोविश्लेषणवादी, दार्शनिक, समाजशास्त्रीय आदि आधारों को निकष बनाकर अनुशीलन किया जाता है । यहाँ यह स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है कि विषयानुसार ही शोधार्थी अनुसंधान पद्धति का भी चुनाव करता है । साहित्यिक विधाओं के आधार पर भी वर्गीकरण किया जा सकता है, यथा :
1.साहित्येतिहास
2.कथा साहित्य
3.कविता
4.निबंध
5.पत्रकारिता
6.काव्य शास्त्र
7.भाषा विज्ञान
8.शैली विज्ञान
9.नाटक
10.अनुवाद आदि ।

इनमें से नाटक एवं अनुवाद प्रायोगिक विधाएँ हैं और इसीलिए इनमें अनुसंधान की पद्धति साहित्यानुसंधान की अन्य प्रक्रियाओं से कुछ भिन्न होती है । सभी विधाओं में अनुसंधान की चुनौतियों पर बात करना यहाँ मुमकिन नहीं। अतः मैं "नाटक" विधा से जुड़ी अनुसंधान की कुछ चुनौतियों की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगी । इस विधा से जुड़े शोध की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि अनुसंधान में पूरा बल सिर्फ 'लिखित' जो प्रयोग में 'वाचिक' बन जाता है, उसी पर रहता है, जबकि नाटक में सात्विक, आंगिक एवं आहार्य भी उतने ही जरुरी हैं जितने 'शब्द' । नाटक के आलेख को पूर्ण मानकर उसके प्रायोगिक पक्ष की अनदेखी नाटक से जुड़े अनुसंधान कार्य को एकांगी एवं अधूरा बना देती है । हालांकि इसके अपवाद भी है पर वे ज्यादातर ऐसे विद्वानों द्वारा लिखे गए हैं जो नाटक के अनुप्रयुक्त पक्ष से परिचित हैं, जैसे जयदेव तनेजा का शोध प्रबन्ध 'मोहन राकेश रंगशिल्प और प्रदर्शन'। अतः नाटक विधा के अनुसंधान में भाषेतर संप्रेषण को यथोचित महत्व मिलना चाहिए । ऐसा होने की स्थिति में पारसी रंगमंच को विश्वविद्यालयों में संभवतः उसकी यथोचित जगह मिल पायेगी और उसे भी गंभीर रंगकर्म के रूप में साहित्येतिहास में शामिल किया सकेगा ।

साहित्य में मौलिक या नए पन का प्रस्थान बिन्दु नया नजरिया ही है, यही वजह है कि प्रसाद के नाटक जो लम्बे समय तक अनभिनेय समझे जाते रहे उनके प्रति नए नाट्य-समीक्षकों का नजरिया बदला । इसके साथ ही'इन्दर सभा' जैसे नाटक को भी स्वतंत्रता के बाद महत्वपूर्ण नाटक के रूप में स्थान मिला । इसी क्रम में एक अन्य महत्वपूर्ण चुनौती है विषयानुरूप सामग्री-संचयन; क्योंकि आलेख यानि बंध लिखने के लिए साक्ष्यों की आवश्यकता इतनी अधिक नहीं होती जितना अनुसंधान के लिए । अनुसंधान में लिखी हुई बात को प्रमाणित करना भी जरूरी है जबकि निबंध में ऐसा नहीं है । अतः अनुसंधान को प्रामाणिक रूप से प्रकाशन योग्य बनाने हेतु सामग्री संकलन आवश्यक है एवं चुनौती पूर्ण भी। इस कार्य के लिए भी कई पद्धतियों को अपनाया जाता है । यथा :
1. अध्ययन पद्धति: इस पद्धति के अन्तर्गत मूलग्रंथ, आधारभूत सैद्धान्तिक ग्रंथ, कोश, टीकाएँ, विषयों से संबंधित आलोचनाग्रंथ, शोधप्रबंध, पत्रिकाएँ, संगोष्ठी, अधिवेशनों की प्रकाशित सामग्री आदि आती है जिसका अध्ययन-अनुशीलन अनुसंधित्सु से अपेक्षित है ।
2. साक्षात्कार पद्धति में साक्षात्कार, परिचर्चा, भेंट आदि शामिल होते हैं ।
3. प्रश्नावलीपद्धति: सामाजिक महत्व रखने वाले मुद्दों से संबंधित शोध-विषयों में इस पद्धति का प्रयोग अधिकांशतः देखने को मिलता है ।
4. नमूनीकरण: शोध विषय की आवश्यकतानुसार चयनित सामग्री को 'नमूने' कहा जाता है । अध्ययन का उद्देश्य अवधि एवं सुविधा के अनुसार नमूनीकरण किया जाता है । बिना किसी पूर्व निर्धारित नियम के आकस्मिक रूप से कुछ मदो का चयन यादृच्छिक कहा जाता हैं जैसे कबीर की भाषा पर विचार करते समय 2, 4, 6, 8 के क्रम से दोहों का चयन, यादृच्छिक नमूनीकरण होगा तो प्रसंगानुकूल या आयोजित नमूनीकरण के आधार पर भी अनुसंधान से जुड़ी सामग्री का चयन किया जा सकता है । साथ ही स्तरी कृत अथवा विभाजित नमूनीकरण का प्रयोग भी विषयानुसार किया जा सकता है ।

ये पद्धतियाँ ज्यादातर दूसरे अनुशासनों द्वारा निर्मित हैं जिनका प्रयोग समय-समय पर साहित्यानुसंधान के क्षेत्र में भी किया जाता है । साहित्यानुसंधान की पद्धतियाँ अभी भी पूरी तरह निर्मित नहीं हुई हैं अतः अनुसंधित्सु अपने विवेक का इस्तेमाल कर शोधकार्य में संलग्न होता है । अतः साहित्य से जुड़े अनुसंधान की एक बड़ी चुनौती यह भी है कि वह अपनी अनुसंधान पद्धतियाँ विकसित करे। फिलहाल इनके अभाव में हम अन्य अनुशासनों में प्रयुक्त अनुसंधान पद्धतियों को अपने शोध विषय के अनुरूप बनाकर उनका प्रयोग करते हैं ।

साहित्य अनुसंधान की एक और बड़ी चुनौती यह है कि हम लोक प्रिय एवं चर्चित लेखकों पर ही कार्य करते जा रहे हैं । साहित्यिक विधाओं में भी कथा-साहित्य पर सर्वाधिक शोध हो रहे हैं । अतः शोध विषयों के चुनाव में भी एक प्रकार की भेड़चाल है और प्राचीन साहित्य जिस पर शोध की सर्वाधिक आवश्यकता है, सामग्री के अभाव एवं कठिनाईयों की वजह से शोधछात्र ऐसे विषय लेने से कतराते हैं । इस समस्या को लक्ष्य कर प्रो . ललिताप्रसाद सुकुल लिखतेहैं :
"संसार के प्रत्येक अंचल में ज्ञान की सरिता का प्रवाह आदि और अनन्त माना गया है । प्रादुर्भूत और सुरक्षित होकर यही ज्ञानराशि साहित्य का स्वरूप धारण कर लेती है । जिस प्रकार जीवन में आज की नींव विगत कल पर है, उसी प्रकार साहित्य का वर्तमान स्वरूप उसके पिछले स्वरूपों पर आधारित रहता है और यदि ध्यान से देखा जाए तो वर्तमान में भविष्य की रूप रेखा झलकती जान पड़ेगी ।

साहित्य के क्षेत्र में अतीत की ओर दृष्टि डालना कोरा व्यसन ही नहीं वरन आवश्यक और अनिवार्य हो जाता है क्योंकि बिना पृष्ठभूमि के यथेष्ट परिचय के वर्तमान साहित्य से संबंधित कैसे और क्यों की जिज्ञासा शांत नहीं हो सकती । यही अनिवार्यता है अनुसंधानकी ।"[10]

प्राचीन हस्तलिपियों पर शोधकार्य की जरूरत को रेखांकित करते हुए डॉ. माताप्रसाद गुप्त 'हिन्दी में पाठानुसंधान' शीर्षक से लिखे गए अपने लेख में इस दिशा में कार्य किए जाने की वकालत करते हैं, उनके अनुसार :
"हिन्दी में अनुसंधान अनेक दिशाओं में हुआ है । कुछ दिशाएँ अपेक्षाकृत अधिक लोकप्रिय रही हैं और कुछ कम । किन्तु एक दिशा ऐसी रही है, जिसकी ओर ध्यान बिलकुल नहीं दिया गया है – वह है पाठानुसंधान की दिशा ।

पाठानुसंधान हिन्दी में समस्त अनुसंधान कार्य के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता है, कारण यह है कि पिछले लगभग एक सौ वर्षों से पूर्व का हिन्दी का समस्त साहित्य मूलतः हस्तलिखित प्रतियों के रूप में ही प्राप्त है और उत्तरोत्तर जितना ही हम उसके प्राचीनतर और प्राचीनतम साहित्य की ओर बढ़ते हैं, उनकी पाठ समस्या गहन से गहनतर और गहनतम होती जाती है ।"[11]

अतः यह स्पष्ट है कि हिन्दी पाठानुसंधान का क्षेत्र सर्वथा अछूता और उपेक्षित है और आज भी उसमें शोधकार्य करने की अपरिमित संभावनायें हैं । तकनीक का अभाव भी हिन्दी अनुसंधान की एक बड़ी चुनौती है, जिसके अभाव में हम अपनी हस्तलिखित पांडुलिपियों को नष्ट होने से नहीं बचा पा रहे । अपने पुस्तकालयों की शोचनीय दशा को सुधारे बिना हम अपनी पांडुलिपियों की सुरक्षा नहीं कर पाएँगें और ऐसी स्थिति में शोधकार्य के स्तर में गुणात्मक परिवर्तन की अपेक्षा करना निरर्थक ही सिद्ध होगा ।

यदि हम केवल मौखिक सहानुभूति की बजाय सचमुच हिन्दी साहित्य में अनुसंधान की स्थिति के प्रति चिंतित और सचेत हैं, जैसा कि हिन्दी के हर पाठक को होना चाहिए तो हमें निश्चित तौर पर छात्रों को अनुसंधान के प्रति जागरुक, तैयार और अग्रसर करने की जरूरत है क्योंकि हिन्दी साहित्य में शोध के क्षेत्र में आज भी अपरिमित संभावनाएँ हैं ।

हिन्दी साहित्यानुसंधान के भविष्य एवं वर्तमान परिदृश्य की चर्चा करते हुए प्रो . ललिताप्रसाद सुकुल लिखते हैं :
"जहाँ तक विस्तृत हिन्दी साहित्य की सामग्री का संबंध है, इसमें संदेह नहीं कि इस क्षेत्र में अनुसंधान कार्य की बहुत अधिक गुंजाइश है और कार्य करने की आवश्यकता भी है । यह हर्ष का विषय है कि इस समय हिन्दी विविध भारतीय विश्वविद्यालयों में अपना उच्च स्थान प्राप्त कर चुकी है । सुशिक्षित विद्वान आज उसकी सेवा में रत हैं और अनुसंधान का कार्य भी दिनोंदिन उन्नत हो रहा है ।"[12]

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जिस तरह सूफी जुनून से आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने स्वयं जायस जाकर जायसी की अमर रचना 'पद्मावत' की सिर्फ खोज ही नहीं की अपितु उसकी विस्तृत भूमिका लिखकर उसके पाठक की समझ विकसित करने में भी पाठकों की मदद की, उसी तरह आज भी हिन्दी में वास्तविक अनुसंधान कार्य की जरूरत को शिद्दत से महसूस किया जा रहा है अन्यथा हम सिर्फ अनुसंधान के नाम पर पूर्वार्जित ज्ञान – परंपरा से ही सामग्री लेकर उसे नए साँचों में ढालते रहेंगे । यदि अनुसंधान के औपचारिक एवं अनौपचारिक क्षेत्रों में विषय के प्रति लगाव के साथ निष्कर्षों के प्रति तटस्थता आती है और हम पूर्वग्रह से मुक्त होकर अनुसंधान में प्रवृत होते हैं तो निश्चित ही हिन्दी साहित्यानुसंधान के भविष्य के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है ।

सन्दर्भग्रंथसूची :

  1. गुलाबराय, बाबू. अध्ययन और आस्वाद. (पृष्ठ : 399)
  2. डॉ . सिन्हा, सावित्री, डॉ . नगेन्द्र. (सं.). अनुसंधान का स्वरूप. नई दिल्ली : हिन्दी अनुसंधान परिषद. (पृष्ठ : 97)
  3. डॉ . वाजपेयी, नन्ददुलारे. प्रकीर्णिका : शोध और समीक्षा . (पृष्ठ : 13)
  4. गणेशन, एस.एन. (2009). अनुसंधान प्रविधि, सिद्धांत और प्रक्रिया. इलाहाबाद : लोकभारती प्रकाशन. (पृष्ठ : 86)
  5. वही , (पृष्ठ : 64)
  6. वही , (पृष्ठ 62)
  7. नागार्जुन. (2005). नागार्जुन संचयन. नई दिल्ली : साहित्य अकादमी. (पृष्ठ : 43)
  8. पाश. बीच का रास्ता नहीं होता. नईदिल्ली : राजकमल प्रकाशन. (पृष्ठ : 188)
  9. द्विवेदी, आचार्य हजारीप्रसाद. हिन्दी में शोध कार्य. डॉ . सिन्हा, सावित्री. (सं.). अनुसंधान का स्वरूप. नई दिल्ली : हिन्दी अनुसंधान परिषद. (पृष्ठ : 17),
  10. प्रो. सुकुल, ललिता प्रसाद. अनुसंधान का स्वरूप , डॉ . सिन्हा, सावित्री. (सं). नई दिल्ली : हिन्दी अनुसंधान परिषद. (पृष्ठ : 50)
  11. डॉ . सिन्हा, सावित्री. (सं.). डॉ. माताप्रसाद गुप्त : हिन्दी में पाठानुसंधान. अनुसंधान का स्वरूप. नई दिल्ली : हिन्दी अनुसंधान परिषद. (पृष्ठ : 61-62)
  12. प्रो. सुकुल, ललिता प्रसाद. अनुसंधान का स्वरूप , डॉ . सिन्हा, सावित्री. (सं). नई दिल्ली : हिन्दी अनुसंधान परिषद. (पृष्ठ : 52-53)


डॉ. आभा गुप्ता ठाकुर, सह - आचार्य, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी। ई-मेल: agtbhuvns@gmail.com