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कच्छ की सांस्कृतिक विरासत

प्राचीनतम भारतीय उपखंड के एक सरहदी भूभाग कच्छ प्रदेश भारतीय संस्कृति की अमूल्य विरासत को आज भी संजोके बेठा हे | पश्चिम की और कोशो दूर तक फैली हुआ वीरान, उज्जड और क्षारयुक्त जमीन दिखाई देती हे | इसकी पूर्व साइड कच्छ्का अखात और अफाट रण हे | उतर की और माटी और काँप का रण हे | प्रदेश की दक्षिण और अरबी समुद्र, इस तरह विशिष्ट तरीके से घिरा हुआ यह कच्छ प्रदेश उसकी भौगोलिक रचना से सारे भारतवर्ष का एक अहम् हिस्सा रहा हे | पश्चिम की और वायव्य साइड, मध्य पूर्व और मध्य एशिया के के ढेर सारे राष्ट्रों के बीच समान संस्कारिता के अंश आज भी पाए जाते हे | इस तरह से कच्छ इस समग्र भारतीय भूखंडका एक अहम् हिस्सा बना रहा हे | आदिम संस्कृति, निरंतर विचरती मालधारी जनजातियों का सतत चलता रहा स्थलांतर और हड़प्पा संस्कृतिकी ढेर सारी समान बांते का अनुसंधान यहाँ पर दिखाई देता हे | कलाकारीगरी, रहन-सहन, पहेरवेश, भिन्न भिन्न परम्पराओं और रीति रिवाज जैसी बातोमे समानता दिखाई देती हे |

उपर्युक्त भूमिका कच्छ प्रदेशमे हो रहे कालानुक्रम विकास, उसकी ऐतिहासिक विरासत, सामाजिक व्यवस्था, राजकीय गतिविधी, धर्म और मान्यताए, कलाकारिगरी, आर्थिक स्थिति जैसी सभी बातें इस प्रदेश की आबोहवा और भूरचना के साथ समबन्ध रखता हे | विशाल भूरचनावाला इस प्रदेश की वैविध्ययुक्त भातिगळ समाज के साथ जुडी हुई कई बातें आज भी भारतीय संस्कृतिको वैश्विक फलक पर नोंध लेने से प्रेरित करती हे |

कच्छ प्रदेशका लोकसाहित्य : कच्छी बोली को अपनी कोई लिपि नहीं हे | प्रयत्न जरुर हुआ हे | लेकिन अब तक सर्वजन के लिए सुलभ नहीं बनी हे | लिपि न होने के कारण प्राचीन कच्छी साहित्य ज्यादातर कंठस्थ ही रहा हे | फलस्वरूप उसमे भारतीय मूल परम्पराओकी लोकसंस्कृति और लोकसाहित्य की सुगंध अब तक बनी रही हे | अलबत कच्छ प्रदेश पर बारी बारी से हुए आक्रमण के कारण भिन्न भिन्न जनसमुदायो का प्रभाव जरुर पडा हे | फिर भी कालानुक्रमसे वह भी यहाँ की संस्कृति में विगलित होती दिखाय देती हे | कच्छ का परम्परित लोकसाहित्य ज्यादातर पद्य में ही प्राप्त होता हे | जो की वहीवंचा बारोट, चारणो, भाट और वार्ताकार रावलो की बानी में अकबंध रहा हे | जिसमे मुख्यत : लोककथाए, भजन, काफि, दुहा, पहलीओ और गीतों के जरिये प्रगट होता रहा हे | जिसके विषय भी बहुत रासप्रद रहा हे | प्रेमशौर्य, खुमारी, टेक, स्वदेशाभिमान, और कुरबानी जैसी कथाए उसके साथ जुडी हुई दिखाय देती हे | इसी संदर्भ को ले के संशोधक रामसिंहजी राठोड ‘કચ્છનું સંસ્કૃતિદર્શન’ में लिखते हे की – ‘ આપણા રાષ્ટ્રીય જીવનના જૂના વારસા જેવું કચ્છી લોકસાહિત્ય પણ અન્ય ભારતીય ભાષાઓના લોકસાહિત્ય કરતાં જરા ય ઊતરતું નથી. સામાન્ય જનસમુદાયના હૃદયને જાગ્રત રાખનાર લોકસાહિત્યનો જમાનો વહી ગયો નથી, જનતાને સતેજ કરવા અને તેમના સંસ્કારોને સજીવ રાખવા લોકસાહિત્યની આ રસસામગ્રીમાંથી કાળબળને અનુરૂપ પાત્ર નવી ઢબે નવાં સર્જનો કરવાં જરૂરી છે.’ ૧

कच्छी हस्तकला :

कच्छ प्रदेशकी हस्तकला आज भी वैश्विक स्तर पे उतनी ही ख्यात हे जीतनी राजाशाही के जमानेमें थी | यहाँ की हस्तकला की माँग न केवल भारत तक सिमित रही हे | बल्की वह राष्ट्र सीमा के पार अनेकविध विस्तार तक फेली हुई हे | जिसमे भातिगळ रीति से कमांगर लोगो के द्वारा किया जाता कमांगरी चित्रकाम विशिष्ट तरह से नोंधापात्र हे | जिसमे लोककला की मौलिकता का दर्शन तो होता ही हे | लेकिन उसके साथ जनसमाज की कला प्रत्ये की रुची का भी दर्शन होता हे | चित्रकाम की तरह यहाँ का भरतकाम भी इतना ही महत्व रखता हे | भिन्न भिन्न विस्तार और भिन्न भिन्न कोम के वस्त्राभूषण की अपनी अपनी पहचान हे | आहिर, रबारी, भानुशाली, चारण, जत, कोली, और वागड विस्तार के वस्त्राभूषण अपनी लाक्षणिकता प्रगट करती हे | इसी तरह से यहाँ की गृहकला भी अलग सी भात उपसाती हे | अपने आवासको भरपूर कला कारीगरी और रंग रोगान से सजाना यहाँ की विशिष्ट खासियत रही हे | साथमें घरवपराशकी ऐसी कई चीजे हे जीसमें से भातिगळ कला का दर्शन होता हे | चांदीकाम से लेकर शिल्प और स्थापत्यमें यहाँ के लोगोंका हुन्नर दीखता हे | ‘कच्छ वर्क’ के नाम से ख्यात यहाँ का रुपाकाम और मीनाकाम, रेशमका वणाटकाम, सुडी- चप्पा, लकडे पर का नकशीकाम जैसी कई चीजे हें जिसमे कच्छ की अलग सी पहचान उभर कर आती हे |

कच्छ की शिल्प - स्थापत्यकला :

भारतीय शिल्प–स्थापत्यकला का प्रमुख लक्षण रहा हे भावनात्मकता | कच्छ प्रदेशकी शिल्प – स्थापत्यकला में भी वही बात अहम् हे | कच्छा के गेडी गाँव में स्थित मंदिर में भगवान विष्णु की इ.स. तीसरी शताब्दी की प्राचीन मूर्ती मिलती हे | सफ़ेद आरस से बानायी गई इस विष्णु प्रतिमा की तीन भुजाए खंडित हाल में हे | फिर भी कला के नजरिये से देखा जाए तो पता चलता हे कि उस समय में शिल्प का महत्व कितना बड़ा होगा | इसी तरह केरा गाँव में स्थित भगवान शिव का मंदिर स्थापत्य की दृष्टि से बहुत प्रख्यात हे | चौलुक्य शैली से बना हुआ यह मंदिर से पता चलता हे कि उस समय भगवान शिव की आराधना का महत्व रहा होगा | तदुपरांत कोटाय गाँव स्थित शिवमंदिर, पूअरागढका शिव मंदिर, कंथकोट का किल्ला और सूर्यमंदिर, कई जगह पर बनाये गए जैन मंदिर के नकाशीकाम से ज्ञात होता हे कि कच्छ प्रदेश में शिल्प – स्थापत्यकला का महत्व कैसा रहा होगा और उस समय के लोगो की अध्यात्म के साथ कला परत्वे की भावनाए कैसी थी |

कच्छ में स्थित शिलालेख :

ज्यादातर शिलालेख पथ्थर पर लिखा हुआ मिलता हे | स्मारक, किल्ले, मंदिर, धर्मशाला जैसे स्थानों पर शिलालेखो मिलते हे | कईबार समय की गति में उस शिलालेखो जीर्ण भी हो जाते हे और उस पर जो लिखावट होती हे वह सही ढंग से पढी भी नहीं जाती | फिर भी शिलालेखो का ऐतिहासिक और दस्तावेजी मूल्य होने के कारण उसका जतन भी किया जाता हे; और उस पर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से संशोधन भी किया जाता हे | कच्छ में भुज के दरबार गढ और आलमपन्नाह गढ, कोठारा के दरबार गढ, मोटा आसम्बिया का गढ – जैसे गढ में स्थित शिलालेखो से पता चलता हे की कच्छ का समाजजीवन और शौर्य प्राचीन काल में कैसा रहा होगा | उसी तरह मंदिरों में से भी शिलालेखो मिलते हे | जैसे की – नारायण सरोवर के त्रिकम मंदिर, कोटेश्वर मंदिर, जागेश्वर मंदिर, कंठेश्वर मंदिर | इसी तरह कच्छ में पुरानी वाव, धर्मशाला और स्मारकों में से भी शिलालेखो मिलते हे | अलबत् कही बार लोगो की लापरवाही या नासमज से इस अमुल्य विरासत को हमें गवांना भी पडता हे । इस बात को ले के संशोधकोने भी सुज़ाव दिया हे कि ‘ ઘણીવાર આ જુના શિલાલેખો તુટી જાય તો તેને ફેંકી દેવામા આવે છે આને લઇને ઇતિહાસનો પૂરાવો નાશ પામે છે. આવું ન થવું જોઇએ, લોકો જાગૃતિ રાખે અને ઇતિહાસના સાક્ષી એવા આ શિલાલેખોનું વાંચન કરી તેની નકલ ઊતારી લેવી જોઇએ.’ 2

कच्छ में पाळिया :

ज्यादातर गुजरात के सौराष्ट्र और कच्छ में स्मारक के इस प्रकार पाळिया को पाया जाता हे | योद्धा, सति, या परोपकार के लिए अपनी जान न्योच्छावर करनेवाले विशिष्ट व्यक्ति की स्मृति में पाळिया बनाया जाता हे | इसे पता चलता हे कि भूतकाल में क्या हुआ था और कौन सी घटना घटी हुई थी | कच्छ में ढेर सारे राजा – महाराजा का पाळिया, सति स्त्रीओ का पाळिया, और वीर योद्धाओं के पाळिया मिलता हे | इस पाळिया की विशेषताए भी हे कि हर कोइ पाळिया के पीछे जो मान्यताए हे, जो किवदंतियां हे उसकी कथाए भी मिलती हे। और आसपास के लोगो से ये कथाए ज्यादातर कठोपकंठ आगे की पीढी को विरासत मे मिलती हे ।

कच्छ के लोकोत्सवो :

कच्छ प्रदेश की प्रजा उत्सवप्रिय रही हे | जिसमे पारम्पारिक उत्सवो का महत्व हे | लेकिन उसके साथ विशिष्ट तोर से पशुपालक उत्सवो, कृषिप्रधान उत्सवो और सागरप्रधान उत्सवो भी यहाँ की प्रजा का हिस्सा रहा हे | यहाँ परा धार्मिक मेला का महत्त्व ज्यादा हे | नवरात्री के समय ‘माताना मढ’ स्थान पर भातिगळ अध्यात्म मेला, ‘तलवाना’ का सांस्कृतिक मेला, ‘ध्रंग’ का ऊंट की हरिफाई का मेला, यक्ष का मेला जैसे अध्यात्म मेला और भारतीय परम्परा के जो त्यौहार हे | उस हर एक तहेवार को भी पूर्ण हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता हे | जन्माष्टमी की दिन रवाडी निकाली जाती हे | होली के दिन पति –पत्नी साथ में प्रगटी हुई होली के फेरे ले के धार्मिक विधि करते हे | दिवाली का त्यौहार भी बडी धामधूम से मनाया जाता हे | इस तरह से कच्छ प्रदेश की प्रजा में लोकोस्तवो का महत्त्व विशिष्ट तरीके से मनाया जाता हे | अलबत यहाँ पर ‘कच्छ नो सर्वागी इतिहास भाग २’ की नोंध का उल्लेख करना आवश्यक हे | ‘કચ્છના લોકમેળાઓ હવે ક્રમશ: પોતાનું તળપદાપણું ગુમાવતા જાય છે. આધુનિક સંસ્કૃતિના વાયરા લોકસંસ્કૃતિને હાની પહોંચાડે છે, જેના ફલસ્વરૂપ ભુજિયાનો મેળો, માંડવીના રવાડીના મોળ વગેરે સંપૂર્ણ અદ્યતન બની ગયા છે.’ ३

इन सभी विशेषताओं के साथ विश्व ख्यात धोलावीरा का उल्लेख भी जरूरी हे | वागड के वीरान भूभाग में स्थित धोलावीरा सिंधु सभ्यता का प्राचीन शहर हे | भारत के आर्कियोलोजिकल विभागने उत्खनन करके यह शहर ढूंढ निकाला हे | इसने सिंधु सभ्यता को समजने और जगत के इतिहास का अभ्यास करने का नयी दिशा खोल दी हे | अलबत यह धोलावीरा से अब तक जो जो संशोधन किया गया हे उन सबका यहाँ पर विस्तार से बात करना उचीत नहीं हे क्युंकी धोलावीरा का अभ्यास अपने आप में एक अलग संशोधन का विषय हे | फिर भी इतना तो कह सकते हे की कच्छ प्रदेश की प्राचीनता आर्य संस्कृति तक हमें ले जाती हे |

इस तरह से कच्छ प्रदेश भारतका दूरवर्ती और सरहदी विस्तार होने के बावजुद भी भारतीय संस्कृति की अनमोल विरासत को अपने आप में संजोए बैठा हे | भारतीय संस्कृति जिस बुनियाद पे खडी हे ‘ अनेकता में एकता’ उसी का हुबहू दर्शन यहाँ पर देखने को मिलता हे | इतना ही नहीं अनेकोनेक आपतियाँ भी यह प्रदेशने जेली हे | भूकंप, मौसम का तूफ़ान, दरियाई आफते, आक्रान्ताओ की युद्धखोर नीति जैसी कई आपदाये यहाँ की प्रजा ने जेली फीर भी वही खुमारी, वही शौर्य, वही खानदानी और उल्लास के साथ यह प्रदेश की प्रजा राष्ट्र का अहम् हिस्सा हे |

टिप्पणी :

  1. कच्छनु संस्कृति दर्शन, ले. रामसिंहजी राठोड, प्र. आ. इ.१९५९ पृ. २६५
  2. कच्छ इतिहासना साक्षि शिलालेखो अने पाळिया, ले. प्रमोद जेठी, प्र आ. इ.२०१३ पृ.१०३
  3. कच्छ नो सर्वागी इतिहास भाग २’, प्रायोजक – कच्छ डेवलपमेन्ट काउन्सील , अमदावाद पृ. ३५


सन्दर्भ :
  1. ‘संस्कृति सेतु कच्छ’ ले. गोवर्धन शर्मा, डॉ. भावना शर्मा, प्र. आ. इ.१९९८, प्र. गुजरात साहित्य अकादमी
  2. Alexander Cunnigham : The Ancient geography of India. ( Gulf of Kutch P.4; Abhiras P.7-8; Kachh P. 11, 248,270,283, 302, 304,699 1944
  3. Shastri Dr. Hiranand, Archaeology and Ancient Indian History-Cutch p. 19,25


Note : I am specially thankful to ICSSR- New Delhi (India), for Minor Research Project Grant (F. No.02\112\2019-20\MN-RP, dated: 18-11-2019)-Dr. Bhavesh Jethava

Dr. Bhavesh Jethava, Department of Gujarati, Assistant Professor, KSKV Kachchh University, Bhuj-Kachchh