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मुक्तिबोध: आलोचना कर्म और आलोचक की दृष्टि

सारांश :

प्रस्तुत आलेख मुक्तिबोध की आलोचना कर्म और उनकी आलोचना दृष्टि को लेकर आलोचकों की क्या राय है पर आधारित है. इस आलेख में यह समझा जा सकता है कि मुक्तिबोध ने हिंदी आलोचना को सभ्यता-समीक्षा क्यों कहा है. कैसे उनकी यह आलोचना दृष्टि दमनकारी सत्ता की जगह आम आदमी की वालालत करती है?

बीज शब्द : मुक्तिबोध, सभ्यता-समीक्षा, हिंदी आलोचना, ज्ञानात्मक संवेदना, संवेदनात्मक ज्ञान,

मुक्तिबोध हिंदी साहित्य के इतिहास में कवि-आलोचना की दुनिया में सबसे सशक्त हस्ताक्षर रहे हैं। उन्होंने अनुभूति से अभिव्यक्ति के सृजन-सर्जना संसार में अभिव्यक्ति के खतरे उठा को उठाया है। आज जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगातार कुठाराघात किया जा रहा है तो इसकी पूरी पृष्ठभूमि से मुक्तिबोध बहुत ही पहले अवगत थे। भारतीय समाज में मनुष्य की आजादी की गला घोंटने के लिए पुरानी सामाजिक संरचनाओं, विचारधाराओं, मिथकमालाओं, मानसिकताओं और इतिहास की प्रक्रियाओं का जिस तरह से सहारा लिया जा रहा है। वह वर्तमान समाज के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। इस चुनौती का समाना क्या कलावादी रचना और आलोचना से किया जा सकता है? क्या इसके लिए सभ्यता की समीक्षा जरूरी है? मुक्तिबोध की रचना और आलोचना दोनों की इस सभ्यता -समीक्षा की मांग करती है। मुक्तिबोध का आलोचना कर्म सभ्यता-समीक्षा ही है क्योंकि आलोचना जीवन की व्याख्या है और सभ्यता-साहित्य में जीवन की ही भावना-संस्कृति व्यक्त रहती है।

मुक्तिबोध कवि ही नहीं थे, वे एक आलोचक भी थे। उनकी आलोचना को आत्मीय चेतना, उनकी रचना और जीवन की आत्मसंघर्षमयी चेतना है। उनका यह आलोचनात्मक संघर्ष केवल साहित्य की दुनिया तक ही सीमित न था, उसके व्यापक राजनीतिक, सांस्कृतिक और विचारधारात्मक संदर्भ तथा प्रयोजन भी था। द्रष्टव्य है उनकी कविता की यह पंक्तियां :
‘‘पिस गया वह भीतरी
और बाहरी दो कठिन पाटों बीच
ऐसी ट्रैजडी है नीच’’1

यह ट्रैजडी मुक्तिबोध के आत्मसंघर्ष, व्यक्तित्व और साहित्य के अब तक की ट्रैजडी रही है। जिसमें सिर्फ साहित्य के केवल सौन्दर्यात्मक मनोवैज्ञानिक पक्ष पर मानव सत्ता से काटकर बात की जाती रही है। मुक्तिबोध के अनुसार साहित्य का अध्ययन मानवीय सत्ता और उसके विकास का अनुसंधान है। इससे दूर होकर साहित्य का अध्ययन करना एक अपराध है। वे स्वयं लिखते हैं कि ‘‘साहित्य का अध्ययन एक प्रकार से मानवीय भावना सत्ता का अध्ययन और ऐतिहासिक विकास की मानवीय प्रक्रियाओं की सािहत्यिक अभिव्यक्ति का अनुसंधान है। जो लोग साहित्य के केवल सौन्दर्यात्मक मनोवैज्ञानिक पक्ष को लेकर चलते हैं और मानवसत्ता से दूर रहना चाहते हैं वे लोग साहित्य के स्वरूप विश्लेषण तथा मूल्यांकन करने का अपराधी है।’’2 इसी प्रकार वे जीवन की तस्वीर पेश करने की बात करते हैं और उसके प्रति अपनी भावनाओं, इच्छाओं को व्यक्त करने की चाह रखने को कहते हैं। वे लिखते है:
‘‘धरती की धूल में रेखाएं खींचकर
तस्वीरे बनती है
बशर्ते कि जिंदगी को चित्र सी
बनाने का चाव हो
श्रद्धा हो, भाव हो।’’3

यह है मुक्तिबोध की आलोचना का सूत्र। जिसमें वे धरती की धूल में लोह-पोटकर साहित्यिक समीक्षा की जिंदगी निर्मित करते हैं। इसे ही वे समीक्षा-सभ्यता-समीक्षा भी कहते हैं। उनके चिंतन प्रक्रिया में सत्य की खोज है जिसके आधार पर वे सैद्धांतिक गढ़ते हैं। इस गढ़न और रचन में वे अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाते हैं और उठाने की अपील भी करते हैं। वे लिखते हैं कि :
अभिव्यक्ति के सारे खतरे
उठाने ही होंगे
तोड़ना ही होगा, गढ़ो-मठो को।’’4

यह अभिव्यक्ति के खतरे और मठों को तोड़ने का स्वर प्रतिवाद रूप में एक ओर ‘माक्र्सवादी आलोचना की जड़ सूत्रवादी यांत्रिक प्रवृति के विरोध में खड़े है जिसका प्रतिनिधित्व तब रामविलास शर्मा कर रहे थे तो दूसरी ओर वे नई कविता की क्रांति विरोधी कुंठाग्रस्त प्रवृत्तियों के भी वैसे ही उग्र विरोध में खड़े है जो कथा के सामाजिक संदर्भों के विरोध में व्यक्ति स्वातंत्र्य को एक नारे के रूप में उछाल रही थी।’’5 इन दो प्रवृत्ति के आलोचनात्मक संघर्ष से मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि फलित और विकसित हुइ्र्र है।

वे मानव मुक्ति की अवधारणा पर विशेष बल देते थे जिसके अंतर्गत जीवन के सभी पक्ष आ जाते हैं चाहे वह शृंगार हो या राजनीति। हर पक्ष में मुक्ति का संघर्ष है। कोई भी पक्ष इससे खाली नहीं है। कविता में उनकी चिंता संपूर्ण मनुष्य की स्थापना की चिंता थी और एक आलोचक के रूप में वे काव्य में ऐसे ही मनुष्य की खोज की खोज पर बल देते हैं। अपने समय के प्रगतिवादी आलोचक से उन्हें सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि वह सिर्फ बाह्यपक्ष के चित्रण को ही महत्व देते हैं और व्यक्तिगत यथार्थ या आंतरिक अनुभूति की अधिक चिंता नहीं करते है। इसी संदर्भ में मुक्तिबोध किसी भी कलाकृति के मूल्यांकन के आधार की खोज करते हैं। और बताते हैं कि जीवन के त्रिकोण को निर्धारित करते हैं। यह त्रिकोण इस प्रकार से है जिसकी एक भुजा बाह्य जगत है, दूसरी भुजा हमारा अंतरंग जीवन और तीसरी भुजा हमारी चेतना है।

मुक्तिबोध साहित्य को जीवन की पुनर्रचना मानते हैं। साहित्य जीवन की गहरी अनुभूति की उपज है। इसलिए वे सािहत्य की समीक्षा आलोचना को जीवन की गहरी अनुभूति समझ के आधार पर गढ़ते हैं। जीवन की परिस्थितियां, प्रवृत्तियों, गतिविधियों और उसकी संवेदनात्मक ज्ञान से बेखबर समीक्षक आलोचकों की आलोचना, मुक्तिबोध की शब्दावली में ‘कुतिया के उस बच्चे के समान है जिसकी आंखे नहीं खुली है।’6 अर्थात साहित्य की रचना और उसकी आलोचना दोनों ही जीवन की व्याख्या-विश्लेषण एवं मूल्यांकन की पद्धति है। जिसके लिए जीवन, जीवन की परिस्थिति-परिपे्रक्ष्य का अनुभव, ज्ञान, उसकी विस्तृत जानकारी आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है।

मुक्तिबोध के आलोचना सिद्धांत सूत्र उनकी आलोचनात्मक कृतियों में बिखरे पड़े हैं, क्योंकि उन्होंने किसी स्वतंत्र समीक्षा शास्त्रीय ग्रंथ का निर्माण नहीं किया। उनके आलोचनात्मक कार्यों का लेखा-जोखा का आकलन इन पुस्तकों की समीक्षा में दिखाई पड़ती है- ‘नई कविता का आत्मसंघर्ष, कामायनीः एक पुनर्विचार, धरती, ओ प्रस्तुत मन, अंधायुग, उर्वशी पर समीक्षा, प्रेमचंद, शमशेर, सुभद्राकुमारी चैहान, हरिशंकर परसाई आदि पर निबंध। एक साहित्यिक की डायरी, नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र। इसी में उनकी व्यावहारिक आलोचना का स्वरूप भी स्पष्ट है।

त्रिलोचन के काव्य ‘धरती’ पर उन्होंने सन् 46 में हंस में उसकी विस्तृत समीक्षा किया। वे गीतों के क्षेत्र की व्यापकता और काव्य सामथ्र्य के साथ जीवन के विस्तृत दायरे के विभिन्न भागों का व्याख्यात्मक आकलन करने की क्षमता के लिए भी कवि की प्रशंसा करते हैं वहीं धर्मवीर भारती के ‘अंधायुग’ की व्याख्या मुक्तिबोध फैंटेसी के आधार पर करते हैं। वे मानते हैं कि देश की स्वाधीनता के बाद सभ्यता-संस्कृति के सामाजिक ह्रास को भारती जी ने महाभारत के कुछ पात्रों के माध्यम से प्रस्तुत किया है। मुक्तिबोध की इस समीक्षा का महत्व तब और बढ़ जाता है जब रामविलास शर्मा उसे ‘नौटंकी’ कहकर खारिज करते हैं।

प्रसाद की ‘कामायनी’ पर ‘कामायनीः एक पुनर्विचार’ नाम से समीक्षा लिखते हुए कहते हैं कि ‘‘कामायनी में प्रस्तुत पात्र चरित्र और कार्य वास्तविक जीवन तथ्यों के प्रतीक है जैसे कि फैंटेसी में होते है। आगे वे लिखते हैं कि ‘कामायनी का मनु वेदकालीन मनु न होकर कवि के अपने काल और वर्ग का ही प्रतीक पुरुष है। वह पूंजीवादी व्यक्तिवाद का प्रतीक पात्र है। मनु की समस्या जो प्रकारांतर से कवि प्रसाद की समस्या है, आत्मानुभूति की समस्या है। प्रसाद जी की विचारधारा के अनेक सामंती संस्कार मनु में मौजूद है। इन सामंती संस्कारों का सबसे अधिक प्रमाण कामायनी की नारी सृष्टि पर पड़ा है। इस व्यवस्था में नारी की स्थिति दास से बेहतर नहीं थी। पूंजीवादी सभ्यता में नगर जीवन की वास्तविकताओं से ऊब कर वनोन्मुखी जीवन का आदर्श थ्योरी की तरह मनु में भी उपस्थित है। शांतवन में छोटा पर्णकुटीर, सुखी गृहस्थ जीवन का संतोष बहुतों के आकर्षण का केन्द्र रहा है। यह दृष्टि पूंजीवादी सभ्यता की आलोचना तो कर सकती है लेकिन उसकी समस्याओं का कोई वैज्ञानिक समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकती। अंततः ‘‘यह प्रसाद जी का मार्यादावाद वर्गविभाजित समाज को स्थायित्व प्रदान करना चाहता है। समाज के मूलभूत वर्ग संघर्ष के प्रति प्रसाद जी का यह दृष्टिकोण है जो नितांत प्रतिक्रियावादी है... दूसरे लोग उसे ढकने की फिराक में रहते हैं।’’7 मुक्तिबोध की इस आलोच्च दृष्टि के संदर्भ में नामवर सिंह ने बहुत ही मामिक बात कही है। वे लिखते हैं कि ‘‘मुक्तिबोध का ‘कामायनीःएक पुनर्विचार’ केवल कामायनी को ‘फैंटेसी’ के रूप में देखने का कलावादी प्रयास भर नहीं, बल्कि उस ‘फैंटेसी’ में निहित जीवन-मूल्यों की समीक्षा करते हुए नए मूल्यों की व्याख्या का मूल्यपरक विवेचन है।’’8 आगे वे लिखते हैं कि ‘‘मुक्तिबोध का कामायनी:एक पुनर्विचार समकालीन साहित्य में पुनर्मूल्यांकन के बहाने एक मूल्यों का ऐतिहासिक दस्तावेज है जो समकालीन साहित्य के मूल्यांकन के साथ ही समकालीन संदर्भ में अपनी पूरी परंपरा का पुनर्मूल्यांकन करने की दृष्टि देता है।’’9 नामवर सिंह जिस समकालीन संदर्भ में पूरी परंपरा के मूल्यांकन करने की दृष्टि की बात करते हैं। मूलतः वह समकाल यह है कि भारत का राष्ट्रीय आंदोलन ब्रिटिश शासन-सत्ता से मुक्ति के लिए चल रहा था। क्या जयशंकर प्रसाद प्रतीकों के माध्यम से यह आख्यान रच रहे थे जिससे कि पराधीन भारत में मुक्ति का संचार हो सके? क्या वे जीवन की समस्याओं को समकालीन संदर्भ में देख रहे थे? जैसाकि मुक्तिबोध ने कहा है कि ‘‘प्रसाद जी ने कामायनी में एक विशाल फैंटेसी के अंतर्गत स्वानुभूत जीवन-समस्या की एक परिवेश से संलग्न कर उपस्थित किया है, तथा उस जीवन-समस्या का स्व-चिंतित दार्शनिक निदान प्रस्तुत किया है। यह जीवन-समस्या, फैंटेसी-रूप में उपस्थित होकर, फैंटेसी के नियामों में बंधकर, अपने मूल वास्तविक जीवन-सन्दर्भ को, अर्थात् अपने मूल वास्तविक मानव-संबंध क्षेत्र को-जिससे कि वह आवयविक संबंध रखती है-भूमिगत बना चुकी है-उस क्षेत्र को नेपथ्य में डालकर ही वह समस्या कल्पना-चित्रों के रूप में उद्घाटित हुई है और कल्पना के गति-नियमों में बंध गयी है।’’10 इससे यह स्पष्ट होता है कि मुक्तिबोध जिस सभ्यता-समीक्षा की बात आलोचना में करते रहते हैं। वस्तुतः वह साहित्य और समाज दोनों के बीच जीवन-मूल्यों की व्याख्या, समीक्षा और मूल्यांकन है। जिससे एक मानवीय सभ्यता-संस्कृति के विविध रूपों को समझा जा सकता है और उसका निर्माण-विकास भी किया जा सकता है।

मैंनेजर पाण्डेय ने अपनी पुस्तक ‘अनभै सांचा’ में मुक्तिबोध एक आलोचनात्मक संघर्ष’ नाम से लिखते हुए मुक्तिबोध को आचार्य शुक्ल के बाद हिंदी का सबसे बड़ा विचारक कहते हैं। और लिखते हैं कि ‘‘मुक्तिबोध ने कामायनी में व्यक्त जीवन मूल्य, विश्व दृष्टि और यथार्थबोध का विश्लेषण मूल्यांकन करते हुए अपनी सफल वस्तुवादी आलोचना दृष्टि का प्रमाण दिया है।’’11 उनकी आलोचना दृष्टि व्यावहारिकता से सैद्धांतिकी की ओर बढ़ती है। आलोचना कर्म के विषय में ‘नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ में काव्य की रचना प्रक्रिया में स्पष्ट करते हुए लिखते हैं -आलोचना की दृष्टि से जो बात सबसे पहले सामने आती है-कवि कर्म और रचना प्रक्रिया की दृष्टि से वह अंतिम है। रचना प्रक्रिया के प्रवाह में रहकर लेखक अपने भावों की शब्दों की तुलना करता है, शब्द साधना करता है, साथ ही संगति तथा निर्वाह भी साधता चलता है, वह अपने भावों के उत्स को संवलित कर उसका संपादन संशोधन करता है, संगति और निर्वाह हेतु। जब उसकी शब्दाभिव्यक्ति उसके लिए स्मरणीय हो जाती है त बवह संतुष्ट हो जाता है।’’12 इस प्रकार उसकी संतुष्टि उसकी सर्जनात्मकता का प्रतिफल है जो आभ्यन्तरतत्व और बाह्यरूप से उसका अंतिम तत्व है- शब्दाभिव्यक्ति।

निर्मला जैन के अनुसार मुक्तिबोध आस्था से माक्र्सवादी थे। वे लिखती हैं कि ‘‘कामायनी की वर्गदर्शन पर आधारित विस्तृत पुनव्र्याख्या करके मुक्तिबोध ने आलोचक रूप में अपनी माक्र्सवादी दृष्टि का प्रमाण प्रस्तुत किया।’’13 बाद की उनकी आलोचनात्मक कृतियां रचना प्रक्रिया के आत्मसजग विश्लेषण की उपज हैं। मुक्तिबोध ने माक्र्सवादी आलोचना को सहतीपन से उबारकर गहराई तक ले जाने का प्रयास किया है। सजग आत्मचेता साहित्यकार की तरह उन्होंने कविता की रचना प्रक्रिया का विश्लेषण किया। मुक्तिबोध की काव्य रचना का मुख्य माध्यम फैंण्टेसी है। मुक्तिबोध की आलोचना वस्तुतः संपूर्णता कला सिद्धांत की रूपरेखा का चिंतन प्रस्तुत करती है। ‘‘उनके सारे आलोचनात्मक कृतित्व को देखते हुए निस्संकोच कहा जा सकता है कि नये प्रगतिशील कवि आलोचकों में वे सबसे प्रखर और गंभीर आलोचक थे। किसी कवि में आलोचना की ऐसी चिंतन शक्ति दुर्लभ ही है।’’14 वर्तमान में यह कितना सार्थक है और इस परिप्रेक्ष्य में हिंदी आलोचना ने उसका कितना विकास किया है। यह विचारणीय भी है और अलग से शोध का विषय भी, क्योंकि मुक्तिबोध आलोचना को हमेशा से ही साहित्य को जीवन की समस्याओं, परिवेश-परिप्रेक्ष्य, सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के संदर्भ में भीतर-बाहर के द्वंद्व की खोज के संदर्भ में देखते रहे हैं और उसकी हिमायती रहे हैं। फिलहाल मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि, बिना ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के अधूरी है। डायरी शब्द से एक भ्रम की गुंजाइश रहती है लेकिन यह डायरी कम आलोचना की डायरी है। जिसमें तत्कालीन समाज और साहित्य की विभिन्न रूपों की चर्चा-परिचर्चा है। बिना किसी डर के, निर्भिक। श्रीकांत वर्मा के शब्दों में, ‘‘एक साहित्यिक की डायरी’ केवल उस स्तम्भ का नाम था जिसके अंतर्गत समय-समय पर मुक्तिबोध को अनेक प्रश्नों पर विचार करने की छूट न केवल संपादक(वसुधा पत्रिका के संपादक) की ओर से बल्कि स्वयं अपनी ओर से भी होती थी।’’15 श्री अदीब के हवाले से उन्होंने लिखा है कि मुक्तिबोध की डायरी उस सत्य की खोज है जिसके आलोक में कवि अपने अनुभव को सार्वभौमिक अर्थ दे देता है। यही खोज उनकी सभ्यता-समीक्षा है। जिसके लिए उन्होंने कहा कि, ‘‘मुख्य प्रश्न दृष्टि का है।’’16 ज्ञानात्मक विस्तार का है। काव्यात्मक मनोभूमिका का है। यही महत्वपूर्ण है। ‘‘मनोभूमिका या वातावरण के बिना सत्यकाव्य संभव नहीं।’’17 रचनाकार की दृष्टि की गंभीरता और व्यापका का फलक विस्तार नहीं। वह विश्वजनित नहीं। उसमें वैज्ञानिक जानकारी या चेतना का समाहार नहीं। इसके बिना विश्व-जनता का अभ्युत्थान भी संभव नहीं और न ही समाज का उत्पीड़न करने वाली शक्तियों की पहचान, उससे सचेतन और उसके विरोध-प्रतिरोध ही संभव है। विचारणीय तो यह है कि इसके अभाव में साहित्यिक सृजन संभव नहीं और फिर सौन्दर्य या सौन्दर्यबोध का सवाल ही उठता ही कहां है?

समग्रत: यह कहा जा सकता है कि मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि सृष्टा और आलोचक के अद्वैत की स्थापना परंपरागत मान्यताओं को विकसित करती हुई की है। आलोचक के लिए परिवेश का संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञान संवेदनात्मक अध्ययन, मानव यथार्थ का परिचय , जीवन विवके, जीवन मर्मज्ञता और साहित्य के अंतर्तत्वों के विश्लेषण की क्षमता जैसे नये प्रतिमान की स्थापना कर उस पर विशेष बल दिया। साहित्य को जीवन संघर्ष की उपज बताते हुए जमींनी यथार्थ भूमि से जोड़ने का काम किया। मुक्तिबोध की आलोचना दृष्टि उनके संघर्षशील जीवन की उपलब्धि है। जिसे सभ्यता-समीक्षा कहा गया है। उनकी आलोचना दृष्टि को योगेन्द्र प्रताप सिंह18 के शब्दों में इस प्रकार से समझा जा सकता है: 1. सर्जना के प्रभावों को उत्पन्न करने वाले तत्वों की पहचान -ये रूप तत्व (शिल्प तथा कवि का सर्जित संसार) 2. साहित्य के स्रोत का ज्ञान तथा साहित्यिक रचना की निष्पत्ति के वास्तविक कारणों की समझ 3. पाठक तथा आलोचक पर कलात्मक प्रभाव की गहरी छाप 4. उसकी (रचना की) अंतःप्रकृति (रूपरचना) के स्वरूप की जांच तथा 5. लोकजगत की वैचारिक एवं भावात्मक ज्ञानात्मक अनुभूति की गहरी समझ।

यह सब मुक्तिबोध के लिए आसान नहीं था। संभवतः किसी के लिए भी यह आसान नहीं। इस ईमानदार अनुभूति एवं अनुभव की अभिव्यक्ति का खतरा चैतरफा था और है। मुक्तिबोध ने उस खतरा को उठाया है। अनुभूति और अभिव्यक्ति की ईमानदारी का खतरा। कर्म करने और श्रममूल्य पाने का खतरा। सृजन और सर्जन का खतरा। रचना और रचना-प्रक्रिया का खतरा। इस खतरा से बेखौफ उन्होंने सत्य, तथ्य, अनुभूति, अनुभव का ज्ञानात्मक संश्लेषण-विश्लेषण की आलोचनात्मक भूमि अध्ययन-मनन-सृजन और समीक्षा से तैयार किया है। अपने समय का ही नहीं आने वाले कल के लिए भी उन्होंने हिंदी आलोचना का नींव तैयार कर दिया। जिसकी तालाश हिंदी आलोचना को थी। यही उनकी आलोचना की प्रासंगिकता है और सार्थकता भी। जिसकी दरकार वर्तमान को उतना ही है जितना अतीत भी था। और भविष्य में जिसकी संभावना है, उसकी चेतावनी भी है।

संदर्भः

  1. जैन नेमिचंद्र, 1980, मुक्तिबोध रचनावली, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  2. वही
  3. वही
  4. वही
  5. मधुरेश, 2005, हिंदी आलोचना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
  6. जैन नैमिचंद्र, मुक्तिबोध रचनावली, वही
  7. मुक्तिबोध, 1990, कामायनी:एक पुनर्विचार, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
  8. सिंह, नामवर, कविता के नए प्रतिमानः 78
  9. वही, पृ. 79
  10. मुक्तिबोध, कामायनीः एक पुनर्विचारः 10
  11. पाण्डेय मैंनेजर, 2008, अनभै सांचा, पृ. 215
  12. मुक्तिबोध, 1971, नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली
  13. जैन निर्मला,2006,हिंदी आलोचना की बीसवीं सदी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली,पृ. 76
  14. वही
  15. मुक्तिबोध, एक साहित्यिक की डायरी, कवर पृष्ठ
  16. वही, पृ. 118
  17. वही, पृ. 119
  18. सिंह, योगेन्द्र प्रताप, हिंदी आलोचनाः इतिहास और सिद्धांत, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद


प्रवीण कुमार, सहायक आचार्य, हिंदी विभाग, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय, अमरकंटक(मध्यप्रदेश-484887) मोबाइल- 9752916192