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उसे रोकने का प्रयास व्यर्थ था। सच कहूं, तो मैं स्वयं उसे जाने देना चाहती थी, उसकी दुनिया में। हां, क्योंकि मैं यह समझ गई थी कि, उसकी और मेरी दुनिया में हद दर्जे की असमानता थी। लेकिन इस असमानता तक की यात्रा मैंने समानता से ही शुरू की थी, समानता के अंत के उद्देश्य से। किंतु, अंत हुआ असमानता पर आकर। आज यह अंत कितना सुखद है। परंतु एक बात तो सत्य है। वह यह कि, हम दोनों लायक थे। किंतु, एक दूसरे के लायक तो कतई नहीं।

मुझे हमेशा लगता था की मेरे अंदर की औरत मेरा शोषण करती है और यकायक लगने लगा की उस औरत का शोषण मुझे मार डालने की हद तक का है। जिससे कि वह बाहर आ सके। इसकी भी पूरी संभावना है कि जिस दिन वह मेरे बाहरी आवरण या व्यक्तित्व की हत्या करने में सफल हो जाएगी उस दिन से जीवन सरल हो जाएगा। सच कहूं तो आजकल मैं अपने भीतर की इसी औरत के सामने हथियार डाल देती हूं और आत्महत्या की ओर अग्रसर हो जाती हूं रोजमर्रा सी। लेकिन जिस दिन यह हत्या हो जाएगी उस दिन हत्या, हत्या ना होकर नए जीवन, नई ऊर्जा का प्रस्फुटन होगा। मेरा यह खोल जो पितृसत्ता के थप्पड़ों को अब झेल पाने की अपनी सभी सीमाओं को पार कर चुका है। ऐसे में इस खोल का टूट जाना आज मेरे लिए बेहद जरूरी हो गया है। मेरे अंदर की औरत आज छिन्नमस्ता बनने पर उतारू है। उसे इस दम घोंटू खोल को तोड़कर बाहर आना ही होगा। हालांकि इसकी शुरुआत उसी दिन नीरव ने कर दी थी। जिस दिन मेरे चरित्र पर उसने अपने शक के पत्थर को बहुत तेजी से फेंका था और मेरे घायल हृदय को रौंद कर आगे बढ़ गया था।

उसका उस दिन आगे बढ़ जाना, इस बार मेरा मुझसे परिचय करा गया था। जीवन में कुछ घाव आपके जीवन को इस प्रकार बदल देते हैं। जिसकी कभी कल्पना तक आपने नहीं की होती। कुछ दाग़ अच्छे होते हैं की तर्ज पर इस घाव का दाग़ मुझे संपूर्णता प्रदान कर गया था। वरना, पहले तो अपने होने का एहसास तक मुझे नहीं था। नीरव और मेरे बीच कुछ भी ऐसा नहीं था। जो एक- दूसरे से मेल ना खाता हो। भला इतनी समानता! या यह कहूं हद दर्जे की समानता, या यह भी कह सकते हैं कि, समानता का 'स' तक नहीं था हम दोनों के बीच। बस मैंने जो भी कहा, वह उसको पसंद हो गया। ऐसे में उसकी पसंद का प्रश्न भी स्वत: ही समाप्त हो गया।

'तुम जैसी भी हो ना, मुझे बहुत प्यारी हो'

इस एक वाक्य की गंभीरता के पीछे केवल प्रेम को ही खड़ा पाया मैंने। एक कल्पित दुनिया में मेरा प्रेम उछाले मार-मार खुश हो रहा था।

'मैं तुम्हारा हमेशा साथ दूंगा चाहे जो हो जाए।'

हालांकि, कुछ नया नहीं था इस बात में, प्रेमियों का तकिया कलाम कह लीजिए। सदियों की परंपरा को निभाते ये शब्द, ये वाक्य मुझ तक भी पहुंचे। पहुंचे क्या, धंस गए, बस गए, गड़ गए थे भीतर तक। नतीजतन प्रेम बढ़ कर अथाह सागर हुआ जा रहा था। लेकिन, मुझे क्या पता था। आगे चलकर मेरे प्रेम का अथाह सागर, प्रशांत महासागर बन जाएगा और उसका प्रेम, हिंद महासागर। जो कभी आपस में नहीं मिलते।

मेरा और नीरव का कार्यक्षेत्र अलग-अलग था। जहां एक ओर वह संगीत के क्षेत्र में संघर्षशील था तो वहीं दूसरी ओर मैं एक कुशल पत्रकार थी। संगीत तो अच्छे अच्छों को अपने बस में कर लेता है। मुझे तो संगीत और संगीतकार दोनों ही मिल गए थे। ऐसे में मैं भी वशीभूत हो गई तो इसमें आश्चर्य कैसा? संगीत से प्रभावित होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। संगीत तो सभी को अच्छा लगता है। लेकिन, एक संगीतकार पर मोहित होना मेरे पूर्वाग्रहों का परिणाम था। हमेशा से सुनती जो आई थी कि, संगीत तो एक प्रकार का योग है। ईश्वर की वाणी है, मोक्ष की प्राप्ति का माध्यम भी, और जो ईश्वर के करीब है, तो उसमें मनुष्यता भी औरों से ज्यादा होगी ही। संगीत को साधना कोई आम बात थोड़ी है। प्रकृतिस्थ हुए बिना काम कहां चलता है। बस इसी कारण से, कार्य से व्यक्तित्व को जोड़ लेने की मूर्खता कर बैठी। क्या हुआ अगर ज्यादा कमाता नहीं है तो? क्या हुआ अपना स्वयं का घर नहीं है तो? मनुष्यता तो अधिक थी ही नीरव में। बस और मुझे चाहिए ही क्या था। मेरे प्रेम के मानदंडों की सीमाओं के भीतर आ चुका था नीरव। अगर मैं कहूं, इस पत्रकारिता के क्षेत्र में रहकर दुनियाभर के मर्दों का मुआयना मैं कर आयी थी। तो कुछ गलत ना होगा।अच्छे-बुरे मर्दों से दो चार होना मेरी रोजम़र्रा का हिस्सा था। कहां-कहां नहीं जाना पड़ता था एक संवाददाता के रूप में। कभी यहां तो कभी वहां, कभी इस शहर, कभी उस शहर। हां, दूसरे देश में जाने का अवसर अभी तक प्राप्त नहीं हुआ था। किंतु, मैं न्यूज़ एंकर भी किसी से कम कहां थी। पूरा समय घर, घर से स्टूडियो, यहां-वहां, इधर-उधर बस दौड़ भाग ही तो थी जिंदगी, नीरव के आने से पहले। मशहूर संगीतकार विजयन आनंद के इंटरव्यू के दौरान ही तो हुई थी मेरी और नीरव की पहली मुलाकात। इंटरव्यू के तुरंत बाद विजयन जी ने अपना शागिर्द कहकर मिलवाया था। “इनसे मिलिए कल्पना जी, यह है नीरव, मेरे निर्देशन में कार्य कर रहे हैं।", “हैलो!” नीरव धीरे से बोल कर मुस्कुराया। “हाय!” मैंने उत्तर दिया। तुम लोग बैठो, मैं जरा अभी आता हूं, कह कर विजयन आनंद अपने कान पर फोन लगाए आगे बढ़ दिये। “अच्छा तो आप न्यूज़ 15 से हैं!”

“जी।”, बोलकर होठों को तुरंत जोड़ लिया था मैंने।

“हम्म, सर ने कल ही बताया था इस इंटरव्यू के संदर्भ में। तो कब तक टेलीकास्ट होगा?” नीरव ने पूछा।

“जी, अभी जल्दी ही प्रकाशित करने का विचार है। अगले हफ्ते तक टेलीकास्ट हो जाएगा। हम न्यूज़ 15 की ओर से जल्दी ही सर को सूचित कर देंगे।“

जी, मुझे इंतजार रहेगा। नीरव ने कहा था। अच्छा सर, मैं निकलती हूं शाम 8:00 बजे मेरी एंकरिंग है। मैंने हमेशा की तरह अपने समय को बचाने के अंदाज में कहा। जी बिल्कुल, नीरव ने औपचारिक हंसी के साथ हाथ मिलाया। विजयन जी को सूचित कर दीजिएगा मेरे जाने का, मैं बाय बोलते हुए बोली थी। जी बिल्कुल, औपचारिकता को कायम रखते हुए नीरव ने कहा।

ऐसी कितनी ही पहली मुलाक़ातें, मेरी रोज़ किसी न किसी से होती रहती थी। लेकिन, यह पहली मुलाक़ात दूसरी में किसी संयोगवश बदली। फिर ऐसे संयोग अक्सर होने लगे और एक समय बाद परिस्थितिवश ऐसी मुलाक़ातें जरूरी हो गई। कब, कैसे, कहां से प्रेम का अंकुर फूट जाए पता ही नहीं चलता। दूसरी बार के संयोग के दिन ही तो फूटा था यह अंकुर जब अचानक ही एक दिन सड़क पर किसी प्रोटेस्ट के चलते ठप्प हुए यातायात के बीच ऑटो-ऑटो चीखने की आवाज शक्ल के साथ नीरव से टकराई थी। जो कि अपनी स्कूटी से, उस जाम में से आसानी से निकलने की जुगत में लगा था। अरे कल्पना जी! नीरव ने अपनी स्कूटी को वही साइड में लगाते हुए कहा था। नमस्कार! मैं आज भी जल्दी में थी। इतना कहकर झट से मैंने ऑटो के लिए उचक-उचक कर इधर-उधर आंखें मटकाना शुरु कर दिया था। अगर आपको आपत्ति ना हो तो, क्या मैं आपको आपके गंतव्य तक छोड़ दूं? यह ट्रैफिक ऐसे ही रहने वाला है चार-पांच घंटे तक। यह नीरव ने कैसा प्रस्ताव रख दिया था। दो बार ही की मुलाक़ात में। 'हां' कहूं भी तो कैसे और 'ना' कहने का तो प्रश्न ऐसी स्थिति में मूर्खता ही होगी। जब आधे घंटे बाद किसी भी हालत में स्टूडियो पहुंचना अनिवार्य हो। मैंने बहुत सोच लेने के उपरांत कहा। जी, आपको तो कोई आपत्ति नहीं होगी? नहीं-नहीं ऐसा बिल्कुल मत सोचिए, नीरव ने बहुत सौम्यता के साथ उत्तर दिया। आइए चलिए। बस इसी दूसरी मुलाकात के बाद मेरे मन में कुछ प्यारे से एहसास हिंडोलें मार गए थे। शायद, ऐसा ही कुछ उसके साथ भी हुआ था। उसी का तो परिणाम था कि बाद में यह संयोग, मिलने के बहाने में बदलें और बदलते-बदलते एक अनजान-अनजानी, चिर-परिचित हो गए।

एक दिन मैंने बड़े प्रेम से टटोला भी था नीरव को। देखो! जीवन भर साथ तो निभाओगे ना? 'यकीन मानो! भविष्य में तुम, स्वयं को दुनियां की सबसे सुकून भरी औरत महसूस करोगी'। नीरव के इस वाक्य के साथ मेरे प्रेम का रंग गाढ़ा होना स्वाभाविक था। जानता हूं, कई मायने में मैं तुमसे बेहतर नहीं हूं अभी, किंतु मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं। भविष्य में तुम्हारी सभी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए तत्पर रहूंगा कल्पना। थोड़ा समय और, बस। अभी नए गीत मुझे मिले हैं, मुझे पूरी आशा है की इन गीतों को अच्छा संगीत देने में मैं जरूर कामयाब रहूंगा। नीरव ने आश्वासित करने के ढंग से कहा था। लेकिन, मेरी अभिलाषा केवल एक ही थी। वह थी, नीरव का मेरे प्रति अगाध प्रेम। नीरव का करियर भविष्य में उछालें मारे ना मारे किंतु, प्रेम की बारिश कभी ना थमे। फिर चाहे इस हृदय को कोई चेरापूंजी ही घोषित क्यों ना कर दें। ऐसा ही होगा नीरव, तुम्हारी मेहनत अवश्य रंग लाएगी। मैंने भी विश्वास के साथ अपना हाथ नीरव के हाथों पर रख दिया था। अगली सुबह से ही नीरव मुझे लगातार फोन किए जा रहा था किंतु, पहले तो कई बार फोन व्यस्त होने की केवल धुन सुनाई दी। तत्पश्चात फोन स्विच्ड ऑफ आने लगा। हालांकि ऐसा पहली बार नहीं था कि मेरा फोन व्यस्त जाए, नीरव को इसकी आदत थी। क्योंकि, कहीं ना कहीं वह मेरे काम से अच्छे से परिचित था किंतु, ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि मैंने कॉल बैक ना की हो। उस दिन तो रात के 10:00 बज गए थे। नीरव ने कई बार सोचा कि मेरे घर चला जाए किंतु मेरा कभी कुछ पक्का होता ही कहां था। ना जाने घर होती या ऑफिस, या कहीं और। बिना फोन के कुछ पता ही नहीं चलता। नीरव ने निश्चय किया कि पहले मेरे घर जाएगा अगर वहां नहीं मिली तो न्यूज़ 15 के लिए प्रस्थान करेगा। नीरव ने मेरे घर की घंटी बजाने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि झट से दरवाजा खोलते हुए मैं, अपने बॉस को विदा करने के इरादे से बाहर निकली। अचानक से नीरव को देखकर अवाक् होती हुई बोली। “अरे! नीरव तुम? अच्छा इनसे मिलो। यह है मेरे बॉस मिस्टर बोस।” मिस्टर बोस को देखते हुए नीरव ने उसकी हैलो के जवाब में अपना सर हिलाया। मिस्टर बोस बहुत जल्दी में थे। वैसे भी काफी समय से निकलने के प्रयास में ही थे। सुबह से यही जो थे मेरे घर, मीटिंग उन्हीं की अध्यक्षता में संपन्न हुई थी। बाकी नौ लोग नीरव के आने से पहले ही यहां से प्रस्थान कर चुके थे। इस अचानक हुई मीटिंग का आभास तो मुझे भी ना था। कुछ रणनीतियां कार्य क्षेत्र से बाहर संपन्न की जाती है। इस बार वह उपयुक्त स्थान मेरा घर था। मेरा टू बीएचके का फ्लैट पूर्णतः उपयुक्त जो था तथा परिवार से दूर मैं अकेली निवासी थी इस घर में। खैर, मैं पहले से नीरव को सूचित नहीं कर पाई थी। जैसा कि मैंने पहले ही कहा कि, इस बात के आभास से पूर्णता मुक्त जो थी कि, इस बार मीटिंग का कार्यस्थल मेरा घर होगा। और यही बताने का अवसर नहीं मिल पाया था उसे। नीरव अपनी जगह सही था। उसको अधिकार था, या यह कहूं मेरा ही दिया पूर्ण अधिकार था कि उसे जानकारी हो कि मैं कहां हूं। मुझे भी होती थी उसके बारे में। उस दिन ना मैं उसकी जानकारी ले पाने में समर्थ थी ना उसे अपनी जानकारी देने में।

मिस्टर बोस के जाने के उपरांत मैंने नीरव को अंदर आने को कहा। मेरे चेहरे पर जितनी थकावट थी नीरव का चेहरा उतने ही क्रोध से भरा हुआ था। नीरव घर के अंदर दाखिल हुआ। मैं भी दरवाजा बंद करके उसकी ओर मुड़ी ही थी कि नीरव के प्रश्न की गूंज मेरे कानों में सुनाई पड़ी।

“क्या है यह सब?”

“क्या? मैंने पूछा।”

“तुम और वह आदमी इस समय घर में?”

मैं इतनी थकी हुई थी कि मुझे नीरव के क्रोध का कारण समझ ही नहीं आ रहा था। सो मैंने उत्तर में कहा।

“हां, मिस्टर बोस थे। बताया तो था तुम्हें बाहर।”

“हां, मैंने सुना! लेकिन इस समय तुम्हारे साथ क्या कर रहा था?”

इस बार नीरव ने झकझोर कर पूछा था। थकावट से चूर अचानक मेरे अंदर चेतना के प्रवेश ने मेरी बेख्याली को दूर कर नीरव के प्रश्न की तीक्ष्णता को भांप लिया था। साथ-साथ उसके शक के अंकुर का प्रस्फुटन भी, जो कि दरवाजे पर ही हो गया था। जब उसने मिस्टर बोस के साथ मुझे देखा था। अभी तो मेरे समक्ष शक का भरा पूरा पेड़ था।

“तुम मुझ पर शक कर रहे हो?”

मैंने उसके हाथों को अपने कंधों से झटकते हुए कहा था। एक बार मन हुआ भी की बता दूं, मिस्टर बोस ही नहीं, समस्त स्टाफ कुछ क्षण पहले ही यहां से खिसका है। किंतु नीरव का खोया हुआ धीरज, उसका खोया हुआ विवेक, उसके हृदय में मेरी अस्पष्ट तस्वीर को उजागर कर रहा था। जिसे पहली बार देखने का अवसर मुझे प्राप्त हुआ था। सच कहूं तो मेरे हृदय में उसकी छवि भी चट से चटक चुकी थी। बस टूटने की ओर अग्रसर थी।

“हां! कर रहा हूं शक। मेरी आंखों का देखा हुआ भी झुठला सकती हो? है इतनी हिम्मत तुममें?”

नीरव चिल्लाया था।

“हां, है मुझ में। आंखों का देखा हुआ हमेशा सच ही हो ऐसा जरूरी तो नहीं नीरव।”

मैंने उसके धीरज का आह्वान करने का प्रयत्न किया था।

“तो सच क्या है? बताओ मुझे? मैं भी सुनने को तत्पर हूं, कहो तुम्हारा सच! जो आज तक मैं जान ही ना पाया।”

इस वाक्य की चोट से मेरे भीतर जितनी दरारें आई थी। उन दरारों के प्रभाव ने मुझे मौन बनाने का भरपूर प्रयास किया। किंतु मैं बोली। मैंने स्वयं को सहज बनाते हुए कहा।

“नीरव आज घर में मीटिंग थी। मिस्टर बोस के साथ-साथ बाकी स्टाफ भी यही था। तुम्हारे आने के कुछ क्षण पूर्व ही वें सभी यहां से गए थे।”

“अच्छा! और केवल मिस्टर बोस ही यहां रह गए। कहो! यही कहना चाहती हो ना?” नीरव ने मेरे संयम की सारी सीमाओं को पार करते हुए कहा।

“हां... ।” मैंने कहा।

“या केवल मीटिंग तुम्हारे और मिस्टर बोस के बीच ही थी पूरे ऑफिस स्टाफ से दूर, यह भी तो एक सत्य हो सकता है ना कल्पना।” नीरव ने कहा।

“अगर, यह मीटिंग मेरे और मिस्टर बोस के बीच होती, तो भी तुम को किसी प्रकार की कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए थी।”

मेरा प्रश्न लाजमी था। फिर चाहे वह उस स्थिति में ठीक ना भी बैठता हो। नीरव ने अपनी आंखों को गुस्से में भींचा और एक धमाकेदार थप्पड़ मेरे मुंह पर दे मारा।

“यह थप्पड़ नहीं मेरा विश्वास है। जो तुम आज तोड़ चुकी हो, आज से मेरा तुमसे कोई संबंध नहीं है कल्पना।”

मैं उसे देखती ही रह गई और वह झट से दरवाजा खोल कर बाहर हो गया। दरवाजे से ही नहीं, मेरी जिंदगी से सदा के लिए दूर हो गया था वह उस दिन। लेकिन अपनी असमर्थता का बोध मुझे उस दिन, उसके अगले या कहूं आने वाले हर दिन हुआ। जब मैंने महसूस किया कि विश्वास का कठोर आवरण मैं नीरव के ऊपर बना ही ना पाई। ओज़ोन की परत सा था उसका विश्वास। इसी कारण उसके विश्वास के आवरण में हुए छेदों में से निकलती उस अविश्वासी उत्ताप दृष्टि ने मेरे अस्तित्व को बहुत नुकसान पहुंचाया था। मैं नहीं जानती थी क्या सही है। किंतु जो हुआ वह गलत ही था। इस बात से मुझे सहमत होने में समय लगा। इस समय को लगने का कारण स्वयं को पुरुष की नजरों से देख कर स्वंय को ही दोषी पाना था। किंतु, आज अपनी दृष्टि मुझे मुक्ति के मार्ग की ओर प्रशस्त कर रही है।



प्रिया राणा, पीएच.डी. (हिन्दी), हिन्दी एवम् तुलनात्मक साहित्य विभाग, केरल केन्द्रीय विश्वविद्यालय, केरल। मो. 9526414087 ईमेल - priyarana1504@gmail.com