Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)

इतिहास से गुजरते हुए विभाजन की वर्तमान दास्ताँ: आधा गाँव

राही मासूम रजा का उपन्यास ‘आधा गाँव’ 1937 से लेकर 1952-53 के समयावधि को सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक इतिहास को ग्राम्य सन्दर्भ देकर कथ्य में गूँथकर प्रस्तुत करते हैं । भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं विश्व इतिहास में भी यह समय सबसे गतिशील प्रसंगों, आन्दोलनों, युद्धों, और देशों के निर्माण और विध्वंसो का रहा है । सबसे महत्त्वपूर्ण है इस समय में कई प्रकार की सीमाओं का निर्माण हुआ, जो जमीन पर देश की तो व्यक्तियों के मनों में कई प्रकार की सीमाओं का निर्माण होता रहा है । इस उपन्यास की विशेष बात यह है कि राही मासूम रजा इस समय को कई कोणों से समझाते हुए न तो स्थानीयता को त्यागते हैं और न वैश्विक सन्दर्भ को भी अनदेखा करते हैं । गंगौली की कई बाशिन्दे अपने वृत्तों के बाहर नहीं निकल पाते हैं, किन्तु उनके चाहने या न चाहने के बीच इन्हीं वृत्तों के बाहर की दुनिया उनके जीवन पर दूरगामी प्रभाव डालती जाती है । अत्यन्त संश्लिष्ट ढंग से उपन्यासकार ने कई प्रश्नों को अपने कथ्य में समेटा है । उसके कथ्य में ग्राम्य जीवन, राष्ट्रवाद, दलित, किसान-मज़दूर, भाषा, राष्ट्रीय आन्दोलन, स्त्री मुद्दे, दलित कोण, भृत्यों की भीतर के जातिवाद, सामन्तों और मातहतों की रिश्ते के साथ पहले महायुद्ध का राजनीति, राष्ट्रीय आन्दोलन आदि का समावेश कुछ इस प्रकार होता चला जाता है कि पाठक स्वयं इसका हिस्सा बनता चला जाता है । इस दौरान भारत की भावी वोटों की राजनीति की शुरुआत भी देखी जा सकती है । सामन्ती व्यवस्था के अन्तर्विरोध और उसका राजनीतिक मोर्चे पर अन्त से उपजी परिस्थिति के कई पहलू भी उपन्यास के अंग बनते हैं । वास्तविकता यह है कि इन सारी स्थितियों के माध्यम से सामाजिक-सांस्कृतिक त्रासदी को उपन्यास में गुंफित किया गया है ।

वैसे तो ‘आधा गाँव’ का कथाक्षेत्र उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के गंगौली नामक गाँव की कथा, वहाँ के चरित्रों के जीवन-संघर्षों को अपना आधार बनाती है, जिसकी सामाजिक संरचना भारतीय सामन्ती परिवेश से युक्त है । इस गाँव में तत्कालीन सामनन्ती व्यवस्था के अनुसार जाति एवं धर्म के विभिन्न सोपान, पदक्रम एवं चरण बने हुए हैं । इन चरणों का जनतंत्र में आकर टूटना और फिर उसकी त्रासदी को आधार बनाकर फिर खड़ा होना उपन्यास का एक मुख्य चिन्तनीय विषय है । यह सोपान-क्रम विश्वभाईचारे का दावा करेवाले इस्लाम धर्म के माध्यम से दिखाकर उपन्यासकार ने दो मोर्चों पर अपना कार्य किया है । इस गाँव की संरचना में ही यह निहित है, जहाँ “कोनों पर सैयद लोगों के मकान हैं...बीच बीच में जुलाहों के घर हैं । ...गाँव के आसपास कई ‘पुरे’ आबाद हैं, किसी में चमार रहते हैं, किसी में भर और किसी में अहीर ।” (रज़ा, 2014:14)

भारतीय समाज संरचना के सन्दर्भ में दो परस्पर विरोधी मत दिए जाते हैं । इसे एक ओर बहुलतावादी एवं साम्प्रदायिक सौहार्द से युक्त तो दूसरी ओर इसमें व्याप्त जातिवाद, स्त्री के सन्दर्भ में शोषणवादी एवं असामनतावादी दृष्टि, फ़िरकापरस्ती, आर्थिक असामानता की गहरी खाई आदि का व्यावहारिक स्वरूप का वास्तव है । यह दोनों स्थितियाँ गंगोली की सामन्ती समाज रचना में देखे जा सकते हैं । स्त्री, जातिवाद, फिरकाफरस्ती, मेहनतकश वर्ग की धर्म के प्रति भोली श्रद्धा आदि यहाँ भी देखने मिलती है । गंगौली में मोहर्रम के ताजिए के पीछे “हजार पाँच सौ आदमियों की भीड़ होती । औरतें बच्चों को बड़े ताजिए के नीचे से निकालतीं । मन्नतें माँनतीं । जारी पढ़ती और शरबत चढ़ातीं । ये औरतें सैदिनियाँ नहीं हुआ करती थीं क्योंकि सैदानियाँ तो डोली बिना घर से निकल ही नहीं सकती थीं । ये ता गाँव की राकिनें, जुलाहिनें, अहीरनें और चमाइनें होती थीं ।” (रज़ा, 2014:74-75) इतना ही नहीं सौहार्द और अंधश्रद्धा दोनों का बेहतरीन उदाहरण वह है जहाँ ताजिए निकलते वक्त अपनी उलती न गिराए जाने पर ब्राह्मणी बेवा मीर साहब से उलती गिरवाने मिन्नते करती हैं और कुछ गलत होने के डर डर से नूरुद्दीन शहीद की मजार पर धमकीभरे स्वर में मनौति माँगती है, “हे इमाम साहिब! हमार लइकन के कुछऊ हो गइल ना तक ठी ना होई!” (रज़ा, 2014:75) इस प्रकार भारतीय सामाजिक संरचना की दोनों विशेषताएँ या खामियाँ, यह आपकी देखने की दृष्टि पर निर्भर करता है, को गंगौली में देखा जा सकता है ।

किसी भी अन्य भारतीय धार्मिक समुदाय की तरह स्वतंत्रतापूर्व समय से ही भारतीय मुस्लिमों के अधिकांश हिस्से में दो तरह की सामाजिक संरचनाएँ दिखाई देती हैं । पहला अधिकांश हिस्सा मेहनत-मज़दूरी कर जीवन यापन करनेवाला और दूसरा इस मेहनत को अपना आधार बनाकर तमाम सुविधाओं का उपभोग करनेवाला । इनमें से कौन-सा हिस्सा अधिक पारम्पारिक, रूढ़ियों में जकड़ा हुआ, धर्मभीरु आदि दुर्गुणों से युक्त है, कहना मुश्किल है, किन्तु इसमें से सुविधाभोगी वर्ग धर्म का अपने स्वार्थों के लिए सफलतापूर्वक प्रयोग करता आया है । आधा गाँव में भी यह सामाजिक संरचना हिन्दू और मुसलमनों दोनों में समान रूप से दिखाई देती है । इसमें भारतीयता का अंश इतना है कि दोनों में बाहरी शक्तियों के हस्तक्षेप से पूर्व तक धार्मिक मतभेद बहुत ही कम दिखाई देता है । ब्राह्मण ताजिए पर मनौतियाँ माँगते हैं, शिया गाँव की देवी-देवताओं को गुप्त मन्नतें माँगते हैं । गाँव का लिंग आधारित, जातिआधारित, आर्थिक आधार आदि का विभाजन उसका अभिन्न हिस्सा बन गया था । इसमें क्रान्तिकारी परिवर्तन के कोई प्रयास इसके भीतर से नहीं दिखाई देते हैं । कुछ छिटपुट प्रयास भीतर से होते हैं, जहाँ शोषक या मालिक की दया की अपेक्षा अधिक होती है । जैसे झंगटिया बो अपनी बेटी सैयादिनियों के बीच उठने-बैठने के खयाल से अभिभूत है, किन्तु उसकी यह भावनाएँ तथाकथित उच्च वर्ण या वर्ग की दया पर आधारित है ।

आधा गाँव में मुसलमानों के बीच मौजूद शिया-सुन्नी की फिरकापरस्ती के साथ-साथ भारतीय समाज व्यवस्था से प्रभावित कहिए या आर्थिक आधारों पर निर्मित श्रमव्यवस्था, पर भी काफी प्रकाश डाला गया है । यह सही है कि पाठ के स्तर पर इस्लाम आन्तरिक जातिव्यवस्था जैसी किसी भी व्यवस्था की इजाज़त नहीं देता है, किन्तु व्यावहारिक रूप में भारतीय मुसलमानों में यह वास्तविकता है । धार्मिक समानता के इस्लाम के दावों के बावजूद शिया अशराफ की मुहर्रम की मजलिस का एक दृश्य आधा गाँव में यूँ है-“तीन दरे की जिस हिस्से में फर्श नहीं था, उसमें जुलाहे बैठे हुए थे । चमारों व भरों के लड़के प्रसाद के लालच में तीन दरे के बार जमीन पर उकडूँ बैठे आपस में लड़ रहे थे ।” (रज़ा, 2014:44) भारतीय मुस्लिम समूह का व्यवहार आर्थिक आधार पर निर्मित सामाजिक वर्गीकरण किस तरह स्वयं का अतिक्रमण करता रहा है, उपन्यास में इसके कई सन्दर्भ आए हैं । जैसे “रकियानेवाले लोग इतने दौलतमन्द थे कि जब चाहें खड़े-खड़े पूरे गाँव को खरीद लें लेकिन ये कपडेवाली कुर्सी पर हीं बैठ सकते थे, इन लोगों के लिए लकड़ीया टीन की कुर्सी रखी जाती थी ।” (रज़ा, 2014:53) गंगौली में जुलाहों, राकियों व सैयदों के बीच ऊँच-नीच का यह पदसोपान क्रम इतनी गहराई तक गया हुआ था कि अपने गाँव आने पर सैयद खानदान का पढ़ा-लिखा अब्बास अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के अपने अग्रज और ऑल इंडिया मुस्लिम स्टूडेंट फेडरेशन के उपसभापति फारुख से केवल इसलिए नहीं मिल सकता था, क्योंकि उसके बड़े-बूढ़े फारुख के पिता अनवारुल हसन को नीची जाति का मानते थे, किन्तु इस्लाम की एकता पर उनका पूर्ण विश्वास था । उपन्यासकार ने लिखा है, “मियाँ लोगों के सामने तो वह रकियाने जा नहीं सकता था, बड़े जूते पड़ते ।” इतना ही नहीं, अपने गाँव में रहते हुए अब्बास, फारुख को फारुख भाई नहीं कह सकता था, क्योंकि “किसी सैयद जमींदार का लड़का किसी राकी बच्चे को ‘भाई’ कैसे कह सकता था ।” विशेष बात यह है कि उपन्यासकार ने इस प्रसंग को अब्बास के चिन्तन और चिन्ता के रूप में प्रस्तुत किया है । प्रश्न यह है कि इस बात की चिन्ता उसके बड़े-बूढ़ों को इससे पहले कभी क्यों नहीं हुई, जो अब्बास को हुई? इसका उत्तर है, शिक्षा । लेकिन क्या यह चिन्ता व्यवहार में बदल पाती है? क्या अब्बास को इस एकता का अहसास मानवीय स्तर पर है? इस जद्दोजहद को उपन्यासकार ने पूरे उपन्यास में विन्यस्त किया है ।

मुस्लिमों के बीच का यह सामाजिक स्तरीकरण धार्मिक अवसरों एवं पर भी कामय रहता है । उपन्यासकार ने लिखा है, “गंगौली में मुहर्रम के अवसर पर दक्खिन पट्टीवाले गंगौली के पुराने जमींदार थे, इसलिए वे अपने ताजिए खुद नहीं सजाया करते थे । बड़ा ताजिया राकी सजाते थे । कोई ताजिया जुलाहों के इन्तजाम में था और कोई हज्जामों के ।” (रज़ा, 2014:74) सैयदों एवं श्रमजीवी जुलाहों व राकियों के बीच की इस दूरी के मूल में मुस्लिम समुदाय का अशराफ व रजिल (निम्न) के बीच का यह वर्गीकरण है, जो हिन्दू समाज के सवर्ण व अवर्ण की तर्ज पर मुस्लिम समुदाय के मेहनत व मजदूरी करनेवाले रजिल वर्ग को अशरफ के एक प्रकार की दलित जिन्दगी की भूमिका में प्रस्तुत करता है । जैसाकि धर्म के मामले में किया जाता है, तथाकथित उच्च सैयद परिवारों में जन्में बच्चों को अपनी कुल श्रेष्ठता एवं अपने उच्च होने का का प्रशिक्षण बचपन से ही कराया जाता था । मासूम को भी यह सिखाया गया । मासूम ने इस प्रसंग को कुछ यूँ सुनाया, “उस दिन मैं पहली और आखरी बार जुलाहों के लड़कों के साथ कबड्डी खेला था । मैं कबड्डी बोल रहा था और लगातार पाले की तरफ खिसकता ही जा रहा था...फिर एकदम से दो बड़े खुरदरे हाथों ने लड़कों को इधर-उधर पेंक दिया ‘अब तुंह लोगन अइसन लाट साहब हो गइल बाड़ा की मीर साहब के लइकन से कबड्डी खेलबा?’ यह आवाज गया अहीर की थी, ‘आप मियाँ हईं, आप के ई ना चाही ।’ उसने मुझे समझाया ।” (रज़ा, 2014:35-36)

यहाँ उपन्यासकार ने दोहरी विडम्बनात्मक स्थिति को दर्शाया है । गया अहीर स्वयं तथाकथित निम्न जाति का होने के कारण गुलाम सी स्थिति में था किन्तु जुलाहों के आगे वह स्वयं को उच्च दर्शाने का प्रयास करता । अर्थात् जिस व्यवस्था के चलते वह स्वयं शोषक की स्थिति में है, सैयदों का गुलाम सा जीवन व्यतीत करने के लिए विवश है, उसी व्यवस्था को अगली पीढ़ी तक संक्रमित कर अपनी अगली पीढ़ी को भी उसी स्थिति में ले जाने का जरीया बनता है । यह बात और अधिक स्पष्ट तब हो जाती है, जब गया अहीर की लाठी पर अपनी सत्ता को बल प्रदान करनेवाले हम्माद मियाँ ऐन मौके पर अपना हाथ उसके सर से उठाते हुए, हकीम साहब से हुए अपने विवाद की सारी जिम्मेदारी गया अहीर पर ढकेल देते हैं । आधा गाँव में इसे अधिकाधिक स्पष्ट करने के लिए उपन्यासकार ने पूर्ण दृश्य का निर्माण किया है :

“हकीम साहब बोले, “बाकी हम ई ना देख सकते कि मीर वाजिद स ई हरामाजादा अहीर जबान लड़ाए । अब ए कोन ऐसन दिन लग गए हैं कि ई महहूँ से टर्रा रहा है ।”
“क्यों बे...”हम्माद मियाँ ने गया को गालियों पर धर लिया, “माफी माँग मीर साहब से!”
“हुजूर माईबाप हईं, कहिल सुनिल माफ किहि जाए ।” गया ने हकीम साहिब से कहा ।” (रज़ा, 2014:189)

आजादी के बाद के समय में अन्य भारतीय धार्मिक समुदायों की भाँति मुस्लिमों के जीवन में भी तीव्र गति से बदलाव आए किन्तु एक बहुत बड़ा वर्ग उन्हें भाषा, राष्ट्रीयता, विभाजन आदि को लेकर कटघरे में खड़ा करता आया है । राही मासूम रजा आजादी के पहले के दस सालों और आजादी के बाद के दो-तीन वर्षों के लेखे जोखे के माध्यम से मुस्लिम समाज के सन्दर्भ वर्तमान तक फैले कई मिथकों को उपन्यास के माध्यम से तोड़ते हैं । इसमें पहला मिथक इतिहास से सन्दर्भित है । मुस्लिम समाज को देश के विभाजन के लिए जिम्मेदार माननेवालों का पूरा एक वर्ग भारत में अभी भी मौजूद है । उसके माथे पर द्वि-राष्ट्र को आधार प्रदान करने का कलंक लगाया जाता है, जबकि वास्तविकता यह है कि अधिकांश वे लोग जिन्होंने इसे आधार प्रदान किया था, पाकिस्तान जा चुका है । भारत में रहनेवालों के पास एक विकल्प मौजूद था, जिसे उऩ्होंने ठुकरा दिया, क्योंकि न वह पाकिस्तान को समझता था और न ही उसकी अनिवार्यता को । इसे आधा गाँव में सामन्ती मानसिकता और जमींदारी से जोड़कर देखा गया है । राही मासूम रजा के अनुसार पाकिस्तान अभियान और प्रकारान्तर से देश के विभाजन को आधार प्रदान करनेवाला मुस्लिमों का सामन्ती तबक़ा था, जो कांग्रेस के जमींदारी निर्मुलन के अभियान से तंग आकर या अपनी सत्ता जाने का भय खाकर पाकिस्तान को सपोर्ट कर रहा था । उपन्यासकार ने इसे सरलीकृत रूप में प्रस्तुत नहीं किया है, ऐसे भी पात्र हैं, जिन्होंने इस भय से अपने आप को बचाकर रखा और पाकिस्तान के अभियान को सिरे से ठुकरा दिया । यहाँ पर आकर उपन्यासकार की सामाजिक दृष्टि की परिपक्वता का पता चलता है । वह मिथकों एवं इतिहास की गलता व्याख्याओं का प्रतिरोध करने के क्रम में अपने आप को सरलीकरण से बचा लेता है, गलत व्याख्याता बनने से बचता है । वह मुस्लिमों को केवल शोषित ही नहीं शोषक की भूमिका में प्रस्तुत कर शोषण की प्रवृत्ति को धर्म से परे जाकर व्याख्यायित करता है ।

आधा गाँव की कथा-वस्तु में प्रत्येक स्तर पर व्याख्यायित सामन्ती मानसिकता एवं आर्थिक कारणों से कायम हुए मुस्लिम समुदाय के सामाजिक-आर्थिक विभाजन के माध्यम से राही मासूम रजा मुस्लिम लीग, हिन्दू महासभा तथा अन्य विभाजनकारी ताकतों के पाकिस्तान अभियान सवालों के घेर में खड़ा कर देते हैं, जो हिन्दू-मुस्लिम के ‘दो राष्ट्रों के सिद्धान्त’ को मानकर एक ओर इस्लामी राष्ट्रवाद व भाईचारे का नारा बुलन्द करता था तो दूसरी ओर ‘हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान’ के जिहाद के माध्यम से जातिवाद में लिप्त हिन्दू राष्ट्रवाद का सपना पाले हुए था । सच तो यह है कि मुस्लिम एवं हिन्दू अभिजन ने दो मुल्कों के प्रस्ताव द्वारा अपने वर्गीय हित साधन के लिए धर्म का राजनीतिक प्रयोग किया था । राही मासूम रजा अपने उपन्यास में इस दोहरी मानसिकता पर कुठाराघात करते हुए हिन्दुओं के जातीय विभाजन को कटघरे में तो खड़ा करते ही हैं, किन्तु उसके साथ-साथ वे अधिक ठहरकर मुस्लिम समुदाय की समरसता एवं भाईचारे के झूठ का पर्दाफाश भी करते हैं । अशराफ व सैयद वर्गों की अपने आप को श्रेष्ठ मानने व इस्लामी पवित्रता के छद्म को भी उजागर करते हैं । पाकिस्तान के पक्ष में लीग के प्रचारकों द्वारा दी गई धर्म को आधार बनाकर दिए गए तर्कों कुतर्क सिद्ध करते हैं । उपन्यास का एक महत्त्वपूर्ण पात्र हाजी साहब जहाँ जिन्ना को लेकर ही यह सवालिया निशान लगा ते हैं कि “कानी कउन त कहता रहा कि आप लोगन के जउन जिन्ना है ऊ निमाजो ना पढ़ते” और पाकिस्तान की अनिवार्यता का प्रचार करने निकले अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों के धार्मिक अज्ञानता और राजनीतिक स्वार्थों से बढ़कर बिसात के मोहरों की तरह इस्तेमाल को राही दो पंक्तियों में ही बिखेरकर रख देते हैं: “जब वे मस्जिद में घुसे तो नामज की जमात खड़ी हो चुकी थी । वे दोदनों भी जल्दी से पिछली सप में खड़े हो गए । एक ने हाथ बाँध लिए । दूसरे ने हाथ खोल लिए । साथी ने कुहनी मारी तो उसने जल्दी से हाथ बाँध लिए ।” (रज़ा, 2014:253) जिस धर्म, नामज़, भाषा आदि को बचाने के लिए अलग मुल्क की माँग की जा रही ही उसी का पालन इन प्रचारकों और उनके नेता को नहीं आता है । यह तो श्रमजीवी व गरीब मुसलमानों के बीच यह भय भी फैला दिया गया था कि नमाज को बचाना है तो उन्हें पाकिस्तान का समर्थ करना चाहिए, अन्यथा मजहब खतरे में पड़ जाएगा । उनके दिमाग़ में यह ज़हर भरा जाता था कि “इसी नमाज के बचाव के लिए पाकिस्तान की जरूरत है ।” (रज़ा, 2014:253) उपन्यास अनपढ़ जुलाहे हाजी गफूर की प्रतिक्रिया के माध्यम से सामान्य मुसलमानों के पक्ष को अभिव्यक्त करते हैं: “हम त अनपढ़ गँवार हैं । बाकी हमरे खयाल में निमाज खातिर पाकिस्तान-आकिस्तान की जरूरत ना है ।” (रज़ा, 2014:253) फुन्नन मियाँ तो हाजी गफूर को उत्तर देते हैं: “अ पाकिस्तान बनिबो करिहे त गंगउली से बहुत दूर बनिहे । तूं जाके अपनी चरखी सँभालो और ताना ठीक करो । पाकिस्तान-आकिस्तान पेट भरन का खेल है ।” (रज़ा, 2014:269) अर्थात्, तुम श्रमजीवी चाहे पाकिस्तान जाओ न जाओ, तम्हें तो इसी प्रकार दूसरों के लिए खटना बड़ेगा, अपना तन नंगा रखकर दूसरों के लिए चरखी सँभालनी पड़ेगी । उसके फायदे तुमसे काफी दूर है । इससे तुम्हारा तो पेट भरने से रहा, यह तो राजनीतिक हथकंड़े हैं । आधा गाँव की केवल कथा एवं पात्र ही गाँव के नहीं हैं, गाँववालों की एक अन्यतम् विशेषता ‘स्पष्टवादिता’ भी इसके पात्रों में कई स्थानों पर दिखाई देती है । आधा गाँव के पाकिस्तान के मिथकों के ध्वस्त करे के क्रम में मुस्लिम समुदाय का अशराफ व रजिल का जातिगत विभाजन इस्लाम से भिन्न भारतीय व्यावहारिक स्वरूप को भी उद्‌घाटित करता है, जो पैन-इस्लामिक अन्तरराष्ट्रीयता व भाईचारे के नारे से भिन्न है । विश्व स्ततर पर भी इस प्रकार के कई विभाजन देखे जा सकते हैं । इसकी बानगी वहाँ देखने को मिलती है जहाँ भारतीय जीवन शैली से प्रभावित लोगों के प्रति टाउन मुस्लिम लीग के सेक्रेटरी अहमद कादरी क्रोधित होकर कहते हैं: “आप लोग समझते हैं कि मुहर्रम के अखाड़े और ढोल-बाजे में ही इस्लाम रखा है । ये तमाम चीजें बिलकुल गैर-इस्लामी हैं । ...ये तमाम बातें आप लोगों ने हिन्दुओं से ही सीखी हैं ।” (रज़ा, 2014:134) यह कार्य शुद्धतावाद के अन्तर्गत सुन्नी इस्लाम के कुछ स्कूल करते आए हैं, जिससे यह पात्र प्रभावित दिखाया गया है । वैसे उपन्यास शिया मुस्लिमों की कई मान्यताओं की उघड़कर आलोचना करता है, जिसे उपन्यासकार का दृष्टिकोण माना जाना चाहिए न कि वहाबी शाखा आदि का प्रभाव ।

आधा गाँव में उपन्यासकार राही मासूम रजा भारतीय मुसलमान के आपसी धार्मिक एवं संस्कारगत द्वन्द्व को सैयद फुन्नन मियाँ की बेटी रजिए की मौत के माध्यम व्याख्यायित किया है । रजिए की जनाजे में न गाँव के मोमिन शामिल हुए और न ही मौलवी साहब ने नमाजे जनाजा पढ़ाया । इसका कारण है “फुन्नन मियाँ टाट बाहर कर दिए गए थे । जब वह करामत अली की बीवी को निकाल लाए थे तब वह टाट बाहर नहीं किए गए थे । ...एक कह क बात पर पृथ्वीपाल सिंह का साथ दिया तो पट्टीवाले ने उहें टाट बार कर दिया ।” (रज़ा, 2014:165) इसके माध्यम से राही मासूम रजा संकीर्ण व्यक्तिगत स्वार्थों एवं धर्म के नाम पर इकठ्ठा की जानेवाली भीड़ द्वारा धर्म के दुरुपयोग के उजागर करते हैं । यही मानसिकता आगे चलकर द्वीराष्ट्र के विचार और विभाजनकारी तत्वों द्वारा जमीन पर ही नहीं मानव पर भी लकीरें खीचकर उसका विभाजन का कारण बनती है । यह बात भी उपन्यासकार ने रेखांकित की है कि जिन फुन्नन मियाँ को सैयदों द्वारा टाट बाहर किया गया था, उनका बेटा सन् बयालीस के भारत छोड़ो आन्दोलन में गोली का शिकार हुआ था और पाकिस्तान के सन्दर्भ में उसका स्पष्ट मत था कि “कहीं इस्लामू है कि हुकूमतै बन जहिए । ऐ भाई, बाप-दादा की कबर हियाँ है, चौर इमामबाड़ा हियाँ है, खेती-बाड़ी हियाँ है । हम कौनो बरबक हैं कि तोरे पाकिस्तान जिन्दाबाद में फँस जाएँ ।” (रज़ा, 2014:162) विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि पाकिस्तान या धर्म को आधार बनाकर राष्ट्र के निर्माण की आलोचना करते समय उपन्यासकार ने जमींदार वर्ग एवं सामन्ती मानसिकता की भी निर्मम आलोचना की है, जिसके लिए नैतिक साहस की आवश्यकता होती है । खास बात यह भी है कि यह आलोचना ऊपर से आरोपित कहीं भी नहीं लगती है, बल्कि इसे एक प्रवाह के तहत उपन्यास के कथ्य में निहित कर प्रस्तुत किया गया है ।

यह सही है कि राही मासूम रजा के आधा गाँव में व्यापक तौर पर सामन्ती व्यवस्था एवं उसकी क्रिटिक प्रस्तुत करती है किन्तु यह क्रिटिक पात्रों के माध्यम से किया गया है । गया अहीर, छिकुरिया चमार, झंझटिया बो, रहमान हज्जाम, परशुराम चमार व सेफिया नाइन सरीखे पात्रों के सहारे अपने कथा-वृत्तान्त में सामान्ती वर्ग को पृष्ठभूमि में डाल नहीं देते, बल्कि उसकी रचनात्मक प्रयोग करते हुए विचारधारा एवं संवेदनात्मक स्तर पर आलोचना रची है । यह आलोचना जातिवाद, पुरुषवाद, नस्लवाद, उच्च वर्ग-वर्ण की छद्म मानवीयता, सैयदों की इस्लाम की अपनी स्वार्थानुसार व्याख्या, धर्म के प्रति श्रद्धा-अंधश्रद्धा से लेकर द्विराष्ट्रवाद, धर्माधारित हिंसा, जातिधारित शोषण, पाकिस्तान के विचार के अन्तर्विरोध आदि की भी आलोचना करते हैं । इसके माध्यम से वे न केवल दो राष्ट्रों के सिद्धान्त को ही नहीं धर्म में व्याप्त भाईचारे और एकता के दावे के बावजूद व्यवहार में आए कई भेदों-उपभेदों की भी आलोचना करते हैं । इसके माध्यम से वे भारतीय समाज व्यवस्था की कलात्मक-रचनात्मक आलोचना प्रस्तुत करते हैं । उन्होंने लिखा है, “सोजखानों के आगे लट्ठबन्द अहीरों का एक गोल होता । यह ताजाय इतना बड़ा हुआ करता थ कि गाँव की गलियों से नहीं निकल सकता था । उलतियाँ गिरानी पड़तीं । लट्ठबन्द अहीरों का गोल उलतियों को गिराने के लिए बड़े ताजिए के आगे-आगे चला करता था ।” (रज़ा, 2014:75)

यह स्थापित है कि आधा गाँव में सामन्ती व्यवस्था की आलोचना प्रस्तुत की गयी है, किन्तु इस क्रम में सामन्ती व्यवस्था के शिकार होनेवाले वर्ग का अंध होकर समर्थन नहीं करते हैं । वे उस वर्ग की सामन्ती वर्ग द्वारा शोषित होकर भी, उसको अपने श्रम से पोषित करते हुए भी दीन-हीन होकर भी दास वृत्ति को बनाए रखने में भी अपना सहभागिता बनाए रखता है, यह पदसोपानक्रम को बनाए रखने में न केवल सम्मिलित होता है, बल्कि स्वयं उसका पालन भी करता है । चाहे वह गया अहीर द्वारा मासूम को अपने उच्च वर्ग के सैयद होने का अहसास दिलाने का प्रसंग हो या छिकुरिया चमार का यह कहना कि “जहाँ फुन्नन मियाँ का पसीना गिरी ना, हुआं समूच भर टोली मर ना जाई !” के मूल में भी सामन्ती समाज के की आलोचना के साथ उसे बनाए रखनेवाले श्रमजीवी वर्ग की आलोचना भी दिखाई देती है । यह सामन्ती सत्ता का स्वयं को संतुलित बनाए रखने की एक व्यवस्था है, जिसे तोड़ने की अपील इस आलोचना द्वारा उपन्यासकार ने की है । यही सन्तुलन बाद में जाकर अशिक्षा और द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त का आधार बनता है । इस सन्तुलन को पहला धक्का भारती की आजादी, दूसरा धक्का लोकतंत्रर की स्थापना और तीसरा धक्का कांग्रेस के जमींदारी निर्मुलन के माध्यम से लगता है, जिसमें स्वेच्छा से भारत में रह रहे कुलीन मुस्लिम समुदाय को चप्पलों की दुकानों, पंक्चर की दुकानों या अकुशल कारीगरों में तब्दील कर दिया । इस स्थिति से यह हिस्सा और इसके तत्कालीन गुलाम वर्ग को आजादी के सत्तर वर्षों तक भी उभारा नहीं जा सकता है, जिसकी पुष्टि कई रिपोर्टों के माध्यम से होती है । यह वही वर्ग था जो आजादी के समय विभिन्न नारों के माध्यम से इस प्रकार की स्वयंरक्षित व्यवस्था को बचाए रखने के लिए और प्रकारान्तर से अंग्रेज राज के बचाए रखने के लिए प्रयासरत था, ताकि उसकी सत्ता और जमींदारी कायम रहे, सत्ता कायम रहे । इस वर्ग में न केवल मुस्लिम धर्म बल्कि सभी धर्मों के जमींदारी शामिल थे । उपन्यास में न केवल मुस्लिम जमींदारों द्वारा बल्कि हिदू और अन्य जमींदारों द्वारा भी अपनी रियाया और श्रमजीवी वर्ग पर आर्थिक-सांस्कृतिक शोषण का चित्रण करते हुए दिखाया गया है, बगैर किसी धार्मिक एवं जातीय भेदभाव के । इसी प्रकार का अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए दंगे भड़काने के प्रयास में ठाकुर साहब का तर्क देते हैं “का नवाखाली याँहई बफतिया, अउरी हई दिलरवा, अउरी हई कलुआ हिन्दू इसत्रियान के खराब किहले बाये ! बड़ बहादुर हव्वा लोग अउर हिन्दू मरियादा के ढेर खयाल बाए तुहरे लोगन के, त कलकत्ते लौटकर जाए के चाही । हियाँ का धरल बाय, की चढ़ अइल हौ लोग?” (रज़ा, 2014:288)

‘आधा गाँव’ वास्तव में किसी एक समूदाय की नहीं, अपितु अपने पूर्ण रूप में कट्टरतावाद एवं विभाजनवादी मानसिकता की क्रमप्राप्त आलोचना करता है । वह हिन्दू-मुस्लिम के सांस्कृतिक-सामाजिक सौहार्द को भुलाकर मानवों के बीच किए जानेवाले विभाजन के मुस्लिम लीगी व हिन्दू महासभाई राजनीति की भी आलोचना करता है । वह भारतीय समाज की कुलीन सामन्तों व अवर्ण खेतिहर जातियों के अन्तर्विरोध शत्रुतापूर्ण न होकर सहज स्वीकृत होकर होते थे । ‘आधा गाँव’ के छिकुरिया चमार का यह कथन इस में इस बात की झलक मिलती है, “जमींदारन के जुलम के हम ना कहता बाड़ी’ बाकी जेहके पास जमींदारे होई उहके जुलुम करे का पड़ी । ना करी तो जमींदारी ना चली, औरी मियंहु लोग जमींदारे हौवन...हम त ई देखत बाड़ी कि बारिखपुर के ठाकुरो साहिब जुलुम करे में गंगौली के मियाँ लोगन से कम न हौवन...।” (रज़ा, 2014:182) इन कुलीन सामन्तों की विलासिता का आधार तैयार करनेवाले श्रमिक-मज़दूर वर्ग की मासिकता का पता यहाँ चलता है ।

राही मासूम रजा इतिहास के प्रभुत्ववादी विमर्श से स्थानीय घटनाओं को नहीं परिभाषित करते बल्कि इतिहास कही जानेवाली घटनाओं को अपने कथा के माध्यम से उनकी वास्तविकता में विश्लषित करते हैं । ‘आधा गाँव’ के कथ्य में गाँधी जी द्वारा चलाए गए सन् बयालीस के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान थाना कासिमाबाद के फूँके जाने की घटना की व्याख्या से राही मासूम रजा की इतिहास दृष्टि की सफाई का पता चलता है । राही मासूम रजा की यह इतिहास दृष्टि घटनाओं को ऐतिहास को विशाल कथ्य में पचाकर गारद करने के विरुद्ध हैं । थाना कासिमाबाद के फूँके जाने की घटना को राही मासूम रजा इन शब्दों में प्रस्तुत करते हैं, “इस मजमें में ऐसे लोग कम थे, जिन्हें ‘हिन्दुस्तान छोड़ दो’ के नारे की खबर रहही हो । उनें ऐसे लोग भी नहीं थे, जिन्हें आजादी का मफहूम मालूम हो । ये लोग वह थे, जिनसे जबर्दस्ती वार फंड लिया गया था । जिनके भाई-भतीजे लड़ाई के काम आ गए थे या काम आनेवले थे और जिनसे थाना कासिमाबाद कई पुश्तों से रिश्वत ले रहा था । उनमें कोमिला चमार का बाप बाबूराम चमार था-बल्कि बाबूराम चमार थे । उनमें गोबरधन था । लेकिन उनमें सबसे बड़ा गोल फुन्नन मियाँ का था...।” (रज़ा, 2014:177) इसके साथ ही वह इस बात की पड़ताल करते हैं कि इतिहास की ऐसी कौन-सी परिस्थितियाँ थी, जिसने भारतीय मुसलमानों के मन में विभाजनवादी दृष्टि को पनपने को उपजाउ मिट्टी में बदल दिया । इसकी कई कोणों से व्याख्या करने के पश्चात् ही उसे अपने पात्रों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है, न निष्कर्ष की गलती और न वैचारिक अपरिपक्वता उपन्यास की निजी विशेषता है ।

इनके अतिरिक्त ‘आधा गाँव’ के कथ्य में इतिहास दृष्टियों की टकराहट देखी जा सकती है । इन इतिहास दृष्टियों में कई भेद दिखाई देते हैं, जिसमें हिरनों के इतिहास को कोई महत्व नहीं दिया जाता है, इसे हम शिकारियों का इतिहास कह सकते हैं । राही इसी शिकारियों के इतिहास का प्रतिवाद अपने इस उपन्यासमें प्रस्तुत करते हैं । उनकी इतिहास दृष्टि में धर्म और जाति से परे जाकर इतिहास को प्रस्तुत करने की बेचैनी भी दिखाई देती है, किन्तु संयम के साथ । वे इतिहास को चीख-पुकार के साथ नहीं, बल्कि एक कलाकार-लेखक की भाँति अपने कथ्य का हिस्सा बनाकर प्रस्तुत करते हैं । इतिहास के इसी टकराहट का नतीजा है कि निर्वासित मुमताज व झिंगुरिया को आधा गाँव की कथा के केन्द्र में लाकर कर राही मासूम रजा हाशिए के लोगों को इतिहास की मुख्यधारा में लाने का प्रयास करते हैं । झिंगुरिया के बेटे को “यह भी नहीं मालूम था कि उका बाप किस सिलसिले में मारा गया है या शहीद हुआ है ।” (रज़ा, 2014:181) जब यह बताया जाता है कि “उसका बाप वतन की राह में शहीद हुआ है, छिकुरिया ने इस बात के मानने से साफ इनकार कर दिया” क्योंकि उसने तो शहादत के नाम पर सिर्फ इमाम साहब का नाम सा था । इसलिए वह बोला, “ऐसन मत कहें, मास्टर साहिब इमाम साहब गुसा गैलन ना त उपद्दरो हो जाई ।” (रज़ा, 2014:181) मुमताज शहीद होकर भी सन् बयालीस के शहीदों में मुमताज का नाम नहीं आ पाता है । इसके माध्यम से राही उस इतिहास को प्रश्नांकित करते हैं जहाँ न जाने कितने मुमताज इतिहास में समा नहीं पाते हैं । उसी प्रकार इसी प्रसंग के माध्यम से झिंगगुरिया जैसों की धर्मभीरुता को भी रेखांकित करना नहीं भूलते हैं । उनकी परम्परा में शहादत जैसे राष्ट्रीय पदावली का प्रवेश धर्म के माध्यम से ही होता है । वह प्रत्येक के लिए धर्म पर आश्रित है । वास्तव में वह सदियों से धर्म के उपनिवेश में जीने का अभ्यस्त है, जहाँ उसकी नियती का प्रत्येक कोण परिभाषित होता है ।

राही मासूम रजा अपने पात्रों को टाइप बनाकर प्रस्तुत नहीं करते हैं । ऐसा नहीं है कि प्रत्येक उच्च वर्गीय सैयद परिवार का सदस्य राजनीति की सोची-समझी चाल के तहत शोषण करता है और गैर-सैयद वर्ग या जमींदार वर्ग के अतिरिक्त प्रत्येक शोषित वर्ग राजनीति का शिकार होता चला जाता है । उपन्यास में कई ऐसे पात्र हैं जो तत्कालीन राजनीति से तो छोड़ दीजिए स्वयं जिन्ना से भी परिचित नहीं हैं, राष्ट्र, पाकिस्तान, धर्माधारित राष्ट्र, सरकार आदि आधुनिक विभाजनकारी पदबंधों से उनका साबका भी नहीं पडा था, वे तो पारम्पारिक रूप से चली आ रही विभाजनों में ही कैद था । अपने ही फिरकापरस्ती का शिकार था । ‘आधा गाँव’ के फुन्नन मिया यह सवाल करते हैं कि “हई, जिन्ना साबह कहाँ के बाड़न?” (रज़ा, 2014:269) हाजी गफूर अंसारी में कहते हैं कि “हम लोग त जमीयतुल अंसार वाले हैं । हम लोग त उसलिम लीग मुसलिम लीग को ओट ना दे सकते ।” (रज़ा, 2014:253) इस पारम्पारिक विभाजन को आधुनिक शिक्षा पाया पढ़ा-लिखा तबका भी ठुकरा नहीं पाता है, जिसे इस्लामी एकता का पता होता है । पाकिस्तान के विचारों का प्रचार करने आए अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के मुस्लिम लीगी लड़कों के बीच सैयदों की बस्ती से लौटने के बाद का यह संवाद इसी बात को अधिक स्पष्ट होता है:

“फुस्सु मियाँ से तो भुगत लिया हमने, जवाद मियाँ का घर भी देख लिया । अब्बू मियाँ गए हुए हैं गाजीपुर । बस हम्माद मियाँ से भुगत लिया जाए तो दक्खिन पट्टी का सिलसिला खत्म हो जाए । रहे उत्तर पट्टी के मियाँ लोग तो उनका वोट तो हमारी जेब में है ।”
“मगर ये जुलाहे?”
“इनके लिए तो मौलाना आजाद सुब्हानी और मौलाना अब्दुल बाक़ी कल ही आ रहे हैं । मैं जुलाहो और बिहारियों से बातें नहीं कर सकता । दोनों साले मादरजाद चुतिये होते हैं ।” (रज़ा, 2014:252)

राही मासूम रजा अपनी सैद्धान्तिक मान्यताओं व वैचारिक आधार को प्रतिपादित करने के लिए औपन्यासिक पात्रों की रचना नहीं करते, बल्कि औपन्यासिक पात्रों को उस जीवन प्रसंगों एवं संघर्ष से वास्तविकता में ढालते हैं, जो सिद्धान्त को यथार्थ से रूपायित कर देते हैं । आधा गाँव के उपन्यास के रूप में सफलता का एक कारण यह भी है । जिस मुस्लिम समुदाय के कुलीन वर्ग ने अपने हितों की रक्षा के लिए जिन्ना के जिस ‘दो राष्ट्र के सिद्धान्त’ को अपनाया था, राही मासूम रजा ‘आधा गाँव’ में उसके खरे इतिहास को प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं, किन्तु उसे वे अपने वैचारिकता एवं अति-संवेदनशीलता से ढँक नहीं देते हैं । वे अपनी कथा में उपन्यास के पात्रों को ढालकर और उनकी स्वाभाविक जीवन प्रक्रिया में संघर्षों एवं टकराहटों की माध्यम से राजनीति से लेकर सांस्कृतिक पक्षों को प्रस्तुत करते चले जाते हैं । जैसे फुन्नन मियाँ हाड़-माँस के ऐसे पात्र हैं, जो अपनी सहज बुद्धि, कमजोरियों व अपनी खूबियों के साथ उपस्थित हैं । उनके सवाल भी उनके जीवन की तरह स्वाभाविक एवं सरल हैं, जिसके जवाब शायद ही किसी के पास हैं: “अउ हम त फिनहूं जोलहे के जोलहा रह जाइब । का पाकिस्तान में मियाँ लोग जोलहन से रिश्ता-नाता करे लगिहें?” (रज़ा, 2014:225) इस सवाल का जवाब आज सत्तर सालों बाद भी न पाकिस्तान गए लोगों के पास है और न ही भारत में अपने आपसी मतभेदों के साथ शोषित होने पर विवश मुस्लिमों के पास है । तन्नू पाकिस्तान जाता है, किन्तु उसके पाकिस्तान जाने की मानसिकता बनने तक का सफर काफी उथल-पुथलों से भरा है । तन्नू का स्पष्ट मत था, “गंगोली मेरा गाँव है, मक्का मेरा शहर नहीं है । यह मेरा घर है और कबा अल्लाह मियाँ का ।” इस कूफ़्र जैसे मत के बावजूद वह पाकिस्तान क्यों चला जाता है? तन्नू के इस सफर को समझा जाए तो इस बात को समझना मुश्किल न होगा कि विभाजनकारी तत्व भारत में क्यों कामयाब हो गए और कैसे इस देश का विभाजन वास्तविक बन गया ।

आधा गाँव के केन्द्र में भी शिया सैयदों का सामन्ती कुलीन वर्ग है, लेकिन मुस्लिम जमींदारी की कुलीनता के अन्तर्विरोधों बहुत करीब व नैतिक साहस के साथ इस उपन्यास में बेपर्दा किया है, वह अतुल्य है । उपन्यास में सैयदों की रीति-रिवाजों व आँचलिकता को प्रस्तुत किया गया है । विभाजन व मुस्लिम अस्मिता के प्रश्न को राही मासूम रजा न तो हिन्दू व मुस्लिम खानों में बाँटते हैं और न ही उसे अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति तक सीमित करके देखते हैं इसेक लिए वे अपने गाँव के दो सामन्ती संरचना व मुस्लिम समुदाय के भीतर पर्तों में खोजते हैं । इस खोज के माध्यम से वे इतिहास, राजनीति व कथा का वृत्तान्त के मिश्रण से औपन्यासिक विधा का अपार साहस से उजागर करते हैं । इस स्तर पर आकर उपन्यास मात्र एक साहित्यिक संरचना न होकर एक समर्थ सामाजिक व वैचारिक संरचना के रूप में प्रस्तुत होता है । राही मासूम रजा मुस्लिम लीग के पाकिस्तान के प्रचार को जोड़कर अपने परिवेश में प्रस्तुत करत हैं जिसमें इस्लामी समरसता और भाईचारे के अव्यावहारिक मिथक को भेदते हैं । इसके लिए वे अपने कथा-क्षेत्र गंगौली की उस आन्तरिक बुनावट को प्रस्तुत करते हैं, जिस पर सामन्ती समरसता का आवरण है, जिसमें धार्मिक आवरण का मुलम्मा चढ़ा हुआ है । इसकी परतों के भीतर सडाँध है ।

आधुनिक हिन्दी साहित्य में उपन्यास विधा का उद्भव काल से ही सामाजिक दायित्व को लेकर चर्चा का विषय रही । राही मासूम रजा के पूर्व भी कई उपन्यासों ने मध्यकालीन मानसिकता एवं तंत्र को चुनौती दी है । इस उपन्यास में अन्य सामाजिक आयामों की तरह राही मासूम रजा ने गाँव व स्त्री के सम्बन्ध में उपस्थित पारम्पारिक दृष्टि एवं मांसल रवैये को उधेड़र रख दिया है । नीची कही जानेवाली जाति की चमाइनें व जुलाहिनों के माध्मय से जो स्त्री का स्वरूप कई पात्रों के माध्यम से रचा गया है, वह सामन्ती समाज के पितृसत्तात्मक ढाँचे को चुनौती देता है । स्त्री को मात्र उपभोग के लिए शारीरिक गुलाम माननेवाली उच्च वर्णीय-वर्गीय पितृसत्तात्मक समाज की रीतिवादी दृष्टि उसे देह मात्र समझती है, उसके भीतर कई पात्र अपनी उपस्थिति मात्र से तोड़ते हैं । झंझटिया बो “काली मगर बला की खूबसूरत, सौंधी और मीठी थी । बिलकुल ताजा-ताजा गुड़ की तरह, जिसमें अभी भाप निकल रह हो ।” (रज़ा, 2014:42) तो वहीं “दुलरिया (भंगिन) बाईस-तेईस साल की कसी-कसाई लड़की थी ।...वह जिधर से टोकरा लेकर गुजर ती थी रास्तों की शाखों में आँखों की हजार कलिआँ खिल जातीं, दरवाजे बाँहे बन जाते और बंसखटों में बब्जें धड़कने लगतीं ।” (रज़ा, 2014:112) की बार सीधे वर्णन की अपेक्षा पात्रों के माध्यम से पुरुषवादी सोच को प्रस्तुत किया गया है । तन्नू सैफुनिया नाइन को किसी निगाह से देखता है, उसकी बानगी प्रस्तुत है: “लँगड़े आमों की तरह तैयार छातियाँ बारीक कुरते के अन्दर चोली से निकलकर पड़ रही थीं और सब्ज चूड़ीदार पाजामें का सुर्ख नेफा और नेफे से ऊपर का सारा धड़ नजर आ रहा था ।” (रज़ा, 2014:135) मौलवी बेदार तो सैफुनिया को देखते ही विवाह के लिए लालायित हो जाते हैं, किन्तु मर्यादा के चलते खुद में घुँटकर रह जाते हैं । उनके अनुसार सैफुनिया मात्र एक देह है, व्यक्ति नहीं: “एक दहकती हुई अँगीठी से कम नहीं थी ।” (रज़ा, 2014:138) जुलाहिन को भी वे एक देह मात्र मानते हैं: “कुलसुम में क्या रखा है? उसकी कसी-कसाई कच्चे अमरूद जैसी छातियाँ लटक चुकीं थीं ।” (रज़ा, 2014:225) कहने की आवश्यकता नहीं कि मौलवी बेदार की दृष्टि को केवल सामन्तवादी दृष्टि ही नहीं तो धर्म भी आधार प्रदान करता है, जिसकी व्याख्याओं को अपने अनुकूल बनाकर स्त्री को मात्र अपनी खेती समझने की बीमार मानसिकता का जन्म हुआ है ।

उपन्यासकार राही मासूम रजा ने झंझटिया चमाइन, दुलरिया भंगिन, मेहरुनिया व सैफुनिया नाइन, नईमा बी व कुलसुम जुलाहिन सरीखे पात्रों के माध्यम से नारी विमर्श को भी आगे की राह दिखाई है, किन्तु संयम एवं ठंडे अन्दाज के साथ, जहाँ वह सामन्ती आभिजात्य की स्वयं पोषित पवित्रता व महानता के कई दिखावों को नंगा कर देते हैं । इसमें अस्पृश्यता के कोण को प्रस्तुत कर स्त्री की दोहरी त्रासदी को भी अभिव्यक्त किया है, जिसके अनुसार झंगटिया बो न केवल सैयदों में बल्कि अपने पति के लिए तीन बच्चों की माँ होने के बावजूद अछूत बनी रहती है । इस बीच आनेवाले स्वार्थों को भी उन्होंने प्रस्तुत किया है । झंगटिया बो से जब झंगटिया चमार का “ब्याह हुआ था, तो वह अठराह साल की थी और वह चार साल का था । फिर ऐसा हुआ कि चेचक निकल आई और वह बेवा हो गई-और सुलैमान चाने उसे अपना घर में डाल लिया ।...मगर एक परेशानी भी खड़ी हो गई । सुलैमान चा मजहबी आदमी थे इसलिए वह झंगटिया बो की छुई हुई कोई गीली चीज इस्तमाल नहीं कर सकते थे । इसलिए घर में एक औरत के आ जानने के बाद भी सुलैमान चा को अपना खाना खुद ही पकाना पड़ता था ।” (रज़ा, 2014:43) ‘सुलैमान चा मजहबी आदमी थे’ का व्यंग्यार्थ अत्यन्त तीखा एवं नुकीला है । अर्थात् की खरी हड्डी के सैयद कहजानेवाले सुलैमान चा झंगटिया बो के साथ शारीरिक सम्बन्ध तो बना सकते थे, उसे अपने बच्चों की माँ तो मान सकते थे, प्रेम तो कर सकते थे, किन्तु उसके हाथों का बना खाना खाने से दुषित हो जाते हैं । कुछ ऐसा ही सन्दर्भ ‘गोदान’ के पंडित मातादीन सिलिया चमाइन के हाथों का छुआ नहीं खा सकते के माध्यम से आया था । आधा गाँव में मौलवी बेदार “सिर्फ जमींदार रहे होते, तो किसी को घर में डाल लेते । लेकिन वह मौलवी भी थे । वह (दिन मेहर) की जिल्लत गँवारा करके बछनिया को हासिल करना चाहते थे ।” (रज़ा, 2014:123) लेकिन यह दिक्कत यह थी कि “एक चमाइन की हरामी बेटी से ननिकाह किसी भी तरह ठीक हो ही नहीं सकता ।” (रज़ा, 2014:124) “...मौलवी साहब उससे मुता करें या निकाह, गंगौली की बीवियाँ बहरहाल उसे रखनी ही मानेंगी और मौलवी बेदार उसक लिए तैयार थे ।” और जब बछनिया को पाने की बारी आती है तो मौलवी साहब को याद आता है कि “इस्लाम छोटे-बड़े को नहीं मानता था ।” (रज़ा, 2014:123) इसे ही अपने स्वार्थों के अनुसार धर्म की व्याख्या कहा जाता है । मौलवी बेदार अली के पात्र की पूरी बनावट इसी क्रम में की गई जान पड़ती है ।

नारी के दैहिक शोषण को स्वतंत्रता प्रदान करता धर्म की यह धोखेबाजी सदियों से नारियों के बीच सामाजिक व जातिगत भेदभाव को आधार प्रदान करने के लिए रची गयी थी । इसके झाँसे में स्त्रियाँ सदियों से फँसकर वे स्वयं इसका शिकार हो गयी हैं । जिस प्रकार श्रमजीवी समाज अपने ही शोषणकारी व्यवस्था को बनाए रखने में भूमिका अदा करता है और अपने से कमतर मानेजानेवाले वर्ग का स्वयं शोषक बनता है, ठीक वैसी ही व्यवस्था स्त्रियों के बीच देखने को मिलती है : “नईमा बी थीं तो जुलाहिन लेकिन झंगटिया बो के सामने वह पक्की सैदानी बन जाती थीं और हिकारत का जो सुलूक दूसरी सैयानियाँ उनके साथ किया करती थीं, उसका इन्तकाम वह झंगटिया बो से लिया करती थीं । वह बहरहाल झंगटिया बो से अफजल थी क्योंकि अव्वल तो वह जुलाहिन थीं, चमाइन नहीं थी; और दूसरे यह कि हम्माद के अब्बा उन्हें यूँ ही घर में नहीं डाल दिया था बल्कि मौलवी बेदार के अब्बा मौलवी दिलदार ने बाकायदा निकाह पढ़ा था । झंगटिया बो का लड़का अली अकबर ‘खाँ’ नहीं हो सकता था । लेकिन उननका बेटा हम्माद बाकायदाद सैयद हम्माद हुसैन था ।” (रज़ा, 2014:119) जातिगत श्रेष्ठत्व की भावना एवं अपने से किसी को छोटा-बड़ा मानने की मानसिकता स्त्री को शोषक एवं शोषित दोनों रूपों में प्रस्तुत करती है । इसमें अत्य्त त्रासदीय पक्ष तो यह है कि स्वयं स्त्रियाँ इस गुलाम मानसिकता को स्वीकार कर उसका पालन करने लगती है । जैसे झंगटिया बो स्वयं इसकी शिकार है, किन्तु वह इस बात से खुश है कि “झंगटिया बो खुश थी कि उसकी (बेटी) बछनिया बीबियों के साथ पलँग पर बैठती है और उनके बच्चों के साथ खेलती है । उसे खूब याद था कि जब वह छोटी थी तो इन बातों के लिए कितना तरसा करती थी । और जब सुलैमान ने पहली बार अपने पलँग पर एक तरफ होकर उसे अपने पास लिटा लिया था तो वह किता खुश हुई थी...।” (रज़ा, 2014:58) इसे मानसिक अनुकूलन के माध्यम से समझा जा सकता है, जिसमें पीढ़ियों से रहते हुए अपने से किसी मानव को ही नीच समझे जाने की मानसिकता का विकास स्वयं उस वर्ग में होता है जो किसी और के द्वारा नीच समझा जाता है ।

स्त्री होने के कारण सदियों से स्त्री की पीड़ा को भुगतना उपन्यास के पात्र महरुनिया नाइन के लिए भी आवश्यकत था किन्तु वह इसका संक्रमण अपनी बेटी में करना भी स्वाभाविक भी था किन्तु इसके विपरित वह उसे आगाह करती है । वह उसे पहले तो चेताती है कि “मियाँ लोगन से कौनो उम्मीद ना रखबे ।” बकौल उपन्यासकार, “यह मामूली-सा जुमला था । लेकिन इस एक जुमले में मेहरूनिया और उसकी माँ जन्नती और उसकी माँ फखरुननिया की महरुमियों और जिल्लतों की पूरी कहानी थी ।” (रज़ा, 2014:188) नारी शोषण के मुख्य कारणों में धर्म, वर्ण, जाति एवं वर्ग से आगे बढ़ते हुए उपन्यास में उसे किस प्रकार व्यक्ति के तौर पर समाज में अस्वीकृति मिलती गयी और स्वयं वह उसे किस प्रकार अपनी अगली पीढ़ियों में संक्रमित करती गयी है, इसे सम्पूर्ण कथ्य में विन्यस्त होते हुए देखा जा सकता है । उपन्यासकार के अनुसार, “बेनाम होना तो बहुओं की तकदीर है । फर्क बस इतना हो जाता है कि वह अच्छे घरानों में ‘बो’ की जिल्लत से बच जाती है, वह या तो बहू कही जाती है या दूल्हन या दुलहिन । ...गरज कि हमारे समाज या तो यह होता है कि मैकेवाले दहेज देकर बेटी से अपना दिया हुआ नाम छीन लेते हैं या फिर कहिए कि ससुरालवाले इसे गवारा नहीं करते कि उनके यहाँ किसी घर का दिया हुआ म चले । बात जो हो, नतीजा यह निकलता है कि मसलन नौ साल या सत्रह साल तक राबेआ खातून उर्फ रब्बन या कनीज फातमा उर्फ कुद्दन रहनेवाली लड़कियाँ एकदम से फलाँ बो या बहू या दुल्हन या सुल्तान दुल्हन बनकर रह जाती हैं-भाभी, चची, ममानी और कभी-कभी ब्याह होते ही दादी और नानी भी बन जाती हैं । मगर ननहीं रह जातीं तो शबेआ खातून या कनीज फातमा बेनाम रहना शायद जमींदारों और उनके हवालियों-मवालियों की बेटियों की तकदीर है ।” (रज़ा, 2014:24)

अशिक्षा, घरों में कैद रहने के लिए अभिशप्त, प्रेम पाने के लिए भी अपात्र ठहरा दी गई उपन्यास की इन स्त्रियों की दशा यह है कि किसी भी आधुनिक अवधारणा से वे पूर्णतः या तो अनभिज्ञ हैं या फिर अपनी तत्संबंधी धारणा के लिए पुरुषों पर आश्रित । ऐसे में वोट, राष्ट्र आदि अवधारणाओं का तो सवाल ही नहीं उठता । जब सब लोग मुस्लिम लीग या पाकिस्तान की बहस कर रहे थे तब फुन्नन मियाँ की बेटी कुलसुम अपने शहीद बेटे मुमताज को बोट देना चाहती थी । कुलसुम के ही शब्दों में, “जब हम गए ओट देवे त ओमें मुन्ताज का नमवे ना रहा, त हम कगदवा लेके घर चले आए ।” (रज़ा, 2014:268) छिकुनिया कुलसुम से सवाल करती है: “हे बीबी, हई पाकिस्तानवा केहर बनी?” इसके जवाब में किसी पुरुष से सुनी हुई अपनी व्याख्या के दम पर कुलसुम कहती है: “अ का जाने केहर बन रहहा माटी मिला ।” (रज़ा, 2014:225) आधा गाँव की सितारा ने एक दिन सरवरी से यह पूछ ही डाला कि, “बाजी, यह पाकिस्तान क्या है?” तो उसका भी किसी और की अवधारणा पर आधारित जवाब आता है: “मुसलमानों का एक मुल्क बनेगा ।” सरवरी ने बड़े विद्वान की तरह कहा । “यह मुल्क क्या होता है, बाजी?” सरवरी इस सवाल पर सटपटा गई क्योंकि यह बात उसे भी नहीं मालूम थी कि मुल्क क्या होता है ।” (रज़ा, 2014:62) प्रश्न यह भी है कि क्या यह अवधारणा अनुभव या ज्ञान पर आधारित थी? ऐसे में लाखों की तादात में बेघर हुई, अपनी अस्मतों को लुटाती औरतों की क्या वह अपनी राय थी, जिसके तहत उन्हें मुहाजिर बनकर नए मुल्क का हामी मान लिया गया है? राही मासूम रजा का यह स्त्री विमर्श स्त्री को केवल उन गलतियों को भोक्ता बताता है, जो गलतियाँ उसने नहीं की हैं । इसे चाहे तो गंगौली की सैयादानियों के सन्दर्भ में देख लिया जाए या विश्व सन्दर्भ में, कोई अन्तर नहीं आनेवाला है । पाकिस्तान का बनना, जमींदारी का टूटना, अशिक्षा को लेकर धर्मभीरुता आदि में स्त्रियाँ केवल खोती हैं । इतना ही नहीं जिस मुल्क के आज़ादी की बात की जाती है, जिसे पाया जाता है, क्या उसमें स्त्रियों को अपने बेवापन और बच्चों को खोने के बाद का हिस्सा मिला? इस जैसे कई सवाल ‘आधा गाँव’ की भीतरी संरचना में मौजूद है । यह सवाल मुस्लिम स्त्री के सन्दर्भ और भी तीखे हो जाते हैं, बढ़ जाते हैं ।

इन सबके भीतर पाकिस्तान का जन्म, जमींदारी प्रथा की समाप्ति और विवाह योग्य लड़कों काक पाकिस्तान चले जाने के कारण सईदा का जो सन्दर्भ उपन्यास में आता है, वह भी आजाद भारत के मुस्लिम परिवार के नये यथार्थ का एक कोण है, किन्तु यह कितनों को नसीब हो पाया? इस वर्णन में ऐसे उदाहणों की कमियों को देखा जा सकता है, जहाँ एक ओर “नौहा पढ़ने की शौकीन बीबियाँ सईदा क साथ नौहा पढ़ने न खड़ी होतीं” वहीं दूसरी ओर “लड़कियाँ शहद की मक्खियों की तरह उसके आसपास मँडराने लगतीं और यह सोचने लगतीं कि आखिर उनके अब्बा उन्हें पढ़ने के लिए अलीगढ़ क्यों नहीं भेजते?” (रज़ा, 2014:311) इस प्रकार उपन्यास सरलीकरण से बचते हुए आजाद भारत की मुस्लिम स्त्रियों के जीवन को अपने पूर्ण यथार्थ के साथ प्रस्तुत करता है ।

‘आधा गाँव’ किसी भी एक मुद्दे को क्रम से प्रस्तुत नहीं करता है, बल्कि प्रसंगात कई मुद्दों को एक साथ उठाता है और उसका वहन अपने कथ्य में करता है । सांस्कृतिक जीवन, जातिगत विभाजन, स्त्रियों की स्थिति, देश का विभाजन, इस्लाम की आन्तरिक संरचना और पाकिस्तान की राजनीति को सैद्धान्तिक से आगे बढ़कर व्यावहारिक रूप में प्रस्तुत करते हुए भाषा जैसे संवेदनशील मुद्दे को भी अपने में समेटता है । राही मासूम रजा पाकिस्तान व इस्लाम के साथ उर्दू को जोड़े जाने के भी प्रतिरोध में अपने उपन्यास में खड़े होते हैं । वे उर्दू को लेकर राही सर्वप्रथम इस धारणा का ही खण्डन करते हैं कि उर्दू भारत के सभी मुसलमानों की भाषा थी । यह खण्डन सर्वप्रथम इसमें आता है कि इस उपन्यास के सारे पात्र अपनी स्थानीय बोली भोजपुरी में वार्तालाप करते हैं, जैसे अन्य धर्म-जातियों के लोग करते हैं । उर्दू कुलीन व सुशिक्षित मुसलमानों द्वारा बोली जाती थी, ना कि व्यापक मुस्लिम जन द्वारा, सिद्ध करने के लिए राही आधा गाँव में व्यंग्य व उपहास की जो शैली अपनाते हैं, वह अत्यन्त रोचक है । फुन्नन दा और वाजिद दा के बीच यह संवाद यहाँ इसका उदाहरण है :

"का भाई, तू हियाँ कइसे बइठ गयो?”
“अरे, त कहीं अउर बइठ जाओ ।” फुन्नन दा ने कहा
“क्यों बैठ जाऊँ मैं कहीं और ।” वाजिद दा ठेठ उर्दू में बोलने लगे ।
“हई ल्यो, तूं त लग्यो उर्दू बोले ।”
और यह भी कि “बड़े भाई की शेरवानियों का बक्स पा जान क बाद से हम्माद मियाँ ने उर्दू बोलना शुरु कर दिया था ।” (रज़ा, 2014:39)

ये वही हम्माद मियाँ थे जो “हड्डी के कच्चेपन को, रस्म और रिवाज का पूरा एहतराम करके छुपाने की कोशिश करते थे ।” (रज़ा, 2014:119)

जहाँ भाषा का प्रश्न आता है, वहाँ उपन्यासकार और भी अधिक मुखर होकर अपने पात्रों द्वारा निर्मम आलोचना करता है । भाषा के अभिजात्य एवं मुस्लिम लीगी कुलीनता की साठ-गाँठ का खुलासा आधा गाँव की कथा में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से आए पाकिस्तान प्रचारकों एवं तन्नू के बीच हुए संवाद में कुछ इस प्रकार से किया गया है, “आप लोगों ने तो उर्दू को मुसलमान कर दिया है ।...पाकिस्तान बनाने के बाद आप इस उर्दू के यहीं छोड़ जाएँगें या साथ ले जाएँगें ।” (रज़ा, 2014:261) उर्दू को मुसलमानों की भाषा बनाने के प्रयास दोनों तरफ के कट्टरतावादी और विभाजनवादी तत्त्वों ने कई मोर्चों पर किया था । इसकी वास्तविकता आकड़ों द्वारा तोड़ी जा सकती है । वर्तमान स्थिति तो छोड़ ही दीजिए । पाकिस्तान सरकार की 1951 की जनगनणा के अनुसार पाकिस्तान के सिर्फ 7.2 प्रतिशत लोगों ने उर्दू को अपननी मातृभाषा के रूप में स्वीकृत किया है । भारतीय मुसलमानों में भी 38 प्रतिशत मुसलमानों ने ही अपनी भाषा के रूप में उर्दू को दर्ज करवाया था । उत्तर प्रदेश की ही बात की जाए तो 48 प्रतिशत लोगों ने अपनी भाषा के रूप में उर्दू को मान्यता दी थी । साफ है कि भारत के 68 प्रतिशत और पाकिस्तान के 93 प्रतिशत लोगों को उर्दू अपनी भाषा नहीं लगती है । यह भी स्पष्ट है कि भारत में उर्दू बोलनेवालों की संख्या पाकिस्तान के उर्दू भाषियों से पाँच गुना से अधिक है । राही मासूम रजा अपने उपन्यास में इन आधार नहीं लेते हैं, किन्तु उर्दू-मुसलमान पाकिस्तान की उस साम्प्रदायिकता भरी सोच को भेदते हैं जो हिन्दू व मुस्लिम दोनों साम्प्रदायिकों द्वारा गढ़ी गयी है । इसके साथ ही वे भारतीय मुसलमान को हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान के अन्ध-राष्ट्रावादी राजनीति का हिस्सा भी नहीं बनाते हैं । गंगौली के सामान्य मुसलमानों के लिए नफीस उर्दू जितनी परायी थी, उतनी ही परिष्कृत हिन्दी । राही भाषा को लेकर आम व गैर पढ़ी-लिखी जनता बनाम सुसंस्कृत व आभिजात्य जन का विमर्श रचते हं । एम.एल.ए. बने के बाद जब परशुराम चमार शहरी लोगों की भाषा बोलने लगता है तो “फुन्नन मियाँ हैरानी से कहा, ‘तैं त कांगरेसी होके अपनी जबियो भुल गया ।’ यह बात न फुन्नन मियाँ की समझ में आयी और न मिगदाद की कि आखिर दिल्ली में उस भाषा से काम क्यों नहीं चल सकता जिससे गंगौली में काम चल सकता है ।” (रज़ा, 2014:281) भाषा के इस कोण को प्रस्तुत करते हुए उपन्यासकार ने नस्तालिक़ लिपि से मुसलमानों के धार्मिक लगाव को भी प्रस्तुत कर इसे मुसलमानों का निजी विषय बनाते हैं । मन्नो द्वारा देवनागरी लिपि में नौहा पढ़ने के प्रस्ताव के इस दृश्य को देखिए:

“नौज ! इ निखौन्दी कौ जबान है भाई”उम्मे हबीबा से न रहा गया तो तड़ से बोलीं ।
“हिन्दी” मन्नो जवाब दिया ।
“तोबा इस्तफगार” सईदा की माँ ने अपने गालों पर आहिस्ता-आहिस्ता तमाचा मारते हुए कहा, “अब अल्ला रसूल का मवा मुई हिन्दी में लिखा जाए लगा ।”
“उर्दू क नाम ते से रहियो, अरबी-फार्सी का नाम भी सुने रहियो...बाकी ए कौन जबान निकल आई है?” रब्बन बी सवाल किया ।
“बशीर भाई की सुरैया ने तो हिन्दी में नामज लिखकर याद की है ।” मन्नो ने कहा ।
“ता ई तो कोनो बात न है ।” सकीना ने कहा, “कि जौन मामू की लड़कियन करें तोने तूहो करो ।”
“पढ़ो यही पढ़ो ।” सईदा ने मन्नो से कहा, “चलो मैं तम्हारे साथ पढ़ती हूँ ।”
मगर मजलिस हवन्नक हो गई । नौहा वही था, लब्ज वही थे, लहजा वही था । बस एक लिपि की अजनबीयत बीबियों को चिढ़ा दिया था । चुनांचे न किसी की आँख नम हुई और न किसी ने बैन किया ।” (रज़ा, 2014:314)

यह हिन्दू-हिन्दू-हिन्दुस्तान और मुस्लिम-उर्दू-पाकिस्तान दोनों की उन्मादी विमर्श को ध्वस्त करते हैं । मुसलमानों की हिन्दी के प्रति असहजता को रेखांकित करते हैं, वहीं वे मुसलमानों की नयी पीढ़ी द्वारा हिन्दी अपनाए जाने की सूचना भी दर्ज करते हैं । किन्तु खेद का विषय है कि अभी भी भारत के कुछ हिस्सों में उर्दू की सांस्कृतिक विरासत को मुसलमानों के सर पर मढ़ दिया जाता है, जिसका यह नतीजा हुआ है कि न तो वह मुसलमानों की स्वीकृति पा सकी और न हिन्दुओं की । बस मरती हुई एक भाषा मात्र रह गयी ।

पाकिस्तान बने के सबके अलग-अलग तर्क व कारण थे । लेकिन खाते-पीते मुस्लिम कुलीनों का जो वर्ग अपने-अपने कारणों से पाकिस्तान बन जा सका उसके र्द क तान एक थी । आधा गाँव के अब्बू मियाँ पाकिस्तान तो न जा सके लेकिन गंगौली छोड़कर गाजीपुर जाना चाहते है क्योंकि गंगौली में तो रहने का मतलब है, “जुलाहन और राकियन को सलाम करो और रहो ।” (रज़ा, 2014:320) उन्हें इसी नियती से जूझना था । इसी आधार पर उनका कांग्रेस के प्रति नाकारात्मक रवैया भी खड़ा होता चला गया । दूसरी ओर कांग्रेस ने जो समाजवादी ढांचा अपनाया था, जिसके तहत जमींदारी का सफाया होना था, उसका शिकार भी यह वर्ग बना ।

आधा गाँव के औपन्यासिक सफर में मुस्लिम सामन्तों व दलितों के अन्तर्विरोध पर प्रकाश प्रारम्भ से अन्त तक डाला गया है । जहाँ राही मासूम रजा सामन्ती व्यवस्था के रखरखाव में दलितों व निम्न जातियों की भृत्य व सेवक की भूमिका को रेखांकित करते हैं, वहीं वे दलितों की सामाजिक चेतना व उनके राजनीतिक के माध्यम से सशक्तिकरण के प्रयास भी दिखाते हैं । राही मासूम रजा यथार्थ से अपनी लेखनी को भटकने नहीं देते हैं, वैचारिक आधार के डिगने नहीं देते हैं इसी कारण उनके द्वारा जो बदलावों का चित्रण किया गया है, वह आरोपित नहीं लगता है, ऐतिहिसिक लगता है । इसमें धर्म विशेष को ही नहीं, बल्कि कुलीनता को अपनी आलोचना की धार पर लेते हैं, जिसमें लखना चमार -

“ठाकुर कुँवरपाल सिंह के मुकदमा लड़ रहा था । वह हारकर रह गए कि बेदखली करवा लें । खेत कटवाने लगे तो चमार भी लट्ठ लेकर आ गए । इन कांग्रेसवालों ने नाम में दम कर दिया है । अब नीच जातवाले भी आँख उठाकर बात करा चाहते हैं ।” (रज़ा, 2014:44)

राही मासूम रजा दलित, मुस्लिम या नारी के मुद्दों या भाषा को टुकड़ों-टुकड़ों में दर्ज न कर उसे एक सम्पूर्णता में प्रस्तुत करते हैं । कथ्य में पिरोकर । पाकिस्तान के बनने तक ही सीमित न होकर उसके दुष्परिणामों और दूरगामी प्रभावों को भी उपन्यास के कथ्य में समेटा गया है । देश का विभाजनऔर जमींदारी का खत्म होने का कोई सम्बन्ध भले ही न हो, लेकिन ‘आधा गांव’ के गंगौलिवालों, जो अब या तो हिन्दू थे या मुसलमान, या फिर जाति विशेष के, को यह समझना मुश्किल यह है कि उनकी दुर्दशा का कारण क्या है? पाकिस्तान की बजाए भारत का चुनाव करनेवाले हकीम साहब के माध्यम से स्वातंत्र्योत्तर भारत के मुसलमानों की त्रासदी को अधिक तीव्रता से व्यक्त किया गया है । उनकी त्रासदी दुहरी थी, “एक ठो बेटा रहा...ओ पाकिस्तान चला गया । एक ठो जमींदारी रही, ओहू को समझो कि पाकिस्तान चली गई । अरे जौन हमरे पास न है, ओ पाकिस्ताने न गई?...नौ पराणी का पेट कैसे चलाएँ?” (रज़ा, 2014:318) अब्बू मियाँ “एक शरीफ हिन्दुस्तानी बाप थे । सईदा की नौकरी ही को झेल लेना उनका कमाल था । उसकी कमाई पर भरोसा करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था । धीरे-धीरे बीवी के सब जेवर बिक गए । जो भूमिधरी उन्होंने बड़ी मुश्किल से हासिल की थी, वह हाईकोर्ट से निकल गई ।” (रज़ा, 2014:343) बेटा-बेटी के भेद और शिक्षा केमाध्मय से आनेवाले परिवर्तनों को उपन्यासकार ने यहाँ इंगित कर रौशनी दिखाने काम अपनी रौशनायी के जरिए किया है । फुस्सू मियाँ को जूते की दुकान खोलनी पड़ी । “पहले तो उन्हें ग्राहकों से बात करते शर्म आती थी । ग्राहक भी कैसे, जिनकी पुश्तें उन्हें और उनके बुजुर्गों को सलाम करने में गुजरी थीं । वही गाँव के जुलाहे और राकी, वही चमार और अहीर ।” (रज़ा, 2014:341) मौलवी बेदार तो इसलिए पाकिस्तान चल गए कि “आस औलाद रही ना, हल चलावे आता न रहा उन्हें और फुस्सू की तरह जूते की दुकान कोले की हिम्मत न रही, ते कह दीहन कि हम ई मुलुक में ना रहेंगे, जिसमें इमामबाड़े पर सिख लोग कबजा कर लिहस हैं ।” (रज़ा, 2014:350) इस प्रकार के तीन-चार विभाजन कर सभी प्रकार कीस्थितियों को उपन्यास में समेटने का प्रयास किया गया है । जिन्होंने भारत को अपने घर के रूप में चुनने का हौसला किया, उनकी स्थितियों को उपन्यास यथार्थवादी ढंग से पूर्णता में प्रस्तुत करता है । यह वर्ग भी धीरे-धीरे श्रमजीवी वर्ग में तब्दील होता चला गया : “इन लोगों के लिए पाकिस्तान का बनना या न बनना बेमानी था लेकिन जमींदारी के खात्मे ने इनकी शख्सियतों की बिनियादें हिला दीं । वे घरों से निकले और जब घर ही छूट गया तो गाजीपुर और करांची में क्या फर्क है!” (रज़ा, 2014:307) किसान से मजदूर बनकर मौत को प्राप्त होने की प्रक्रिया को ‘गोदान’ में भी देखा जा सकता है, किन्तु आधा गाँव’ में जमींदार से मजदूर बनने की प्रक्रिया को देखा जासकता है, जिसे मुस्लिस समाज दयनीय स्थिति में पहुंचता है ।

मुस्लिम एकरूपता व समरसता के आभिजात्यता को फुन्नन मियाँ, मिगदाद और हम्माद मियाँ सरीखे पात्रों के माध्यम से भी तोड़ा गया है । भारत में रहकर भी फुन्नन मियां की जिन्दगी में “पाकिस्तान बनने से...कोई खास तब्दीली नहीं हुई थी । जिन्दगी कुछ बेहतर ही हो गई थी ।” (रज़ा, 2014:331) मिगदाद “हल की मुठिया थाम के मियाँ लोगों से अपना रिश्ता तोड़ लिया था ।” (रज़ा, 2014:281) हम्माद मियाँ ने भी गया अहीर के सहारे तीन हल की खेती सँभाल ली थी और खुदकाश्त किसान बन गए । मुस्लिम जमींदारों के परजीवी वर्ग के बरअक्स खुदकाश्त मुस्लिम किसानों की यह उपस्थिति और उनकी पाकिस्तान विमुखता भारतीय समाज में उनकी उस गहरी जड़ों का परिचायक है, जिसे पाकिस्तान के बहाने उच्छेदित नहीं किया जा सकता, इस यथार्थ को अभिव्यक्त कर राही मासूम रजा ने राष्ट्रवाद की कट्टरवादी और अंध बहसों का जमकर प्रतिरोध किया है ।

इस प्रकार अपने में कई मुद्दों एवं इतिहास की कई घटनाओं की सूक्ष्म दृष्टि से व्याख्या करने के कारण ‘आधा गाँव’ को आधुनिक हिन्दी उपन्यास की विरल धरोहर माना जा सकता है, जिसने इतिहास में अपने दृष्टिकोण एवं यथार्थ के प्रति रवैये कारण उत्तर भारतीय मुस्लिम समाज के जीवन में वर्तमान में मौजूद कई प्रश्नों के उत्तरों का समय से पूर्व उत्तर दे दिया है । विभाजन और भारतीय मुसलमानों का भारतीय बने रहने का चुनाव, सांस्कृतिक धरोहर और ऐतिहासिक भूमिका को इस उपन्यास के माध्यम से समझा-समझाया जा सकता है । राही मासूम रजा के इस उपन्यास को केवल आँचलिक एवं ग्राम विमर्श के तहत ही नहीं देखा जाना चाहिए, अपितु इसकी सुलझी हुई राजनीतिक एवं उसे व्याख्यायित करने के लिए सक्षम इतिहास दृष्टि को भी ध्यान में रखकर देखा जाना चाहिए ।

संदर्भ-

  1. रज़ा, राही मासूम (तेरहवीं आवृत्ती:2014): आँधा गाव, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., नई दिल्ली.

डॉ. हसन पठान, सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, सेन्ट. जोसेफ कॉलेज (स्वायत्त), बेंगलुरु. फोन नं. 8050694080. ईमेल- hasanpathan09@gmail.com