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मुक्तरीति कवि बिहारीलाल का सामंतवादी काव्य : डॉ॰ बच्चन सिंह
भारत के प्राचीन ज्ञानशास्त्र के रूप में वेद-वेदांग, व्याकरणशास्त्र, दर्शन व काव्यशास्त्र को मूल या प्रथम सैद्धांतिक ग्रंथ कहा जाता है। रीतिकालीन कवियों ने भी काव्यशास्त्रीय रचनाओं को लिखा। किसी-किसी ने काव्यशास्त्र की पुनर्व्याख्या करने का प्रयास किया। इसमें अधिकांश कवियों का आधार संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रंथ रहे हैं। इन कवियों ने कला के हेतु एवं लक्षण को भरतमुनि, मम्मट, वामन, दण्डी आदि संस्कृत आचार्यों के कथनों के माध्यम से व्याख्यायित किया। यही रीतिकालीन काव्य का शास्त्रीय पृष्ठाधार बना। इन काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों को जिन रीतिकालीन कवियों ने मुख्य रूप से प्रस्तुत करने का प्रयास किया, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उन्हें रीतिबद्ध आचार्य की श्रेणी में स्थान दिया। वहीं डॉ॰ बच्चन सिंह ने इन्हें बद्ध रीति के आचार्य कहा। यह सिद्धांतों के लक्षण प्रस्तुत करके उदाहरण सहित काव्य रचना करते थे। इसमें केशवदास की कविप्रिया, चिंतामणि की काव्यकल्पतरू, मतिराम की श्रृंगारनिर्णय, रसलीन की रसप्रबोध आदि रचनाएँ प्रमुख है । शुक्ल जी ने जिस धारा को रीतिमुक्त तथा डॉ॰ बच्चन सिंह ने मुक्तरीति कहा, उसमें स्वछंन्द धारा के लेखन का प्रवाह रहा। इनके अधिकतर काव्य-विषय श्रृंगार रस केन्द्रित रहे। रीतिमुक्त काव्यधारा के अन्तर्गत कवियों ने स्वानुभूति को ही अभिव्यक्ति का केन्द्र माना। ऐसा नही कहा जा सकता कि इन्होंने रीति से मुक्त होकर रचना की है। इस धारा के कवियों में भी शैली के प्रति सतर्कता देखी जा सकती है। इनमें आलम की आलमकेलि, घनआनंद की प्रेम-पत्रिका, बोधा की इश्कनामा, ठाकुर की ठाकुर ठसक आदि का विशेष महत्त्व है। नीतिकाव्य, संतकाव्य तथा वीरकाव्यात्मक लेखन भी हुआ। इन्हें रीति इतर के अंतर्गत स्थान दिया गया। वीरकाव्य में लाल कवि का छत्रप्रकाश, भक्तिकाव्य जैसे तुलसी साहब का घट रामायण तथा नीतिकाव्य में वृंद की भाव पंचाशिका रचनाएँ आती है। इसके अतिरिक्त भी एक धारा है जिसे शुक्ल जी ने रीतिसिद्ध काव्यधारा का नाम दिया है। डॉ॰ बच्चन सिंह से इस धारा को पृथक न करके इसे मुक्त रीति के अन्तर्गत ही प्रक्षेय दिया है। जिसके दो विभाजन किए ; (क) क्लासिकल काव्यधारा : बिहारीलाल (ख) स्वच्छन्द काव्यधारा : आलम, घनआनंद, ठाकुर, बोधा। डॉ॰ बच्चन सिंह का मानना है कि “बिहारी सतसई में रीतिकथन नहीं है, किंतु कवि की दृष्टि रीतिलक्षणों की ओर बराबर रही है।”

डॉ॰ बच्चन सिंह ने शुक्ल जी के विभाजन के मत को खण्डित करने का प्रयास किया। वे कहते है कि रीतिसिद्ध में रचित काव्य का विषय अन्य आचार्यों की रचनाओं से मुक्त है। जिसमें रीति का वही साधारण प्रयोग किया गया है, जो अन्य कवियों ने रीति को साधन बनाकर किया। इसी कारण बिहारी, सेनापति, बेनी, कृष्ण कवि, पजनेस, रसनिधि आदि को डॉ॰ बच्चन सिंह ने मुक्तरीति धारा में स्थान दिया। जिसका तात्पर्य यह था कि रीति का प्रयोग तो अवश्य हुआ है, परंतु मुक्त रूप में विद्यमान नहीं है। वह कवि के विवेक पर आधारित था कि वह कहाँ तक इसका प्रयोग करेगा।

यदि रीतिकालीन साहित्यिक प्रवृत्तियों का अध्ययन करें तो ज्ञात होगा कि काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों को पुन: संदर्भित करने की आवश्यकता क्यों पड़ी। पूर्व मध्यकाल की रचना शैली में भाषा की भिन्नता तथा छन्दों की विविधता के कारण काव्य शैली के रूप में भी कई हद तक असमानता देखने को मिलती है। भक्तिकाल में विषय साध्य है और शैली मात्र साधन। जिसका अपनी-अपनी सुविधानुसार प्रयोग किया है। इसी कारण कबीर भी बिना महाकाव्य लिखे, महाकवि कहे जाने लगे है। रीतिकालीन कवियों तथा आचार्यों ने पांडित्य को आधार बनाकर सामंती वर्ग के लिए काव्य को शास्त्रीय सिद्धांतों की सहायता से उत्कृष्ट बनाने का प्रयास किया। रीतिकाल में सामंती वर्ग की जीवन-शैली का प्रभाव साहित्य में भी देखा जा सकता है। जैसा कि शुक्ल जी ने कहा है कि कोई भी काव्य अपने समसामयिक परिस्थितियों से अलग रहकर नही लिखी जा सकता है, वैसे ही रीतिकालीन साहित्य भी अपने युग की परिस्थितियों को बखूबी प्रस्तुत करता है। मुगलों के भारत की भूमि में बसने के साथ ही साथ उनकी भाषा और जीवन-शैली का भी प्रवेश हुआ। जिसमें विलासिता का अंश अधिक प्रदर्शित होता था। साथ ही इन्होंने कला को भी संरक्षण दिया। इसका बृहद उदाहरण अकबर के नवरत्न के रूप में देखा जा सकता है। इन्ही कवियों ने प्रभावात्मक रूप से एक वर्ग विशेष की संस्कृति को आधार बनाकर काव्य लिखा। सांमती वर्ग इस समय अपनी परंपरा और रूढ़ी का वरण पूर्णता से कर रहा था। इसी वर्ग के लोक व्याप्त दृश्यों को कवि बिहारीलाल ने अपने दोहो में स्थान दिया है। बिहारीलाल को इसी कारण डॉ॰ बच्चन सिंह ने सामंती कवि कहा है। इन्होंने बिहारी की प्रसिद्धि का कारण उनके काव्य में वर्णित सजीव चित्रात्मकता को माना है। जिसमें सबसे मुख्य रूप से सामंतवादी तथा नगरीय जीवन चित्रित होता है।

सामंती परिस्थितियाँ :-

कवि के काव्य सृजन का कुछ आधार उसकी समसामयिक परिस्थितियों से किसी न किसी रूप में प्रभावित अवश्य रहता है। कवि बिहारीलाल के दोहो में भी तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक तथा सांस्कृतिक संबंधों का तादात्मय मिलता है। सामंतवादी रीति और नीति का स्पष्ट रूप इनके काव्य कर्म में लक्षित होता है। इसीलिए कहा जाता है कि यदि किसी काल विशेष के विषय में जानना हो तो उस समय के साहित्य को समझना चाहिए। बिहारीलाल ने अपने काव्य में सामंती परिस्थितियों के साथ अपनी विशिष्ट रचना-शैली का समागम कर रीतिकाल में अद्वितीय स्थान प्राप्त किया है। जिसमें इनकी शैली, अभिव्यंजना प्रणाली, विषयों का चयन आदि कवि की प्रतिभा को प्रदर्शित करता है “प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता।”- भट्टतौत( अर्थ या वर्ण्य-विषय को नए-नए रूप में प्रकट करने वाली प्रज्ञा, प्रतिभा है )। राजदरबार में होने पर भी बिहारी को दरबारी कवि नहीं कहा जा सकता। उनके काव्य में प्रेम, नारी-सम्बन्धी भाव, ग्राम योजना आदि सभी पर सामंत-कवि की छाप पड़ी है। इस कालावधि का कवि अपने आश्रयदाताओं के भोगपरक जीवन का वर्णन ऐश्वर्यपूर्ण रूप से करता था। वैभव और विलास की कहानी मुगल काल के चरम की स्थिति को प्रस्तुत करती है। खान-पान में मदिरा वैमनजस्य का प्रतीक होता था। रहन-सहन में महलों की बनावट-सजावट तथा विशालतम चोटी सामंती जीवन की प्रवृत्तियों को उजागर करती है। इस काल का सह्रदय समाज भी वैभव लोलुप हो चुका है। डॉ॰ बच्चन सिंह ने बिहारी के दोहे के माध्यम से रसिक समाज की चित्तवृत्तियों को उद्घाटित किया है-
फिरत जु अटकत कटनि बिन रसिक, सु रस न खियाल।
अनत अनत नित नित हितन कत सकुचावत लाल।।
बिहारी जी उपर्युक्त दोहे में नायक को रसिक कहते है, जो अभिजात वर्ग का प्रतीक है। नायिका कहती है कि अन्य स्त्रियों से खिलवाड़ करने का कारण केवल मिथ्या है; क्योंकि तुम तो रसिक हो। अत: रसिक केवल खिलवाड़ कर रहा है। वही दूसरी ओर भरतमुनि का रसिक खिलवाड़ नही करता था; वह मानवीय भावों का संचयनकर्त्ता था। जो रीतिकालीन रसिक अभिजात्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, वह रसिक नगरीय जीवन शैली का अनुकरण करता है। सामंती समाज की रीति और नीति के कारण उस समय के लोगों ने स्वयं को एक घेरे में कैद कर लिया औऱ उसी घेरे के अंदर वह अपना विकास करता है। डॉ॰ बच्चन सिंह कहते है कि सामंतीय संस्कृति ने अपने को ऐसे घेरे में बन्द कर रखा था जो सड़ांध और घुटन के कारण विकास से शून्य हो चुकी थी, परन्तु सामंतीय समाज में निर्वहन करने वाले उससे संतुष्ट थे। अर्थात् डॉ॰ बच्चन सिंह ने सामंती समाज की विलासिता में पनपने वाले रूढ़ को दृष्टिगोचर किया है। जिसकी उचित व्याख्या वे बिहारी सतसई में देखते है।

बिहारी की नायिका सामंती युग का प्रतिनिधित्व करती है। वह नगरीय जीवनयापन करती है। उसका श्रृंगार नगर की स्त्रियों की भाँति प्रदर्शन का आदि है। बिहारी ने उनके नागरी रूप को अधिक मोहक बताया है। वही दूसरी ओर बिहारी ग्रामीण नायिका को गँवारू कहते हुये प्रतीत होते है।
सबै हँसत करतारि दै नागरता कै नावै।
गयो गरब गुन कौ सरब बसत गँवारे गाँव।।
उपर्युक्त पंक्तियों में बिहारी जी ने नागरता पर हँसने वाले गाँव वालो (गँवारे) की नगरीय दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है। वे ग्रामीण जीवन को अविकसित बताते है। फिर भी ग्रामीण नायिकाओं के प्रति अपनी रसिकता में कमी बिहारी जी ने नही आने दी। यहाँ बिहारी की सृजनशक्ति में संकीर्णता आ जाती है, जब वह अपनी संस्कृति के अतिरिक्त अन्य को तुच्छ समझने लगते है। यह सृजना शक्ति की ह्रास की ओर बढ़ता पहला कदम है। बिहारी की नायिका में नगरीय स्त्री की तरह चंचलता, माँसलता, निर्भीकता है, यह अपने प्रेम को प्रदर्शित करने में अधिक सक्षम है। वही दूसरी ओर ग्रामीण नायिका में शृंगार का वास होते हुए भी वह अपनी अभिलाषाओं को प्रकट करने में कम सक्षम है। यहाँ बिहारी अन्य कवियों से अलग होकर अपनी सृजन शक्ति से इन्हें उलहाना देते हुए भी इनकी निसहाय स्थिति को प्रस्तुत करते है। जिससे यह अवहेलना प्रतीत न होकर विकास की ओर बढ़ाने वाला कथन प्रतीत होता है। डॉ॰ बच्चन सिंह का भी मानना है कि बिहारी पुरानी परम्परा और रूढ़ी में अंतर करते हुए समसामयिक वातावरण का चित्रण करते थे। रीतिकालीन काव्य की मुक्तक शैली में लिखने वालों में बिहारीलाल का अप्रतिम स्थान अपने समय का प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करने के कारण भी है।

परम्परा और रूढ़ि का निर्वाह :–

सृजन की नवीनता को बनाये रखने में परम्परा का बोधक होना तो सहायक है, परन्तु रूढ़ि का निर्वहन करने पर साहित्य अपनी विशिष्टता का आधार खो देता है। रीतिकालीन काव्य में दोनों को ग्रहण किया गया। बिहारी ने रूढ़ी को पहचान कर मौलिकता तथा परम्परा को अपने दोहों में स्थान दिया। इसलिए डॉ॰ बच्चन सिंह ने बिहारी में अंधानुकरण की प्रवृत्ति विद्यमान न होने की प्रशंसा की है। चूँकि रीतिकालीन काव्य में मुगलों के दरबार तथा सामंती प्रवृत्ति ग्रहण करने वालों में एक ही प्रकार की शैली का अनुकरण देखने को मिलता है। इस काल में दरबारी साहित्य में राजाओं की प्रशंसा और नायक-नायिका शृंगार वर्णन अधिक मिलता है। जिसमें नख-शिख वर्णन तथा नगर की स्त्रियों की शारीरिक शोभा का वर्णन उभयनिष्ठ हो चुका था। ऐसे में बिहारी भी अछूते नहीं रहे, लेकिन बिहारी ने रूढ़ि बन चुकी धारा का अनुकरण नही किया। रसिक समाज के लिए उन्होंने प्रत्येक दोहे में मौलिकता प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। जैसे नायिका-भेद का वर्णन बिहारी ने भी किया है। लेकिन वे अपनी पूरी की पूरी काव्य यात्रा इसी के इर्द-गिर्द नहीं करते है। डॉ॰ सिंह ने माना कि उनके प्रत्येक दोहे में किसी न किसी नायिका-भेद को खोज लेना यह नही सिद्ध करता कि वे रीतिग्रन्थ लिख रहे थे। यहाँ डॉ॰ बच्चन सिंह भी अमरुक शतक, गाथा सप्तशती आदि से अलग इनका काव्य रखते है। वे कहते है कि बिहारी के दोहों में पहला नखशिख वर्णन संबंधी दोहा ३३ वें दोहे से प्रारम्भ होता है। अत: बिहारी ने नखशिख वर्णन को अपने दोहों का केन्द्र नहीं बनाया है। यह कहा जा सकता है कि नायिका विषयक वर्णन उन्होंने किया परंतु श्रृंगार रस के उद्घाटन में सहायक हेतु, जिससे क्रीड़ापरक प्रेम का चित्र उन्होंने सामंतीय ढ़ंग से उकेरा है। केश, मुख पर बिखरी लट, वेणी, टीका, बिन्दी, भौंह, नयन, कपोल, श्रवण और मेंहदी का वर्णन किया है। इससे ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण तालिका के रूप में बिहारी ने इसका अनुकरण अन्य रीतिकालीन आचार्यों तथा कवियों की भाँति नहीं किया है। डॉ॰ बच्चन सिंह ने दोहों में प्रयुक्त अंगों के वर्णन को एक तालिका के रूप में प्रस्तुत किया है-
अंग दोहा
केश
लट
बिंदी
भौं


प्रस्तुत तालिका के अनुसार डॉ॰ बच्चन सिंह इसे नखशिख वर्णन मानने से इंकार करते हैं। यहाँ बिहारी परम्परा के तो निकट होकर रूढ़ी के विरुद्ध काव्य को लिखते है । इनके द्वारा वही उपमान प्रयोग में लाए गए है, जिन उपमानों का वर्णन तत्कालीन नायक अपनी नायिका को सरलतम प्रेम प्रदर्शन में करता है। बिहारी के दोहों में यह भी देखा जा सकता है कि युगीन परिस्थितियों के चलन के कारण कुछ रूढ़ियों को काव्य-परम्परा में अपनाना पड़ा है। यह उन्हें उस रूढ़िवादी स्थितियों से प्राप्त हुआ है-
गोपिन के अँसुवनि भरौ, सदा असोस अपार।
डगर डगर नै ह्रै रही, बगर बगर के बार।।
उपर्युक्त पंक्तियों में गोपियों के आँसुओं से भरी हुई कभी न सूखने वाली अपार नदी का वर्णन किया है। यह परम्परा भक्तिकाल से होती हुई विद्यापति से निकलकर रीतिकालीन साहित्य में प्रवेश हुई है।

पांडित्य का भाव –

सामंती युग में शिक्षित होने की होड़ में सभी ने अपने को पांडित्य से परिपूर्ण करना चाहा। ऐसे में कवि भी कैसे पीछे रह सकते थे। इन्होंने भी ज्ञान-विज्ञान का आश्रय लिया। जिसमें बिहारी ने भी अपना हाथ आजमाया। आलोचकों द्वारा बिहारी को गणितज्ञ, खगोलविशेषज्ञ या ज्योतिषी कहना उचित नहीं है। सामान्य ज्ञान का ज्ञाता होना पांडित्य के अंतर्गत नहीं आता। तत्कालीन समाज अर्थ आधारित होने लगा था। जिसमें कवियों में भी अर्जन तथा प्रतिष्ठा का भाव आते के कारण अपने क्षेत्र में विशेषज्ञ की उपाधि धारण करने की भावना जागी । जिसके प्रभाव से कृत्रिमता का भाव काव्य में आने लगा था। मशीनीकरण जिसे आधुनिक काल में प्रक्षेय मिला, उसका अंश यहाँ से साहित्य में दिखने लगा था। अत: कवि की अपनी निजी विशेषताऐं साहित्य की शोभा नहीं बन सकती है। बिहारी ने भी यह प्रयास अपने दोहों में करना चाहा -
(१)
मैं लखि नारी ज्ञान, करि राख्यो निरधार यह।
वहई रोग-निदान, वहै बैद औषधि वहै।।

(२)
तिय तिथि तरुन किसोर बय, पुन्य काल सम दोन।
काहू पुन्यनि पाइयत, बैस-संधि संक्रोन।।
यहाँ डॉ॰ बच्चन सिंह साधन को साध्य बन जाने की बात करते हैं, जिससे पांडित्य प्रदर्शन तो उभर रहा है, परंतु कविता की संभावना समाप्त हो गई है।

ऐतिहासिकता –

नख-शिख और नायिका-नायिका भेद वर्णन की परम्परा में बिहारी ने अपना अवश्य योगदान दिया है। अमरूक शतक के श्लोक, गाथा सप्तशती (प्राकृत भाषा) तथा गोवर्धन की संस्कृत भाषा की आर्या सप्तशती में नायक-नायिका का वर्णन मिलता है, परंतु इन्हें हिन्दी के रीति ग्रंथों में नहीं रखा जा सकता है। इस ऐतिहासिक परम्परा को रीतिकालीन धारा में नवीन शैली देकर लोक सभ्यता के बीच में रखने का कार्य बिहारीलाल ने किया है। यह सामंतीकालीन रूढ़ी का प्रयोग उन्हें तत्कालीन माँग के आधार पर करना पड़ा। इसमें जैसे पहले ही बता चुके है कि वह अनुकरण करते है, लेकिन उनकी सृजनशीलता का रस भी उसमें होता है-
सुनत पथिक मुँह माह निसि लुवै चलत उहि गाम।
बिन बूझे बिनही कहें जियति बिचारी बाम।।
उपर्युक्त बिहारी के कथन में प्राचीन रचनाओं की भाँति ही नायिका के विरह का वर्णन किया गया है।

आर्या सप्तशती के भावों की छाया भी बिहारी के दोहों में केवल प्रेरक के रूप में ही मिलती है। इससे बिहारी की मौलिकता कहीं भी कुंठित नही होती है।
भ्रामं भ्रामं स्थितया स्नेहे तव पयसि तत्र तत्रैव।
आवर्तपतितनौकायितमनया विनयपनीय।। -गोवर्द्धन

फिरि फिरि चित उत ही रहत, टुटी लाज की लाव।
अंग अंग छबि झौंर में, भयौ भौंर की नाव।। -बिहारी
अत: कह सकते है कि बिहारी इस लेखन की अगली कड़ी है, जो रीतिकालीन काव्यधारा में अपना वर्चस्व सामंती युग में फैला रहे थे।

प्रेम स्वरूप –

प्रेम मानवता का एक आवश्यक गुण है। प्रेम के कई रूप मनुष्य के माध्यम से साहित्य में प्रवेश करते हैं। सूरदास का वात्सल्य प्रेम भक्तिकाल के आधार स्तम्भों में से एक है। रीतिकाल में नायक-नायिका प्रेम सर्वाधिक दृष्टिगोचर हुआ है। प्रेम का जो रूप भक्तिकाल में आध्यात्म या इश्क हकीकी की हद तक सीमित था, अब वह भौतिक प्रेम की ओर मुड़ चुका है। मानसिक प्रेम भंगिमाओं के अनुभाव के साथ अब शारीरिक मिलन को ही अंतिम प्रणीति मानता है। रीतिकालीन सामंती युग का नायक उल्लास, आनंद, उन्माद, विशाद, स्वप्न, वियोग आदि का अनुभव करता है। यही नायक-नायिका काव्य में वियोग और संयोग की दशाओं को प्रस्तुत करने वाले होते है। शृंगार रस के इस वर्णन से मन बहलाने के लिए तत्कालीन समाज का रसिक प्रस्तुत था। अब रीतिकालीन शृंगारिक काव्य और गाथा सप्तशती जैसी रचनाओं को विलासी वर्ग तथा राजदरबार में अधिक प्रक्षेय मिला। दूसरी ओऱ समाज का ग्रामीण निम्न वर्ग का आदमी आर्थिक स्थिति से प्रताड़ित होकर नायक-नायिका प्रेम से अधिक अपनी आजीविका से प्रेम करेगा। ऐसे व्यक्ति को काव्य में रस ढूँढ़ने का समय कहा मिलेगा। बिहारी को नागरी जीवन शैली इसीलिए अधिक प्रभावित करती थी क्योंकि उसमें मनोभावों को जागृत करने के लिए अवकाश होता था। वे इसमें स्वयं अपनी उपस्थिति दर्ज कराते है। नारी के रूप-शृंगार का वर्णन करना एवं उसे आकर्षण का मुख्य कारण मानना रीतिकालीन कवियों की प्रथम रेखा होती थी, जिससे फिर नेत्रों से प्रारंभ करके कवि नायिका के अंगों का उपयोग आलम्बन के रूप में करता है। यही भाव सामाजिक व्यक्ति की प्रेम की प्रथम सीढ़ी होती थी। बिहारी ने भी प्रेम के इस रूप को तत्कालीन समाज के व्यापक पाठकों के सामने रखा, जिसका सदृश्य दर्शन रसिक समाज अपने आस-पास करता था। ऐसे में बिहारी के दोहे प्रासंगिक होने के साथ-साथ सजीव बिम्ब प्रस्तुत करने में सहायक होते है।

बिहारी का प्रेम भौतिक धरातल पर ही रहता है। इस प्रेम का प्रेरक स्त्रोत शारीरिक सौन्दर्य है। बिहारीलाल कहते है-
तो तन अवधि अनूप, रूप लग्यो सब जगत को।
मो दृग लागे रूप, दृगनि लगी अति चटपटी।।
अर्थात् नायक के नेत्र नायिका के रूप से लग गये है। रूप की रमणीयता के प्रति आकृष्ट होना रसिक का सहज धर्म है। यह रसिक लौकिक स्तर पर अपने चित्त को सौन्दर्य के प्रति आकृष्ट करता है। बिहारी इस प्रेम को चौगान का खेल कहते है। मुगल काल में व्याप्त स्थितियों ने नारी और उसके रूप- सौन्दर्य को राजाओं और सामंतो के लिए वस्तु की संज्ञा दी थी। अत: इस प्रकार प्रेम इनके लिए खेल और जीतने की बाजी ही समझी जाने लगी।
सरस सुमिल चित तुरँग की, करि-करि अमित उठान।
गोह निबाहें जीतियै, खेलि प्रेम चौगान।।
बिहारी के इस दोहे से प्रेम के खेल का वर्णन का होता है। जहाँ रीतिकालीन नायक इस खेल में अधिक निपुण है। वही दूसरी ओर स्वच्छंद काव्यधारा (रीतिमुक्त) के कवि इसे सयानप और कपट से हीन मानते है-
अति सूधो सनेह को मारग है, जहँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहँ साँचे चलें तजि आपनपौ झिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं।। -(घनानंद)
स्वच्छंदधारा के कवि प्रेम में लोक मर्यादा और निंदा का ख्याल नही करते है। प्रेम उनके लिए सर्वस्व का ग्राहक है। सामाजिक सरोकार और लोक-लाज का ख्याल नहीं करते है। वही बिहारीलाल लोक मर्यादा का उलहाना देते है। इनके दोहों में नायक-नायिका की सामाजिक सीमा का अतिक्रमण नहीं होता। वे तत्कालीन परिस्थितियों और सीमाओँ का ध्यान रखकर अपने प्रेम को प्रदर्शित करते है। ऐसे में बिहारी नागर संस्कृति की अभिव्यक्ति करने वाले कवि हो जाते है। इनके संदर्भ में डॉ॰ बच्चन सिंह कहते है कि बिहारी में खास अंतरविरोध नहीं दिखाई देता है। सामंतीय प्रेम का पूर्ण प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करने का प्रयास बिहारी ने ही किया है। इसी कारण वे रीति कवियों की भयग्रस्त रचनात्मकता से अलग हो जाते है। बिहारी का लेखन तत्कालीन सामंती युग की मर्यादा, रूढ़ी और परम्परा को बखूबी प्रस्तुत करता है-
कहत, नटत, रीझत, खीझत, मिलत, खिलत, लजियात।
भरे भौन में करत हैं, नैनन ही सों बात।।
यहाँ नायक-नायिका भरी सभा में लोक-लाज के डर से नेत्रों में ही अपने प्रेम को प्रस्तुत करते प्रतीत होते है। अत: जिस क्रीड़ापरक प्रेम का चित्र उन्होंने उकेरा है, वह पूर्णत: सामंतीय है।

प्रथम नायिका दर्शन में सामंती युग का नायक, नायिका के अंग –अंग से होने वाले प्रकाश की ओऱ आकर्षित होता है-
अंग-अंग नग जगमगै, दीप सिखा सी देह।
दिया बढ़ाएँ हूँ रहै, बड़ो उजारो गेह।।
रीतिकालीन कवियों ने नायिका के अलंकृत सौन्दर्य पर अधिक काव्य लिखा है। इसमें वैभव-विलास से लिप्त नायिकाओं का चित्र खींचा गया है। बिहारी अपनी रचना-शैली से नायिका में आकर्षण का रस भरते है-
सहज सेत पँचतोरिया, पहिरत अति छबि होति।
जलचादर के दीप लौं, जगमगाति तन-जोति।।
बिल्कुल महीन या पतली साड़ी में नायिका की शोभा का वर्णन करते हुए, बिहारी इस दोहे में वस्त्राभूषणों का वर्णन करते है। रमणीयता का यह रूप सामाजिक नारी के अलंकरण को प्रस्तुत करता है। अगली पंक्ति में नायिका जलचादर के दीप के समान साड़ी के पीछे से शोभा देती है। यहाँ जलचादर से तात्पर्य किसी ऊँचे स्थान से जल के सूक्ष्म प्रवाह से है। यह बिम्ब अगर वर्तमान सिनेमा से जोड़ा जाए तो गलत नहीं होगा। जिस प्रकार वर्तमान सिनेमा समाज के पहलुओं को दिखाता है, वैसे ही बिहारी के दोहे तत्कालीन समाज को प्रदर्शित करते है। प्रेम वर्णन की परम्परा का वहन जैसे रीतिकालीन काव्य में हुआ है, उससे कुछ हटकर बिहारी ने लिखा। अत: बिहारी ने कोई लक्षण ग्रंथ नहीं लिखा। फिर भी बिहारी ने लक्षणों का प्रयोग अपने काव्य में किया है। जिस प्रकार बिहारी ने नख-शिख वर्णन तो किया है, परन्तु अन्य रीतिकालीन कवियों की भाँति उसमें क्रमबद्धता नही है। यहाँ बिहारी बद्धता से अलग होकर अपनी रचनात्मकता में स्वच्छंद होते प्रतीत होते है। यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत करके उनके क्रम को व्याख्यायित करने का प्रयास करेगें –
केश-
सहज सचिक्कन स्याम रूचि सुचि सुगन्ध सुकुमार।
गनत न मन पथ अपथ लखि बिथुरे सुथरे बार।।

भौंह-
चितवनि भौं कमान गढ़ रचना बरुनी अलक।
तरुनि तुरंगम तान, आघु बँकाई हौ बढ़े।।

नयन-
बर जीते सर मैन के ऐसे देखे मैं न।
हरिनी के नैनान तें हरि नीके ये नैन।।
उपर्युक्त दोहों में नयनों, कुच, उरोज, करम, बाहु, चरण का क्रम निश्चित नहीं है। साथ ही इसमें कृत्रिमता का भी भाव प्रकट होता है। वे प्रस्तुत-अप्रस्तुत का सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास करते है। जो कृत्रिमता के नजदीक होकर स्वच्छंद एवं सहजता से दूर हो जाता है।

यह कहा जा सकता है कि बिहारी ने दु:खवादी साहित्य नही लिखा है। वे शारीरिक संतुष्टि को अधिक महत्व देते है। इसलिए इन्होने संयोग शृंगार का वर्णन अधिक किया है। कभी-कभी वियोग में भी संयोग की स्मृति का वर्णन शारीरिक चेष्टाओं की स्मृति को ध्यान में रखकर किया गया है। संयोग शृंगार का आधार शारीरिक आकर्षण की ओर अधिक होता है। अनेक शारीरिक विकारों, चेष्टाओं, वाचिक और भंगिमाओं का चित्र प्रस्तुत करने का कार्य बिहारी ने किया। ऐसा चित्रण प्रस्तुत करने का स्त्रोत या तो स्वानुभूति या परानुभूति से संबंधित होगा। इसमें से बिहारी ने अपने समसामयिक समाज में व्याप्त नायक-नायिका प्रसंग को देखकर ही अपने दोहों में उनकी इतनी सटीक चेष्टाओं का वर्णन किया है। इसी प्रकार बिहारी ने भंगिमाओं के दोनों प्रकारों – स्वाभाविक और सचेष्ट का वर्णन किया है। सचेष्ट भंगिमाओं का वर्णन बिहारीलाल अपने दोहों में बखूबी कराते है। स्वभाविक भंगिमाओं में भी दृष्टा के माध्यम से नायक के ह्रदय उदगारों का वर्णन करते है।
जज्यों उझकि झाँपति बदन, झुकति बिहँसि सतराइ।
तत्यों गुलालमुठी झुठी, झझकावत पिय जाइ।।
इसमें बिहारीलाल जी होली में नायिका की भंगिमाओं पर मुग्ध नायक की अभिलाषा का चित्रण करते है। जैसे प्रेम को चौगान कहा गया। वैसे ही सामंतीय जीवन की विलासिता का रूप ही प्रेम है –
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय।
सौंह करै भौंहनि हँसै, दैन कहै नटि जाय।।
यह दोहा संचेष्ट का उदाहरण कहा जा सकता है। इसमें नायिका की संभोग सूचक चेष्टाओं का प्रस्तुतीकरण किया गया है। नायिका का नायक के संग खेल करना संयोग के समय की चेष्टाऐं है। यह खेल झूले पर छेड़ना, आँख मिचोली, नेत्रों से बात, आलिंगन, फाग का रंग, घूँघट के ओट का सहारा लेना, किसी वस्तु के प्रति ललचाना आदि हो सकते है। यह सभी भंगिमाऐं सामंतीय जीवन को भलीभाँति प्रस्तुत करती है। इसी प्रकार भाव, मुद्राएँ, हास-परिहास, वन-विहार, मदपान, वियोग आदि का वर्णन बिहारी अपने दोहों में करते है। बिहारी के वियोग में पूर्वानुराग के दोहों का वर्णन अधिक सुलभ मिलता है। सामंतीय युग जहाँ अर्थ केन्द्रीत हो रहा था, वही नायक आजीविका के लिए अपनी नायिका से दूर जाता है। उसके वियोग के कारण नायिका को हुये पूर्वानुराग, मान, प्रवास, उन्माद, तन्मयता आदि की स्थिति को प्रस्तुत करने का प्रयास बिहारी ने वास्तविक धरातल पर रहकर की-
लाल तिहारे रूप की, कहौ रीति यह कौन।
जासौं लागें पलक दृग, लागै पलक पलौ न।।
बिहारी ने शृंगार के अतिरिक्त व्यंग्योक्तियाँ, भक्तिपरक और प्रकृतिमूलक रचनाओं का वर्णन किया। कवि जिस समाज और वातावरण में रहता है, उसमें प्रचलित मुहावरे, लोकोक्तियाँ तथा व्यंग्य आदि का प्रभाव काव्य में मिलता है। जिन वर्ग विशेष व्यक्तियों पर रसिक समाज व्यंग्य करता है। उस रसिक समाज की यह सामंती प्रवृत्ति ही बिहारी के काव्य में सटीक रूप से मिलती है। पुराणवक्ता और नीति का बखान करने वाले लोगों पर व्यंग्य तो उनकी करनी और कहनी में अंतर के कारण होता ही है। इस व्यंग्य को बिहारी कुछ इस प्रकार प्रस्तुत करते है, जैसे यह समकालीन समाज का लोक चित्र हो-
परतिय-दोष पुरान सुनि, लखि मुलकी सुखदानि।
कसि करि राखी मिश्रहूँ, मुँह आई मुसकानि।।
अर्थात् पौराणिक कथा कहने वाले परायी नारी के दोष को उजागर करते है, जबकि सभा में ही उनकी परकीया नारी बैठी हुई है। अत: तत्कालीन समाज के धर्म ज्ञान देने वालों की दशा कुछ ऐसी ही थी। दूसरों के लिए नियंत्रण और अपने लिए स्वच्छन्दता की आवश्यकता की माँग करते है। अत: बिहारी यहाँ सामंती वर्ग के प्रेम की स्थिति का वर्णन करते है। यह प्रेम अपने मूल अस्तित्व को खो चुका है। नैतिकता का स्थान सामंती प्रेम में नही मिलेगा, यहाँ केवल विलासिता ही प्रधान होगी। रीतिकालीन भक्तिपरक रचनाएँ जिस प्रकार केवल सुमिरन का बहाना है, वैसे ही बिहारी की भी रचनाओं में मिलता है, इन्होंने असांप्रदायिक दृष्टिकोण, बाह्राचार, सख्य, उपालम्भ, प्रकृति चित्रण आदि का भी वर्णन किया गया-
जयमाला छापा तिलक, सरै न एकौ काम।
मन काचैं नाचैं वृथा, साचैं राँचैं राम।।
बिहारी ने अपने दोहों में बाह्य आडम्बरों का वर्णन किया है। जिसमें सामंती समाज में व्याप्त प्रदर्शन मात्र का स्पष्ट प्रस्तुतीकरण किया है। जहाँ धर्म अब आत्म विकास नहीं रह गया है। यहाँ केवल प्रेम प्रतिष्ठा एवं दिखावे का ही रुप लिए हुए है।

बिहारी के दोहों में शब्द-शक्ति की बात करे तो व्यंजना शक्ति का प्रयोग विशेष रूप से किया गया है। ऐसे में बिहारी दो पंक्तियों में सम्पूर्ण सार प्रस्तुत करने वाले कवि हो जाते है। रोचकता का प्रवेश तो तब होता है, जब ध्वनि सिद्धांत का प्रवेश होता है। व्यंग्यार्थ के कारण बिहारी का ध्वनिवादी पक्ष मजबूत हो जाता है। कभी–कभी इसी कारण बिहारी के दोहे घाव गम्भीर करते है। बिहारी ने मुख्यत: राग-बोधात्मक शब्दों का चयन अधिक किया है। उनका मानना था कि तुकात्मकता एवं सुगम शब्दों को रसिक समाज भी सरलता से कंठस्थ कर सकता है। एक ही शब्द की पुनरावृति से वे बचते है, शब्दों के पर्यायवाची का प्रयोग इन्होंने अपने दोहों में किया है। उदाहरण के लिए- कृष्ण के ही बिहारी ने कई पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग किया है। जैसे- मोहन, नन्दकुमार, बनमाली, घनस्याम आदि। अत: कह सकते है कि बिहारी ने ऐसे पर्याय का प्रयोग किया है, जो जनसाधारण में प्रचलित है। मुगल शासन के कारण समाज में व्यापारिक यात्राओं के चलते अरबी और फारसी के शब्द जैसे- अहसान, कुबत, चश्मा, बेकाम, सिकार आदि का प्रयोग किया है। वैसे तो बिहारी में बोलियों का मिश्रण मिलता है। जिसमें सामान्यत: ब्रजभाशा, बुन्देलखण्डी, अवधी और पूर्वी बोलियों से प्रभावित है। शब्दों के तोड़-मरोड़ भी बिहारी की भाषा में ध्वनात्मक सहजता के लिए मिलते है। स्मर के लिए ‘समर’, संक्रांति के लिए संक्रमण आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसी कारण शायद रामचन्द्र शुक्ल ने बिहारी की भाषा को चलती होने पर भी साहित्यिक कहा होगा। बिहारी लिंग के प्रयोग में कभी-कभी गलती कर देते है। ऐसा रीति काव्य में अधिकतर कवियों में मिलता है। जैसे ‘मिठास’ शब्द सामान्यत: स्त्रीलिंग शब्द माना जाता है, परन्तु बिहारी ने इसका प्रयोग पुल्लिंग में किया है। कहीं-कहीं बिहारी भाषा के रूप का संरक्षण करते प्रतीत होते है। ‘रूख’ शब्द का प्रयोग स्त्रीलिंग में फारसी में होता है, बिहारी ने भी इसका प्रयोग इसी रुप में किया, जबकी हिन्दी में यह वर्तमान में अब पुल्लिंग में प्रयोग होता है। इस प्रकार बिहारी की भाषा चलती भाषा अधिक है। साहित्य को जिस भाषा में रीतिकालीन काव्य का पांडित्य प्राप्त था, उस पांडित्य का बिहारी ने बहिष्कार किया औऱ लोक भाषा का प्रयोग अधिक किया। यह भाषा भले ही व्याकरण की दृष्टि से उत्कृष्ट न हो, परन्तु रसिक समाज के लिए एकदम उत्कृष्ट औऱ आकर्षक है। कुलपति मिश्र ने युक्ति तरंगिणी में लिखा है –
भाँति-भाँति रचना सरस, देव गिरा ज्यौं व्यास।
त्यौं भाषा सब कबिन मैं, बिमल बिहारी दास।।
उपसंहार –

बिहारी सतसई के मुक्तक काव्य का प्रभाव तत्कालीन समाज पर उतना ही पड़ा, जितना बिहारी सतसई पर सामंती समाज का। बिहारी ने दोहा एवं सोरठा का प्रयोग किया है। बिहारी ने दोनों का प्रयोग बखूबी किया है। रीतिकालीन काव्य में शायद ही कोई इतना प्रभावी कलाकर हो जितना की बिहारी है। भाव- भंगिमाओं का जो चित्र रीतिकाल में प्रस्तुत हुआ, उसमें बिहारी नागरी जीवन के चित्र को बड़ी सूक्ष्मता से प्रस्तुत करने वाले प्रमुख कवि हुए। बिहारी ने अपनी नागरी संस्कृति के सभी पक्षों कों सरलता तथा संबंधवाचक स्वरूप में प्रस्तुत किया है। विलासिता, प्रेम, काम-क्रीड़ा, राजवैभव, नायिका की चेष्टाऐं, सामाजिक प्रतिबन्ध, ऋतु वर्णन, फाल्गुनोत्सव, खेलकूद, मनोदशाओं की प्रस्तुति आदि का वर्णन बिहारी ने अपनी सतसई में किया है। इस सबके वर्णन में बिहारी की दृष्टि औरों से किंचित् भिन्न है। यह सामंती संस्कृति से प्रभावित होने के कारण यह रसिक समाज को अपनी ओर अधिक आकर्षित करता है। मध्यवर्ग का प्रारूप यहाँ से बनने लगता है। कुछ चित्रों का वर्णन नायिका के संदर्भ में बिहारी ने मध्यवर्ग के अनुसार किया है। घरेलु जीवन की हटखेलियाँ और सौतों का सापत्नी सा रूप सामंतीय जीवन के भी नजदीक है। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि साहित्य में समाज का जितना प्रतिरूप बिहारी के काव्य में मिलता है, उतना किसी अन्य रीतिकालीन कवि में नहीं देखा जा सकता है। फिर भी यदि बिहारी को रीतिबद्धता के अंतर्गत विशेष रूप से रखा जाए, तो यह बिहारी के साथ न्याय होगा। बिहारी स्वच्छंद कवि की प्रवृत्ति में अधिक रमें है। चाहे भाषा हो या शैली बिहारी में अपनी ही नवीनता का बोध है। इतनी प्रविष्ट शैली और काव्य होने पर भी बिहारी को महाप्राण कवियों में रखना चाहिए या नहीं? डॉ॰ बच्चन सिंह इस संबंध में नकारात्मक उत्तर देते है। उनका मानना है कि बिहारी की कविता सामंती जीवन एवं संस्कृति के घेरे में ही रहती है। ऐसे में विशेष संदर्भ में होने से यह सीमित साधनों का वहन करके सर्वसाधारण की संज्ञा खो देती है। रामचन्द्र शुक्ल ने बिहारी के दोहों को ही देखकर मुक्तक काव्य को एक चुना हुआ गुलदस्ता कहा है। अत: यह रीतिकालीन युग अल्पप्राण कवियों का युग कहा जायेगा, जिसमें बिहारी का सामाजिक जीवन- चेतना को प्रस्तुत करने में अप्रतिम योगदान देता है।

संदर्भ ग्रंथ सूची-
  1. हरिप्रकाश. श्री बिहारी सतसई. भारतजीवन. काशी.
  2. सिंह, डॉ॰ बच्चन. बिहारी का नया मूल्यांकन. लोकभारती प्रकाशन. बनारस.
  3. सिंह, डॉ॰ बच्चन. रीतिकालीन कवियों की प्रेम व्यंजना.लोकभारती प्रकाशन. बनारस.
  4. सिंह, डॉ॰ बच्चन. हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास. राधाकृष्ण प्रकाशन. लखनऊ.
  5. मिश्र, पं॰ विश्वनाथप्रसाद. बिहारी की वाग्विभूति. हिन्दी साहित्य कुटीर. बनारस.
निशि उपाध्याय (शोधार्थी), छत्रपति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय, कानपुर (उ.प्र.) ई-मेल – nishiupadhyay09@gmail.com सम्पर्क सूत्र - 9717815792