Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
स्वतंत्रता से पूर्व हिंदी आलोचना और भारतेन्दु युग
भारतीय समाज, भारतीय साहित्य और भारतीय जीवन दृष्टि को ज्यादा बड़े स्वरुप में प्रभावित किया है, भारत में केन्द्रीय सत्ता के रूप में स्थापित ब्रिटिश सरकार ने | स्वतंत्रता से पूर्व प्रत्येक भारतीय चाहे वो पत्रकार, रंगकर्मी, किसान, मजदूर, कहानीकार, नाटककार, उपन्यासकार, कवि, आलोचक, सामजिक कार्यकर्ता, वकील, शिक्षक एवं ब्रिटिश सरकार के अंतर्गत कार्यरत ज्यादातर भारतीयों का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य था; भारत को स्वतंत्रता दिलाना | इस कारण स्वतंत्रता से पूर्व जितने भी भारतीय अपने-अपने कार्य कर रहे थे, उनमें एक खास तरह की वैचारिकता कार्य कर रही थी |

इस कारण इस लेख में ‘स्वत्रंतता से पूर्व हिंदी आलोचना और भारतेंदु युग’ के विभाजन एवं नामकरण का मुख्य उद्देश्य यही रहा कि हिंदी आलोचना भी अपने समय और समाज को छोड़कर नहीं रची गई | बल्कि अन्य विधाओं की अपेक्षा हिंदी आलोचना अपना कार्य काफी मजबूती से और बड़े रूपों में करती नज़र आती है |

क्योंकि गुलामी एक ऐसा दौर रहा, जहाँ पर कोई भी अपनी बात सीधे-सीधे नहीं कह सकता था; ब्रिटिश सरकार के विरोध में | यदि प्रेमचंद जैसा कोई नायक सामने भी दिखता है तो उसकी रचना (सोजेवतन) को जला दिया जाता था | इस कारण सभी रचनात्मक लोगों के सामने विकल्प हीनता की स्थिति थी | इसलिए उन सारे सर्जनात्मक रचनाकारों ने अपनी बात सीधेतौर पर न कह कर परोक्ष रूप से कहने लगे | इसी परोक्षता के कारण आधुनिक काल में अनेक विधाएं जन्म लेती दिखती हैं; उनमें से एक आलोचना विधा भी प्रकाश में आती है | क्योंकि आलोचना विधा का महत्त्व इस कारण भी बढ़ गया कि रचनाकार अपनी रचना में सीधे-सीधे बहुत सी बातों को नहीं कहता है, लेकिन उस रचना में बहुत सारे भाव और विचार अन्तर्निहित रहते हैं | उन सारे अन्तर्निहित विचारों और भावों को सबके सामने लाने का कार्य आलोचना विधा करती है | क्योंकि रचना केवल विशिष्ट पाठक तक ही सीमित नहीं रहती है, वो सामान्य पाठक तक भी पहुँचती है | परन्तु एक सामान्य पाठक(व्यक्ति) रचना में मौजूद रूपक या अन्तर्निहित अदृश्य विचार और भाव को नहीं समझ या देख पाता | तब ऐसे सारे लोगों को एक नयी दृष्टि आलोचक के द्वारा मिलती है |

उपर्युक्त विचार को समझने के लिए भारतेंदु द्वारा रचित नाटक या प्रहसन ‘अंधेर नगरी’ को देखने पर स्थिति ज्यादा साफ हो सकती है | ‘अंधेर नगरी’ नाटक को सामान्य पाठक प्रायः नहीं समझ पाता है | क्योंकि उसमें अन्तर्निहित तात्कालिक सरकार( ब्रिटिश सरकार) की घोर शोषणकारी नीति को दिखलाया गया है | परन्तु उन सारे तथ्यों को एक गम्भीर आलोचक ही उद्घाटित कर पाता है | इस कारण आलोचना विधा अत्यंत गम्भीरता से कार्य करती हुई जान पड़ती है |

“आलोचना ‘लोच धातु से बना है- आ+लोच्+अन+आ= आलोचन | लोच का अर्थ है देखना | इसलिए किसी वस्तु या कृति की सम्यक व्याख्या अथवा उसका मूल्यांकन आदि करना ही आलोचना है |”1 “आलोचना के लिए समीक्षा शब्द भी प्रयुक्त होता है | ‘समीक्षा’ का व्युक्तिपरक अर्थ है ‘सम्यक निरीक्षण’ | आलोचना मानव की सहज प्रवृत्ति है | यही कारण है कि उसका अस्तित्व अन्य मानवीय वृत्तियों अथवा संवेदनाओं की भांति चिरकाल से ही स्वीकार किया जाता है | आलोचना को साहित्य के संदर्भ में देखने पर साहित्य-रचना के बाद इसका आविर्भाव स्वत: सिद्ध हो जाता है | वस्तुतः पहले सर्जनात्मक साहित्य आता है तत्पश्चात उसकी आलोचना की आवश्यकता का अनुभव किया जाता है |”2 लेकिन ज्यादा गहराई से विचार करने पर यह भी विचार स्वतः उत्पन्न हो उठता है कि क्या बिना आलोचकीय दृष्टि अपनाये कोई रचनाकार अपनी रचना की निर्मिति कर सकता है? क्योंकि रचनाकार एक स्पष्ट विचारधारा के द्वारा ही अपनी रचना को रचता है | क्या रचना के साथ- साथ आलोचना स्वत: नहीं चलती? इसलिए यह निर्णय कर पाना कि रचना पहले और आलोचना बाद में, यह कठिन कार्य है | वस्तुतः बिना आलोचना के रचना की निर्मिति सम्भव ही नहीं है |

“विश्वसनीयता आलोचना की पहली और मूलभूत शर्त है | आलोचना में विश्वसनीयता का क्षरण उसे आलोचना नहीं रहने देती; कम से कम वैसी आलोचना जो अपने प्रति विश्वास जगाती है | आज आलोचना बहुत कुछ दरबारी इतिहासकारों के इतिहास लेखन के निकट पहुँच रही है जिसमें सब कहीं लेखक का शरणदाता ही उसके उसके केंद्र में है | इसमें लोगों को अपने भविष्य की सुनहरी चमक दिखाई देती है | जिसमें उनका कैरियर तो बनता ही है, इधर कृतज्ञता, ऋणशोध आदि की अभिव्यक्ति का माध्यम भी वह तेजी से बनी है | वह गुटों और गिरोहों में सिमटती गई है | अब लोग सिर्फ अपने गुटों के व्यक्तियों का उल्लेख करते हैं या फिर उनका अभी या आगे कुछ हित सधने की गुंजाईश दिखाई देती है |”3 “जब आलोचक यह समझने लगता है कि उसकी चर्चा से लेखक स्थापित होते हैं और उसकी उपेक्षा से वे अँधेरे में डूब जाते हैं तो स्पष्ट है, आलोचना अपना बुनियादी काम नहीं कर रही है |”4

नामवर सिंह ने एक साक्षात्कार में समालोचना का काम इस प्रकार बताया है- देखना या हर हाल में मुक्कमल देखना | उनके शब्दों में समालोचना का धर्म देखने और दिखाने का है, जो नहीं दिखाई दे रहा है, पर्दे के पीछे छिपा है उस पर्दे को हटाकर दिखा सकूँ कि देखो! सच यहाँ छिपा है, जो दूसरे इस सत्य को देख नहीं सके उन्हें भी यह दिखा सकूँ | फिलहाल मेरी नज़र में यही धर्म है | आलोचना का भी शायद यही धर्म होगा | आलोचना का एकमात्र अस्त्र है ‘लोचन’ |

“आलोचना अपनी कोख से ही आलोचनात्मक रही है | हिंदी में आलोचना शब्द की व्युत्पत्ति भले ही ‘लुच’ धातु से बताकर चारों ओर अच्छी तरह देखने के अर्थ में इसका प्रयोग किया जाय, इसे देखने के तेवर कई तरह के होते हैं | देखने की भी वह एक दृष्टि होती है, जो सारे छद्म को तार-तार करके रख देती है | यह वह दृष्टि है जिससे बने हुए सभ्य और संस्कृत जन घबराते हैं, डरते हैं, थर्राते हैं | अंग्रेजी का क्रिटिसिज्म शब्द अपने उस आलोचनात्मक अर्थ को आज भी सुरक्षित रखे हुए है | दोष-दर्शन और छिद्रान्वेषी के अर्थ में आज भी आलोचना का व्यवहार देखा और सुना जाता है | अंग्रेजी में मैथ्थू आर्नल्ड से पहले साप्ताहिक आलोचना का दोष-दर्शानेवाला रूप प्रचलित था; और शायद प्रबल भी | साहित्य के आलोचक सामाजिक आलोचना के लिए भी इस अस्त्र का उपयोग करते थे | रूस में बेलेस्कीं जैसे आलोचक ने साहित्य आलोचना को जिस तरह सामाजिक और राजनीतिक आलोचना के प्रखर अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया, वह उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध के इतिहास का सम्भवतः सबसे शानदार अध्याय है | हिंदी में भी उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से चलकर बींसवीं सदी में महावीर प्रसाद द्विवेदी, रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा से आती हुई साहित्यिक आलोचना का वह सामाजिक-राजनीतिक तेवर अब भी बरकरार है |”5

यह सच है कि अकादमिक जगत से इतर या सामान्यतया समाज में जो आलोचना का अर्थ समझा जाता है, वह केवल दोष, बुराई अथवा नकारात्मक प्रभाव को इंगित करने के रूप में ही प्रचलित है | जबकि वास्तविक अर्थ में यह गुण और दोष दोनों को दिखलाता है | किसी भी कृति की समाज में लोकप्रियता अथवा महत्वपूर्ण स्थान बिना आलोचना के लगभग सम्भव नहीं है | आलोचना रचना को समझने का सबसे अनिवार्य घटक है | किसी भी आलोचक का यह विशिष्ट गुण है कि वह रचना के केन्द्रीय पक्ष को या महत्वपूर्ण पक्ष को दिखाएं | यदि कोई आलोचक किसी कृति की आलोचना कर रहा होता है और उसके महत्वपूर्ण पक्ष को पहचान न कर सकने के कारण उसे रेखांकित न कर पाता है तो उस आलोचक के आलोचकीय क्षमता पर भी प्रश्न चिन्ह लगते हैं | इसलिए साहित्य में जितनी बड़ी जिम्मेदारी एक रचनाकार की होती है, उतनी ही बड़ी जिम्मेदारी एक आलोचक की भी होती है | इस प्रकार रचनाकार और आलोचक में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है | “आलोचना करते समय एक बात का ध्यान हमेशा रखना चाहिए कि रचना में जो कुछ प्रस्तुत है, हम उस पर ही विचार व्यक्त करने के लिए अधिकृत हैं | जो बात रचना में आई ही नहीं, उसके न आने की वजहों को लेकर हायतौबा मचाना और इससे अपने निष्कर्ष निकालने वाली आलोचना अवैध होती है | किसी रचना की सीमा वह तत्व नहीं हो सकती जो उसका विषय ही नहीं बना, वैसे ही जैसे किसी तैराक की सीमा यह नहीं हो सकती कि वह धावक नहीं है | किसी देश की तरह रचना की सीमा की उसकी जमीन की, उसमें मौजूद सकारात्मक क्षमता की सीमा होती है |”6

“समालोचना का उद्देश्य हमारे यहाँ गुण-दोष विवेचन ही समझा जाता है | संस्कृत साहित्य में समालोचना का पुराना ढंग यह है कि जब कोई आचार्य या साहित्यमीमांसक कोई नया लक्षण ग्रन्थ लिखता था तब जिन काव्य रचनाओं को वह उत्कृष्ट समझता था, उन्हें रस अलंकार आदि के उदाहरणों में देता था | फिर जिसे उसकी राय नापसंद होती थी, वह उन्हीं उदाहरणों में से अच्छे ठहराये हुये पद्यों में दोष दिखाता था | और बुरे ठहराए हुए पद्यों के दोष का परिहार करता था |”7 “किसी कवि या पुस्तक के गुण-दोष या सूक्ष्म विशेषताएं दिखाने के लिए एक दूसरी पुस्तक तैयार करनी की चाल हमारे यहाँ न थी | योरप में इसकी चाल खूब चली | वहाँ समालोचना काव्य सिद्धांत निरूपण से स्वतंत्र एक विषय ही हो गया |”8 “इस प्रकार समालोचना के स्वरुप का विकास योरप में हुआ |”9

विभिन्न आलोचकों के द्वारा लगभग एक मोटी राय स्थापित हो चुकी है कि हिंदी आलोचना का आरम्भ भारतेंदु युग में हुआ | कुछ महत्वपूर्ण आलोचकों के कथन इस प्रकार हैं- आचार्य शुक्ल लिखते हैं, “कहने की आवश्यकता नहीं कि हमारे हिंदी साहित्य में समालोचना पहले केवल गुण-दोष दर्शन के रूप में प्रकट हुई | लेखों के रूप में इसका सूत्रपात बाबू हरिश्चंद्र के समय में ही हुआ | लेख के रूप में पुस्तकों की विस्तृत समालोचना उपाध्याय पं. बदरीनारायण चौधरी ने अपनी आनंद-कादम्बनी में शुरू की | लाला श्रीनिवासदास के ‘संयोगित़ा स्वयंवर’ नाटक की बड़ी विशद और कड़ी आलोचना, जिसमें दोषों का उद्घाटन बड़ी बारीकी से किया गया था, उक्त पत्रिका में निकली थी | पर किसी ग्रंथकार के गुण अथवा दोष ही दिखलाने के लिए कोई पुस्तक भारतेंदु के समय में न निकली थी | इस प्रकार की पहली पुस्तक पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी की ‘हिंदी कालिदास की आलोचना’ थी | जो इस द्वितीय उत्थान के आरम्भ में ही निकली |”10 विश्वनाथ त्रिपाठी इस प्रकार कहते हैं- “भारतेंदु युग में कई साहित्यिक विधाओं का नवीनीकरण हुआ | इनमें से एक आलोचना भी थी |”11 “आलोचना उन विधाओं में से है जो पश्चिमी साहित्य की नक़ल पर नहीं, बल्कि अपने साहित्य को समझने-बुझने और उसकी उपादेयता पर विचार करने की आवश्यकता के कारण जन्मी और विकसित हुई है | ‘वहां होता है इसलिए यहाँ भी होना चाहिए’ इस विचार की भावना के वशीभूत होकर भारतेंदु ने ‘नाटक’ पर अपने विचार नहीं प्रकट किये हैं | ‘हिंदी के नाटकों का स्वरुप कैसा होना चाहिए’ इसका ध्यान रखकर उन्होंने अपने विचार प्रकट किये हैं | विचारों के इस प्रकटीकरण को ही हम हिंदी आलोचना मान सकते हैं |”12 आलोचना के अंतर्गत किसी सम्पूर्ण कृति के गुण-दोषों की समीक्षा का कार्य हिंदी में चौधरी बदरीनारायण ‘प्रेमघन’ और बालकृष्ण भट्ट के द्वारा प्रारम्भ हुआ | आनन्द कादम्बनी के एक अंक में प्रेमघन जी ने बालकृष्ण की कादम्बरी की प्रशंसात्मक आलोचना एक लेख में की थी |”13 “प्रेमघन और भट्ट जी ने वस्तुतः भारतेंदु के कार्य को आगे बढ़ाया | भारतेंदु ने यद्यपि ‘नाटक’ पर एक लेख लिखकर हिंदी में आलोचना का सूत्रपात किया | किन्तु उन्हें इस दिशा में अधिक कार्य करने का अवसर नहीं मिला |”14 मधुरेश इस प्रकार कहते हैं- “हिंदी आलोचना के क्षेत्र में पहला व्यवस्थित प्रयास होने पर भी इसमें भारतेंदु की सुगम्भीर तैयारी बहुत स्पष्ट है |”15 रामचंद्र तिवारी इस प्रकार लिखते हैं “ आधुनिक काल से हिंदी आलोचना का आरम्भ मानने का अर्थ यह है कि हिंदी के साहित्य मनीषियों में कवि-विशेष या कृति-विशेष का अध्ययन करने के बाद उसके महत्त्व और मूल्य का प्रतिपादन करते हुए स्वतंत्र रूप से प्रबंध या निबंध लिखने की शुरुआत आधुनिक काल में की है | हिंदी साहित्य के आधुनिक काल का आरम्भ भारतेंदु-युग से माना जाता है | अतः हिंदी आलोचना के स्वरुप को निर्दिष्ट करने के लिए हमें इसी युग से अपनी विचार-यात्रा आरम्भ करनी होगी | भारतेंदु युग में हिंदी आलोचना का आरम्भ पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से हुआ, किन्तु आधुनिक आलोचना का उत्कृष्ट उदाहरण इस काल में नहीं मिलता |”16

“आधुनिक युग के प्रथम चरण अर्थात भारतेंदु-युग में साहित्य के सभी रूपों को विकसित करने का एक सर्वथा नवीन माध्यम पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के रूप में सुलभ हुआ | इन्ही पात्रों के माध्यम से हिंदी-आलोचना का एक नया रुप भी भारतेंदु युग में ढलने लगा |”17 नन्दकिशोर नवल इस प्रकार लिखते हैं “भारतेंदु युग में जैसे उपन्यास, निबंध और पद्यात्मक निबंध की रचना का आरम्भ हुआ, वैसे ही आलोचना का भी |”18 “भारतेंदु युग में आलोचना का आरम्भ पुस्तक समीक्षा के रूप में हुआ |”19 डा.अमरनाथ इस प्रकार लिखते हैं | “हिंदी में शुद्ध व्यावहारिक आलोचना का सूत्रपात भारतेंदु युग में गद्य विकास के साथ-साथ प्राप्त होता है | इसके पूर्व हिंदी आलोचना के जो रूप प्रचलित थे उसका श्रेय संस्कृत साहित्य को है |”20 इसी क्रम में डा.नगेन्द्र इस प्रकार लिखते हैं “भारतेंदु युग में हिंदी आलोचना का आरम्भ पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से हुआ | किन्तु आधुनिक आलोचना का उत्कृष्ट उदाहरण इस काल में नहीं मिलता |”21

एक निष्कर्ष रूप में उपर्युक्त आलोचकों के कथन देखने के पश्चात् सामान्य राय बनाई जा सकती है कि हिंदी आलोचना की शुरुआत भारतेंदु युग में हुआ | कुछ आलोचक हिंदी में आलोचना की शुरुआत भारतेंदु युग से पहले भी मानते हैं तो कुछ आलोचक नाभादास ‘भक्तमाल’ से हिंदी आलोचना की शुरुआत मानते हैं, लेकिन ऐसा निर्णयपरक होकर स्वीकार नहीं किया जा सकता कि भारतेंदु युग से पहले हिंदी आलोचना का स्वरुप ही नहीं था, बल्कि इसे हिंदी आलोचना का पूर्वपीठिका रूप कहा जा सकता है | लेकिन एक विधा के रूप में हिंदी आलोचना भारतेंदु युग से आरम्भ होती है | उपर्युक्त सभी आलोचकों आचार्य रामचंद्र शुक्ल, विश्वनाथ त्रिपाठी, मधुरेश, रामचंद्र तिवारी, नन्द किशोर नवल, डा.अमरनाथ, डा.नगेन्द्र ने अपनी अन्वेषणपरक दृष्टि और गहन अध्ययनशीलता के परिणामस्वरुप इस विचार पर लगभग एक मुकम्मल राय बनाई कि हिंदी आलोचना का आरम्भ भारतेंदु युग में ही हुआ |

एक समग्र दृष्टि से भारतेंदु युगीनदौर को देखें तो मुख्यत: चार रूपों में हिंदी आलोचना एक विधा के तौर पर अपना स्वरुप और विकास निर्धारित करती हुई जान पड़ती है |
  1. पत्र-पत्रिकाओं में पुस्तक समीक्षा रूप में आलोचना का रूप दिखता है |
  2. सैद्धान्तिक आलोचना के रूप में जो रीतिकालीन लक्षण-ग्रंथों की परम्परा के रूप में सामने आती है |
  3. टीकाओं के रूप में प्रचलित आलोचना, ब्रजभाषा एवं खड़ी बोली गद्य में लिखी गई आलोचना |
  4. साहित्य इतिहास ग्रंथों में लिखी गई आलोचना जो मुख्यत: संक्षिप्त कवि परिचय के रूप में दिखती है |
मोटा-मोटी इन्हीं चार रूपों में हम हिंदी आलोचना के विकसित स्वरुप को भारतेन्दु युग में पाते हैं | इन चारों रूपों में कोई एक समानाता की बात यदि खोजा जाय तो, वह है ‘तार्किकता’ | क्योंकि ऐसा नहीं है कि इस युग से पहले रचना से तर्क नहीं किया जाता था या उस समय रचना में तर्क नहीं खोजा जाता था | लेकिन यह बात वास्तविक है कि जितना तार्किक समाज आधुनिक युग का हुआ, उतना तार्किक क्षमता वाला मध्ययुगीन समाज न था | आधुनिक युग में अति तार्किक वैचारिकता बनने के पीछे मुख्यतः वैज्ञानिकता कार्य कर रही थी | हम देखते हैं कि यूरोपीय समाज में जिस कदर तेजी से यथार्थवाद और वैज्ञानिकता पसर रही होती थी, उससे सम्पूर्ण मानव समाज में एक नई वैचारिक दृष्टि का निर्माण हुआ | हर कार्य, हर स्थिति को तर्क की कसौटी पर कसा जाने लगा, और जो चीज अपनी उपयोगिता जितने बड़े रूपों में प्रमाणित करती रही, वो उतना ही जगह पाती रही | इस यथार्थवाद और वैज्ञानिकता के बढ़ते स्वरुप के साथ-साथ हम देखते हैं कि यूरोप में एक अत्यंत महत्वपूर्ण क्रांति भी घटित होती है | जो पूरे यूरोपीय समाज के साथ-साथ एशियाई देशों एवं अफ्रीकी देशों को भी बहुत बड़े पैमाने पर प्रभावित करती है | जिसका नारा रहता है, एकता, समानता और बंधुत्व | इसे समानता की क्रांति भी कहते हैं | इस क्रांति का मुख्य उद्देश्य है मनुष्यों को समानता का अधिकार देना | अब राजतंत्रात्मक व्यवस्था कार्य नहीं करेगी; अब प्रजातंत्रतात्मक व्यवस्था कार्य करेगी | ये जो एक खास तरीके की चेतना कार्य कर रही होती है, इसने समूचे यूरोपीय समाज में स्थापित राजतंत्रात्मक व्यवस्था को परिवर्तित कर दिया | चूँकि यह क्रांति एक ही समय में पूरे विश्व में घटित नहीं होती है | कारण संभवतः यह रहा हो कि उन दिनों आज के समय जैसा संपर्क स्थापित करने की तकनीक इजाद नहीं हो पाई थी | इसलिए यह परिवर्तन थोड़े-थोड़े समय पर सम्पूर्ण देशों में हुआ | इस प्रकार हम देखते हैं कि एक समय में तीन स्वरुप( वैज्ञानिकता, यथार्थवादिता और प्रजातंत्रात्मक राज्य ) पश्चिम देशों में दिख रहे हैं, इनसे समूचा समाज प्रभावित ही केवल नहीं हो रहा, बल्कि एक खास तरीके की सोच एवं जीवन दृष्टि और वैचारिकता प्रदान कर रहा है | इस दौर में विश्व के सम्पूर्ण साहित्य में रचना को तार्किकता की कसौटी पर कसा जाने लगा | जबकि अठ्ठारह्वीं, उन्नीसवीं सदी से पहले के दौर में विश्व के किसी भी साहित्य में इतनी अति तार्किकता नहीं देखने को मिलेगी | कारण साफ है कि विज्ञान के आ जाने पर दृष्टि विस्तार हुआ | इसी स्थिति के विस्तार के क्रम में हम पूरे भारतीय साहित्य को और खासकर हिंदी साहित्य को उस दौर में देखें तो एक नई तार्किक दृष्टि कार्य कर रही थी | इस प्रकार हम भारतीय समाज में वह भी खासकर हिंदी भाषी समाज में जो साहित्य का जनतांत्रिकरण की प्रक्रिया देखते हैं, वह पत्र-पत्रिकाओं के छपने से होता है, साथ ही प्रेस के आविष्कार के कारण भी | यह पहले के युग जो रीतिकाल में संभव नहीं था | चूँकि रीतिकालीन साहित्य ज्यादातर दरबारी साहित्य ही था, इसके साथ-साथ यह सर्वविविद है कि कभी भी राजतन्त्र ने जनतंत्र को अपने बराबर नहीं समझा था | इस प्रकार जो जीवन में राजतन्त्र से जनतंत्र की प्रक्रिया रही है, वह साहित्य में भी दिखती है | वैज्ञानिक एवं तार्किक दृष्टि के समावेश के कारण हिंदी साहित्य भी प्रभावित होने से अछूता नहीं रहा, बल्कि अब का पाठक तुलसी के रामचरितमानस को केवल मर्यादापुरुषोत्तम की लीला रूप में रचना को ही नहीं पढ़ रहा होता है, बल्कि वह अपने वैज्ञानिक सोच एवं तार्किक वैचारिकी के आधार पर उसे पढ़ रहा होता है |

इस प्रकार आलोचना विधा के आने से पहले या हिंदी में आलोचना विधा के आने से पहले इस प्रकार की परिस्थितियाँ कार्य कर रही होती है |

भारतेंदु युग(1850-1900 ई.) में लाला श्रीनिवास दास का नाटक ‘संयोगिता स्वयंवर’ प्रकाशित हुआ | इस नाटक की समीक्षा बालकृष्ण भट्ट और बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन ने लिखी | लाला श्री निवासदास ने ‘संयोगिता स्वयंवर’ को ऐतिहासिक नाटक कहा था | हिंदी प्रदीप में (अप्रैल 1886 ई.) ‘संयोगिता स्वयंवर’ की समीक्षा ‘सच्ची समालोचना’ शीर्षक से की गयी है | इसमें भट्ट जी ने इस नाटक को ऐतिहासिक कहे जाने पर आपत्ति व्यक्त की | अपने निबंध के आरम्भ में ही वे कहते हैं- “लालाजी यदि बुरा न मानिये तो एक बात आप से धीरे से पूछूँ वह यह कि आप ऐतिहासिक नाटक किसको कहेंगे क्या केवल किसी पुराने समय के ऐतिहासिक पुनरावृत्त की छाया लेकर नाटक लिख डालने से ही वह ऐतिहासिक हो गया | क्या किसी विख्यात राजा या रानी के आने से ही वह लेख ऐतिहासिक हो जायेगा | यदि ऐसा है तो गप्प हाँकने वाले दस्तानगों और नाटक के ढंग में कुछ भी भेद न रहा- किसी समय के लोगों के ह्रदय की क्या दशा थी उनके आभ्यंतरिक भाव किस पहलू पर ढुलके हुए थे अर्थात उस समय मात्र के भाव spirit of the times क्या थे- इन सब बातों को ऐतिहासिक रीति पर पहले समझ लीजिये तब उसके दरसाने का भी यत्न नाटकों द्वारा कीजिये | केवल क्लिष्ट श्लेष बोलने ही से तो ऐतिहासिक नाम के पात्र क्या वरन एक प्राकृतिक मनुष्य की पदवी हम आपके पात्रों को नहीं दे सकते |”

उपर्युक्त टिप्पणी को देखें तो भट्ट की आलोचकीय दृष्टि साफ समझ में आती है, किस प्रकार की गहरी और दूरदर्शी दृष्टि बालकृष्ण भट्ट की है | इनकी दृष्टि एकांगी नहीं अपितु ये सम्पूर्णता में रचना को देखते हैं |

‘संयोगिता स्वयंवर’ नाटक पर ही चौधरी प्रेमघन ने अपनी पत्रिका ‘आनन्द कादम्बनी’ में ‘संयोगिता स्वयंवर और उसकी आलोचना’ शीर्षक से समीक्षा लिखी | संयोगिता स्वयंवर की कथावस्तु की समीक्षा ‘प्रेमघन’ ने इन शब्दों में की है, “यदि यह संयोगिता स्वयंवर पर नाटक लिखा गया तो इसमें कोई दृश्य स्वयंवर का न रखना मानों इस कविता का नाश कर डालना है क्योंकि यही इसमें वर्णनीय विषय है, और अभिनय में मुख्य आनन्ददायी एवं कवि ने कविता दिखाने का मौका है, न एतबार हो तो रघुवंश, अनेक रामायण, सीता स्वयंवर आदि में देख लीजिये | फिर इसमें कथा की दो प्रणाली थी अर्थात मुख्य द्वेष दूसरी प्रीती सो प्रथम तो कवि ने निःशेष होकर डाला और दूसरी का उचित रीति से निर्वाह न कर सका, पूर्वानुराग का तो नाम ही नहीं लिया, नायिका की प्रीती की कहीं झलक ही नहीं दिखाई, दिखाई भी तो बहुत बेहुदे तरह कर नाटकी का प्रवेश किया | परन्तु आशय और उद्योग ऐसा गुप्त रहा कि कोई रस कहीं पर उत्तमता से उदय नहीं हुआ |

प्रेमघन की टिपण्णी को हम देखें तो उनका स्पष्ट मानना है कि यदि रचना में आप केंद्रीय पक्ष की अनदेखी करेंगे तो रचना ज्यादा सार्थक एवं विशिष्ट नहीं हो पायेगी | इसलिए रचनाकार को अवश्य ही केन्द्रीय कथावस्तु पर ध्यान देनी चाहिए | ऐसा नहीं है कि प्रेमघन केवल केन्द्रीय कथावस्तु को ही ध्यान में रखकर अपनी टिपण्णी की है | बल्कि उस पूरे समीक्षा में अनेक पक्ष को उद्घाटित भी किया है | जो अत्यंत महत्वपूर्ण और आवश्यक प्रसंग है | इस प्रकार बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन की आलोचकीय दृष्टि रचना को लेकर सम्पूर्णता में दिखती है | वो अपनी बातों के पीछे एक स्पष्ट और मजबूत पक्ष को दिखलाते हैं |

भारतेंदु युग में हिंदी आलोचना पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही थी और उस युग की अत्यंत चर्चित समीक्षा ‘सच्ची समालोचना’ में बेबाकीपन से भट्ट और प्रेमघन अपनी बात रख रहे थे | इसके साथ-साथ गदाधर सिंह कृत ‘बंग विजेता’ नामक बंगला रचना के अनुवाद की समीक्षा आनन्द कादम्बिनी में प्रेमघन ने प्रस्तुत की | हिंदी प्रदीप ‘संयोगिता स्वयंवर’ के अतिरिक्त रणधीर प्रेममोहिनी, नीलदेवी, भारत दुर्दशा आदि नाटकों पर भी भट्ट जी ने समीक्षात्मक टिपण्णीयां लिखी थीं | इन सभी नाटकों में नीलदेवी नाटक की समीक्षा कुछ विस्तृत थी | ‘रणधीर प्रेममोहिनी’ नाटक श्रीनिवास दास के ‘संयोगिता स्वयंवर’ से पहले का नाटक था | यह नाटक भट्ट जी को पसंद भी आया था | बालकृष्ण भट्ट इस प्रकार ‘हिंदी प्रदीप’ में लिखते हैं –“ट्रेजेडी के किस्म का यह पहला नाटक है जो हिंदी भाषा में रचा गया है |” (हिंदी प्रदीप, मार्च,1878)

नीलदेवी भारतेंदु का नाटक है इसके सन्दर्भ में भट्ट जी लिखते हैं- “अलबत्ता नाटक वा उपन्यास इस ढंग के लिए लिखे जाएँ तो रसिकों के लिए भरपूर विनोद तथा हिंदी भाषी देश को बड़ा लाभ पहुंचा सकते हैं, जो बात केवल हरिश्चंद्र ही की विचित्र लेखशक्ति में है | (हिंदी प्रदीप, फरवरी,1882) |

हम देखते हैं कि बालकृष्ण भट्ट उन दिनों ज्यादातर रचनाकारों को सुझाव देते नज़र आते हैं कि रचना में केवल मनोरंजन जैसे विषय न हो, उसमें कलात्मकता कुछ इस तरह संगुम्फित हो जिससे देशवासियों के मानसिक विस्तार के लिए जगह मिलें | हम आगे चलकर देखते हैं कि कुछ इसी तरह के विचार मैथिलीशरण गुप्त के भी मिलते हैं-

“केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए / उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए |” हम ध्यानपूर्वक बालकृष्ण भट्ट की टिपण्णी और मैथिलीशरण गुप्त की रचना को देखें तो जैसे लगता है मैथलीशरण गुप्त भट्ट साहब के पद्य रूप को ही आगे बढ़ाया है | ‘नीलदेवी’ नाटक के सन्दर्भ में ‘हिंदी प्रदीप’ के इसी अंक में भट्ट साहब को नाटक में दो दोष भी दिखलाई पड़ता है | पहला तो यह कि इस नाटक में दृश्य बहुत छोटे-छोटे हैं | दूसरा यह कि इसमें नीलदेवी के पतिव्रत का विस्तार और अधिक न कर बहुत थोड़े में समाप्त कर दिया |

वहीँ आनन्द कादम्बिनी पत्रिका में बाबू गदाधर सिंह कृत अनुवाद ‘बंग विजेता’ के सन्दर्भ में प्रेमघन कहते हैं, “यह हिंदी में मनोहर और अनूठा उपन्यास बना, और इसमें कोई संदेह नहीं कि यह ग्रन्थ उपन्यास के समस्त गुणों से युक्त है विशेषता यह कि आर्य भाषा में भी होकर अंग्रेजी प्रबंध और प्रणाली से युक्त है |”(माला-3, मेघ1-2,1886) आनन्द कादम्बिनी इसमें प्रेमघन ‘बंग विजेता’ की समीक्षा करते हुये लगभग स्वीकार करते हैं कि गदाधर सिंह के उपन्यासों पर अंग्रेजी प्रभाव है |

इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंदी आलोचना के भारतेंदुयुगीन दौर में चार रूपों में जो स्वरुप निर्धारित है | उसमें पहले स्वरुप की चर्चा, जो पत्र-पत्रिकाओं में पुस्तक समीक्षा के रूप में मौजूद है, वहीँ द्वितीय स्वरुप के अंतर्गत जिसमें मुख्यत: सैद्धान्तिक आलोचना के रूप में जो रीतिकालीन लक्षण ग्रंथों की परम्परा है; वह इस प्रकार है | इस स्वरुप के अंतर्गत अलंकार, पिंगल, रस, नाटक त्तथा सम्पूर्ण काव्यशास्त्रीय विषयों पर लक्षण ग्रंथों की रचना की गयी | समझने की दृष्टि के लिए कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण रचनाओं को देख सकते हैं जो इस प्रकार हैं, लछिराम कृत ‘रावणेश्वर कल्पतरु’ (1892), मुरारिदान कविराज कृत ‘जसवंत-जसो-भूषण’ (1897), ये आलोच्य के महत्वपूर्ण अलंकार ग्रन्थ हैं | ज्वालास्वरुप कृत ‘रूद्र पिंगल’(1869), उमराव सिंह कृत ‘छंद महोदधि’ (1878), जगन्नाथ प्रसाद ‘भानु’ कृत ‘छंद प्रभाकर’ (1897), जगन्नाथ दास रत्नाकर कृत ‘घनाक्षरी-नियम रत्नाकर’(1897), इस युग में रचित उल्लेखनीय पिंगल ग्रन्थ है | रस ग्रंथों में कृष्ण लाल कृत ‘रस सिन्धुविलास’ (1883), साहब प्रसाद सिंह कृत ‘रस रहस्य’ (1887), और प्रताप नारायण सिंह कृत रसकुसुमाकर’(1894), उल्लेखनीय है |

लगभग पूरे काव्यशास्त्र को ध्यान में रखकर लिखे गए लक्षण ग्रंथो में जानकी प्रसाद का ‘काव्य सुधाकर’(1886) उल्लेखनीय है |

भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपनी कृति ‘नाटक’ (1883), की रचना संम्भवतः यह सोचकर किया कि हिंदी में नाटकों का स्वरुप कैसा होना चाहिए | यह नाट्य शास्त्र की सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचना है | इस रचना की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता है कि प्राचीन नाट्य शास्त्र की जानकारी कराने के साथ-साथ बदलते समय के स्वरुप को ध्यान में रखकर पुराने जटिल शास्त्रीय नियमों में छुट भी दी गयी है |

क्योंकि मूलतः भारतेंदु एक हिमालयी प्रकृति रूप के नाटककार हैं, जो अपने विषय में अत्यंत विशालता और गम्भीरता धारण करते हैं | इसलिए वो नाटक के छोटे-छोटे बिन्दुओं पर भी गहन समझ रखने वाले व्यक्ति हैं | इस कारण एक मुकम्मल नाटक की स्थिति कैसी हो? इस स्वरूप को ध्यान में रखकर भारतेंदु ने अपना ‘नाटक’(1883) रचना रची | इस बात को लेकर बिल्कुल संशय नहीं रखा जाना चाहिए कि भारतेंदु ‘नाटक’ की रचना आलोचक की हैसियत से नहीं करी है | बल्कि वो एक नाटककार की हैसियत से ‘नाटक’ कृति की रचना की है |

भारतेंदु युगीनदौर में आलोचना के द्वितीय स्वरुप के अंतर्गत सैद्धान्तिक आलोचना के रूप में जो रीतिकालीन लक्षण ग्रन्थ के रूप में विद्यमान है |

भारतेंदु युगीन दौर में हिंदी आलोचना के तीसरे स्वरुप के अंतर्गत टीकाओं के रूप में जो आलोचकीय पद्धति कार्य कर रही है वह इस प्रकार है- आलोचना की जो पद्धति हमें टीका रूप में दिखती है, वह संस्कृत साहित्य से चली आ रही थी | टीकाकार रचना की टीका करते-करते रचनाकार के बारे में भी बहुत कुछ आलोचनात्मक रूप में कह जाते हैं | ब्रजभाषा गद्य में सम्भवत: रीतिकालीन अंतिम चरणों में जो टीका का स्वरुप मिलता है उसमें सरदार कवि महत्वपूर्ण रूप से दिखते हैं जिनके द्वारा रची गई टीका ‘कविप्रिया’ और ‘रसिकप्रिया’ है | इनके साथ ही लल्लू लाल द्वारा बिहारी सतसई पर लिखी टीका ‘लाल चंद्रिका’ अत्यंत प्रसिद्ध है |

इन टीकाओं को ध्यान से देखा जाय तो इनमें भी आलोचना के तत्व मौजूद हैं | इस प्रकार टीकाएं भी आलोचना विधा के विकसित स्वरुप में योगदान करती हैं | उपर्युक्त तीन विकसित आलोचनात्मक स्वरुप के साथ-साथ एक और स्वरुप उसी दौर में मौजूद था | जिन्हें हम साहित्येतिहास के रूप में देखते हैं | उस विकासशील हिंदी आलोचना के दौर में दो इतिहास ग्रन्थ भी लिखे गए जो इस प्रकार हैं, “शिवसिंह सेंगर कृत ‘शिवसिंह सरोज’(1878 ई.) और जार्ज ग्रियर्सन कृत ‘द माडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर आफ नार्दर्न हिंदुस्तान’(1889ई.) | इन साहित्य के इतिहास ग्रंथों को देखें तो इनमें आलोचकीय तत्व मौजूद है | ज्यादातर रचनाकारों के बारे में रचना के आधार पर उनका समीक्षात्मक स्वरुप दिखलाने का प्रयास किया गया है | उदाहरण स्वरुप देखें तो ‘शिवसिंह सरोज’ में शिवसिंह सेंगर के द्वारा देव के सम्बन्ध में समीक्षा देखने योग्य है जो इस प्रकार है, “शब्दों मैं ऐसी समायी कहाँ कि उनमें प्रशंसा की जाय |”

यह सच है कि ज्यादातर इतिहासकारों का कार्य केवल कवि परिचय उपलब्ध कराना ही रहा लेकिन कवि परिचय कराने के क्रम में ही बहुत कुछ स्वरुप आलोचकीय दृष्टि भी रही | इस प्रकार भारतेंदु युगीन दौर में जो साहित्येतिहास दिखते हैं | वह भी परोक्ष या अपरोक्ष रूप से आलोचना विधा का विकास करते नज़र आते हैं |

निश्चित तौर पर हिंदी आलोचना भारतेंदु युगीन दौर में अलग-अलग स्वरुप के माध्यम से विकसित हो रही थी | बल्कि पूरा का पूरा भारतेंदु युग एक खास तरीके की उपजाऊ भूमि के रूप में तैयार हो रहा था | जिसके कारण आगे के युग में आलोचना की फसल तैयार हो सके | भारतेंदु युग के जितने भी महत्वपूर्ण हस्ताक्षर रहें, वो अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ हिंदी आलोचना के विकसित स्वरुप को गति प्रदान किये | उन सभी के विशिष्ट योगदान के फलस्वरूप आज हिंदी आलोचना अपने विस्तारवादी और सुसंगठित स्वरुप में विकसित होती दिख रही है |

सन्दर्भ सूची-
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  3. वहीं, पृष्ठ- 67 |
  4. मधुरेश, हिंदी आलोचना का विकास, लोकभारतीय प्रकाशन, संस्करण- 2017, भूमिका (पृष्ठ-09) |
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  10. वहीँ, पृष्ठ-361 |
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  19. नवल, नन्द किशोर, हिंदी आलोचना का विकास, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-2017, पृष्ठ-15 |
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  21. डा. अमरनाथ, हिंदी आलोचन की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन, संस्करण-2016, पृष्ठ 67 |
  22. डा. नगेन्द्र, डा. हरदयाल, हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर पेपरबैक्स, संपादन, संस्करण 2014, पृष्ठ-465 |
राघवेन्द्र कुमार पाण्डेय, शोध छात्र, हिंदी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय | ईमेल- raghvendrap300@gmail.com