Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
तेजेंद्र शर्मा की कहानियों में प्रवासी जीवन का चित्रण
तेजेंद्र शर्मा हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार है। इनका जन्म 21 अक्टूबर 1952 में पंजाब में हुआ था। दिल्ली विश्वविद्यालय से इन्होनें एम.ए. अंग्रेज़ी की उपाधि हासिल की । वे ब्रिटिश रेल्वे में कार्यरत हैं । इनकी कहानियां कई संग्रहों में प्रकाशित हुई हैं । इनकी कई कहानियां भारत के कई विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल भी हैं। वे लंदन में रहते हुए निरंतर हिंदी साहित्य की सेवा में लगे रहते हैं । वे कई प्रकार के सम्मानों से सम्मानित हुए हैं । ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय द्वारा मेम्बर आफ़ ब्रिटिश एम्पायर की उपाधि, केंद्रीय हिंदी संस्थान के मोटुरी सत्यनारायण सम्मान, यू. पी. हिंदी संस्थान के प्रवासी साहित्य भारत भूषण सम्मान, हरियाणा और महाराष्ट्र राज्यों के साहित्य अकादमी पुरस्कार और भी कई सम्मानों से अलंकृत हुए । इनकी कहानियों में प्रवासी समाज का रूप सर्वत्र परिलक्षित है।

भारत में अगर किसी साधारण व्यक्ति एक बार भी जेल से आवा-गमन हो जाता है तो फिर उसका लगभग सम्पूर्ण जीवन नारकीय हो जाता है। परिवार और समाज में उसके आगे का जीवन नरकतुल्य होने के कारण भविष्य में उन्हें स्वयं के जीवन संवारने में बहुत समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पर इसके विपरीत लंदन में जेल, सज़ा का केंद्र न होकर कैदियों केलिये नया जीवन शुरुवात करने का प्रेरकतत्व के रूप में दिखायी देता है। घर जैसे वातावरण में कैदियां मन पसंद धन्धा सीखते हैं । तेजेंद्र शर्मा ने अपनी कहानी ‘जमीन भुरभुरी क्यों है...?’ में वहाँ की जेल तथा उसके कैदियों के जीवन के बारे में विस्तृत उल्लेख किया है । कहानी के राजन देसाई को लंदन में सात हज़ार पाउंड के गबन के दोष में अपराधी घोषित कर तीन साल की कैद की सज़ा सुनायी जाती है । राजन को ब्रिक्स्टन जेल भेजा जाता है। जेल से राजन अपनी पत्नी कोकिला को फोन करके तसल्ली देता है कि“ कोकिला घबराने की जरूरत नहीं है । बस चार-पांच दिन की बात है। उसके बाद मुझे स्टैण्डफ़र्ड जेल में ट्रांसफर करने वाले हैं।वह डी क्लास की ओपन जेल है। वहां बिल्कुल मुश्किल नहीं होगी। यहां ब्रिक्स्टन में तो जेल के कपड़े पहनने पड़ते हैं मगर ओपन जेल में घर के कपड़े ही चलते हैं। वहां तो सुना है कि काम भी करने को मिलता है।” जब पत्नी और बेटे राजन से मिलने केलिए जेल जाते हैं तो राजन उनसे कहता है कि “बेटा यहाँ कोई दिक्कत नहीं है।सुबह उठकर एक्सरसाइज करवाते हैं। फिर नाश्ता; उसके बाद मेरी कंप्यूटर क्लास होती है। आजकल माइक्रोसॉफ्ट वर्ड और एक्सेल शुरू करवा दिया है । एकसाल में पूरा ऑफिस करवा देंगे। पावर पाइण्ट और एक्सेस भी। मुझसे पूछ रहे हैं कि मैं कौन सा काम सीखना चाहूंगा। मैंने टोकरी बनाने के लिए हामी भर दी है ।” इसी कहानी में राजन से मिलने के बाद उसका बेटा कर्ण अपनी मां से कहता है “मॉम जेल कोई खराब जगह नहीं लगी। बस एक ही बात है कि पापा हम से नहीं मिल सकते। वह तो देखने में खासे ठीक-ठाक लग रहे थे ।’’

तेजेंद्र शर्मा ने ‘हाथ से फिसलती जमीन’ नामक कहानी में रंगभेद के कारण अपने परिवार से उपेक्षित जिंदगी भर अपमान से संघर्षरत एक प्रवासी भारतीय चरित्र को उजागर किया है। प्रेम में असफलता और बेकारी समस्या के कारण भारत छोडकर लंदन में बसे नरेन अपने कठोर परिश्रम के कारण रेलवे में नौकरी पाता है। उसके काले रंग से आकर्षित गोरी जैकी उससे प्यार करने लगती है। हीनता ग्रंथी से ग्रस्त नरेन जैकी के प्यार को स्वीकार कर उससे विवाह करता है ।नरेन का परिवार भारत में रहने के कारण वे उसके किसी भी खुशी में वे शामिल नहीं हो पाये । जिसका फायदा जैकी के परिवार वालों ने उठाया । बच्चों के जन्म के बाद जैकी धीरे-धीरे अपने मायके में ही रहने लगी।नरेन अकेले रहता था। पति पत्नी के बीच दूरियां बढ़ गई। अपने परिवार में अजनबी जैसा हो गया। इसका उल्लेख कहानीकार ने इस प्रकार किया है -‘कठिनाइयां बढ़ रही थीं नरेन के लिए । जैकी का परिवार एक शत्रु शिविर की तरह उभर कर सामने आ रहा था। वह चाह कर भी उस शिविर के भीतर नहीं जा सकता था । उन्हें शत्रु कहना भी उचित नहीं होगा... दरअसल वह उस शिविर में अजनबी था अनजान । नरेश इसे आतंकवाद समझ बैठा । पारिवारिक आतंकवाद । अपने ही परिवार से दूरी बढ़ने लगी ।अकेलापन उसका मित्र बनता जा रहा था ।‘’ जिस रंग को देखकर जैकी ने नरेन से प्यार किया और शादी की है वही रंग बाद में दोनों के बीच में रिश्ते बिगड़ने का भी कारण बना है। विवाह के बाद नरेन का वही काला रंग उसकी जिंदगी में अभिशाप बन जाता है । जैकी किसी भी मामले में नरेन को अपना नहीं मानती। अपने बच्चों को भी उनसे दूर कर देती है। बच्चे के स्कूल में मीटिंग केलिए नरेन जाना चाहता है तो जैकी उसको रोकती है।जैकी नरेन से कहती है कि -
“प्लीज तुम खुद ही समझ जाओ न ....!”
“कमाल करती हो जैकी। कैसे समझ जाऊं। तुम मुझसे कह रही हो कि मेरे स्कूल जाने से जै को परेशानी होती है और चाहती हो कि समझ भी जाऊं ।”
“देखो मेरे कहने से रुक जाओ न ।क्यों अपना मूड खराब करते हो?”
“मुझे पता तो होना चाहिए न कि आखिर हुआ क्या है । मेरे बेटे को मेरा उसके स्कूल आना क्यों गवारा नहीं है ।”
“वो क्या है कि उसके स्कूल में अधिकतर बच्चे गोरे मूल के हैं। जब तुम स्कूल जाते हो तो बाद में बच्चे जै का मजाक उड़ाते हैं।... आई एम सॉरी, मैं कहना नहीं चाहती थी।... मगर तुम समझ ही नहीं रहे थे।”
“किस चीज का मजाक उड़ाते हैं बच्चे?...मेरे रंग का?.. नरेन के परिवार में सबके होते हुए भी अकेलेपन का महसूस करता है । वह अपने बच्चों के लिए अपने मनपसंद नाम तक नहीं रख पाता था, बच्चों को हिंदी नहीं सिखा पाता था, अपने पसंद के स्कूल में उन्हें भर्ती नहीं कर पाया, अपने माता-पिता के बारे में भी अपने बच्चों से कुछ नहीं कह पाया। जीवन भर वह उस परिवार के लिए अजनबी रहा। इसका चित्रण कहानी में इस प्रकार किया है-‘हमेशा पैसे वह स्वयं कमाता था मगर उसका हिसाब किताब जैकी ही रखती थी।बच्चे भी मां से ही पैसे मांगते थे। सच तो यह है कि उसे अपने बच्चों का उच्चारण समझ नहीं आता था।बच्चे किस स्कूल में जाएंगे, किस कालेज में पढेंगे सब मां ही तो तय करती थी।उसके हिस्से में एक बहुत अज़ीब काम आता था- कुढना। वह अकेले बैठकर कुढता रहता था।वैसे जब-जब बच्चे तरक्की करते दिखाई देते तो मन ही मन खुश भी हो लेता।मगर वह जानता था कि इन बच्चों की परवरिश में उसका अपना कोई हाथ नहीं है। बस एक बैंक है जिसमें इकतरफा कार्रवाही होती है यानि कि वहां से केवल पैसा निकाला जाता है कभी जमा नहीं करवाया जाता। ना तो धन ही जमा होता है और ना भावनाएं।’
कहानीकार तेजेंद्र शर्माने लंदन में रहने के कारण वहां के रीति-रिवाज और संस्कार को अपनी कहानियों में भरसक उतारने की कोशिश की है। जिससे कारण भारतवासियों को इन कहानियों के माध्यम से वहां के रीति-रिवाजों को भी जानने का अवसर प्राप्त हुआ है। इनकी ‘ओवरफ्लो पार्किंग’ कहानी में वहाँ के कब्रिस्तान और अंतिम संस्कार का उल्लेख है। भारत में किसी की मृत्यु होने पर उसी दिन या दूसरे दिन दफनाने या जलाने का रीति-रिवाज है।जिसके घर में मृत्यु होती है वहाँ मातम छाया हुआ होता है, रिश्तों का आना-जाना, रोने की आवाज़ पूरे माहौल को शोक ग्रस्त बना देता है।पर विदेश में खासकर लंदन में किसी की मृत्यु होने के बाद जब उनके रिश्तेदारों द्वारा सुविधानुसार उस व्यक्ति का अंतिम क्रियाकर्म करने तक शव को मुर्दाघर में रखते हैं। इसका उल्लेख कहानीकार ने इस प्रकार किया है- ‘क्रिमेटोरियम को देखते हुए उसे भारत के श्मसान घाट याद आने लगते हैं। यहां ना कोई आचार्य जी हैं, ना रोते बिलखते रिश्तेदार और नहीश्मसान घाट की रहस्यमयी चुप्पी। यहां मृत्यु के सप्ताह के बाद अंतिम संस्कार होता है। शायद इसलिए रिश्तेदार के आंसू यहां तक पहुंचते-पहुंचते सूख जाते हैं ।’

तेजेंद्र शर्मा जी ने ‘होम-लेस’ नामक कहानी में लंदन में रहने वाले बेघर लोगों का चित्रण किया है।लोगों का विचार है लंदन में रहनेवाले सब के सब धनवान हैं। वहां कोई बेघर वाले और भिखारी नहीं हैं। किंतु वहां भी जो लोग अपने परिवार में नहीं रहना चाहते हैं वे परिवार से अलग कहीं प्लेटफार्म में रहकर अपना जीवन बिताते हैं। ऐसे लोगों को होम-लेस नाम से बुलाते हैं। उनके लिए वहां सेंटर्स भी है जहां होम-लेस लोग जाकर दोपहर में खाना खा सकते हैं। चैरिटी करनेवाले भी वहाँ जाकर उनको खिलाते हैं। होम-लेस कहानी की पात्र बाजी होम-लेस लोगों को दोपहर का भोजन कराना चाहती है तो सिकंदर उससे चैरिटी कर अपने देशवासियों की मदद करने केलिये कहता है। बाजी उसको समझाती हुई कहती है कि- “सुनो सिकंदर, पहली बात तो तुम यह समझ लो कि अब हम ब्रिटेन में रहते हैं। यही हमारा मुल्क है।जिस मुल्क में रहकर हम कमा खा रहे हैं, हमें अपने आप को उस मुल्क के साथ जोड़ना होगा। गरीब यहां भी है।बेघर यहां भी हैं। बेघर को अंग्रेजी में होम-लेस कह देने से वे लोग अमीर नहीं हो जाते ।... यहां फिंचले सेंट्रल में होमलेस सेंटर में वे लोग दोपहर को आते हैं और उनको सरकार खाना मुहैया करवाती है ।... हम इन्हीं बेघर लोगों को खाना खिला कर सवाब कमा सकते हैं।” इंसान और इंसान के बीच धर्म को लेकर भेद करना हर देश में दिखायी देता है। शिक्षित और आर्थिक रूप से सुदृढ़ व्यक्ति भी धर्मांधता को छोडता नहीं है। ऐसे लोगों केलिये तेजेंद्र शर्मा जी ने होम-लेस कहानी में लंदन में भी मजहब के भ्रम में जी रहे लोगों को बाजी नामक पात्र के माध्यम से संदेश दिया है। बाजी ने सिकंदर से कहा कि “एक बात बताओ सिकंदर, क्या हिंदू, ईसाई या यहूदी किसी अलग तरीके से पैदा होते हैं? दुनिया के सभी इंसान एक ही तरह पैदा होते हैं, और ठीक उसी तरह मर भी जाते हैं।इस दुनिया में जीने के लिए इंसान ने कुछ नियम बना लिये हैं। उन नियमों को मानने वाले अपने आपको हिंदू, मुसलमान, यहूदी या क्रिश्चियन कहते हैं। क्या भारत या पाकिस्तान के किसी बाशिंदे को देखकर उसका पता कर सकते हो कि वो ईसाई है या हिंदू या फिर मुसलमान? सबके जीने के तरीके अलग हो सकते हैं मगर सभी को एक सी भूख लगती है, एक सा खाना खाते हैं और एक ही वक्त सोते भी हैं । गरीब का कोई मजहब नहीं होता- उसका मजहब उसकी गरीबी होती है। क्या मुसलमान रात में काम करके सुबह सोने जाते हैं?....नहीं सिकंदर भाई, हमें इंसान की मदद करनी है बस। हमें उसके मज़हब से कुछ लेना देना नहीं है। न तो कुदरत मज़हब देखकर सूरज की रोशनी बांटती है और न ही बारिश इस बात की परवाह करती है। फिर भला अल्लाह क्यों इंसान इंसान में फर्क करेगा?”

तेजेंद्र शर्मा जी ने ‘कल का समाचार’ नामक कहानी में यह दर्शाने की कोशिश की है कि लंदन में कोई भी काम-धंधे को छोटा बड़ा नहीं समझते हैं। वहां किसी भी काम को, उसके करनेवाले व्यक्ति के व्यक्तित्व के साथ जोडकर नहीं देखते। काम या धंधे के आधार पर वहां किसी को बडा इंसान समझकर इज्जत नहीं देते हैं। इस बात का उल्लेख तेजेंद्र शर्मा जी ने ‘कल का समाचार’ कहानी में चित्रित किया है। कहानी का शकील अनवर से बताता है कि“देखो अनवर भाई जान, यहां इस मुल्क में किसी भी काम को छोटा बड़ा नहीं समझा जाता। यह इस मुल्क की ग्रेटनेस है। यहां प्लम्बर की भी उतनी ही इज्जत है जितनी किसी बैंक मैनेजर की। बस कोई काम पकड़ लीजिए। कितनाभी छोटा काम क्यों न हो? इसकी परवाह मत करिये।”

भारत में लोग ज्यादातर अच्छाइयों के बारे में सोचते हैं शुभ-शुभ बात करते हैं। नकारात्मक और अशुभ बातों से लोग दूर रहना चाहते हैं। खासकर यहां के लोग मृत्यु के बारे में चर्चा करना या उसके बारे में सोचना भी नहीं चाहते हैं। पर इसके विरुद्ध विदेश में खासकर लंदन में लोग ऐसे बिज़नेस या व्यापार में लगे रहते हैं जो बार बार मृत्यु को याद दिलाती रहती है। वहां के लोग प्लाट बुक करने के साथ ही, जीवित रहते समय ही अपने लिए कब्रिस्तान भी बुक कर लेते हैं। सिर्फ उनके लिए नहीं, उनके परिवार वालों के लिए भी कब्रिस्तान की बुकिंग करवाते हैं। अपनी हैसियत के अनुकूल कब्रिस्तान की लोकेशन, लुक, माहौल का भी वे चयन कर लेते हैं। इसके लिए वहां स्कीम्स भी हैं। हर महीने प्रीमियम पे करके शान से दफनाने की पूरी जिम्मेदारियां वहीं लोग ले लेते हैं। इस संदर्भ का चित्रण तेजेंद्र शर्मा जी ने ‘कब्र का मुनाफा’ नामक कहानी में किया है। कहानी का खलील अपने और अपनी पत्नी के लिए अपनी हैसियत के अनुकूल कहीं दूर स्थान पर कब्रिस्तान बुक कराता है। यह विषय जानने के बाद उसकी पत्नी नादिरा उससे नाराज होती है तो खलील अपनी पत्नी से बताता है-
“तुम इसमें दखल मत दो। मैं इंतजाम कर रहा हूं कि हम दोनों के मरने के बाद हमारे बच्चों पर हमें दफनाने का कोई बोझ ना पड़े। सब काम बाहर-बाहर से ही हो जाए।”
“आप बेशक करिए इंतजाम लेकिन उसमें भी बुर्जुआ सोच क्यों? हमारे इलाके में भी तो कब्रिस्तान है, हम हो जाएंगे वहां दफन।मरने के बाद क्या फर्क पड़ता है कि हम कहां हैं?”
“देखो मैं नहीं चाहता कि मरने के बाद हम किसी खानसामा, मोची या प्लंबर के साथ पड़े रहें। नजम ने भी वही कब्रें बुक करवाई हैं। दरअसल मुझे तो बताया ही उसी ने।मैं चाहता हूं कि म्हारी जिंदगी में तो तुमको बेस्ट चीजें मुहैय्या करवाऊं ही, मरने के बाद भी बेहतरीन जिंदगी दूं। भई अपने जैसे लोगों के बीच दफन होने का सुख और ही है ।” वहाँ के लोग जीते जी हर महीने प्रिमियम अदा करके अपनी अंतिम यात्रा की तैयारी कर रहे हैं। इसे अति आधुनिकता कहें या पारिवारिक मूल्यों में आये परिवर्तन कहें? ‘कब्र का मुनाफा’ कहानी का नजम खलील से बताता है “आपने कार्पेण्टर्स पार्क वालों की नई स्कीम के बारे में सुना क्या? वो खाली दस पाउंड महीने की प्रीमियम पर आपको शान से दफनाने की पूरी जिम्मेदारी अपने पर ले रहे हैं। उनका जो नया पैम्फ़लैट निकला है उसमें पूरी डिटेल्स दे रखी है। लाश को नहलाना, नए कपड़े पहनाना, कफन का इंतजाम, रॉल्स रॉयस में लाश की सवारी और कब्र पर संगमरमर का प्लाक– ये सब इन बीमे में शामिल है।
यार ये अच्छा है, कम से कम हमारे बच्चे हमें दफ़नाते वक्त अपनी जेबों की तरफ़ नहीं देखेंगे।”
युवा पीढी कई उम्मीदों के संग विदेश में आकर बसते हैं। यहाँ बसने के बाद शैक्षिक योग्यताओं के मुताबिक नौकरी न मिलने पर जो नौकरी उन्हें मिली है अपनी आर्थिक जरुरतों के लिये उसे करने के लिये वे तैयार हो जाते हैं। धनार्जन हेतु अभिशप्त जीवन जीने हेतु विवश हैं। वे अपने दुख को बाहर न दिखाकर,सब कुछ सहते हुए जीवित रहते हैं। तेजेंद्र शर्मा जी की ‘अभिशप्त’ नामक कहानी में भारतीय प्रवासी के अभिशप्त जीवन का उल्लेख किया गया है। कहानी के पात्र रजनीकांत से महेश कहता है कि–“ यह जीवन किसी ने हम पर थोपा नहीं हैं हमने सब कुछ सोच समझकर यह जीवन चुना है।फिर शिकायत कैसी?... अपने वतन में तो ग्रेजुएट होकर भी किसी नौकरी का जुगाड़ नहीं कर पा रहे थे।यहां तो कुलीगिरी करके ही, ओवर-टाइम मिला के दो हज़ार पाउंड महीना कमा लेते हैं।...एक लाख बीस हज़ार रूपये एक महीने में।.... अपने देश में तो इतना एक साल में भी नहीं कमा सकते थे। बात जब सीधी-सीधी अर्थशास्त्र की हो तो हालात से समझौता तो करना ही पड़ेगा। घर से इतनी दूर केवल परेशान होने को तो नहीं आए हैं।”कभी-कभी यहाँ बसे लोग सब को छोडकर अपने वतन जाना चाहते हैं। ऐसी हालत में एक बार यहाँ की सुख-सुविधाओं के गुलाम बनने के बाद भी वे अपने देश वापस नहीं जा पाते। सुविधाओं और भावनाओं के बीच त्रिशंकु का जीवन बिता रहे हैं। तेजेंद्र शर्मा जी की ‘अभिशप्त’ कहानी का पात्र रजनीकांत भी ऐसा एक दुविधाग्रस्त जीवन जीनेवाला है। रजनीकांत की स्थिति का चित्रण कहानीकार ने इस प्रकार किया है कि –“रजनीकांत, तुम कुछ नहीं करोगे, न तो तुम अपनी पत्नी को छोड़ोगे और न यह देश- तुम और तुम्हारे दोस्त यह जीवन जीने के लिए अभिशप्त हो... अपनी-अपनी पत्नियों के साथ रहना तुम्हारी नियति बन गया है, तुम चाहकर भी इस जीवन की सुविधाओं को छोड़ नहीं सकते।तुम उन लोगों में से हो जो रोज़ शाम को शराब के गिलास पर सवार होकर अपने देश वापस चले जाते हैं और सुबह होते ही जब नशा उतर जाता है ठंडी रोटी खाकर वेयर-हाउस पहुंच जाते हैं। गांव और मुल्क, अब सिर्फ तुम्हारे ख्यालों में रह सकते हैं। तुम्हारी वापसी अब मुमकिन नहीं। तुम्हें यहीं जीना है और एक दिन मर भी जाना है।”

कहीं-कहीं युवा पीढी तो रोज़ी-रोटी के संघर्ष में यहाँ जीने को विवश है तो जीवन भर अपने वतन में बिताकर जीवन के अंतिम समय में अपनी संतानों के पास आकार रहनेवाले बुज़ुर्ग लोगों को राष्ट्रीयता को बदलने की चिंता सदा सताती रहती है। वे वहाँ की नागरिकता को मन से स्वीकार नहीं कर पाते। इस संदर्भ का उल्लेख तेजेंद्र शर्मा जी ने ‘पासपोर्ट का रंग’ कहानी में किया है। कहानी का गोपाल दास अपने बेटे के साथ लंदन में उनके परिवार के साथ रहते हैं। पर भारतवासी होने के अपने गर्व को नहीं भुला पाते हैं। वे बार-बार हिंदुस्तान जाना चाहते हैं। ब्रिटेन की नागरिकता लेने के बावजूद भी वे वहां नहीं रहना चाहते हैं।गोपाल दास ने अपने बेटे से कहा कि- “बेटा तू मुझे वापस भारत भेज दे। मैं किसी तरह अपनी जिंदगी बिता लूंगा वहां। तुझे कभी किसी चीज़ की शिकायत नहीं करूंगा। मुझे ऐसी मौत मत मार। मैं हिंदुस्तानी पैदा हुआ था और हिंदुस्तानी ही मरना चाहता हूं। मैं ऊपर जाकर तेरे दादाजी को तेरी मां को क्या मुंह दिखाऊंगा बेटा?”

‘दूर के ढोल सुहावने’ नामक कहावत के अनुसार भारत में रहनेवाले कुछ लोग विदेश में बसे लोगों के प्रति यह विचार रखते हैं कि विदेश में खासकर लंदन में बसे हुए लोग मौज-मस्ती से निश्चिंत जीवन बिता रहे हैं। सामान्य जीवन की किसी भी समस्या से उन्हें कोई मतलब नहीं है, पर यह नितांत गलत विचार है। तेजेंद्र शर्मा जी की कहानियों को पढ़ते वक्त प्रवासी जीवन का चित्रण हमारी आंखों के समक्ष दृष्टिगत होता है। मनुष्य चाहे दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न रहे, पर उन्हें जिंदगी भर संघर्ष करना पड़ रहा है। वह संघर्ष कहीं व्यक्तिगत भी हो सकता है, कहीं समाजगत भी है, पर संघर्ष तो जिंदगी भर हर आदमी को करना पड़ता है। तेजेंद्र शर्मा ने लंदन के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवेश के अनुकूल अपनी कहानियों में प्रवासी जीवन का चित्रण किया है ।कहानियों में उल्लेखित कई विषय भारत वासियों के लिए नितांत नये हैं। भारत में रहने वाले पाठक उन कहानियों के माध्यम से वहां के परिवेश, नियम तथा विधिविधानों की जानकारी हासिल करते हैं।

संदर्भ ग्रंथ :
  1. शर्मा, तेजेंद्र. "देह की कीमत." हिंदी समय (n.d.).
  2. —. नयी ज़मीन नया आकाश (समग्र कहानी- 2). नई दिल्ली: यश प्रकाशन, n.d.
  3. —. "पासपोर्ट का रंग." हिंदी समय (n.d.).
  4. —. "हाथसे फिसलती जमीन." हिंदी समय (n.d.).
  5. शर्मा, तेजेन्द्र. गद्य कोष. 25 January 2021.
डॉ. पी. सरस्वती, सहायक प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, मद्रास विश्वविद्यालय, चेन्नई- 600 005