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समकालीन हिन्दी कहानियों में स्त्री प्रतिरोध

स्वतंत्रता के पश्चात् हिन्दी कहानी साहित्य के अंतर्गत अनेक आन्दोलन हुए और विभिन्न दशकों को विभिन्न नामों से अभिहित किया गया, जैसे – नई कहानी, अकहानी, प्रतिबद्ध कहानी, साठोत्तरी कहानी, समकालीन कहानी आदिl सन् । 970 के आस पास लिखी गयी कहानी को समकालीन कहानी के नाम से जानी जाती है। ‘समकालीन’ शब्द अंग्रेजी के ‘कन्टेम्परेरी’ का समानार्थी है। इस शब्द को विद्वानों ने अपने-अपने तरीके से व्याख्यायित करने का प्रयास किया है ।

‘समकालीन’ का अर्थ एक ही समय में या समान समय में रहे या हुए हैं अर्थात् एक ही समय में आने वाले व्यक्तियों या रचनाकारों को ‘समकालीन’ और अपने समय की महत्वपूर्ण समस्याओं के साथ उलझना ‘समकालीनता’ है। इसमें साहित्यकार की अविरलता वर्तमान की यथार्थ पीड़ा के साथ होता है और वह उसी की अभिव्यक्ति अपनी कृतियों में करता है। डॉ अंजनी कुमार दुबे कहते हैं कि- “सुख से रहते हुए कागज़ पर निरर्थक के करते रहने से समकालीनता सिद्ध नहीं होतीl काल का बोध या समकालीन बोध उस व्यक्ति को होता है, जो उसका शिकार है, अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। ऐसे ही व्यक्ति समकालीनता को पहचान पाते हैं और महत्वपूर्ण स्वर दे पाते हैं । ”

समकालीन साहित्यकार परिवर्तन का अभिलाशी होता है। इसमें आन्दोलन की प्रवृत्ति होती है। यह स्थापित व्यवस्था का विरोधी एवं शोषकों के प्रति धावा बोलता है। अतः परिवर्तनशील सामाजिक यथार्थ को अपनी कृति के द्वारा व्यक्त करता है। कुलमिलाकर ‘समकालीन’ का अर्थ होता है- अपने समय का बोध कराने वाला, अपने समय की माँग, मानवीय दायित्व एवं परिवर्तनकारी चेतना से जन्मा साहित्य ही समकालीन साहित्य है। इस संदर्भ में डॉ. बलदेव बंशी का विचार दृष्टव्य है– “समकालीन वह चेतना है, जो सामयिक संदर्भों, दबावों और तकाजों के तहत विशिष्ट स्वरूप धारण करती है। इसमें कोई शक नहीं कि समकालीनता अपने देश काल के विशिष्ट संदर्भों से ही स्वरूप लेती है, उसके बिना उसकी स्थिति संभव नहीं।”

परिवर्तन की प्रक्रिया चलते प्रत्येक काल में संघर्ष की स्थितियाँ निर्माण होने लगती है और इन्हीं परिस्थितियों के परिणाम नई धाराएं, संवेदनाएं एवं नई दृष्टिकोण सामने आती है, जैसे- दलित संवेदना, आदिवासी संवेदना, अल्प संख्याक संवेदना, स्त्री संवेदना, आधुनिकता, उत्तर आधुनिकता, किसान विमर्श आदिl हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल में जिस तरह नई-नई विधाओं का जन्म हुआ, वैसे ही अनेक संवेदनाओं का उद्गम हुआl उन सभी संवेदनाओं का मूल स्वर है अपने शोषण के खिलाफ प्रतिरोधl इस युग में अपना प्रतिरोध व्यक्त करने का साहस सबसे पहले स्त्रियों ने कियाl अतः उनमें स्त्री संवेदना या प्रतिशोध की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

हिन्दी में कहानी का अर्थ है- कहना या सुननाl कहने और सुनने की प्रथा यहाँ बहुत ही प्राचीन है। अपने विचारों को कहना या सुनना मानव का सहज गुणधर्म है। इससे मानव जीवन की झलक एवं संस्कृति का दर्शन होता है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर का कहना है कि – “मनुष्य जीवन और जगत स्वयं ही एक कहानी हैl” अतः इस संसार में ऐसा कौन अभागा होगा जो कहानी सुनना या पढना पसंद न करता होl मनोरंजन एवं आनंद प्राप्ति हेतु हुआ करने वाली यह विधा अन्य विधाओं में प्रसिद्ध है। आधुनिक कहानी कथा, छोटी कहानी, लम्बी कहानी, साठोत्तरी कहानी, नई कहानी, अकहानी, राजनीति की कहानी, समकालीन कहानी आदि अनेक रूप धारण कर चुकी है। समकालीन हिन्दी कहानियों में स्त्री प्रतिरोध देखने से पहले यहाँ स्त्री शोषण की परंपरा पर थोडा सा नज़र डाल सकते हैंl

भारत भूमि पर प्रारंभ से लेकर आज तक स्त्री के अनेक उतार-चढ़ाव को देखा जा सकता है। वेद काल में माना जाता था कि –“यत्र नर्यान्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता” अर्थात् जहाँ स्त्रियों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है, वहाँ देवता निवास करते हैंl उस समय आध्यात्मिक ज्ञान हो या धार्मिक क्षेत्र आदि प्रत्येक क्षेत्र तथा हर रूप में नारी का सम्मान हुआ करता थाl वह पुरुषों के साथ काम करती थी और उसे बराबर का अधिकार प्राप्त थाl इतना ही नहीं स्त्री के अगाध प्रकांड पांडित्यपूर्ण होने का दृष्टांत भी पाए जाते हैंl कुल-मिलाकर उस समय स्त्री एक संजीवनी शक्ति थीl

भारतीय इतिहास के पन्ने जैसे-जैसे पलटते गए वैसे-वैसे सब कुछ बदलता चला गयाl स्त्री के दिव्यगुण धीरे-धीरे अवगुण बनने लगे और वह सम्राज्ञी से आश्रिता बन गयीl एक समय जिन्हें धर्म और समाज का प्राण माने जाते थे, उन्हें श्रुति का पाठ करने अयोग्य घोषित कर दिया गयाl इससे स्त्री की मानसिकता और आंतरिक विकास कुंठित हो गयाl उसकी स्थिति शूद्र जैसे बदतर बनती चली गयीl अन्तमें – “स्त्री शूद्रोनाधी यतामः” मानकर स्त्री को विवाह के अलावा सभी धार्मिक संस्कारों से वंचित कर दिया गयाl अट्ठारहवीं शताब्दी तक आते-आते यह शोषण की परंम्परा चरम सीमा पर पहुँच गयी और स्त्रियों की हालत और बदतर हो गयीl

उन्नीसवीं शताब्दी में फिर एक बार सुधार की कुछ झलक दिखाई दी, परन्तु रूढिग्रस्त विचार तथा परंपरागत सामाजिक संस्कार को तोडना आसान काम नहीं थाl उस समय राजा राममोहन राय का आगमन कोई वरदान से कम नहीं थाl इन्होंने ‘आर्य समाज’ की स्थापना कर अनेक सामाजिक कुरीतियाँ एवं अत्याचारों को ख़तम कर, स्त्री शिक्षा का प्रबंध कियाl सन् । 9। 4 में डॉ. ऐनी बेसेंट का ‘भारत जागो’ शीर्षक से भाषण देना और सन् । 9। 7 में प्रथम महिला संघ की स्थापना करना कोई चमत्कार से कम नहीं थाl इन्होंने स्त्री शिक्षा का प्रसार, बाल-विवाह की समाप्ति और धर्म की अवहेलना न करते हुए आचरण की आडंबरता को समाप्त करने का प्रयत्न कियाl इसका असर शहरी मध्यम वर्ग की कुछ ही महिलाओं तक रहा, परन्तु इसका प्रचार प्रसार ने स्त्री संवेदना या आन्दोलन को खूब बढावा दियाl परिणामस्वरूप प्रस्तुत समाज या पुरुष मानसिकता के प्रति स्त्री ने अपना प्रतिरोध सीधा प्रकट न करके शिक्षा, संघटन, विचार गोष्टियाँ, सम्मेलन तथा साहित्यिक कृतियों के माध्यम से व्यक्त कियाl इतना ही नहीं आगे चलकर महिला साहित्य को पुरुष साहित्य से अलग कर, नारी समुदाय को जागृत करने का प्रयास भी कियाl यह स्त्री प्रतिरोध की भावना केवल नारी को जागृत करना ही नहीं था बल्कि अपने जुल्मों के प्रति आवाज़ उठाने का आव्हान भी थाl यही रूप नारी मुक्ति आन्दोलन का नेतृत्व भी निभाया है। इसके साथ नारी के घरेलु हिंसाओं, आंतरिक द्वंद्व तथा भोग की वस्तु समझने वाले स्वार्थी पुरुषों के चंगुल से स्त्री को बचाने का रचनात्मक कार्य भी किया है।

कहानी बहुत ही प्रिय विधा है, क्योंकि कम समय में बहुत कुछ समझने का प्रयास किया जा सकता है। अतः हिन्दी की पहली कहानी लिखने का श्रेय भी एक महिला साहित्यकार को ही जाता है। सन् । 907 में प्रकाशित बंग महिला यानी श्रीमती राजेन्द्र बाला घोष की ‘दुलाई वाली’ आधुनिक हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी है। इनके बाद राष्ट्रीय भावना एवं आदर्श की कहानियाँ लिखनेवालों में सुभद्रा कुमारी चौहान का नाम लिया जाता है। ‘बिखरे मोती’, ‘उन्मादिनी’ और ‘सीधे-साधे चित्र’ इनके कहानी संग्रह हैंl

स्वतंत्रता पूर्व की कहानियों में सुमित्रा कुमारी सिन्हा का ‘अचल-सुहाग’ और ‘वर्ष गाँठ’ स्त्री प्रतिरोध से संबंधित कहानी संग्रह हैंl इसमें पति का संयुक्त परिवार तथा सामाजिक रूढ़ियों में पिसती नारी के क्रंदन के प्रति प्रतिरोध व्यक्त किया गया है। स्त्री प्रतिरोध से संबंधित प्रेमचन्द युग की कहानियों में उषादेवी मित्रा की ‘संध्या’, ‘पूर्व रात की रानी’, ‘मेघ मल्हार’ संग्रहों में संकलित कहानियाँ, कमला चौधरी की ‘उन्माद’, ‘कमंडल’,’पिकनिक’, में संग्रहित कहानियाँ, हेमावती देवी की ‘धरोहर’, ‘स्वप्न भंग’, ‘अपना घर’ संग्रह की कहानियाँ, इसी तरह चन्द्रकिरण सौन रेक्सा, कमल त्रिवेणी शंकर, तेजरानी पाठक आदि लेखिकाओं की कहानियाँ भी स्त्री प्रतिरोध की पृष्ठभूमि को मजबूत बनाने वाली है। चन्द्रकिरण के संदर्भ में प्रभाकर माचवे कहते हैं कि –“भारतीय जीवन की टूटती हुई गृहस्थी, नारी की तकलिफों और आर्थिक विषमता की रस्सी-कस्सी में जीवन का आधि-व्याधि जर्जरित होना यह सब बहुत ही यथार्थ रूप लेकर उनकी कहानियों में उतरा है। ”

साठोत्तरी के बाद हिन्दी कहानी के क्षेत्र में महिला कहानिकारों की एक बाढ़ सी आ गयी और आधुनिकता एक चुनौती बनी तो कहानी की प्रकृति तथा प्रवृत्ति ही बदल गयीl समकालीन कहानी के दौर में यथार्थ का रूप और भी अधिक प्रखर हो उठा और कहानिकारों ने आम आदमी के दुख-दर्द को अधिक गहराई से उभाराl उस समय महिला कहानीकारों ने जो देखा और भोगा उसे ग्रहण कर पूरे तीखेपन के साथ अपनी कहानियों में उताराl इसलिए उन कहानियों में पाखंड, अन्याय, शोषण, अत्याचार तथा मिथ्या आदर्शों एवं मूल्यों के प्रति स्त्री प्रतिरोध का भाव दिखाई देता है। मन्नु भंडारी ‘आप की बंटी’ कहानी में टूटते पारिवारिक संबंधों का और नारी जीवन के विविध पक्षों का यथार्थ चित्रण किया है। ‘कमरे,कमरा और कमरे’ की नीलिमा अपने पति के लिए कॉलेज की नौकरी छोड़ देती है और स्वयं असंतुष्ट रहने लगती है। यहाँ लेखिका ने नीलिमा के माध्यम से अपनी आकांक्षाओं के लिए स्त्री को सोचने पर मजबूर किया है। लेखिका कहती हैं कि –“यूँ आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तो सब कुछ मशीनी ढंग से होता ही है, पर वह तृप्त नहीं हो पाती थीl उसमें भावनाओं की मिठास जो न थीl”

‘जिंदगी’, ‘गुलाब के फूल’, ‘फिर बसंत आया’ संग्रहों की कहानियों में उषा प्रियंवदा ने असफल प्रेम, वैवाहिक जीवन में आई दरार, वर्तमान जीवन की विसंगतियों, वेदना, पीड़ा आदि को दर्शाया है। कृष्ण सोबती की ‘ऐ लडकी’ कहानी में नायिका अपनी अम्मी के मरते समय की तड़प को देखकर पीड़ा से इतना व्यथित हो जाती है कि वह अगले जन्म में मर्द बनकर दुनिया देखना चाहती है। इस तरह लेखिका ने स्त्री प्रतिरोध को परिवर्तित मनःस्थितियों के साथ चित्रित किया है। ‘यारों के यार’ कहानी में एक पति जान बूझकर पत्नी को औरों के बिस्तर पर सोने का संकेत देते हुए कहता है –“धीरू भाई के नाम से ही तमाशा की कमर, अवस्थी के सीने में शौरगल मचने लगीl शाम को तो तुम्हें कुछ करना नहीं धीरू भाई के यहाँ चली क्यों नहीं जातीl” यहाँ लेखिका ने पुरुष द्वारा शोषित स्त्री की व्यथा और पति-पत्नी के बीच के ठंडेपन को खुलकर व्यक्त किया है। कृष्ण सोबती कहती हैं –“‘यारों के यार’ रचना प्रक्रिया, इस प्रश्नों पर शब्दबद्ध करने में नहीं, इसके जीने में भी समूचे माहोल के लेखन को सिर्फ एक कोण विशेष से नहीं, सम्पूर्णता और समग्रता से जानना था l” इसके साथ लेखिका ने पेशेवर लड़कियों के माध्यम से समाज की ज्वलंत नारी समस्या का खुलासा किया है, जैसे –“पखवारे के प्रोग्राम देखेl अलग-अलग पूरों की फहरिस्ते पढी और मेरे अंदाज़ में टेलीफोन पर सब फिक्स कर दियाl सिर्फ दो छोकरियों ने नखरे दिखाएl फिस बढ़ गई हैl” गृहस्थी की आड़ में पुरुष किस तरह स्त्री को बाजारुपन का शिकार बनाकर शोषण करता है इसका पर्दाफाश कर लेखिका ने स्त्री प्रतिरोध को व्यक्त किया है।

कृष्ण अग्निहोत्री ने ‘अंतिम स्त्री’ कहानी में पुरुष की हठ धर्मिता मैं पिसती सीधी-साधी सरल आदिवासी नारी की व्यथा की कथा को व्यक्त किया है। इस संदर्भ में लेखिका कहती है –“नारी कभी एक किसी पुरुष के अदम्य लालसाओं को कहीं बाँध न सकीl यह एक अनुभव जो बहुत पास से अनुभव हुआ तो पीड़ा हुई, आखिर क्यों? समस्त गुणोंवाली नारी से भी पुरुष नहीं बंध पाताl.....और इसी पीड़ा ने जन्म दिया अंतिम स्त्री कोl” इसमें लेखिका ने एक सभ्य पुरुष के असभ्य रूप तथा अदम्य यौनवासना की दुर्गन्ध को दिखाकर अपना प्रतिशोध व्यक्त किया है। मृदुला गर्ग की कहानी ‘तीन किलो की छोरी’ कहानी में नायिका अपना जीवन-यापन के लिए सौ रूपये मासिक पर दासी का कम करती है। उस समय उसके साथ जो शोषण होता है, उसके प्रति लेखिका ने अपनी नायिका के माध्यम से प्रतिशोध व्यक्त करवाया है। लेखिका शिवानी की कहानी ‘तर्पण’ में नायिका पुष्पा पाण्डे बलात्कार की शिकार हो जाती है। लेखिका ने पुष्पा में इतना साहस भर दिया है कि वह उस अत्याचार का बदला स्वयं लेती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि आधुनिक नारी चुपचाप अन्याय को सहना और सहायता के लिए गिडगिडाना उचित नहीं समझतीl

मेहरुन्निसा परवेज़ ने ‘आकाशनील’, ‘रावण’, ‘चुटकी भर समर्पण’ कहानियों में जो स्त्री के अलग-अलग दुःख-दर्द, पीड़ा-वेदना को अपनाया है, उसके लिए स्वयं कहती हैं कि –“मेरी कहानियाँ हादसों की जमघट है, जो कण-कण जमकर पहाड़ हो गया है। उम्र का जो उतार-चढ़ाव है, हादसों की वह धूप-छाँव है, जो उम्र के साथ-साथ घटती-बढ़ती है। ज़िन्दगी के बेतरीब दिन जिन्हें मेरी कलम ने हमेशा सही करना चाहा पर ज़िन्दगी में मेरी ही पुस्तक कभी सही नहीं हुई क्योंकि कई पृष्ट गुम हो गए और कई नष्ट हो गयेl” इस तरह उन्होंने अपना प्रतिरोध व्यक्त कर पूरे नारी समुदाय को जागृत किया हैl

मेहरुन्निसा परवेज़ की कहानी ‘शनाख्त’ में नायिका अपने पति के शोषण से त्रस्त होकर अलग रहने लगती है। अपनी बेटी तथा खुद का पेट भरने के लिए उसे किन-किन उपेक्षित रास्तों से गुजरना पड़ता है, वही इस कहानी का प्रमुख विषय है। तंगी हाल में नायिका को जीवन गुजारा करने के लिए अपना जिस्म तक बेचना पड़ता है। वह कहती है –“बचपन से ही गरीबी के कई नंगे रूप देखे थेl अपनी आँखों के सामने वासना का नंगा नाच देखा थाl पैसे के लिए खुद माँ को बिकते देखा थाl” शराबी, व्यभिचारी व जुआरी पिता सिर्फ अपनी हवस पूर्ति के लिए ही घर आता है। इतना ही नहीं एक दिन वह शराब के नशे में अपनी बेटी तक को भी हवस का शिकार बनाने की कोशिश करता है। इस संदर्भ को लेकर लेखिका कहती है –“यही गरीबी थी शायद, जब भूखे पेट से होकर शराब आँखों में उतरती है तो पत्नी और बेटी में अंतर नहीं दिखता थाl” ऐसी ही कथा ‘देहरी की खातिर’ कहानी में भी देखी जा सकती है। इसमें नायिका नानी आया भी अपना परिवार तथा गृहस्थी चलाने के लिए बड़े साहबों के घरों में काम करती है, कभी-कभी उनके बिस्तर तक पहुँच कर गर्भ कर लेती है। यहाँ तक कि गरीबी की मजबूरी में आकर वह अपने ही पदचिन्हों पर अपनी दोनों बेटियों को भी उस खड्डे में ढकेलती है। इस तरह अलग-अलग समस्याओं से अत्याचार की शिकार होती हुई नारी को ‘नया घर’, ‘दूसरी अर्थी’, ‘त्यौहार’ आदि कहानियों में भी दर्शाया गया है। लेखिका ने यहाँ रोटी, कपड़ा और मकान की समस्याओं से जूझती नारी का यथार्थ चित्रण कर स्त्री प्रतिरोध को व्यक्त किया है। इसके अलावा त्रिकोणात्मक प्रेम संघर्ष में बिखरती नारी का चित्रण ‘कानी बाट’, ‘फालगुनी’, ‘रेगिस्तान’, ‘कयामत आ गयी’, ‘जंगली हिरनी’ आदि कहानियों में मिलता है।

‘फालगुनी’ कहानी में नायिका फालगुनी की व्यथा की कथा है। फालगुनी त्रिकोणात्मक प्रेम के मकडजाल में ऐसे फँस जाती है कि स्वयं की निगाहों में हमेशा के लिए गिरने का आभास होता है। स्वयं को कोसती हुई वह कहती है –“भाग्य इस तरह पलट-पलटकर मेरी परीक्षा क्यों लेता है? दो-दो जगह से दुलार पाकर दूसरी औरत धन्य हो जाती है, मैं कितनी दुःखी हो जाती हूँ, अपने पर मान तक नहीं कर पाती? केशव को पति के रूप में मेरे मन ने स्वीकारा है और मैं पति को सिर्फ रखवाला, अपना बड़ा बुजुर्ग मानती हूँ, इससे अधिक कभी सोच न पाईl” इनके प्यार की निशानी के रूप में पहला बेटा राजु पैदा होता है। मरते समय पति फालगुनी से कहता है –“फालगुनी, मेरे चिता पर छोटे से आग दिलाना, राजु से नहींl” यह शब्द फालगुनी को अपनी ही निगाहों में गिरा देते हैंl अंत में अपना अपराध स्वीकार करती हुई वह कहती है –“देखो आज जो दिया तुम्हारी याद में जलाया गया है, उसको साक्षी मानकर मैं अपना अपराध स्वीकार कर रही हूँl” इस कहानी में बेजोड़ विवाह कर फालगुनी के साथ अन्याय किया गया है। इस तरह मेहरुन्निसा परवेज़ की कहानियों में स्त्रियाँ अपने शोषण के खिलाफ प्रतिरोध तो करती है, पर हालात मजबूर कर देता है। इसलिए पुरातन जड़ संस्कृति, समाज में व्याप्त कुरीतियाँ आदि के प्रति प्रतिरोध करती हुई नारी ने उसे जड़ से उखाड़ फेंकने का साहस दिखाया है।

समकालीन कहानीकारों में मैत्रेयि पुष्पा का नाम उल्लेखनीय है। ‘अपना-अपना आकाश’ कहानी में लेखिका ने एक विधवा तथा विद्रोहणी माँ कैलासी देवी के त्याग का चित्रण किया है। वह माँ जो विश्व का सबसे बड़ा सत्य है। वह माँ जो अपने आँचल की छाँव से अपने बच्चों को धूप और वर्षा से बचाती है। ऐसी माँ के कृतज्ञ बच्चे पूरी जायदाद अपने नाम करवाकर उन्हें वृद्धाश्रम भेजने की योजना बनाते हैंl जब इस योजना का भांडाफोड़ हो जाता है तो माँ की मानसिक स्थिति एक साथ क्रोध, असहाय तथा करुणा से भर जाती है। इसी तरह और एक प्रसिद्ध कहानी है ‘तल्लन’l इस कहानी की प्रमुख पात्र है तल्लन, जो दाई का काम करती है। इस काम के लिए उसका पति तथा पूरे बिरादरी के लोग उसे रोकते हैं तो वह काम छोड़ देती है। एक बार सरकारी विरोधी आन्दोलन के कारण पति आसाराम को हवालात में बंद कर दिया जाता है। उस समय पूरा परिवार भूख से तड़पता देखकर तल्लन को अपना काम छोड़ने का पछतावा होता है। अंत में वह इन सबसे विद्रोह कर फिर से काम पर चली जाती है। इस तरह लेखिका ने इन कहानियों में माँ के मातृत्व तथा स्त्री प्रतिरोध को अलग-अलग ढंग से प्रस्तुत किया है।

मैत्रेयी पुष्पा की और एक प्रसिद्ध कहानी है ‘राय प्रवीण’l राय प्रवीण एक नाटक की वेश्या पात्र है। नायिका सावित्री अपने पिता के नकारने के बावजूद भी वह राय प्रवीन की भूमिका निभाती है। उसके बाद वह स्वयं को राय प्रवीण मानने लगती है। इसके लिए पिता उसे खूब पिटकर उसकी शादी कर देता है। शादी के बाद सावित्री अपने ससुराल फतेहपुर चली जाती है। ससुराल में एक बार बेतवा नदी में बाढ़ आ जाने से फतेहपुर के लोग उसमें बह जाते हैंl उसकी सहायता करने सरकार की ‘राहत कैंप’ वहाँ पहुँचती है। उस समय लालची नेताओं की नजर स्त्रियों पर पडती है तो उन्हें खाने की चीज़ें नहीं देतेl इसके लिए सावित्री खुद उनके साथ सौदा कर गाँव वालों को खाना दिलवाकर बचाती है। बाद में सावित्री के साथ ऐसा भयानक अत्याचार होता है कि उसे उठना कठिन हो जाता है। वे कौन? कितने लोग? कुछ याद नहीं रहताl जब सुध आती है तो देखती है कि “देह की अंदरूनी परतों में छिलते-छिलते कटाव पड गया है। कमर के नीचे चिपचिपे खून की पोखर सी बन गयी है। छातियों ने घावों की शक्ल ले ली है। गालों पर दांतों के खुनी निशान......चेहरा दागदार हो गया है l” इस भीषण कृत्य के बाद सावित्री जब घर लौटती है तो पति उसे घसीट-घसीटकर, पटक-पटककर, लातों-घूँसों से पीटता है। अंत में गला घोटकर मार देगा समझकर वह पिता के घर पहुँचती है। बेटी को देखते ही पिता बेटी के सामने हथियार डाल देता है। वह न कुछ सुनता हैं, न कुछ कहता है, अपने शरीर पर मिट्टी का तेल छीडक लेता है मरने के लिए l हाथ में माचिस उठा ली तो सावित्री अपना मोह भूल गयी और वहाँ से चली जाती है। प्रस्तुत कहानी में जो जुल्मों के चेहरे हैं पहले पिता द्वारा, विपत्ति के समय राजनेताओं द्वारा, फिर पति द्वारा आदि बहुत ही भयानक है। एक स्त्री के मानसिक, शारीरिक तथा सामाजिक यातनाओं को लेखिका ने बहुत ही बखूबी ढंग से चित्रित किया है। इस तरह मैत्रेयी पुष्पा ने अपनी कहानियों में स्त्री पात्रों द्वारा अपना प्रतिरोध व्यक्त किया है।

21 वीं सदी की प्रबल हिन्दी कहानीकारों में मृणाल पाण्डे का नाम अग्रणी है। नई सदी की नवीनता को दर्शाने वाली इनकी कहानियाँ स्त्री प्रतिरोध के संदर्भ में प्रसिद्ध हैंl ‘लड़कियाँ’ कहानी में तीन लड़कियाँ होने के बावजूद भी इन्हें लड़के का इंतज़ार है। अतः इस कहानी में लड़का-लड़की के भेद-भाव को दर्शाया गया है। तीनों लड़कियों में मंझली हमेशा इस व्यवस्था तथा अपने अधिकारों के लिए लडती रहती है। घर में मार-डाँट खाने पर भी वह कभी किसी से डरती नहीं है। एक बार नानी के घर में माँ उसे मुसीबत कहती है और अष्टमी के दिन नानी सभी बच्चों को टीका लगाकर पैसा देती है। इसके लिए प्रतिरोध करती हुई मंझली कहती है –“जब तुम लोग लड़कियों को प्यार ही नहीं करते तो झूठमूठ में उनकी पूजा क्यों करते हो ? मुझे नहीं चाहिए इन औरतों का हलवा, पूरी, टीका, रूपयाl मैं देवी नहीं बनूँगी l” इसमें लेखिका ने आज के समाज में फैल रही कुरीतियों का विरोध कर अपने अधिकारों के लिए प्रतिरोध का धैर्य स्त्री में भरने का कार्य किया है।

‘एक पगलाई सस्पेन्स कथा’ में बेजोड़ शादी के कारण विष्णुप्रिया संतुष्ट न होकर आत्महत्या कर लेती है। इसमें बिना माँ-बाप की बच्ची की त्रासदी है। यह शोषण तथा अधिकारहीनता में तड़पती नारी का प्रतिरोध है। ‘सुपारी फुआ’ कहानी में सुपारी फुआ के सौ साल के जीवन की कई उतार-चढ़ाव को लेखिका ने चित्रित किया हैंl विवाह के बाद ससुराल में सास,ससुर तथा ननदों की यातनाएँ झेलती है और पति की मृत्यु के बाद मायके वालों की’ यातनाएँ झेलनी पड़ती है। सुपारी फुआ को स्वयं की माँ समझाते हुए कहती हैं –“लली, मायके की रोटी तोडनी है, तो आँख-कान पर लगाम देकर, इस चमड़े की जीभ पर तुझे पट्ट ताला जैसा डालना होगा l”इस बात का पालन करती हुई फुआ मरने तक आवाज़ नहीं उठातीl वह मूक जीवन में सभी पीड़ा, यातनाओं को चुप-चाप झेलती रहती है। फुआ के माध्यम से लेखिका ने एक शोषित तथा स्वाभिमानी स्त्री का चित्रण किया हैl

‘उमेश जी’ कहानी में मृणाल पाण्डे ने एक पढी-लिखी निरुद्योग लडकी की व्यथा की कथा को चित्रित किया है। नौकरी के लिए भटकती हुई नायिका माँ-बहन की बात मानकर उमेश जी से मिलने जाती है। उमेश जी एक ऐसा व्यक्ति है जो अपने अधिकारों के बल पर मासूम लड़कियों की इज्जत के साथ खेलता रहता है। वह यह नहीं जानती थी कि माँ-बहन काम क्या करती हैंl वे दोनों उस भेड़िया के शिकार पहले से हो चुकी रहती है। रोटी पाने के लिए इन्हें भी अपनी इज्ज़त गवानी पड़ती है। उस शिकारी के अत्याचार की शिकार होने के बावजूद भी वह ऐसे अमानवीय लोगों के साथ बदला लेना चाहती है, पर अधिकार के सामने हालात मजबूर कर देती है। फिर भी वह सोचती है कि –“कभी जब मैं इन सबसे दूर, बहुत दूर, बहुत बड़ी नौकरी पर चली जाऊँगी तो इन सब पर एक उपन्यास लिखूँगी, एक बेस्ट सैलर, जो चौदह भारतीय भाषाओं में अनूदित होगा और उसकी एक-एक कम्पलीमेंटरी कॉफ़ी अपने दस्तखत करके इन दोनों और उमेश जी को भेजूँगी l” इस तरह असाहय अधिकारहीन युवती की बेबसता का चित्रण कर लेखिका ने स्त्री विद्रोह व्यक्त किया है।

मृणाल पाण्डे ने ‘बीज’ कहानी में पहाडी प्रदेश की एक बूढ़ी साहसी औरत का चित्रण किया है। विदेशी बीज के दोषों के बारे में कृषि विज्ञानियों के सामने वह औरत बताती है कि –“जितना बोया तुम्हारा फिरी का बीज, उसमें बाली भी नहीं पडी सारी मेहनत फालतु गई की नहीं?फिरी का सोयाबीन बोया तो वे भी नहीं उगाl अपनी फसल बोने का समय निकल गयाl ऊपर से इस दैल-फैल में हमारे खेत जो बंजर रह गए उनको हम चाटे क्या? तभी तो हमने हर्जाना माँगाl अरे अपना देशी धान का बीज बोते तो, इससे अच्छे ही रहते, देवी की सौl” इससे यह स्पष्ट होता है कि आज की नारी अबला नहीं सबला है। वह पाश्चात्य के तौर-तरीके के खिलाफ अपना प्रतिरोध व्यक्त करती हैl

‘चार दिन की जवानी तेरी’ कहानी में मृणाल पाण्डे ने भ्रूण हत्या करने वालों के प्रति अपना विद्रोह व्यक्त किया है। घर का काम-काज करती हुई जोशी की माँ कहती है –“एक लड़की भी नहीं दी भगवान ने कि हाथ बँटातीl भगवान ने एक बेटी दी होती तो कोई तो होता उसका सुख-दुःख सुनने वालाl पर भगवान ने उनकी कब सुनी है?” इस तरह भ्रूण हत्या करने वाले हर एक अभिवादकों को यह जागृति का संकेत देते हुए लेखिका ने शिशु भ्रूण हत्या रोकने का प्रयास किया है। कुलमिलाकर शोषित, असहाय,अधिकारहीन नारी की पीड़ा तथा अत्याचारों के खिलाफ प्रतिरोध करवा के मृणाल पाण्डे ने स्त्री संवेदना की भूमिका मजबूत किया है।

समकालीन महिला कहानिकारों ने नगरीय परिवेश के साथ-साथ ग्रामीण महिलाओं को भी जागृत किया है। मेहरुन्निसा परवेज ने अपनी कहानियों में आदिवासी समाज के इर्द-गिर्द के साथ जो जीवंत घटनाएँ घटी, उन्हें आदिवासी स्त्री के प्रतिरोध के रूप में दर्शाया है। स्त्री ने पहले अपनी पीड़ा तथा शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाया, फिर मुक्ति का आन्दोलन खड़ा करके अपनी परंपरा, आडम्बरता एवं कुरीतियों की आड़ में पिसती नारी, स्वतंत्रता पाने के लिए लडी, मुक्ति के बाद फिर अपने अधिकारों के लिए प्रतिरोध बुलन्द कीl आज नई सदी की नारी बराबरी या समानता एवं अपनी सुरक्षा के लिए संघर्ष करती हुई दिखाई दे रही है। इतना सब कुछ होने के बावजूद भी क्या आज इस देश में नारी सुरक्षित है? इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमारा समाज, नेता गण और समाज के अभिवादक मौन है। अंततः इस युग में स्वतंत्रता, समानता, अधिकार तथा ज्ञान के क्षेत्र में स्त्री मजबूत तो कहलाती है, परन्तु शारीरिक दृष्टि से और भी तैयार होना ज़रूरी है, क्योंकि लालची, दुष्ट अत्याचारियों के साथ मुकाबला करना अत्यावश्यक है।

संदर्भ :

  1. डॉ. अंजनी कुमार दुबे, समकालीन कविता के विविध आयाम, पृ. 15
  2. डॉ. बलदेव बंशी, समकालीन कविता वैचारिक आयाम, पृ. 17
  3. मोहन जिज्ञासु, कहानी और कहानीकार
  4. श्यामचन्द्र कपूर, हिंदी निबंध सौरभ, पृ. 93
  5. बंग महिला, दुलाईवाली
  6. सुभद्रा कुमारी चौहान, बिखरे मोती (कहानी संग्रह)
  7. --, उन्मादिनी (कहानी संग्रह)
  8. --, सीधे साधे चित्र (कहानी संग्रह)
  9. सुमित्रा कुमारी सिन्हा, अचल-सुहाग (कहानी संग्रह)
  10. --, वर्ष गाँठ (कहानी संग्रह)
  11. उषा प्रियंवदा, जिन्दगी, गुलाब के फूल, फिर बसंत आया (कहानी संग्रह)
  12. कृष्णा सोबती, यारों के यार तीन पहाड़, पृ. 40
  13. डॉ. मधु संधु, साठोत्तर महिला कहानीकार, पृ. 43
  14. वही, पृ. 77
  15. मेहरुन्निसा परवेज, फल्गुनी (कहानी संग्रह), पृ. 32
  16. --, मेरी बस्तर की कहानियाँ, पृ. 99
  17. मैत्रेयी पुष्पा, राय प्रवीण
  18. मृणाल पाण्डे, लडकियाँ (कहानी संग्रह)
  19. --, चार दिन की जवानी तेरी, पृ. 19
  20. वही, पृ. 35
  21. वही, पृ. 72

डॉ. तारु एस. पवार, उपाचार्य, हिन्दी एवं तुलनात्मक साहित्य विभाग, केरल केन्द्रीय विश्वविद्यालय, कासरगोड, केरल -671123