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श्री मोहन परमार की दलित कहानियों में सामाजिक समरसता का निरूपण

सामाजिक समरसता एक विस्तृत विचार है। इस सोच के साथ भावनात्मकता भी जुड़ी हुई  है। समरस हो जाना मतलब एक रूप हो जाना। न कोई छोटा न कोई बड़ा, न कोई सवर्ण न कोई शूद्र, न कोई हिंदू न कोई मुसलमान, न कोई गरीब न कोई अमीर, न कोई  स्त्री न कोई पुरुष। सब समान, सब इंसान। सामाजिक समरसता का मूल उद्देश्य समाज समाज के बीच भाईचारा, सद्भावना और अपनत्व का निर्माण करना है। इंसान को मात्र इंसान के रूप में ही देखना है। हर एक इंसान का अस्तित्व स्वीकार करना है। किसी के साथ जात-पात, धर्म, क्षेत्र, संप्रदाय या भाषा के आधार पर भेदभाव करना नहीं है बल्कि उनके साथ मिलजुल कर चलना है। वैमनस्य को यहां पर स्थान नहीं है। आक्रोश या नफ़रत सामाजिक समरसता नहीं ला सकती। सामाजिक  समरसता लानी है तो नफरत की भावना से दूर रहना पड़ेगा। जीवन के हर एक क्षेत्र में सद्भावना का महिमा गान करना पड़ेगा। जीवन के अधिकतर  क्षेत्रों में इसकी महिमा का बखान किया भी गया है। ख़ास करके साहित्य केभ में सद्भावना को विशेष महत्व मिला है। समाज को जोड़ने का काम साहित्य बखूबी करता आ रहा है। कवि,  लेखक अपनी लेखनी से मानवीय संवेदना को गढ़ते हैं। व्यक्ति से व्यक्ति,  व्यक्ति से समाज और समाज से समाज को जोड़ने का काम ही सामाजिक समरसता है। यह जिम्मेदारी साहित्य ने बखूबी निभाई है। हमारे देश में हिंदू और मुस्लिम, स्त्री और पुरुष, दलित और सवर्ण,  शिक्षित और अशिक्षित के बीच भेदभाव सदियों से होता आ रहा है, हो भी रहा है। कवि, लेखकों और चिंतकों ने यह भेद मिटाने के लिए समय-समय पर प्रयास किए हैं, कर भी रहे हैं। कुछ हद तक सफलता भी मिली है। लोगों में जागरूकता बढ़ी है और लोग समझने भी लगे हैं  फिर भी इस दिशा में बहुत सारा काम करना अभी बाकी है।  सामाजिक समरसता की बात आज के संदर्भ में भी प्रस्तुत है। दलित साहित्य में यह काम अच्छी तरह से हुआ है। खास करके श्री मोहन परमार के साहित्यसर्जन में कलात्मक ढंग से हुआ है। यहां पर मेरा विषय भी दलित और गैर-दलित समाज के बीच श्री मोहन परमार की कहानियों में प्रगट की गई सामाजिक समरसता को प्रकाश में लाने का है। श्री मोहन परमार की कहानियों  में सामाजिक समरसता का निरूपण अच्छी तरह से हुआ है।

गुजराती साहित्य में दलित साहित्य की शुरुआत कवितासर्जन से होती है। निरव पटेल, पथिक परमार, किसन सोसा,  भी.न.  बनकर, दलपत चौहान, प्रवीण गढवी, साहिल परमार, करसनदास लोहार, हिम्मत खाटसुरिया, मधुकांत कल्पित, रमण वाघेला, शिवजी रुखड़ा, भीखु वेगडा, पुरुषोत्तम जादव, दान वाघेला, मनीष परमार, निलेश काथड, सामंत सोलंकी आदि कवियों ने गुजराती दलित कविता को समृद्ध करने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। शुरुआती दौर में कविता कलात्मकता की दृष्टि से खास कोई प्रभाव नहीं डाल सकी थी। आज कविता ने अपनी अलग पहचान बनाई है।

गुजराती दलित साहित्य पर मराठी दलित साहित्य का बड़ा प्रभाव रहा है।  ई. सन् 1975 से गुजराती साहित्य में दलित साहित्य की शुरुआत होती है। इससे पहले सुंदरम, उमाशंकर जोशी, रा.वि. पाठक, जवेरचंद मेघाणी, जयंत खत्री, करसनदास माणेक, श्री धराणी, मनसुखलाल आदि कवि, लेखको के सर्जन में दलितों की वेदना को वाचा देने का शुभ प्रयास हुआ है। सोपान (प्राय:श्चित), गुणवंतराय आचार्य (कराल काल जागे), स्नेहरश्मि (अंतरपट), ईश्वर पेटलीकर (कल्पवृक्ष), रामचंद्र पटेल (वराल), पिनाक दवे (प्रलंब पंथ), रघुवीर चौधरी (इच्छावर), जयंत गाड़ीत   (बदलाती क्षितिज), चिनु मोदी (कालो अंग्रेज) और किशोरसिंह सोलंकी (मशारी) आदि गैर-दलित सर्जकों ने  अपने साहित्यसर्जन का विषय दलित समाज की वेदना, व्यथा और समस्या को बनाया है। गैर-दलित सर्जकों ने भी अपने साहित्य-सर्जन में दलितों की व्यथा-कथा को असरकारक रूप से अभिव्यक्त किया  है परन्तु गुजराती दलित साहित्य को दलित समाज की वेदना, व्यथा, पीड़ा की सही पहचान तो दलित सर्जकों की कलम से ही प्राप्त होती है। गुजरात में हुए आरक्षण विरोधी आंदोलन के कारण शोषित दलित समाज को ज्यादा ठेस पहुंचती है। सवर्ण समाज की दलित विरोधी मानसिकता संवेदनशील दलित सर्जको  को सोचने,  समझने और लिखने पर मजबूर कर देती है। दलित वर्ग के भीतर दबी वेदना कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, निबंध, रेखाचित्र आदि स्वरूप जैसे माध्यमों से बाहर आती है। इसके फलस्वरूप गुजराती साहित्य को नये  सर्जक,  कवि, लेखक, अभ्यासु विवेचक प्राप्त होते हैं और एक नई ही अभिव्यक्ति की शुरुआत भी होती है। साहित्य को नया विषय प्राप्त होता है। जो कभी गुजराती साहित्य का मुख्य विषय ही नहीं बना था। शिक्षित, शोषित, व्यथित दलित साहित्य-सर्जकों के कारण गुजराती साहित्य में दलित समाज की वेदना, व्यथा, पीड़ा, दर्द  कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, रेखाचित्र आदि स्वरूपों में प्रगट होने लगते हैं। इसी कालखण्ड में नये सर्जकों का भी उदय होता है। जोसेफ मॅकवान, मोहन परमार, दलपत चौहान, हरीश मंगलम, बी. केसरशिवम, राघवजी माधड, दशरथ परमार, धरमाभाई श्रीमाली, चंद्राबेन श्रीमाली आदि प्रतिभावान सर्जकों के सर्जन से सिर्फ दलित साहित्य ही नहीं, अपितु गुजराती साहित्य भी समृद्ध होता है। श्री जोसेफ मॅकवान ने गुजराती साहित्य में अपनी एक अलग पहचान बनाई है। रेखाचित्र और उपन्यास के क्षेत्र में उन्होंने नई पहचान प्राप्त की है। मोहन परमार ने भी एक बलिष्ठ, प्रतिभावान सर्जक के रूप में अपना एक अद्वितीय स्थान निश्चित किया है। कहानी के क्षेत्र में उनका योगदान अविस्मरणीय है। इनके कारण गुजराती कहानी साहित्य को नई दिशा मिलती है। कहानी लिखने की उनकी प्रयुक्ति उनकी अपनी है। उनकी समन्वयवादी दृष्टि उनको एक अलग पहचान प्रदान करती है। इन सभी तथ्यों के कारण ही श्री मोहन परमार का साहित्य-सर्जन केवल दलित साहित्य में ही नहीं बल्कि गुजराती साहित्य में और बहुत कुछ भारतीय साहित्य में भी महत्वपूर्ण माना जाता है।

श्री मोहन परमार गुजराती साहित्य का एक बड़ा नाम है। सर्जक ने साहित्य के विविध स्वरूपों में अपनी कलम चलाई है। कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी आदि स्वरूपों में उनकी सर्जन  प्रतिभा देखने को मिलती है। इसके अलावा संशोधन, संपादन, अनुवाद आदि क्षेत्रों में भी उनकी पहचान बनी हुई है। विवेचक के रूप में भी उनकी एक अलग पहचान है। दलित समाज में से आते हुए भी उनके साहित्य का क्षेत्र मात्र दलित समाज ही नहीं रहा है। दलित, गैर-दलित, नारी आदि समाज और उनकी समस्या उनके द्वारा सृजित साहित्य का विषय बनते है। सर्जक की विशेष पहचान कहानीकार के रूप में है। उन्होंने अनेक कहानियाँ लिखी हैं। इसी के फलस्वरूप उनको दिल्ली साहित्य अकादमी का पारितोषिक भी प्राप्त हुआ है। इसके अलावा बहुत सारे पारितोषिकों से भी वे सम्मानित होते रहे हैं। साहित्य के अनेक क्षेत्रों में उनका प्रशंसनीय योगदान रहा है। 'भेखड', 'विक्रिया', 'कालग्रस्त', 'प्राप्ति', 'नेणियुं', 'प्रियतमा', 'आस्थारूप', 'डाया पशानी वाडी', 'लुप्तवेध', 'संकट'जैसी कलात्मक उपन्यास, 'कोलाहल', 'नकलंक', 'कुंभी',  'पोठ', 'अंचलो', 'हणहणाटी' जैसे कहानी-संग्रह, 'बहिष्कार' जैसे एकांकी-संग्रह उनका सर्जनात्मक योगदान है। एक तटस्थ, विद्वान, अभ्यासी विवेचक के रूप में भी उनकी ख्याति है। 'अणसार', 'वार्तारोहण', 'सुरेश जोशी पछीनी वार्ताना विशेष परमाणो', 'प्रवर्तन' अनके  विवेचन-संग्रह हैं। संपादकीय सूझ भी उनके पास है। '1994नी श्रेष्ठ वार्ताओं', '1995नी श्रेष्ठ वार्ताओं',  'विश्वकक्षानी गुजराती वार्ता', 'गुजराती दलित साहित्य: स्वाध्याय अने समीक्षा', 'अनुआधुनिक वार्तासृष्टि',  'दलित वार्तासृष्टि', 'नवलिकाचयन', 'किशोर जादवनी प्रतिनिधि वार्ताओं' आदि उनके द्वारा संपादित ग्रंथ हैं।

सर्जक मोहन परमार की विशेष पहचान कहानीकार की रही है। वे गुजराती साहित्य के अनुआधुनिक युग का एक बड़ा चेहरा हैं। कहानी के क्षेत्र में सर्जक एक क्रान्तिकारी परिवर्तक रहे हैं। श्री मोहन परमार के कहानी सर्जन से गुजराती कहानी-साहित्य को एक नई ऊंचाई प्राप्त हुई है। गुजराती कहानी साहित्य के विकास में श्री मोहन परमार का योगदान महत्वपूर्ण माना जाता है। गुजराती कहानी साहित्य का नया इतिहास लिखा जाएगा तो उन्हें अचूक याद किया जाएगा। कहानी के इतिहास लेखन में उनका उल्लेख नहीं किया जाएगा तो वह इतिहास अधूरा माना जाएगा। ऐसा उनका सत्वशाली  सर्जन रहा है। सर्जक की इसी पहचान को ध्यान में रखकर गुजराती साहित्य के ख्यातिप्राप्त विवेचक श्री भारत मेहता मोहन परमार को केवल गुजराती कहानीकार ही नहीं अपितु भारतीय कहानीकार के रूप में देखते हैं। 'अंचलो' कहानीसंग्रह की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा है, यहां पर मैं हिंदी में अनुवाद करके लिख रहा हूं। वे कहते हैं कि "समान सुर से स्वीकार किए गए मोहन परमार एक सक्षम कहानीकार है। मुझे हिंदी, गुजराती, अंग्रेजी में अनुवादित भारतीय कहानियाँ पढ़ने का अभ्यास है। इसके आधार पर मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि मोहन परमार केवल महत्व के गुजराती कहानीकार ही नहीं हैं अपितु उच्च कोटि के भारतीय कहानीकार हैं। यह केवल मेरा भावावेश नहीं है, अपितु प्रतीति है। गुजराती साहित्य के अंतिम डेढ़ दशक में मोहन परमार की कहानियों का साम्राज्य फैला हुआ है। मेरी इस प्रतीति को में यहां सैद्धांतिक रूप में रखना चाहता हूं।‘’ ऐसे प्रतिभावान सर्जक मोहन परमार एक सक्षम दलित सर्जक भी हैं। दलित कहानी, उपन्यास और एकांकी लिखकर उन्होंने अपना निश्चित स्थान प्राप्त किया है। 'नेणियुं', 'प्रियतमा', 'डाया पशानी वाडी' उनके जाने पहेंचाने दलित उपन्यास हैं। उनके पास से अच्छी मात्रा में दलित कहानियाँ भी प्राप्त हुई हैं। उनके छ कहानी संग्रहों में से सत्ताईस, अठ्ठाईस से भी ज्यादा दलित कहानियाँ प्राप्त होती हैं। 'विमासण'  (कोलाहल), 'आँधु', 'कोह', 'नकलंक', 'भारो', 'हिरवणुं'' (नकलंक) 'कणळ', 'वाळ अने वण', 'धूरी', 'थली', 'लूगडां'' वेठिया'  (कुंभी), 'रढ', 'भागोल', 'कायर', 'लाग' (पोठ),  'टोडलो', 'अवढव', 'निरीक्षण', 'उचाट',  'पडण', 'घोडार', 'भ्रमणा' (अंचलो) आदि उनकी दलित कहानियाँ हैं। सभी कहानियों में सामाजिक समरसता का निरूपण हुआ है ऐसा तो नहीं कह सकते लेकिन यह जरूर कह सकते हैं कि उनकी ज्यादातर दलित कहानियाँ आक्रोश की जगह सामाजिक समरसता का संदेश देती है। उनकी दलित कहानियों में अन्य दलित सर्जकों की तरह खुला आक्रोश नहीं है। वे मुखर बनकर कुछ नहीं कहते बल्कि कला के दायरे में रहकर अपनी बात रखते हैं। उनकी बहुत सारी कहानियाँ सामाजिक समरसता की पक्षधर रही है। यह बात हम उनकी अभिव्यक्ति की प्रयुक्ति से कह सकते हैं। वे दलित समाज के प्रति गैर-दलित समाज की जो घृणा है वह आक्रोश में अभिव्यक्त नहीं करते बल्कि सहजता से कला के मापदंड को ध्यान में रखकर व्यक्त करते हैं। इसी कारण दलितों का आक्रोश, विद्रोह भी व्यावहारिक लगता है। वाचक को सोचने और विचार करने के लिए मजबूर कर देते हैं। उनकी ज्यादातर कहानियाँ  समतामूलक समाज की स्थापना हो इसी आशय को लेकर लिखी गई हैं। इनकी बहुचर्चित कहानी 'नकलंक' अच्छा दृष्टांत है।

श्री मोहन परमार दलित समाज के स्वाभिमान, प्रेम, संस्कार, रीति-रिवाज, मान्यतायें, श्रद्धा, मानवीयता, व्यावहारिकता, सहिष्णुता और गैर-दलित समाज की दमनकारी, अमानवीय, शोषक प्रवृत्ति जैसे दुर्गुणों को विषय बनाकर दलित कहानी का सर्जन करते हैं। सर्जक मोहन परमार की विशेषता यह है  कि वे केवल गैर-दलित समाज की बुराइयों को ही अपनी कहानी का विषय नहीं बनाते हैं बल्कि उनके अच्छे गुणों और उनके मानवीय मूल्यों को भी कहानी के विषय बनाते हैं। इसी प्रकार वे सामाजिक समरसता स्थापित करने का प्रयत्न करते हैं। उनकी एकाधिक दलित कहानियों में स्त्री और पुरुष के बीच पनपता प्रेम सामाजिक समरसता का निमित्त बनता है। किसी कहानी में सवर्ण स्त्री दलित पुरुष पर आसक्त रहती है तो किसी कहानी में दलित स्त्री स्वर्ण पुरुष के प्रति आसक्त रहती दिखाई जाती है। 'नकलंक', 'पडण', 'हिरवणुं' इसी प्रकार की कहानियाँ हैं।

‘नकलंक’ (नकलंक) केवल दलित साहित्य की ही नहीं परन्तु गुजराती साहित्य की प्रसिद्ध कहानी है। गाँव की शाला में एक साथ ही पढ़ते थे तब से दीवा को कांती के प्रति लगाव था। अहमदाबाद की मिलें बंद हो जाने के कारण कांती पत्नी और पुत्री के साथ वापस गाँव में रहने के लिए आ जाता है। गाँव में रहकर ही अपने परंपरागत बुनने के व्यवसाय में लग जाता है। साथ में अपने पुराने मित्र और दीवा के पति मंगलदास मुखी के साथ भी काम करना शुरू कर देता है। इसी कारण कांती का दिवा के घर आना-जाना बना रहता है। दोनों के बीच एकदम नजदीकियां बढ़ती जाती हैं। ऐसे में एक दिन दीवा कांती को अकेले में मिलने का आमंत्रण भी दे देती है। इतनी हद तक कांती के प्रति दीवा की आत्मीयता बढ़ जाती है। एक सवर्ण स्त्री दलित पुरुष को अपना मानने को राजी है। अपना तन, सौंदर्य उनके नाम पर क़ुरबान करती है। यही सामाजिक समरसता है। यहां पर ऊंच-नीच, गरीब-अमीर, सवर्ण-दलित का कोई भेद रह नहीं जाता है। दूसरी ओर कांती दीवा के आमंत्रण को स्वीकार करने के बावजूद भी दीवा को दिये  गये  समय पर हाजिर नहीं होता है। दीवा के साथ शारीरिक संबंध बनाना उनको अपराध लगता है। अनैतिक संबंध बांधकर वह मित्र मंगलदास का विश्वास तोड़ना नहीं चाहता है। दीवा की पूर्ण सहमति के बावजूद भी वह दीवा से अनैतिक संबंध न  जोड़कर निष्कलंक रहता है। मित्र के प्रति कांती का सद्व्यवहार ही सामाजिक समरसता है। यहां पर दलित और सवर्ण समाज समरस होता नज़र आता है।

प्रेम को विषय बनाकर सामाजिक समरसता स्थापित करने का प्रयास 'पडण' (अंचलों) कहानी में भी हुआ है। इस कहानी में दलित स्त्री को गैर-दलित पुरुष से प्रेम हो जाता है। 'नकलंक'  पुरुष प्रधान कहानी है। यहां पर सवर्ण स्त्री दलित पुरुष पर आसक्त है, जबकि 'पडण' नारीप्रधान कहानी है और दलित स्त्री सवर्ण पुरुष पर आसक्त है। एक दीवा है, एक देवी है। एक सवर्ण है, एक दलित है। दोनों नारियों का प्रेम पवित्र है लेकिन सामाजिक मर्यादा के कारण दोनों ही संबंध नहीं जोड़ सकते हैं। देवी सेठ को सच्चे दिल से चाहती है। सेठ के प्रति उसके दिल में अपार प्रेम है। दूसरी ओर सेठ भी देवी को अपनी प्रेयसी मानता है। दोनों एक-दूसरे के प्रति आत्मीयता से जुड़े हुए हैं। दोनों एक-दूसरे को छोड़ने को राज़ी नहीं हैं। तो भी परिस्थिति के कारण देवी को मजबूरन संबंध को दरकिनार करके सेठ  का साथ छोड़कर अपने पुत्र के साथ निकलना पड़ता है। देवी का पुत्र अब बड़ा हो गया है। देवी और सेठ के बीच के  संबंध से वह पूरी तरह वाक़िफ है। छोटा था तब तक तो उनके मन में सेठ के प्रति कोई दुर्भावना नहीं थी, अब वह बड़ा हो गया है। अपनी माँ और सेठ के बीच का संबंध उसकी समझ में आ रहा है। अपनी माँ का अनैतिक संबंध उसको अब स्वीकार्य नहीं है। देवी को पुत्र-प्रेम के कारण सेठ का साथ छोड़ना पड़ता है। एक दलित मजदूरनी  और सेठ के बीच का यह संबंध सामाजिक समरसता का ही दृष्टांत है। सेठ ने चाहा होता तो देवी के साथ जबरदस्ती की होती  लेकिन ऐसा कुछ होता नहीं है। कहानी के केंद्र में देवी की द्विविधात्मक स्थिति  है,  तो भी कहानी में से सामाजिक समरसता का संदेश प्राप्त होता है।

नारी-ह्रदय की संकुलता को प्रगट करती 'हिरवणुं' ( कुंभी) कहानी भी दलित स्त्री और सवर्ण पुरुष के बीच पनपते हुए प्रेम की कहानी है। कहानी की शुरुआत में नायिका जीवी को गलबाजी की उपस्थिति भी खटकती थी। जब वह बस्ती में आना बंद कर देता है तो जीवी को उनका इंतजार रहता है। उसकी गैरमौजूदगी उससे सही नहीं जाती है। एक दलित नारी को सवर्ण पुरुष के प्रति आशक्त बताकर लेखक ने सामाजिक समरसता का पक्ष लिया है। वैसे देखने जाये तो यह कहानी मानव-सहज जातीय प्रवृत्ति को प्रकट करती है। तो भी दलित और गैर-दलित पात्र को पसंद करके लेखक ने सामाजिक समरसता स्थापित करने का छोटा सा प्रयास किया है।

'थली', 'टोडलो', 'लूगडां' और 'कणण' उत्तम दलित कहानियाँ है।  सवर्ण समाज के द्वारा होता दलित नारी का जातीय शोषण इन सभी कहानियाँ का समान विषय रहा है। इन सभी कहानियों में सवर्ण समाज के पुरुष वर्ग ने दलित समाज की नारी को अपनी वासना संतुष्टि का माध्यम बनाया है। यह कहानियाँ दलित नारी की विवसता, दयनीयता और सवर्ण समाज की अमानवीयता, असभ्यता और निम्न स्तर की मानसिकता को प्रकट करती है। यहां पर सवर्ण समाज के द्वारा दलित नारी का जातीय शोषण, दमन हुआ है यह बात किसी आवेश या आक्रोश में आकर नहीं कही है बल्कि ठंडे कलेजे से अपनी बात रखी है। वैसे देखने जाएं तो यहां पर सामाजिक समरसता कहानी का मुख्य विषय नहीं है। मुख्य विषय है सवर्ण समाज के द्वारा दलित समाज पर हो रहे अत्याचार और जातीय शोषण को प्रकाश में लाने का। कहानी का मुख्य विषय सामाजिक समरसता का मालूम न पड़ता हो तो भी लेखक की अभिव्यक्ति सामाजिक समरसता के प्रयास की अनुभूति अवश्य करवाती है।  सर्जक सवर्ण समाज का विरोध भी करते हैं तो कला के दायरे में रहकर करते हैं। सर्जक की यह खूबी ही सामाजिक समरसता की पक्षधर बन जाती है। अन्य दलित सर्जको  की तरह वे खुले आक्रोश या विद्रोह का सहारा नहीं लेते हैं। उनका विरोध भी कलात्मक रहता है। 'थली' कहानी उसका उत्तम दृष्टांत है।

मानसिंह राजपूत के द्वारा दलित नारी रेवी का जातीय शोषण कहानी के केंद्र में है। पांच साल से मानसिंह  रेवी का जातीय शोषण करता आ रहा है। रेवी  के घर में घुसकर लोगों के सामने उनको बेइज्जत करता रहता है। पर रेवी  उसका विरोध नहीं कर पा रही है। गाँव के लोग भी चुपचाप सहन करते रहते हैं। मानसिंह का त्रास दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है। बार-बार वह रेवी के घर पर आता रहता है और रेवी  के साथ उसकी मर्ज़ी के बगैर जबरदस्ती करता है। मानसिंह के इसी प्रकार के त्रास के कारण रेवी परेशान हो जाती है। मानसिंह के दुर्व्यवहार से वह त्रस्त हो जाती है। हर बार की तरह  एक दिन मानसिंह रेवी के घर पर आता है, रेवी से जबरदस्ती करता है। रेवी  से इस बार सहा नहीं जाता है। वह मानसिंह को उसके घर में पत्नी के रूप में बिठाने को कहती है। मानसिंह  को रेवी की यह बात स्वीकार्य नहीं है। लेकिन रेवी अपनी बात पर अडिग रहती है और घर में पत्नी के रूप में बिठाने का मानसिंह पर दबाव डालती रहती है। मानसिंह तो राजपूत है और रेवी एक दलित स्त्री है। एक दलित स्त्री को अपने घर में बिठाना उसके लिए कठिन और मुश्किल था। इससे उनकी बेइज्ज़ती होती थी। अपने समाज को मुँह दिखाने के लायक नहीं बचता। इधर रेवी भी मानने को तैयार नहीं है, अपनी बात पर अड़ी  रहती है, तब जाकर मानसिंह को सुनना पड़ता है। रेवी को अपने घर में पत्नी के रूप में वह बिठाता तो नहीं है, लेकिन बस्ती में कभी वापस न आने का और परेशान न करने का रेवी को वचन देता है। रेवी अपनी तर्क बुद्धि से मानसिंह से छुटकारा पा लेती है। लेखक ने चाहा होता तो रेवी के द्वारा कोई हिंसा का प्रयोग करवाया होता। लेकिन लेखक ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। उन्होंने बल प्रयोग न करके तर्क से काम लिया। रेवी के आक्रोश को उन्होंने कलात्मक रूप दे दिया। यह समन्वयकारी अभिव्यक्ति ही सर्जक को अन्य दलित सर्जकों से अलग करती है। सर्जक की इस प्रकार की अभिव्यक्ति सामाजिक समरसता की अनुभूति करवाती है।

'टोडलो' (अंचलो ) कहानी भी दलित नारी की दयनीयता को प्रकट करती है। दीपचंद बनिया के द्वारा पुरी का जातीय शोषण होता है। पुरी अपने पति गोवा के साथ घर संसार चला रही है। पति-पत्नी असह्य गरीबी में जी रहे हैं। मेहमान घर पर आ जाए तो उनके लिए खाने की व्यवस्था करना भी मुश्किल है। ऐसे में घर पर मेहमान आ पहुंचते हैं। दोपहर का वक्त था इसलिए बिना खिलाए जाने देना भी उचित नहीं था। ऐसा करते तो स्नेही संबंधियों में भी बेइज्ज़ती होती। पुरी आटे का डिब्बा देखती है। डिब्बा एकदम खाली है। घर में पैसा भी नहीं है। ऐसी स्थिति में गोवा पुरी को सेठ की दुकान से उधार लाने के लिए भेजता है। सेठ उधार तो देता है बदले में पुरी को अपनी वासना का शिकार बनाता है। खाने का सामान लेकर पुरी घर पर वापस आ जाती है। उसी दिन से पुरी का पूरा जीवन बदल जाता है। वह पागल की तरह व्यवहार करती रहती है। अपने आप को घर, पति और बच्चे से भी अलग कर लेती है। पुरी का यह बदलाव गोवा को भी बेचैन कर देता है। उसकी समझ में कुछ भी नहीं आता है।

ऐसे ही बहुत सारे दिन बीत जाते हैं। एक दिन बच्चे का स्कूल में पहला नंबर आता है। बेटे की सफलता की खुशी में सभी को मिठाई खिलाने की बात होती है। मिठाई दीपचंद की दुकान से ले आने की बात सुनते ही पुरी अस्वस्थ हो जाती है। उसका भेदी-मौन, दीपचंद ने उसके साथ जो व्यवहार किया था,  उस बात की पाठक को प्रतीति करवाता है। तभी गोवा को भी पता चल जाता है कि  दीपचंद ने पुरी का जातीय शोषण किया है। कहानी के अंत तक कहीं पर भी लेखक खुलकर यह बात करते नहीं हैं। कहानी के अंत में पता चलता है। सर्जक के सर्जकत्व की यही खासियत रही है। इसी विशेषता के कारण पुरी के प्रति पाठक के मन में संवेदना जगती है और दीपचंद जैसे लोगों के प्रति नाराजगी। यहाँ पर भी लेखक की अभिव्यक्ति सामाजिक समरसता की पक्षधर बनती है। खुले आक्रोश या नफरत की अभिव्यक्ति से लेखक दूर रहते हैं। लेखक चाहते तो पुरी के द्वारा कोई प्रतिक्रिया दिलवा सकते थे लेकिन ऐसा कुछ न करके लेखक दलित नारी की विवसता, बेबसता और सवर्ण समाज की असभ्यता को प्रगट करके कहानी समाप्त कर  देते हैं। सर्जक की इस प्रकार की अभिव्यक्ति ही सामाजिक समरसता की साक्षी बन जाती है।

'लूगडां' (कुंभी) 'कणण' (कुंभी) कहानियाँ भी दलित नारी की जातीय शोषण की कहानियाँ हैं। दोनों कहानी में लेखक ने कलात्मकता से दलितों की समस्या को उजागर किया है। धर्म के नाम पर दलित नारी का जो जातीय शोषण होता है, वह 'लूगडां' कहानी का विषय है। आश्रमों में चल रही पाप-लीला को यह कहानी प्रगट करती है। 'कणण' में भी दलित नारी का शोषण असरकारक रूप से प्रगट हुआ है। पथुभा का इंसान से शैतान के रूप में होता हुआ रूपांतर कहानी की केंद्रवर्ती क्षण रहा है। यहाँ पर भी लेखक ने दलितों पर होते रहते अत्याचार को कलात्मकता से प्रगट किया है। किसी भी प्रकार की आक्रामकता नज़र नहीं आती है। यह अभिव्यक्ति ही सामाजिक समरसता की  प्रतीति करवाती है।

'आँधु', 'भ्रमणा' और 'उचाट' कहानी में भी सामाजिक समरसता का निरूपण मालूम पड़ता है। तीनों कहानियां कलात्मक हैं और सामाजिक समरसता स्थापित करने का प्रयास ही देखने को मिलता है।

'आँधु' (नकलंक) सामाजिक समरसता की उल्लेखनीय कहानी है। आँधु का मतलब आँधी होता है। कहानी का नायक भोला बाहर और अंदर से भी आँधी का सामना कर रहा है। खरीदारी करके वापस घर लौटता भोला आँधी के कारण बुरी तरह रास्ते में फँस जाता है। असहाय भोला किसी से भी मदद की इच्छा रखता है। तभी उसकी शनो रावत से रास्ते में भेंट होती है। शनो से भेंट  होते ही उसका डर दोगुना हो जाता है। भोला ने उसको एक दिन अपमानित किया था। ऊंट के लिए चारा लेने आये शनो को उसने बुरी तरह डांटा था। ऊपर से चारा भी नहीं लेने दिया था। आज भोला को वह घटना याद आ रही थी। इसी कारण भोला को लगता है कि शनो आज अपने अपमान का बदला जरूर लेगा। भोला इसी कारण अंदर से एकदम डरा हुआ है। तभी शनो रावत उनको अपनी ऊंट गाड़ी में बैठ जाने के लिए कहता है और भोला को आँधी से बचाता है। यहाँ पर लेखक ने सामाजिक समरसता का उत्तम उदाहरण प्रस्तुत किया है। शनो चाहता तो अपने अपमान का बदला ले सकता था। लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया। भोला के साथ प्रेम से व्यवहार किया। यही सामाजिक समरसता है। बदला लेने में क्या मज़ा है? मज़ा तो सामने वाले को बदल देने में है। भोला की धारणा से विपरीत व्यवहार करके शना ने अपनी इंसानियत का परिचय दिया है। दलित और गैर-दलित समाज को जोड़ने का लेखक का यह प्रयास प्रशंसनीय है।

'भ्रमणा' (अंचलो) सामाजिक समरसता की एक महत्वपूर्ण कहानी है। कहानी के केंद्र में ही सामाजिक समरसता है। यहाँ पर दलित-चेतना, दलित-दमन, सवर्ण समाज के अत्याचार या नादानियत नहीं है। कहानी का मूल उद्देश्य ही सामाजिक समरसता को स्थापित करने का है। परंपरागत लोककथा का आधार लेकर इस कहानी की रचना की गई है। कहानी का कथानक कुछ इस प्रकार है।

सत्यपाल सोनी, शिवराम सालवी और घनश्याम सई तीनों खास मित्र हैं। तीनों साथ में ही रह कर अपना व्यवसाय करते हैं। गाँव-गाँव घूमकर रोजी-रोटी कमाते हैं,  लेकिन साथ बैठकर रोटी नहीं खा सकते हैं क्योंकि शिवराम सालवी दलित है। दलित के हाथ से बनाया हुआ खाना सत्यपाल और घनश्याम को खाना स्वीकार्य नहीं है। इससे उनका धर्म भ्रष्ट होता है। दोपहर का समय है। दोनों को भूख भी डट के लगी है। पर मन खाना खाने को तैयार नहीं है। आखिर भूख भूख का काम करती है। भला मन का भूख के आगे क्या चलता! दोनों को झुकना पड़ता है। शिवराम सालवी का बनाया हुआ खाना दोनों खाते हैं और जिस गाँव की ओर जाना था उसी गाँव की तरफ आगे बढ़ते हैं। चल कर थके-हारे उन्होंने जैसे ही गाँव को नज़दीक देखा कि उनको भी मीठे पकवान खाने जैसी डकार आती है। दोनों खुश हो जाते हैं। यहाँ कहानी पूरी  हो जाती है।

कहानी का कथानक तो इतना ही है। लेकिन उद्देश्य बड़ा है। जात-पाँत भूल कर अगर एक साथ काम करें,  एक साथ खाना खाएं और एक दूसरे के प्रति प्रेम भावना रखें तो परिणाम अच्छा ही आता है। यहाँ पर सत्यपाल और घनश्याम को भूख के कारण खाना पड़ता है। भले मजबूरन ही खाया हो लेकिन उन्हें आगे चलने की ताकत तो मिलती ही है। जिस गाँव को उन्हें जाना होता है वह गाँव देखकर उनके मन में प्रसन्नता होती है। यह प्रसन्नता एक साथ बैठकर खाने से और एक साथ चलने से आई है। लेखक का भी यही कहना है। जात-पाँत को भूलकर साथ में बैठकर खाना खाएंगे तो जरूर अच्छा परिणाम प्राप्त होगा। लेखक की यह विचारधारा ही सामाजिक समरसता की पक्षधर बनती है। सामाजिक समरसता साधने का यहाँ प्रशंसनीय प्रयास हुआ है।

'उचाट' (अंचलो) में सामाजिक समरसता देखने को मिलती है। कहानी के केंद्र में तो नारीचेतना है, दलित नारी का स्वाभिमान है, तो भी लेखक का आशय सामाजिक समरसता का रहा है। मोंघी कथानायिका है। कनकलता से उसकी बनती नहीं है तो भी उसका काम करती हैं। संडास ख़राब हो जाने के कारण कनकलता के घर में दुर्गन्ध आ रही है। मोंघी के बिना यह समस्या हल होने वाली नहीं है। मजबूरन कनकलाता को अपना काम करवाने के लिए मोंघी से बोलना पड़ता है। मोंघी भी अपना अपमान भूलकर कनकलाता की समस्या दूर करती है। उनके प्रति अपने मन में वह किसी भी प्रकार का बैरभाव रखती नहीं है। एक दलित नारी अपना अपमान भूलने को तैयार है। मोंघी इंसानियत के खातिर कनकलता का संडास साफ करने को राजी होती है। मोंघी  स्वाभिमान और चारित्र्यवान औरत है। वह किसी के सामने आसानी से झुकती नहीं है। इंसानियत के नाते यहाँ पर कनकलाता से समझौता कर लेती है। अपने मन में किसी भी प्रकार की दुर्भावना नहीं पालती है। यही सामाजिक समरसता है।

'कोह' (नकलंक) में सामाजिक समरसता का प्रयास देखने को मिलता है। कहानी का मूल आशय तो सवर्ण समाज की स्वार्थी प्रवृत्ति को प्रकट करने का है। कहानी की अभिव्यक्ति समन्वयवादी रही है। आक्रामकता मुखर बनकर नहीं, बल्कि कलात्मकता से प्रगट होती है। सवर्ण समाज के प्रति दलित समाज की नाराजगी भी कलात्मकता के साथ प्रगट होती है। 'भारो' (नकलंक) नारी-प्रधान दलित कहानी है। चंची कहानी की नायिका है। फतेहसिंह जैसे राजपूत से भी वह डरती नहीं है। यहाँ पर चंची शूरवीर नारी के रूप में उभर आती है। 'वेठिया' (कुंभी) में दलित-चेतना प्रगट हुई है। यहाँ पर सवर्णों की गुलामी करने से दलित मना कर देते हैं। दलित समाज अब किसी भी प्रकार की गुलामी करना नहीं चाहता है। स्वाभिमान से जीना चाहता है, यह उद्देश्य यहाँ पर निहित है। 'रढ' (पोठ) में भी दलित-चेतना प्रगट हुई है। दलित समाज की वेदना लेखक ने जेठा के माध्यम से प्रगट की है। जेठो शूरवीर, साहसिक और निडर इंसान है। जेठो जशुभा जैसे राजपूत से भी नहीं डरता है। उनको भी मार के वह अपने  अपमान का बदला लेना चाहता है। बदला लेकर वह अपने स्वाभिमान की रक्षा करता है। 'रढ' एक कलात्मक दलित कहानी है। 'लाग' (पोठ) और 'घोड़ार' (अंचलो) कहानी में पूरा दलित समाज विषय बनकर आता है। आरंभ से लेकर अंत तक दलित समाज कहानी के केंद्र में रहता है। 'लाग' कहानी दलित समाज के भीतर रही बुराइयों को अच्छी तरह प्रकट करती है। शासक वर्ग के द्वारा हो रहे दलित समाज का शोषण और दमन 'घोड़ार' में प्रगट हुआ है। रणमल कहानी का नायक है। दरबार के द्वारा हो रहा दलितों का शोषण उससे सहा नहीं जा रहा है। रणमल और दलित समाज की वेदना कहानी के केंद्र में है। 'विमासण' (कोलाहल) 'तेतर', 'धूरी', 'भागोल', 'कायर', 'अवढव', 'निरीक्षण' भी दलित कहानियाँ है। इन कहानियाँ में दलित समाज और उनकी समस्याये, संस्कार, रीत-रिवाज, खानपान आदि का अच्छी तरह से निरूपण हुआ है। श्री मोहन परमार की कलम ने बहुत सारी दलित कहानियाँ लिखी हैं। समन्वयवादी दृष्टिकोण उनकी कहानी लेखन की विशेषता रही है। किसी भी  समाज की भावना को ठेस पहुंचे ऐसी उनकी अभिव्यक्ति नहीं रही है। उनकी अभिव्यक्ति में समानता, न्याय, बंधुता, भाईचारे की भावना देखने को मिलती है। आक्रोश, नफरत, हिंसा की जगह वे ज्यादातर भाईचारा, सद्भावना और जीवनमूल्यों को महत्व देते हैं। यह विशेषता ही श्री मोहन परमार को अन्य दलित कहानीकारों से एक कदम आगे रखती है।

सामाजिक समरसता का विचार अपने आप में ही बहुत कुछ कह जाता है। यह विचार ही अपनत्व का एहसास करवाता है। समाज में समरसता का होना आवश्यक ही नहीं किंतु अनिवार्य भी है। सामाजिक समरसता समाज में शांति, समानता और सलामती का एहसास करवाता है। समाज में समरसता होती है तो लोग शांति से रह सकते हैं। एक दूसरे के प्रति विश्वास और अपनत्व का एहसास कर सकते हैं। अखिल भारतीय साहित्य परिषद के द्वारा रचा गया यह उपक्रम इसी कारण स्वागत योग्य है। समाज में समरसता लाने का यह प्रयत्न प्रशंसनीय है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस बात को स्वीकार किया गया है कि समाज में (भारत में) आज भी समरसता नहीं है। कुछ लोग तो मानने को ही राजी नहीं है कि समाज में आज भी ऐसा ऐक वर्ग है जो समाज के बहुत कुछ वर्गों से समरस नहीं हो पा रहा है। मुख्य प्रवाह से वंचित अस्पृश्य समाज को मुख्यधारा से जोड़ने का यह विचार देश के भविष्य के लिए भी शुभ संकेत है क्योंकि देश देश की जनता से बनता है। अगर देश में देश की जनता में ही सामाजिक समरसता नहीं होगी तो देश कभी भी विकास नहीं कर सकता। देश का विकास देश की जनता से जुड़ा हुआ होता है। किसी निश्चित वर्ग, संप्रदाय, धर्म, जाति का विकास होना यह देश का विकास नहीं है। किसी निश्चित वर्ग, संप्रदाय, धर्म, जाति का ही विकास होता रहेगा तो देश कभी भी विकास की ओर आगे नहीं बढ़ सकेगा। देश की प्रगति के लिए भी सामाजिक समरसता का होना अनिवार्य है। जहां जात-पाँत, संप्रदाय, धर्म नहीं होता है वहाँ सिर्फ देश और देश का भला होता है। सामाजिक समरसता संकीर्ण दायरे में रहकर नहीं सोचती। सामाजिक समरसता जात-पाँत, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, भाषा और कौम से ऊपर उठकर चलने की बात करती है। सामाजिक समरसता में धर्म, संप्रदाय, जात-पाँत को सवर्ण-दलित, स्त्री-पुरुष, काला-गोरा, मजदूर-श्रीमंत आदि भेद गौण बन जाते हैं। प्रमुख स्थान पर रहता है समाज, समाज में रहने वाले सभी प्रकार के लोग और उनका भला।

समाज में राष्ट्रवाद पैदा करने के लिए भी सामाजिक समरसता के बारे में सोचना पड़ेगा। राष्ट्रवाद से सामाजिक समरसता निर्माण नहीं हो सकती है, किंतु सामाजिक समरसता से राष्ट्रवाद निर्माण किया जा सकता है। राष्ट्र के प्रति लोगों में प्रेम तब जागृत होगा जब समाज में उन्हें सम्मानजनक रूप से स्वीकार किया जाएगा। जो लोग अपने अस्तित्व के लिए ही जूझ रहे होते हैं उनके दिल में हम राष्ट्रभावना निर्माण नहीं कर सकते। उनके दिल में देशभावना निर्माण नहीं होती तो हम यह भी नहीं कह सकते कि वह देशद्रोही हैं। देशद्रोही तो उन्हें कहा जाता है जो देश के प्रति नफरत रखते हों, देश के प्रति उदासीन हों उन्हें हम देशद्रोही नहीं कह सकते है। उनको हम देशद्रोही इसलिए भी नहीं कह सकते हैं कि उनको हमने एक इंसान के रूप में भी स्वीकार नहीं किया है। जिन लोगों को छू लेने से हमें लगता हो कि हम अपवित्र हो गए,  जिनके साथ बैठकर हम खाना भी न खा सकते हों, गलती से खा भी लिया तो अपने आपको भ्रष्ट हुआ महसूस करते हों और देश की संपत्ति में हम उन्हें अधिकार देने के लिए भी राजी न हों - उन लोगों के पास से हम देशभक्ति की अपेक्षा रखेंगे तो वह गलत तो नहीं होगा लेकिन अव्यावहारिकता जरूर होगी। देश के महत्वपूर्ण पदों पर कोई निश्चित वर्ग, संप्रदाय, धर्म जात-पाँत, कौम का ही आधिपत्य कायम रहे इसी कोशिश में किसी वर्ग, संप्रदाय, धर्म, जात-पाँत, कौम को आगे बढ़ने का मौका ही न दिया जाए और इसी मानसिकता को ही सतत् बढ़ावा  मिलता रहेगा तो जो पिछड़े हैं, तधाकथित अस्पृश्य हैं उनके दिल में हम राष्ट्रप्रेम जागृत नहीं कर सकते। स्वयंभू  राष्ट्र भावना तब ही निर्माण होगी जब देश के छोटे-मोटे सभी समाजों को समान हक, अधिकार प्राप्त होंगे। समान हक अधिकार देना सामाजिक समरसता से ही मुमकिन हो सकता है। सामाजिक समरसता की भावना लोगों के दिल में जागेगी तो अपने आप ही जात-पाँत, धर्म, संप्रदाय, सवर्ण-दलित, अमीर-गरीब की रेखाएं मिट जाएंगी। यह इतना आसान काम तो नहीं है लेकिन नामुमकिन भी नहीं, क्योंकि  सामाजिक समरसता की भावना सीधे जागृत नहीं हो सकती है। सामाजिक समरसता लाने के लिए पहले शैक्षणिक, आर्थिक, राजकीय, धार्मिक आदि समानता निश्चित करनी पड़ेगी। चूंकि सभी प्रकार की समानता पूरी तरह लागू करना असंभव है, तो भी मोटा-मोटी कुछ हद तक कुछ विषयों में समानता दिखाई दे ऐसा कदम तो उठाना ही पड़ेगा।

मेरी दृष्टि से सामाजिक समरसता लानी है तो निम्न दर्शाई गई बातों के बारे में पहले सोचना पड़ेगा। तभी जाकर सामाजिक समरसता लानी कुछ हद तक आसान हो सकेगी।

सामाजिक समरसता के लिए शिक्षा के क्षेत्र में समानता प्रतिपादित करना आवश्यक है। वर्तमान समय में शिक्षा का व्यापारीकरण हो गया है। इसके कारण गरीब वर्ग के लिए शिक्षा लेना दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। ऐसे में गरीब वर्ग कैसे समाज की मुख्यधारा में आ सकेगा? जब तक इस वर्ग के प्रति कोई न्यायिक कदम नहीं उठाया जायेगा तब तक सामाजिक समरसता संभव नहीं हो पाएगी। समाज में समरसता लानी है तो शैक्षणिक समानता की व्यवस्था करनी आवश्यक ही नहीं किंतु अनिवार्य हो जाती है।

सामाजिक समरसता लाने के लिए आर्थिक समानता के बारे में भी सोचना पड़ेगा। समाज या  देश के उत्थान के लिए हर एक व्यक्ति का आर्थिक रूप से समृद्ध होना आवश्यक है। आर्थिक रूप से समृद्ध व्यक्ति और समाज अपनी तरक्क़ी अच्छी तरह से कर सकते हैं। जिसके पास धन नहीं होता है वे लोग मन ही मन अपने आप को संपत्तिवान, समृद्ध समाज से अलग कर लेते हैं। बाद में वह यह सोचना शुरू कर देते हैं कि अमीर वर्ग ही हमारा शोषण कर रहा है। कुछ हद तक उन लोगों की बात सही भी है। आर्थिक रूप से समृद्ध लोगों के द्वारा गरीब लोगों का शोषण होता रहा है। हो भी रहा है। सर्जक मोहन परमार की 'उचाट' कहानी इस बात का उत्तम द्रष्टांत है। ऐसे माहौल में सामाजिक समरसता आसान नहीं हो पायेगी।  सामाजिक समरसता के लिए शोषक वर्ग को उदार बनना पड़ेगा। अपने स्थापित हितों को छोड़ना होगा क्योंकि आर्थिक असमानता सामाजिक समरसता के लिए बाधक है। पूरी तरह से आर्थिक समानता लानी संभव नहीं है तो भी मोटा-मोटा प्रयत्न होना ही चाहिए। गरीबी से गरीब लोगों को मुक्त करना जरूरी है।

आजकल ज्यादातर सभी बातें राजनीति से ही तय हो रही हैं। इसी कारण राजनीति में भी हर एक समाज का योग्य प्रतिनिधित्व होना आवश्यक बन जाता है। राजकीय समानता मतलब सत्ता में भागीदारी। किसी भी प्रकार की सत्ता में सभी समाजों का योग्य प्रतिनिधित्व होना जरूरी है। यदि समाज का प्रतिनिधित्व राजकारण में नहीं होता है  तो समाज की मूलभूत समस्याओं का निराकरण मुश्किल हो जाता है। योग्य प्रतिनिधित्व के अभाव में समाज को न्याय नहीं मिल सकता है। प्रतिनिधित्व को महत्व न देना यह सोच ही अन्यायकारी है। सभी समाजों को उनका अपना प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। तभी जाकर हर एक समाज की समस्या, भावनाये सामने आ पायेंगी और उनका योग्य समाधान हो पायेगा। इस समाधान की पूर्ति से होकर ही सामाजिक समरसता का मार्ग प्रशस्त होता है। सामाजिक समरसता लानी होगी तो राजनीतिक समानता भी सुनिश्चित करनी आवश्यक है। सामाजिक समरसता स्थापित करने की हमारी भावना तो अच्छी है, लेकिन राजसत्ता में जिन वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं है वे लोग सामाजिक समरसता को इतना जल्दी स्वीकार नहीं करेंगे। क्योंकि उनके मनभूमि में प्रतिनिधित्व की खाद का अभाव होगा तो सामाजिक समरसता का पौधा पनप ही नहीं पाएगा। किसी को हम उनका हक, अधिकार भी ना दें और उनके पास से अच्छे व्यवहार की अपेक्षा भी रखें यह दोनों बातें एक साथ संभव नहीं है। जो अधिकार विहीन हैं उन लोगों को सामाजिक समरसता की बात जल्दी हज़्म नहीं होगी। इसी कारण सामाजिक समरसता लाने के लिए राजनीतिक समानता सुनिश्चित करनी जरूरी है।

भारत जैसे देश में आज भी धार्मिक समानता सुनिश्चित नहीं हो पायी है। दलित या अन्य पिछड़े वर्ग के पुजारी को महत्व का पद देना तो दूर की बात रही कई जगहों पर तो मंदिर में भी प्रवेश नहीं करने दिया जाता है। मंदिर में प्रवेश न करने देना, पूजा विधि में सम्मिलित न करना यह धार्मिक असमानता है। सामाजिक समरसता लाने के मार्ग का सबसे बड़ा रोड़ा भी धार्मिक असमानता ही है। जब तक देवस्थानों पर और मानसिक स्तर पर वर्ण व्यवस्था के आधार पर भेदभाव होता रहेगा तब तक सामाजिक समरसता स्थापित करना पूरी तरह से संभव नहीं हो पाएगा। हमारे देश में ज्यादातर स्त्री और दलित वर्ग धार्मिक असमानता का भोग बनता आ रहा है। बनता रहा है। धर्म के नाम पर दलित और नारी का उत्पीड़न भी धार्मिक असमानता ही है। सामाजिक समरसता के लिए पहले इस असमानता का दूर होना भी आवश्यक है।

जाति-विहीन समाज की रचना सामाजिक समानता है। सामाजिक समरसता के लिये जाति का निर्मूलन होना जरूरी है। वर्ण के आधार पर हम किसी वर्ग को नीचा और किसी वर्ग को बड़ा नहीं कह सकते हैं। जाति के आधार पर किसी को छोटा-बड़ा कहना यह बराबर नहीं है। सामाजिक समानता में सभी वर्गों को समान रूप से देखा जाता है। जन्म के आधार पर किसी को बड़ा या किसी को छोटा समझने की मानसिकता जब तक समाज में बनी रहेगी तब तक सामाजिक समरसता स्थापित करनी इतनी आसान नहीं होगी। सामाजिक समरसता के लिए सामाजिक समानता का होना अनिवार्य है। जब तक गैर-दलित समाज के लोगों के मन में से 'मैं बड़ा हूँ, मैं बड़ी जाति में पैदा हुआ हूँ और दलित निम्न जाति में से आते हैं' - यह भावना दूर नहीं होगी तब तक सामाजिक समरसता स्थापित करना मुमकिन नहीं हो पाएगा। पहले तो देश के सभी नागरिकों को समानता की नजरों से देखना पड़ेगा। अपने को उच्च जाति के मानने वाले को अपना दृष्टिकोंण बदलना पड़ेगा। दृष्टिकोंण बदलने में यदि हम सफल होंगे तो सामाजिक समरसता अपने आप ही आ जाएगी।

सर्जक श्री मोहन परमार की अधिकांश कहानियों में सामाजिक समानता स्थापित करने का प्रयास हुआ है। उनकी दलित कहानियों में दलित समाज का व्यवहार तथाकथित उच्च जाति के लोगों के व्यवहारों से कई गुना अच्छा रहा है। 'आँधु', 'कोह', 'नकलंक',  'टोडलो', 'उचाट', 'भ्रमणा' आदि कहानियाँ उसका बढ़िया दृष्टांत है। इन कहानियों के आधार पर यह जरूर कह सकते हैं कि सर्जक श्री मोहन परमार के साहित्य में सामाजिक समानता को निमित्त बनाकर सामाजिक समरसता को स्थापित करने का जो प्रयास हुआ है वह काबिल-ए-दाद है। उनकी खूबी यह है कि उनकी अभिव्यक्ति में ही सामाजिक समरसता का एहसास होता है। उनकी लेखनी में एक प्रकार की विनम्रता है। सहज अपील है। इसके कारण वे विवेचक और भावको के प्रशंसक बन सके हैं। उनके सर्जन का पहला प्रयास दलितों के दु:ख, दर्द को प्रकाश में लाने का रहा है और दूसरा प्रयास गैर-दलित समाज के दिल में दलितों के प्रति हमदर्दी जगाने का रहा है। दलित भी एक इंसान है। उनकी भी अपनी इच्छा आकांक्षा होती है। उन्हें भी इज्ज़त से जीना होता है और उनमें भी मान-सम्मान जैसा कुछ होता है  - यह बात गैर-दलित समाज को समझाने में लेखक कुछ हद तक सफल रहे हैं। यह सफलता उनकी समन्वयकारी अभिव्यक्ति की आभारी है। कुछ दलित सर्जकों ने भी मोहन परमार की यह अभिव्यक्ति अपनाने की कोशिश की है । सर्जक श्री मोहन परमार की दलित कहानियों के पठन के पश्चात यह निष्कर्ष निकलता है कि वे केवल दलित सर्जक ही नहीं है अपितु सामाजिक समरसता स्थापित करने का प्रयास करने वाले  गुजराती एवं भारतीय समर्थ सर्जक भी हैं।

गुजराती साहित्य में दलित, गैर-दलित सर्जकों ने भी दलित-साहित्य का सर्जन किया है। उन्होंने अपने सर्जन के माध्यम से दलित, गैर-दलित समाज को जोड़ने का भी प्रयास  किया है। गैर-दलित सर्जकों ने अपनी कलम से दलितों के प्रति अपनी संवेदना प्रकट की है। हमदर्दी जताई है। दलितों के दु:ख, दर्द को समझने का प्रयास किया है। गैर-दलित सर्जकों के द्वारा भी दलित समाज की वेदना को वाचा देने का प्रशंसनीय कार्य किया गया है। यह भी सामाजिक समरसता का ही प्रयास है। बहुत सारे गैर-दलित सर्जकों ने दलितों के दु:ख, दर्द को समझा, उसको प्रकाश में लाने का शुभ प्रयास भी किया और यह बात भी स्वीकार किया कि दलितों की दुर्दशा के पीछे हमारे पूर्वजों की गलत नीति-रीतियाँ जवाबदेह रही हैं। गैर-दलितों का यह प्रायश्चित ही सामाजिक समरसता का प्रयास है। इतर समाज ने दलितों को अपना छोटा भाई समझा है। इस समझदारी में ही सामाजिक समरसता छुपी हुई है। गैर-दलित समाज के द्वारा दलितों के घर जाना, उनके घर जाकर उनके साथ बैठकर खाना खाना - यह परिवर्तन आजकल समाज में देखने को मिल रहा है। अब दलित साहित्य का विषय यह सब कुछ भी बनना चाहिये। श्री मोहन परमार की 'भ्रमणा' कहानी में साथ बैठकर खाने का जिक्र है। अन्य दलित सर्जकों के साहित्य में भी ऐसा प्रयास देखने को मिलता है। सभी दलित सर्जकों का सर्जन आक्रोशपूर्ण ही है, कलात्मक नहीं है, उसमें सामाजिक समरसता का प्रयास ही नहीं हुआ है- ऐसा कह कर हम उसे नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं। अन्य दलित सर्जकों के साहित्य में भी सामाजिक समरसता ढूंढने का प्रयास होना चाहिए। वह भी सामाजिक समरसता स्थापित करने का एक अच्छा प्रयास साबित होगा।

आधार ग्रंथ

  1. परमार, मोहन, 'अंचलो', रन्नादे प्रकाशन, अहमदाबाद, 2008
  2. परमार, मोहन, 'कुंभी', लोकप्रिय प्रकाशन, मुंबई, 1996 
  3. परमार, मोहन, 'कोलाहल' रन्नादे प्रकाशन, अहमदाबाद, 1980 
  4. परमार, मोहन, 'नकलंक', लोकप्रिय प्रकाशन, मुंबई, 1991 
  5. परमार, मोहन, 'पोठ', रन्नादे प्रकाशन, अहमदाबाद, 2001


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