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नयी कविता और कुँवर नारायण की रचनाशीलता

संवेदना और शिल्प के स्तर पर प्रयोगवाद के समानांतर किंतु समयकाल के हिसाब से ‘तारसप्तक’ के बाद एवं दूसरे सप्तक के दौरान हिन्दी में जो नयी काव्यधारा उमड़ी उसे ‘नयी कविता’ कहा गया । वास्तव में, नयी कविता को किसी एक आधारबिन्दु या मुद्दे पर प्रयोगवाद से अलगाया नहीं जा सकता । इतना ही नहीं, अपने वृहत्तर रूप में छायावादोत्तर— प्रगतिवादी और प्रयोगवादी कविता में नयी कविता की तमाम संभावनाएँ देखी-तलाशी जाती रही हैं । प्रयोगवाद और नई कविता में भेद रेखा अवश्य है किन्तु बहुत कुछ मिलाजुला भी है, एकदम से अलगाना बहुत श्रेयस्कर भी नहीं है; हालाँकि इस पर आलोचकों में मतैक्य नहीं है । मोटे तौर पर कहा जाय तो छायावादोत्तर हिन्दी कविता— प्रगतिवाद और प्रयोगवाद का विकसित, परिवर्तित एवं परिवर्धित रूप ही नई कविता है । “हिंदी में “नए पत्ते’ सन् 1953 में लक्ष्मीकांत वर्मा और रामस्वरूप चतुर्वेदी के संपादन में निकला था । इसके बाद 1954 में जगदीश गुप्त और रामस्वरुप चतुर्वेदी ने ‘नयी कविता’ का पहला अंक निकाला । सन् 1955 में धर्मवीर भारती और लक्ष्मीकांत वर्मा के सहयोगी संपादन में ‘निकष’ पत्रिका का सूत्रपात हुआ । यही वह समय है, जब ‘नयी कविता’ नाम ने जोर पकड़ा ।…गिरिजाकुमार माथुर ने ‘नयी कविता : सीमाएँ और सम्भावनाएं’ नाम की पुस्तक ही लिख डाली। मुक्तिबोध ने‘नयी कविता का आत्मसंघर्ष’ की रचना की । लक्ष्मीकान्त वर्मा ने नयी कविता के प्रतिमान स्थिर किए। ...... नयी कविता’ की काव्य यात्रा का प्रारंभ एक विशेष स्थान से न होकर चतुर्दिक से हुआ; जगदीश गुप्त को सर्वाधिक श्रेय मिलेगा”[1] ।

आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी के ‘प्रयोगवादी रचनाएँ’ और ‘नई कविता’ शीर्षक निबंधों ने हिन्दी साहित्य एवं आलोचना में एक लम्बी बहस छेड़ी । उन्होंने प्रयोगवाद को ‘बैठे ठाले का धंधा’ और नई कविता को ‘प्रयोगवाद की संतति’ कहा । तारसप्तक संकलन की विवृत्ति में अज्ञेय द्वारा प्रस्तुत ‘राहों के अन्वेषण’, ‘अभेद क्षेत्रों में जाने की कवि की आकांक्षा’, ‘उलझी संवेदनाओं की अक्षुण्ण अभिव्यक्ति’ आदि पर वाजपेयी ने तर्कपूर्ण कठोर प्रहार किए; इतना ही नहीं, उन्होंने अज्ञेय समेत ‘सप्तऋषियों’ पर भी कठोर टिप्पणियाँ कीं । इन सबका उत्तर अज्ञेय, प्रभाकर माचवे, जगदीश गुप्त, विजयदेव नारायण साही आदि विद्वानों ने समय-समय पर दिया और अपने पक्ष में ज़ोरदार वकालत भी की । लक्ष्मीकांत वर्मा, रामस्वरूप चतुर्वेदी, जगदीश गुप्त, श्याम परमार, नामवर सिंह, मुक्तिबोध, परमानंद श्रीवास्तव, कान्ति कुमार, रमेश दिविक, बैजनाथ सिंहल ने नई कविता पर महत्वपूर्ण आलोचनात्मक ग्रंथ लिखे । सप्तकों की ‘भूमिका’–‘नयी कविताः स्वरूप और समस्याएँ’–और ‘नई कविता’ की बहसें एवं आरोप-प्रत्यारोप बड़े गंभीर और रोचक हैं; ‘नयी कविता के प्रतिमान’ का उत्तर मानों ‘कविता के नये प्रतिमान’ से दिया जा रहा हो, ये सब अपने आप में किसी पेशेवर साहित्यिक वकील की तरह होता रहा। ललित शुक्ल ने स्पष्ट कहा कि— ‘नयी कविता को जन्मने अथवा उसके पुरस्सरण में श्रेय कमाने या कमवाने के संबंध में काफी खींचतान है । मैं तो उसमें भी वही दलबंदी देख रहा हूँ जो राजनीति में दीखती है, बिल्कुल हल्के स्तर की’[2] । वास्तव में, इन आलोचकों में व्यक्तिगत नहीं, विचारधारा की लड़ाई थी; अपनी मान्यताओं और स्थापनाओं को सच साबित करने की सात्विक होड़ थी । इस तरह नई कविता के प्रतिमानों को गढ़ने में इन आलोचकों एवं आलोचना ग्रंथों की अहम भूमिका रही। नई कविता पर कुछ कहने से पहले इन गंभीर और रोचक बहसों पर एक दृष्टि डालना आवश्यक है ।

यह सामान्य बात नहीं कही जा सकती कि अज्ञेय को ‘दूसरा सप्तक’ की भूमिका में कई आरोपों एवं मुद्दों की स्पष्टता करनी पड़ी, और बाद में भी यह क्रम चलता रहा— ‘प्रयोग का कोई वाद नहीं है । हम वादी नहीं रहे, नहीं हैं। न प्रयोग अपने आप में इष्ट या साध्य है । ठीक इसी तरह कविता का भी कोई वाद नहीं है; कविता भी अपने आप में इष्ट या साध्य नहीं है । अतः हमें प्रयोगवादी कहना उतना ही सार्थक या निरर्थक है जितना हमें कवितावादी कहना’[3] । ‘प्रयोगवाद के पुरोहित’ अज्ञेय या इसके ‘प्रमुख पुरस्कृता’ धर्मवीर भारती की प्रतिभा से वाजपेयी अनभिज्ञ नहीं थे, परंतु लड़ाई विचारधारा की थी । वे मानते हैं कि ‘ये कवि प्रयोगवादी बंधन में जकड़े होने के कारण तथा एक विशेष प्रकार की अनास्था, कुंठा और कटुता को जीवन-दर्शन के रूप में अपना लेने के सबब से अपनी स्वस्थ काव्यशक्तियों का समुचित विकास नहीं कर सके हैं । वस्तुतः वादी कवियों में हम इन्हीं दो को वाद की सीमा के बाहर देखना चाहते हैं, क्योंकि इनमें वास्तविक काव्यप्रतिभा है जिसका अन्य प्रयोगवादी कवियों में अभाव है’[4] । ‘नयी कविता’ को पुरानी कविता से हटकर अलग पहचान देने के लिए गढ़े एवं तलाशे गए नए प्रतिमानों के शिल्पी जो सब कुछ नया होने का दावा कर रहे थे वे भी यह जानते हैं कि पुराना सब बेकार नहीं होता; अलगाव की कोई पक्की-पोढ़ रेखा नहीं कि जिससे सीमांकन हो सके । नई कविता की ऐसी कई कविताएँ जिन्हें उनके पूर्ववर्ती काव्य-धाराओं की रचनाओं में रख कर पढ़ा जाय तो पाठक को क्या आलोचक तक को भनक न आए । यहाँ महज़ इतना ही कहना है कि नये का प्रयोग या प्रयोग का टोटका की दृष्टि से रचना महान नहीं बन जाती । नई कविता की ऐसी रचनाएँ जो लोक या प्रकृति को उद्घाटित करती हैं, वे पूर्वापर निरपेक्ष नहीं हैं । हाँ, मैले हो चुके उपमानों और प्रतीकों से कूच कर गये देवताओं के लिए नये अवसर एवं नए प्रतिमान तलाशा जाय तो इसका सहर्ष स्वीकार भी होना चाहिए । इस संदर्भ ‘सृजन के क्षण’ कविता दृष्टव्य है; आलोचक इसे छायावादी, प्रयोगवादी या नई कविता में अपने सुभीता के अनुसार फिट बैठा सकता है — “रात मीठी चांदनी है, / मौन की चादर तनी है, / एक चेहरा ? या कटोरा सोम मेरे हाथ में / दो नयन ? या नखतवाले व्योम मेरे हाथ में ? / प्रकृति कोई कामिनी है ? / या चमकती नागिनी है? / रूप- सागर कब किसी की / चाह में मैले हुए ? / ये सुवासित केश मेरी बांह पर फैले हुए / ज्योति में छाया बनी है, / देह से छाया घनी है, / वासना के ज्वार उठ-उठ चंद्रमा तक खिंच रहे, / ओंठ पाकर ओंठ मदिरा सागरों में सिंच रहे;”[5] ।

स्थूल के स्थान पर सूक्ष्म, लघु मानव की स्थापना, अंतर्द्वंद्व, अवसाद, निराशा, विवशता, हताशा, दमित कामवासना आदि की पीड़ा, मौन-पीड़ा, आत्मपीड़ा, आत्मकेंद्रितता, अकेलेपन और अजनबीपन की नियति, अतिबौद्धिकता, अनुभूति की सच्चाई, लोक-जीवन से संपृक्ति, शिल्पगत नवीनता आदि नई कविता की प्रवृत्तियाँ मानी जाती हैं । लक्ष्मीकांत वर्मा ने ‘भावबोध के नए धरातल’,‘प्रगति’,‘नयी भाषा’,‘नया सौन्दर्य’और ‘लघुमानव’ जैसे प्रतिमान निर्मित किए । विजयदेव नारायण साही ने लघुमानव के सिद्धान्त की व्याख्या नए ढंग से की जिससे लघुमानव का सिद्धान्त ‘नयी कविता’ के मूल्यांकन में प्रतिमान बन सका । हालाँकि लघुमानव का सिद्धान्त विवादास्पद रहा ।

अज्ञेय द्वारा संपादित 'तीसरा सप्तक' के प्रमुख कवि एवं नई कविता आंदोलन के सशक्त हस्ताक्षर तथा ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त कुँवर नारायण रचित ‘आत्मजयी’ मानक प्रबंध-काव्य के रूप में चर्चित रहा है । इसकी मूल कथा कठोपनिषद के नचिकेता प्रसंग पर आधारित है । नचिकेता प्रसंग-कथा ऋग्वेद (10-10-135) में वर्णित ‘नचिकेताख्यान’, ‘तैतरीय ब्राह्मण’, ‘महाभारत’, ‘कठोपनिषद’आदि में व्याप्त है । ‘नचिकेता प्रसंग धार्मिक क्षेत्र का न होकर दार्शनिक क्षेत्र का होने से वैचारिक स्वतंत्रता की अधिक गुंजाइश होने, और आज के मनुष्य की जटिल मनःस्थितियों को बेहतर अभिव्यक्ति देने के लिए अधिक उपयुक्त होने से कवि ने कथावस्तु का चुनाव उपयुक्त माना परंतु इसके साथ-साथ उसने धार्मिक-दार्शनिक पक्ष की विशेष चिंता न करके उन मानवीय अनुभवों पर अधिक दबाव डाला है जिनसे आज का मनुष्य भी गुज़र रहा है’[6] । कवि ने धर्म से लिपटे अध्यात्म की अपेक्षा दर्शन की तत्व-चेतना पर विशेष बल दिया है तो इसके कारणों की पड़ताल करनी चाहिए । तीसरा सप्तक के वक्तव्य में कविता में वैज्ञानिकता और बौद्धिकता के पक्ष में कुँवर नारायण ने अच्छी वकालत की थी । और, यह नई कविता की एक प्रमुख विशेषता है जहाँ भावना की अपेक्षा बौद्धिक स्तर पर वस्तु को व्यंजित किया गया । कुँवर नारायण के अनुसार वैज्ञानिकता से आशय ‘उस बौद्धिक स्वतंत्रता से है जो सदा से जीवन के प्रति निडर और अन्वेषी प्रश्न उठाती रही है’[7] । नई कविता की बौद्धिकता, दार्शनिकता और वैज्ञानिकता क्या कविता को नयापन या विशिष्टता प्रदान करता है ? या इससे कविता बोझिल हुई है ? इस संदर्भ में, ‘आत्मजयी’ की भूमिका या ‘तीसरा सप्तक’ के वक्तव्य में कवि की अतिरिक्त स्पष्टता पर यह कहना उपयुक्त होगा कि कविता की रचना प्रक्रिया भाव प्रक्रिया और विचार प्रक्रिया का समन्वय होती है; जबकि ‘कुँवर नारायण अपने काव्य को अनावश्यक रूप से चिन्तन से बोझिल बनाना चाहते हैं पर संवेदना और शिल्प के स्तर पर वे चिन्तन की बोझिलता को संभाल नहीं पाते’[8] । हालाँकि प्राचीन संदर्भों को नई अर्थवत्ता प्रदान करने और संवेदना को संवेद्य बनाने में कवि का प्रयास सतत विकासमान रहा है । ‘कठोपनिषद’ के नचिकेता प्रसंग को परम्परा एवं पुराकथा तक सीमित न रखकर ‘आत्मजयी’ में परिवर्तन और नई संभावनाओं की तलाश हुई है ।

आत्मजयी’ की भूमिका में कवि ने स्वीकार किया है कि उन्होंने कठोपनिषद से कथासूत्र ग्रहण किया है परंतु “आत्मजयी’ की कविताएँ कठोपनिषद की व्याख्याएँ नहीं हैं । ‘कठोपनिषद’ के विभिन्न श्लोकों से केवल संकेत-भर लिया गया है—बिना उनके अर्थ, या कठोपनिषद् में उनके क्रम को कविताओं के लिए किसी प्रकार का बन्धन माने । ... प्रयत्न यही रहा है कि सम्पूर्ण कृति में वैचारिक विषमता न आने पाए”[9] । कवि के वक्तव्य के बाद यह आवश्यक हो जाता है कि ‘कठोपनिषद’ और ‘आत्मजयी’ का संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन करते हुए कवि-प्रयोजन को समझा जाए । ‘कठोपनिषद’ और ‘तैत्तिरीय ब्राह्मण’ में नचिकेता के पिता वाजश्रवा ऋषि हैं आत्मजयी में उन्हें राजा के रूप में चित्रित किया गया है । ‘कठोपनिषद’ में सहर्ष यमलोक जाने को तैयार हुआ नचिकेता ‘आत्मजयी’ में विषादग्रस्त चित्रित है । वह अपने आप से संघर्ष करता है, थकता-टूटता है । वह ‘आत्महत्या का प्रयत्न’[10] करता है । नचिकेता स्वयं को असहाय पाता है, वह अचेत हो जाता है— सहसा नचिकेता को / समय का आभास जाता रहा । / अन्तिम क्षणों में, बस, / जल का हलका-सा कोलाहल / कानों में आता रहा ... टूट पड़ा कुलिश कठिन अन्धकार । / एक और सूर्य अंश अस्त हुआ । / लुढ़क गया एक शीश क्षितिज पार— / सारा जल रक्त हुआ[11] । ‘कठोपनिषद’ में नचिकेता पिता को उनके वचनों के महत्व को समझाते हुए सांत्वना देता है और सहर्ष सचेतावस्था में यमलोक जाता है । आत्मजयी का नचिकेता आधुनिक परिस्थितियों, समस्याओं से गुजरता है, वह अंधपितृभक्त नहीं है इसीलिए वह यज्ञ में हिंसा का विरोध करता है, पाखण्ड का विरोध करता है । वह कहता है— “पिता, तुम भविष्य के अधिकारी नहीं, / क्योंकि तुम ‘अपने’ हित के आगे नहीं सोच पा रहे”[12] । नचिकेता अपने पिता की दुनिया, उनके कार्य-व्यापार, उनकी स्वार्थपरिता आदि की आलोचना करता है । इसके बावजूद यह ध्यान रहे कि आत्मजयी का नचिकेता समस्त पितृ-परम्परा का विरोधी नहीं हैं, वह ग़लत एवं समाज के लिए सड़-गल चुकी परम्पराओं का विरोधी है । आत्मजयी में आख्यान का शिल्प भी नये-पुराने का समन्वय-सा है । परंतु काव्य की इत्तिवृत्तात्मकता नई विशेषण से मेल नहीं खाता । ‘काव्य का आरंभ नचिकेता के आत्महत्या के प्रयत्न से किया होता तो शिल्प की दृष्टि से ही नहीं, कदाचित वस्तुस्थापना की दृष्टि से अधिक सुंदर और मूल्यवान वस्तु प्रस्तुत की जा सकती थी’[13] । कवि ने विषाद में डूबे हुए नचिकेता को अचेतावस्था में यमराज से साक्षात्कार करवाया है—“कोई अजीब-सा मंत्र जाप पूरा कर के, /नवजात एक शिशु को समुद्र में फेंक दिया / अज्ञानी किसी पिता ने / वह बालक बहता रहा आयु के सागर पार । .....सहसा उस शिशु को बोध हुआ— / वह युवक - भयानक प्रलय बाद- / तैरता अँधेरे तूफ़ानी जल पर हताश । .... छोटा सा दीप—गरजती लहरों से लड़ता।/ तट पर दीखा नचिकेता को / कोई टूटा-फूटा मन्दिर”[14] ।

नई कविता की महत्वपूर्ण कृतियाँ जिन्हें उपलब्धि के तौर पर देखा जाता है— ‘आत्मजयी’, ‘संशय की एक रात’, ‘अंधायुग’, ‘एक कंठ विषपायी’ आदि उपनिषदों और पुराणों से कथ्य ग्रहण करती हैं; जबकि नई कविता का प्रयास परंपरा से मुक्त होने, और बहुत कुछ उसे ध्वस्त करने का रहा है । संभवतः जीवन और जगत के सास्वत प्रश्नों का हल वेदों, उपनिषदों, पुराणों आदि ग्रंथों में सुरक्षित हैं । शर्त लेकिन यह है कि इनका न अंधानुकरण किया जाय और न ही इन्हें एक ही कुंजी से खोला जाय । आनेवाले समय में संभव है कि सौंदर्य के कुछ और मानदण्ड विकसित हों, आंदोलनों का दबाव हो, सामाजिक-सांस्कृतिक संरचना में परिवर्तन-परिवर्धन हो – तब भी ये ग्रंथ जीवन-जगत को समझने में सहायक होंगे ।‘आत्मजयी की मूलकथा में अति प्राकृतिक घटनाएँ सहज हैं, किंतु इसे आधुनिक दृष्टि से जाँचते-परखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि कवि ने परंपरा और आधुनिकता का समायोजन करने का भरसक प्रयास किया है । हम चाहे जितने आधुनिक हों, हमारी स्मृति में अतीत धड़कता रहता है । वह हमारे वर्तमान में अपने प्रवेश की एक जायज माँग करता है’[15] ।

कई विद्वानों ने कुँवर नारायण की रचनाओं पर अस्तित्ववाद का प्रभाव देखा है और इसके प्रभाव के कारण कवि पर पलायनवादी होने का आरोप लगता रहा है । असफलता, निराशा, कुण्ठा, अकेलापन, संत्रास, परायापन, प्रारब्ध से टकरा कर इस संसार में फैंक दिए जाने की अनुभूति और मृत्यु अस्तित्ववाद के केन्द्र में रहा है । आलोचकों ने आत्मजयी में ‘आत्महत्या का प्रयत्न’ इसी संदर्भ में देखा है । मनुष्य अकेलेपन और अजनबीपन में जीने के लिए विवश है, उसे इस संसार में फैंक दिया गया है । नचिकेता अचेतावस्था में अनुभव करता है कि उसे भूल से पकड़ लिया गया है, उसकी छटपटाहट, विवशता और व्याकुलता को कवि ने वाणी दी है— “ओ भयानक अपच्छाया / देह के सीमान्त पर तैनात / काली रात, मुझको छोड़ दे, / मैं अजनबी हूँ / भूल से पकड़ा गया हूँ”[16] । उसे वास्तव में, नई कविता में जीवन की जिजीविषा और जीवन-संघर्ष मुख्य है । जीवन से पलायन युगीन विषमताओं, विडम्बनाओं की देन होने के साथ-साथ परम्परा में प्राप्त हुई विशेषता है । यह पलायन कुँवर नारायण से पहले जयशंकर प्रसाद, महादेवी आदि कई रचनाकारों के साहित्य में भी देखा जा सकता है । परंतु, आत्मजयी का मूल उपनिषद है, जहाँ आत्म-ज्ञानपरक तत्व-चिंतन के बरक्स मृत्यु पर विजय चरम परिणति है । कवि का यह पलायन नहीं है, प्राचीन चिंतन-दर्शन के बरक्स जिंदगी जीने की कला है, भयभीत हुए बिना मृत्यु से साक्षात्कार— ‘यदि पीना ही हो ज़हर / उसे दो तरह से पिया जा सकता है— / डरते-डरते / मरने से पहले ही मरकर / या उसी चरम भय से कोई अंध बल पा, / जीवन से भी ऊपर उठकर...’[17]!

विविध प्रलोभन देकर भी यम नचिकेता को उसके ध्येय से अलग न कर सके— ‘बोल नचिकेता तुझे क्या चाहिए ? / यम के पूछने पर नचिकेता के विचार आधुनिक समस्याओं, विसंगतियों, विडम्बनाओं, घात-प्रत्याघातों, आपाधापी आदि को वाचा देते हैं— मुझको इस छीनाझपटी में विश्वास नहीं । / मुझको इस दुनियादारी में विश्वास नहीं । / हर प्रगति-चरण मानव का घातक पड़ता है । / हम जीते आपाधापी और दबावों में । / हम चाहे जितना पायें कम ही लगता है / कुछ ऐसी रखी है तरकीब स्वभावों में’[18] । चक्रव्यूह में कवि संघर्षरत आस्थावादी हैः “मेरे हाथ में टूटा पहिया / पिघलती आग सी संध्या / बटन पर एक फूटा कवच / सारी देह क्षत विक्षत / धरती खून में सनी लथपथ लाश / सिर पर गिद्ध सा मँड़रा रहा आकाश / मैं बलिदान उस संघर्ष में / कटु व्यंग हूँ इस तर्क पर / जो जिन्दगी के नाम पर हारा गया”[19] । नई कविता में आस्था और अनास्था का प्रश्न महत्वपूर्ण रहा है । मनुष्य का विवेक ही उसे उचित-अनुचित का भान कराता है । अंधायुग के पात्र आस्थाहीन हैं, उन्हें भविष्य पर विश्वास नहीं है । ‘आत्मजयी’ में आस्था-अनास्था को लेकर कवि सचेत है, सामाजिक रूढ़ियों से संघर्ष में कवि ने आंतरिक और बाह्य दोनों स्तर पर हल ढूँढ़ने का प्रयास किया है । औद्योगिक सभ्यता एवं पूँजीवादी विकास ने परम्परागत सामाजिक ढाँचे को ध्वस्त करने में कोई कसर न छोड़ी । समाज, परिवार और मानवीय सरोकारों में बड़ा बदलाव आया, सामाजिक-सांस्कृतिक धरोहर और जीवन मूल्यों में अभूतपर्व परिवर्तन हुआ । विज्ञान और तकनीकी विकास के साथ-साथ मशीनीकरण के कुप्रभाव से मनुष्य अपने ही जाल में फँसता-उलझता जा रहा है— ‘अपने ही हथियारों से घबराया मानव /पत्थर का देव और लोहे का दानव / यह युग /अपनी ही ताकत से हारा मनुष्य /अपने अतीत को दुहराता अंधा भविष्य /शहरों का कूड़ा झोंपड़ियों में फैलाया /अपनी जरूरतो को कोड़ों से पिटवाया’[20]।

कुँवर नारायण की रचनाशीलता में इतिहास और मिथक का समन्वय हुआ है । मिथकों के नए प्रयोगों से वर्तमान की पड़ताल करने और उसे सामयिक संदर्भों में देखने के लिए उन्हें जाना जाता है । मृत्यु संबंधी शाश्वत एवं जटिल समस्या को ‘आत्मजयी’ में व्याख्यायित किया है । मिथक का यथार्थ के रूप में प्रयोग करना कठिन काम होता है । प्रभाकर श्रोत्रिय के अनुसार “कवि की वैज्ञानिक, बौद्धिक और आधुनिक चिंता को ठेस पहुँची है । मिथक का यथार्थीकरण काफी नाज़ुक काम है । .... आत्मजयी के कथाधार के कारण विसंगतियाँ टाली नहीं जा सकीं”[21] । इसके बावजूद “सूर्योदय!/ एक अंजलि फूल । जल से जलधि तक अविराम” की महिमा समझते हुए वे मानते हैं कि “कुँवर नारायण ने एक साथ दार्शनिक, वैज्ञानिक, और कवि की भूमिका निबाही है । सूर्य का बिम्ब जल से जलधि तक एक अभेद, विराट और गहन सामंजस्य में, ‘अंजलि के फूल’ की तरह विसरर्जित, अहम् को प्रार्थना की विनम्र और प्रक्षालित सुंदरता देता है”[22] ।

अंत में, कुँवर नारायण की काव्य-पंक्तियाँ— कविता एक उड़ान है चिड़िया के बहाने /कविता की उड़ान भला चिड़िया क्या जाने /बाहर भीतर / इस घर, उस घर /कविता के पंख लगा उड़ने के माने /चिड़िया क्या जाने ?

सन्दर्भ

  1. शुक्ल, ललित, नए काव्य नए मूल्य, दि मैकमिलन कंपनी ऑफ़ इंडिया लि., द्वितीय संस्करण 1979, पृ.167.
  2. शुक्ल, ललित, नए काव्य नए मूल्य, दि मैकमिलन कंपनी ऑफ़ इंडिया लि., द्वितीय संस्करण 1979, पृ.167.
  3. अज्ञेय, दूसरा सप्तक, ज्ञानपीठ, (1951), संस्कर-2, भूमिका, पृ.6
  4. नन्ददुलारे वाजपेयी, नई कविता, दि मैकमिलन कंपनी ऑफ इंडिया लि. प्रथम संस्करण-1976, पृ.115
  5. कुँवरनारायण, सृजन के क्षण.
  6. आत्मजयी, भूमिका, पृ.11-12
  7. तीसरा सप्तक, पृ. 231
  8. नयी कविता, डॉ. कान्ति कुमार, पृ. 102
  9. कुँवरनारायण,आत्मजयी, भूमिका, पृ.10
  10. वही, पृ.59
  11. वही, पृ.65
  12. वही, 20
  13. नन्ददुलारे वाजपेयी, नई कविता, दि मैकमिलन कंपनी ऑफ इंडिया लि. प्रथम संस्करण-1976, पृ.69
  14. वही, 38-39
  15. डॉ. प्रभाकर श्रोतिय, संवाद- नई कविता, आलोचना और प्रतिक्रिया, पृ.87
  16. कुँवरनारायण,आत्मजयी, पृ.63
  17. कुँवरनारायण,आत्मजयी, पृ.95
  18. कुँवरनारायण,आत्मजयी, पृ. 90
  19. कुँवरनारायण, चक्रव्यूह
  20. कुँवरनारायण,परिवेशः हम-तुम
  21. डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय, संवाद- नई कविता, आलोचना और प्रतिक्रिया, पृ. 94-95
  22. डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय, संवाद- नई कविता, आलोचना और प्रतिक्रिया, पृ. 94-95


डॉ. ओमप्रकाश शुक्ल, एसो.प्रोफेसर - हिन्दी, सरकारी विनयन कॉलेज, धानपुर – दाहोद. मो.नं 9426868095