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अभिनवगुप्तकृत गीतार्थसंग्रह – द्वादशाध्याय भक्तियोग के विशेष सन्दर्भ में

पत्र-सार:

दर्शन की दृष्टि से श्रीमद्भगवद्गीता वेदान्त-दर्शन की ’प्रस्थानत्रयी’ का एक अंश है। यह संस्कृत साहित्य का ऐसा ग्रन्थ है जिस पर अनेकानेक टीकाएँ उपलब्ध हैं, जिनमें से अधिकतर वेदान्त की परम्परा का अनुकरण करती हैं। सर्वशास्त्रज्ञ, महायोगी तथा दिव्य मेधा से विभूषित अभिनवगुप्त भारत के महानतम आचार्यों में से एक हैं। काश्मीर शैव दर्शन के कुल, क्रम, स्पन्द तथा प्रत्यभिज्ञा शाखाओं के साथ ही साहित्य के क्षेत्र में नाट्यशास्त्र, काव्यशास्त्र, संगीत, कला एवं सौन्दर्यशास्त्र में उनकी प्रवीणता लोकप्रसिद्ध है। इन्हें लगभग ४४ ग्रन्थों का रचयिता स्वीकार किया जाता है। अभिनवगुप्त ने श्रीमद्भगवद्गीता पर ‘गीतार्थसंग्रह’ नामक व्याख्या की है, जिससे बहुत कम लोग परिचित हैं।

इस शोधपत्र का विषय गीतार्थसंग्रह की विलक्षणता का वर्णन करते हुए गीता के व्याख्यान में अभिनवगुप्त की नितान्त नवीन दृष्टि का विश्लेषण करना है। उन्होनें गीता की व्याख्या काश्मीर शैव दर्शन के सिद्धान्तानुसार की है, जिसका अध्ययन रुचिकर है। गीता का कश्मीरी संस्करण अनेक स्थानों पर उसके अन्य संस्करणों से भिन्न है। गीता की अनेकानेक टीकाओं के उपलब्ध होने पर भी अभिनवगुप्त द्वारा इस टीका की रचना से किस प्रकार की नवीन दृष्टि प्राप्त होती है, इसका विश्लेषण इस शोध पत्र में किया जाएगा। भारतीय दर्शन परम्परा में किस प्रकार एक आचार्य किसी सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्ध रखने पर भी अन्य सम्प्रदाय के ग्रन्थ की व्याख्या करने पर एक नवीन दृष्टिकोण समाहित करते हैं, इसका विश्लेषण इस पत्र में किया जाएगा। अभिनवगुप्त केवल गीता पर टीका ही नहीं करते, अपितु इसे आगम-प्रमाण की कोटि में रखकर इसे शैव आगमों के समकक्ष स्थापित करते हैं। उन्होंने अपने अन्य ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर गीता के उद्धरण देकर तर्क की पुष्टि की है। गीता की इसी सर्वस्वीकृति को दर्शाते हुए भक्तियोग के विषय में एक भिन्न दृष्टि का प्रतिपादन करना, यह भी पत्र का विवेच्य विषय है।

मुख्य शब्द: काश्मीर शैव दर्शन, अभिनवगुप्त, गीतार्थ-संग्रह, भक्ति-योग, समावेश, शक्तिपात

अभिनवगुप्त तथा गीतार्थ-संग्रह:

दिव्य मेधा तथा बहुमुखी प्रतिभा के धनी आचार्य अभिनवगुप्त भारत के महानतम आचार्यों में से एक हैं। शैव दर्शन के कुल, क्रम, स्पन्द तथा प्रत्यभिज्ञा शाखाओं के साथ ही साहित्य के क्षेत्र में नाट्यशास्त्र, काव्यशास्त्र, संगीत, कला एवं सौन्दर्यशास्त्र में उनकी प्रवीणता लोकप्रसिद्ध है। इनकी रचनाओं में प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर इनका समय लगभग ९५० ई. से १०१६ ई. तक माना गया है। इन्हें ४४ ग्रन्थों का रचयिता स्वीकार किया जाता है, जिनमें मौलिक ग्रन्थ, टीका-ग्रन्थ तथा स्तोत्र सम्मिलित हैं। अभिनवगुप्त ने श्रीमद्भगवद्गीता पर ’गीतार्थसंग्रह’ नामक व्याख्या की है। वे गीता को विद्या तथा अविद्या के संघर्ष के रूप में देखते हैं तथा इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि परम चैतन्य के साक्षात्कार पर ही इस मोह से मुक्ति मिल सकती है। गीतार्थसंग्रह नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें गीता के अर्थ का संग्रह अर्थात् संक्षिप्त विवेचन है। ’मितं च सारं च वचो हि वाग्मिता’ की उक्ति के अनुसार कम शब्दों में सार का कथन ही इस व्याख्या का वैशिष्ट्य है। मंगलाचरण में ही अभिनवगुप्त कहते हैं कि यद्यपि मुझसे पहले भी अन्य विद्वानों ने बड़े परिश्रम से इस गीता की व्याख्या की है, तब भी मेरा उद्यम करना न्यायोचित है, क्योंकि मेरा परिश्रम गीता के गूढ अर्थ का प्रकाशन करने वाला है।
“तास्वन्यैः प्राकृतैर्व्याख्या कृता यद्यपि भूयसा।
न्याय्यस्तथाप्युद्यमो मे तद्गूढार्थप्रकाशकः॥”

भगवद्गीता पर १०० से अधिक टीकाओं के उपलब्ध होने पर अभिनवगुप्त की काश्मीर शैव दर्शनपरक व्याख्या का अध्ययन अत्यन्त रुचिकर है। इस व्याख्या की एक विलक्षणता यह भी है कि प्रत्येक अध्याय के अन्त में अभिनवगुप्त ने एक संग्रहश्लोक लिखा है, जो उस अध्याय की विषयवस्तु का सार है। इसका उद्देश्य अध्येता को उस अध्याय के विषय को समझने में सहायता करना है। अभिनव स्वयं संग्रह का अर्थ इस प्रकार करते हैं-
“सम्यग् गृह्यते निश्चीयतेऽनेनेति संग्रह उपायस्तेनोपायेनैतत् पदमभिधास्ये। उपायमत्र सतताभ्यासाय वक्ष्ये।” (गीतार्थसंग्रह ८.११) अर्थात् जिसके द्वारा अच्छी प्रकार ग्रहण अथवा निश्चय किया जाता है, उसे संग्रह अर्थात् उपाय कहते हैं। यहाँ उपाय सतत अभ्यास के लिए अभिप्रेत है। संग्रहश्लोकों का प्रयोग करना अभिनवगुप्त की रचनाशैली है। तन्त्रसार, अभिनवभारती तथा ध्वन्यालोकलोचन में भी उन्होंने संग्रहश्लोकों का प्रयोग किया है।

गीता का कश्मीरी संस्करण अनेक स्थानों पर उसके अन्य संस्करणों से भिन्न है। अभिनवगुप्त से पूर्व शैव दार्शनिक रामकण्ठ ने भी गीता पर टीका लिखी थी, जो ज्ञानकर्मसमुच्चयवाद के सिद्धान्त को महत्त्व देती है। अभिनवगुप्त भी ज्ञान तथा क्रिया में भेद नहीं करते है। ’ज्ञानपल्लवस्वभावैव हि क्रिया’ ऐसा उनका मत है। चित्, आनन्द, इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया- इन पाँच शक्तियों से शिव सदैव ही युक्त है।

“तथाहि संवेदनात्मको भगवतः प्रकाशानन्दस्वातन्त्र्यपरमार्थस्वभावस्य स्वभावमात्राक्षिप्तसमस्त सृष्टिस्थितिसंहृतिप्रबन्धस्य स्वस्वभावान्न मनागप्यपायो जातुचिदिति न कर्त्रवस्थातिरिक्तं कर्त्तृत्व किंचित्।” (५.१४) अर्थात् संविदरूप भगवान जिसका पारमार्थिक स्वभाव प्रकाश, आनन्द और स्वातन्त्र्य है, उसके स्वभावमात्र से ही समस्त सृष्टि, स्थिति और संहार का कार्य आक्षिप्त होता है। इसी प्रसंग में आचार्य शंकर ने स्वभाव का अर्थ अविद्यारूप माया किया है, इससे संसार का मिथ्यात्व सिद्ध होता है। किन्तु अभिनवगुप्त संसार की सृष्टि, स्थिति, संहार को परमेश्वर का क्रीडास्वभाव कहते हैं, अतः संसार मिथ्यारूप नहीं, शिवरूप ही है। अभिनवगुप्त अपने पूर्वाचार्य भट्टभास्कर की टीका का अनुसरण न करते हुए, प्रत्येक श्लोक पर टिप्पणी नहीं करते हैं। गूढार्थ का प्रकाशन ही उनकी टीका का उद्देश्य है, इसी कारण वे प्रत्येक शब्द का अर्थ नहीं करते जहाँ अर्थ स्पष्ट है। वे अपनी व्याख्या में ही उल्लेख करते हैं कि श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया ज्ञान वेदान्त से भी अधिक गुह्य है। (१८.६३)

भक्तियोग:

गीता का द्वादश अध्याय भक्तियोग है। इसमें श्रीकृष्ण अर्जुन को भक्तियोग के रहस्य को जानने वाले उत्तम भक्त के लक्षणादि बताते हैं। अर्जुन का प्रश्न है कि जो भक्त आपकी उपासना करते हैं उनमें से कौन योग को जानने वाले तथा आपको प्रिय हैं?
“एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥“(१२.१)

तब कृष्ण कहते हैं कि जो मुझमें मन को आवेशित कर, नित्य उपासना करते हैं, ऐसे परम श्रद्धा से युक्त भक्तों को मैं सर्वश्रेष्ठ मानता हूँ।
“मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥” (१२.२)

इसकी व्याख्या करते हुए अभिनवगुप्त कहते हैं कि “माहेश्वर्यविषयो येषां समावेषोऽकृत्रिमस्तन्मयो भावस्ते युक्ततमा मम मता।” अर्थात् शिव में जिनका समावेश अकृत्रिम (स्वाभाविक) है, वे मुझे उत्तम योगी मान्य हैं। “समावेश” शैवदर्शन का पारिभाषिक शब्द है। अपने जीवभाव का शिवभाव में निमज्जन समावेश कहा जाता है। अपने संविद्रूप कायचित्तप्राणशून्य का परिपूर्ण शुद्ध सर्वैश्वर्यमय में जो निमज्जन तथा चिदेकरूपता का जो उन्मज्जन है, वही समावेश है। सभी कौलत्रिकादिशास्त्रों में उपदिष्ट योगक्रमों का परम रहस्य यही समावेश है। योगियों की तुरीय तथा तुरीयातीत दोनों दशाओं को समावेश कहा जाता है। “अज्ञानरूपमलप्रतिद्वन्द्वितया समावेशलक्षणं सत्यस्वरूपे सम्यगासमन्तात् प्रवेशलक्षणं ज्ञानं यल्लाभेन ज्ञानी यदभ्यासे न च देहप्राणादावनन्तसंविद् धर्मात्मकविभवसमासादनाद् योगी भवति।” (ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविवृत्तिविमर्शिनी- खण्ड ३)

सत्ये निजे स्वरूपे सम्यगावेशमेव समावेशः। समावेशभाक् साधको ज्ञानीत्युच्यते, समावेशरसाभ्यासतः योगसिद्धिसम्पन्नः सन् योगीत्यभिधीयते। अर्थात् अपने स्वरूप में सम्यक् आवेश ही समावेश है। समावेश से युक्त साधक ज्ञानी कहा जाता है, समावेशरूपी रस के अभ्यास से योगसिद्धि से सम्पन्न होकर योगी कहा जाता है। ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका (३.२.१२) में पुनः इसका लक्षण करते हुए कहते हैं-
“मुख्यत्वं कर्तृतायाश्च बोधस्य च चिदात्मनः।
शून्यादौ तद्गुणे ज्ञानं तत्समावेशलक्षणम्॥“

चैतन्यात्मक ज्ञान की तथा कर्तृत्वरूप स्वातन्त्र्य की प्रधानता होती है और शून्यादि गौण हो जाते हैं यह समावेश का लक्षण है। शैव दर्शन की साधना का लक्ष्य यही समावेश है। आणव, शाक्त और शाम्भव के भेद से समावेश तीन प्रकार का है। इस समावेश का उल्लेख अभिनवगुप्त भक्तियोग के प्रसंग में तीन बार करते हैं।

व्यक्त ईश्वर (ब्रह्म) की उपासना की श्रेष्ठता के प्रसंग में अभिनवगुप्त छान्दोग्योपनिषद (८.७.१) में वर्णित आत्मा के आठ गुणों का उल्लेख करते हैं- अपहतपापमत्व. विजरत्व, विमृत्युत्व, विशोकत्व, विजित्सत्व, अपिपासत्व, सत्यकामत्व तथा सत्यसंकल्पत्व। उनकी व्याख्या के अनुसार अक्षर ब्रह्म के उपासक सर्वत्रगत्व (कूटस्थत्व, अचलत्वादि) धर्मों को स्वाभाविक न मानकर आत्मा पर आरोपित करके व्यर्थ ही दुगुना परिश्रम करते हैं, इसलिए उन्हें क्लेश अधिक होता है।

साधना की दृष्टि से आचार्य शंकर भी सगुणब्रह्म की उपासना के पक्षपाती हैं, क्योंकि इसमें परब्रह्म में समावेश बिना किसी क्लेश के हो जाता है। श्रीकृष्ण के भक्तियोग को अभिनवगुप्त भी सर्वोत्तम योग कहते हैं क्योंकि यह कृत्रिम नहीं है। अव्यक्त ब्रह्म की उपासना की तुलना में यह सर्वकर्मसमर्पणरूप योग अतिश्रेष्ठ है। इस प्रसंग में अभिनवगुप्त स्वरचित देवी स्तोत्र को उद्धृत करते हैं।
विशिष्टकरणासनस्थितिसमाधिसम्भावना विभाविततया यदा कमपि बोधमुल्लसयेत्।
न सा तव सदोदिता स्वरसवाहिनी या चितिर्यतस्त्रितयसंनिधौ स्फुटमिहापि संवेद्यते॥
यदा तु विगतेन्धनः स्ववशवर्तितां संश्रयन्नकृत्रिमसमुल्लसत्पुलक कम्पवाष्पानुगः।
शरीरनिरपेक्षतां स्फुटमुपाददानश्चितः स्वयं झटिति बुध्यते युगपदेव बोधानलः॥

यह कठोर साधना करने वाले तथा भक्तियोगमार्गी का भेद है। कभी कभी समाधि का अभ्यास करते हुए भी योगी संवेद्यता को प्राप्त नहीं करता क्योंकि ध्याता, ध्येय और ध्यान का त्रित्व यहाँ भी विद्यमान है। किन्तु जब उस चितिशक्ति की ज्ञानरूप अग्नि का ध्येयरूप ईन्धन नष्ट हो जाता है, और वह केवल अपने ही वश में रहता हुआ स्थित होता है, तब उस साधक के स्वाभाविक पुलक, कम्पन और अश्रुपातादि होने लगते हैं। शरीर की अपेक्षा ही नहीं रह जाती। तब चितिशक्ति का वह ज्ञानानल स्वयं ही प्रबुद्ध हो उठता है। इसी प्रकार के पुलक, कम्पन तथा अश्रुपात के लक्षणों का उल्लेख अभिनवगुप्त रसानुभूति के सन्दर्भ में भी करते हैं। सहृदय जब काव्य की रसानुभूति करता हुआ उससे एकाकार हो जाता है, तब यह स्थिति होती है।

तदनन्तर गीतानुसार व्याख्या करते हुए अभिनवगुप्त कहते हैं कि यदि योगी ईश्वर में चित्त का समावेश करने में असफल हो तब भी उसे अभ्यास करते रहना चाहिए। यदि अभ्यास न हो तब ईश्वर के लिए कर्मों को करता हुआ भी साधक सिद्धि प्राप्त करता है। अभिनव कहते हैं कि भगवान् के तीव्रतर शक्तिपात् के बिना तथा चिरकाल के पश्चात् प्रसन्न किए गए गुरुचरणों के अनुग्रह के बिना शिवत्व में समावेश दुर्लभ है, इसलिए अभ्यास किया जाता है।

“शक्तिपात्” भी पारिभाषिक शब्द है, जिसका उल्लेख शैव शास्त्रों में अनेकशः हुआ है। यह जीव पर शिव का अपनी स्वतन्त्र इच्छा के द्वारा किया गया भुक्ति तथा मुक्ति के फल को देने वाला सुविचित्र प्रकार का अनुग्रह है। स्वच्छन्द तन्त्र (१०.३६१-६२) में अभिनवगुप्त कहते हैं-
“तथा संसारिणः सर्वे बद्धाः स्वैरैव बन्धनैः।
न च मोचयितुं शक्ताः पाशवः पाशबन्धनाः॥”
“स्वयमेव स्वमात्मानं यावद्वैनेक्षते शिवः।
शिवशक्तिनिपातात्तु मुच्यन्ते पाशबन्धनात्॥”

शैवसिद्धान्तशास्त्रों में शक्तिपात के कुछ कारण माने जाते हैं। यथा- ज्ञानोदय, शुभकर्म, ईश्वरेच्छा, कर्मसाम्य, मलपाक, वैराग्य, धर्मविशेष, विवेक, सत्सेवा, सत्प्राप्ति, देवपूजा इत्यादि। यह शक्तिपात अपक्षपातावह, कर्मफलनिरपेक्ष, कालानपेक्ष, कालानियन्त्रित, क्रमिक, क्रियादीक्षानपेक्ष होता है। (तन्त्रसार) यह तीव्र, मध्य तथा मन्द के भेद से तीन प्रकार का होता है।

अभिनवगुप्त आगे व्याख्या करते हैं कि यदि अभ्यास भी विघ्नों के अभिभव के कारण सम्भव न हो तो पूजा, जप, स्वाध्याय, होम इत्यादि कर्मों को करना चाहिए। यदि भगवदर्पणरूप कर्म को करने में भी अज्ञानतावश असमर्थ हो तो सर्वस्व ईश्वर को समर्पित कर आत्मज्ञानी बनना चाहिए। इस प्रसंग में वे “लघुप्रक्रिया” से कुछ अंश उद्धृत करते हैं, जो समर्पण के भाव का कथन करता है।
“ऊनाधिकमविज्ञातं पौर्वपर्यविवर्जितम्। यच्चावधानरहितं बुद्धेर्विस्खलितं च यत्॥
तत्सर्वं मम सर्वेश भक्तस्यार्तस्य दुर्मतेः। क्षन्तव्यं कृपया शम्भो यतस्त्वं करुणापरः॥
अनेन स्तोत्रयोगेन तवात्मानं नेवेदये पुनर्निष्कारणमहं दुःखानां नैमि पात्रताम्॥”

अभ्यास से समावेशरूप ज्ञान श्रेष्ठ है, उस ज्ञान से भगवन्नमयत्वरूप ध्यान श्रेष्ठ है। इष्टरूप परमेश्वरप्राप्ति हो जाने पर कर्मफल का त्याग कर देना उचित है। अन्यथा परमात्मा का स्वरूपज्ञान न होने से सन्यास नहीं होगा। कर्मों के फल का त्याग करने पर ही आत्यन्तिक शान्ति प्राप्त होती है। इसलिए सबका मूल होने के कारण शिवत्व में समावेशरूप ज्ञान ही श्रेष्ठ है।

इसके पश्चात् आगे के श्लोकों में अभिनवगुप्त केवल कुछ शब्दों की व्याख्या करते हैं। ये सभी उत्तम भक्तों के लक्षण हैं। यथा- मैत्री- अमत्सरता यस्मादस्तीति। मात्सर्य का अभाव हो जिसमें ऐसी बुद्धि। इसी प्रकार का भाव करुणा भी है। ये सब मेरे ही हैं, इस प्रकार का भाव ममत्व है। मैं तेजस्वी हूँ, मैं असहिष्णु हूँ, मैं उदार हूँ यह बुद्धि अहंकार है। ये दोनों भाव जिसमें न हों वह निर्मम तथा निरहंकार कहलाता है। अपकार करने वाले शत्रु के प्रति द्वेषबुद्धि का अभाव क्षमा है। जो समाधिकाल के समान ही व्यवहारकाल में भी प्रशान्त अन्तः करण वाला हो, वह सतत योगी है। “इदमेव मया कर्तव्यमिति यस्य नास्ति प्रतिज्ञा” अर्थात् वह पुरुष जिसने ऐसी प्रतिज्ञा नहीं की है कि मुझे यही करना है, जो किसी स्थानविशेष या कर्तव्यविशेष से बंधा नहीं है, वह अनिकेत है। जैसा प्राप्त हो गया उसी कि बहुत मानकर सुखदुःखादि का उपभोग करते हुए, परमेश्वर के विषय में हृदय को समाविष्ट करके स्थित हुआ पुरुष सुखपूर्वक कैवल्य को प्राप्त कर लेता है।

अन्त में संग्रह श्लोक इस अध्याय की सम्पूर्ण विषयवस्तु का उपसंहार करते हुए कहते हैं कि
“परमानन्दवैवश्यसंजातावेशसम्पदः।
स्वयं सर्वास्ववस्थासु ब्रह्मसत्ता ह्यत्नतः॥”

अर्थात् परमानन्द की विवशता से जिसने शिवसमावेश की सम्पत्ति प्राप्त कर ली है, उसके लिए समस्त अवस्थाओं में ब्रह्मसत्ता बिना प्रयत्न के ही प्राप्त हो जाती है। गीतार्थसंग्रह व्याख्या भगवद्गीता का शैव सिद्धान्तों की पृष्ठभूमि में अध्ययन का एक अत्यन्त विशिष्ट प्रकार सामने लाकर इसके अध्ययन का एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है।

सन्दर्भ ग्रन्थ:

  1. अभिनवगुप्त, गीतार्थ-संग्रह, (सं.) राजानक लक्ष्मण, श्रीनगर: कश्मीर प्रताप स्टीम प्रेस, १९३३.
  2. अभिनवगुप्त, तन्त्रसार, (सं.) परमहंस मिश्र, वाराणसी: चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, २००२.
  3. अभिनवगुप्त, श्रीस्वच्छन्द तन्त्र, (सं.) परमहंस मिश्र, वाराणसी: सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, २००५
  4. अभिनवगुप्त, ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविवृत्तिविमर्शिनी (भाग ३), (सं) मधुसूदन कौल शास्त्री, बाम्बे: निर्णय सागर प्रेस, १९४३.
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  6. जवाहरलाल कौल, अभिनवगुप्त और शैव दर्शन का पुनरोदय, दिल्ली: जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र, २०१५
  7. नवजीवन रस्तोगी, काश्मीरशिवाद्वयवाद की मूल अवधारणाएँ, नई दिल्ली: मुन्शीराम मनोहरलाल पब्लिशर्स, २००२
  8. श्रीमद्भगवद्गीता, गोरखपुर: गीताप्रेस, १९९९
  9. Boris Marjanovic, Gitarthasangraha: Abhinavagupta's Commentary on the Bhagavad-Gita, Varanasi: Indica Books, 2004

शिखा राजपुरोहित, शोधछात्रा, संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, नई दिल्ली