Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
कंजर स्त्री जीवन का अस्मितामूलक यथार्थ

बीसवी सदी के अंतिम दशक में उभरे युवा रचनाकार भगवानदास मोरवाल ने मेवात क्षेत्र के आंचलिक जनजीवन को पूरे देश की समस्याओं से संबंध करके ‘काला पहाड़’ और ‘बाबल तेरा देश में’ जैसे उपन्यासों का सृजन करके हिन्दी में अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई है। इनके उपन्यास सृजन में भारतीय लोकतंत्र की कमियों और खामियों का ऐसा यथार्थ मौजूद है जिससे पाठक के मन और मस्तिष्क में पहले तो कई सवाल उत्पन्न होते हैं और जब पाठक सवालों के जबाब खोजने लगता हंै तो मानवीय मूल्यों के प्रति सजग होने के लिए चेतना प्रवाहित होती है। यह मोरवाल की कलात्मकता और यथार्थवादिता का एक ऐसा पहलू है जो उपन्यास के लोकतंत्र को और अधिक मजबूत बनाता है। उपन्यास के लोकतंत्र में विषय चयन, चरित्र सृजन और कथा परिवेश की दृष्टि से मोरवाल एक और इजाफा करते हंै। उनका सन् 2008 में प्रकाशित तीसरा महत्त्वपूर्ण उपन्यास ‘रेत’ इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। इसमें मोरवाल ने कथा सृजन की दृष्टि से भारत की सबसे उपेक्षित एवं जरायम पेशे से जुड़ी ‘कंजर’ जनजाति को आधार बनाया है। ‘कंजर’ जनजाति हमारे देश के उस हाशिये के जनतंत्र का प्रतिनिधित्व करती है, जिसे हमारे ही देश में, सभ्यता की दुहाई देनेवाले तथाकथित सभ्य समाज ने कभी भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा। जिसका पास-पड़ोस भी असहनीय, निंद्य और खरतनाक माना गया है। इतिहास साक्षी है कि जरायम पेशा से संलग्न और खानाबदोशी का जीवन जीने के लिए मजबूर हुए जनजातियों का जीवन अभिशप्त रहा है। उनकी विडंबनापूर्ण स्थिति में आजादी के बाद भी अपेक्षाकृत परिवर्तन नहीं हो सका है। इन जनजातियों के जीवन से जुड़ी परिवर्तन की चाहत और सामाजिक न्याय की अपेक्षा भले ही सामाजिक स्तर पर पूरी नहीं हुई हो, पर उनके जीवन को उपन्यास के लोकतंत्र में शामिल जरूर किया जा रहा है। मोरवाल कृत ‘रेत’ इसका प्रमाण कहा जा सकता है।

उपन्यास के केन्द्र में ‘कंजर’ जनजाति है, विशेषतः इस जाति की ‘कन्जरी’ कहलाने वाली स्त्रियों को प्रमुखता दी गई है। पुरुष की स्थिति गौण है। इनकी जिंदगी दूसरों के लिए मुट्ठी में रेत की तरह हो सकती है, पर स्वयं उनके लिए नहीं। वे अपनी जिंदगी को तेज रफ्तार से चलाकर आँधी भी बन सकती हैं और उससे किसी को तबाह भी कर सकती हैं। कंजर जनजाति का अपना स्वतन्त्र सामाजिक जीवन है, जीवन को जीने का नियम आधारित अलग व्याकरण है, जो वर्चस्वी हिन्दू समाज के किसी भी व्यवहार अथवा जीवन-शास्त्र से कैसे भी मेल नहीं खाता। हिन्दू समाज और कंजर समाज के जीवन की मर्यादाएँ एक-दूसरे के सर्वथा विपरीत, विरोधी और विचलित करने वाली हैं। ‘कंजर’ एक ऐसा समाज है जहाँ परिवार की स्त्रियों का वेश्यावृत्ति करना गलत नहीं समझा जाता। जो स्त्रियाँ इस तरह का पेशा करती हैं वे खिलावड़ी कहलाती है और उनकी हैसियत परिवार में विवाहित स्त्रियों से श्रेष्ठ होती है। जो स्त्रियाँ वेश्यावृत्ति नहीं अपनाती, उन्हें ‘भाभी’ कहा जाता है। परिवार में ‘भाभी’ की स्थिति दोयम दर्जे की होती है। भाभियों का यहाँ न तो कोई भविष्य होता है और न वर्तमान। भाभी को जीवन-भर ननदों, भतीजियों और बेटियों तक की सेवा करनी पड़ती है। यही उसके जीवन की उपयोगिता मानी जाती है। विपरीत इसके सुखप्रद जीवन ‘बुआ’ का है जिसे देह-व्यापार में संलग्न होने के कारण ‘खिलावड़ी’ (पुलिस की डायरी में ‘रजिस्ट्री’) कहा जाता है। यही ‘खिलावड़ी’ औरतें अपने-अपने घरों की असली मालकिनें (स्वामिनियाँ) मानी जाती हैं, क्योंकि देह-व्यापार करके ये ही रोज हजारों में पैसा कमाती है। यहीं इनके अभिशप्त जीवन का खुला और कठोर यथार्थ है।

आलोच्य उपन्यास के केन्द्र में ‘कंजर’ समाज की ‘कन्जरी’ कहलाने वाली स्त्रियाँ है। उपन्यास का मुख्य कथा स्थल गाजूकी में स्थित ‘कमला सदन’ है। गाजूकी गाँव है या शहर इसे लेखक ने स्पष्ट नहीं किया है। बस इतना बताया है कि, “बस्ती से पुल को जोडनेवाले छोटे-छोटे धूसर बीहड़, जो साँझ के गहराते झुटपुटे के साथ यहाँ आनेवाले धूल में लिपटे ट्रक, मारुतियों और मोटर साइकिलों के लिए अभेद्ध पनाहगाहों मे बदल जाते हैं। इसी पुल के इस पुराने नेशनल हाईवे से अपने-आपको जोडनेवाली सड़क के एक ओर कटोरीवालों का तिबारा, तो थोड़ा आगे जाकर ठीक उसके सामने छोटी-सी हरी चादर से आच्छादित मील भर फैला यह फासला, एक ही नाम के कई हिस्सों में बँटा हुआ है- गाजूकी, गाजूकी नदी और गाजूकी पुल।” गाजूकी के इस परिवेश में ‘कमला सदन’ पांच सौ वर्ग गज जमीन पर बना मकान है, एक बड़ी सत्ता है। वस्तुतः कमला सदन इस उपन्यास का वह रंगमंच है जिसमें जरायम पेशा कंजर जनजाति की तीन पीढियां शामिल हैं। सबसे बुजुर्ग पहली पीढ़ी की कमला बुआ इसकी मुख्य सरगना है। दूसरी पीढ़ी में शामिल है कमला बुआ की बेटी सुशीला, माया और रुक्मिणी। तीसरी नई युवा पीढ़ी की पिंकी, वंदना और पूनम हंै। इन तीन पीढ़ियों का परिवार गाजूकी के कमला सदन का निवासी है। इसी कमला सदन के इर्दगिर्द पुलिस, राजनेता और नवधनाढ्य मंडराते रहते हैं। इनके अलावा उपन्यास का सूत्रधार पुरुष पात्र वैद्यजी उर्फ घनश्याम ‘कृष्ण’ है जो कमला सदन का शुभचिंतक है। कमला सदन में राग-रंग का व्यापार शालीनता से चलता रहता है। कमला बुआ के परिवार में रुक्मिणी, सुशीला, माया, वंदना और पूनम ये सब खिलावड़ियाँ हैं। घर में सन्तों भाभी विवाहित स्त्री है जिसकी स्थिति नौकरानी से बदतर है। संतो भाभी के साज-शृंगार, इच्छा-आकांक्षाओं और जीवन गतिविधियों का कमला सदन में कोई अर्थ नहीं है। यहाँ तक की गंगास्नान के लिए जब पूरा परिवार हरिद्वार चला जाता है तो उसे साथ चलने को मना कर दिया जाता है और घर में रखवाली करने के लिए कहा जाता है। संतो के अंतद्र्वंद्व की स्थितियाँ, खामोशी और विद्रोही मन की संवेदनाओं को उपन्यास में उसका स्वभाव, भाव-भंगिमा, शारीरिक संकेतों की भाषा और सहज संवादों के द्वारा बड़ी कुशलता से अभिव्यक्त किया गया है। संतो का अकेले घर में होने पर एक कज्जा ग्राहक को संतुष्ट करने के लिए असफल कोशिश करना और निरंतर अपने अंतद्र्वंद्व में उलझे रहकर आखिर अपने घर से पलायन करना आदि प्रसंगों में उसकी खामोशी और विद्रोह का कारुणिक अंकन है। जिसे पढकर पाठक के मन में अनायास उसके प्रति सहानुभूति उत्पन्न होती है। जब वह अपने घर से चली जाती है तो पाठक यह महसूस करता है कि अच्छा ही हुआ जो वेदना, पीड़ा, घृणा और गुलामी के दलदल में फंसी संतो ने गृहत्याग करके अपने मुक्ति की तलाश की है।

उपन्यास की कथावस्तु इकत्तीस अध्यायों में विकसित हुई है। पहले के पन्द्रह अध्यायों तक गाजूकी और कमला सदन की ‘कन्जरी’ स्त्रियों के जीवनानुभव, रहन-सहन, रीति-रिवाज, सुख-दुख, परंपरा, जाति पंचायत, आचार-विचार और उनके सभ्य समाज के राजनेता तथा पुलिस व ग्राहकों से स्थापित संबंधों को उजागर किया गया है। सोलहवें अध्याय से उपन्यास राजनीति और समाज सुधार की दिशा में टर्न कर लेता है। ‘कमला सदन’ की रुक्मिणी नायिका बनकर सामने आती है। इस रुक्मिणी के प्रति उपन्यास का सूत्रधार वैद्यजी भावनात्मक लगाव रखता है। वैद्यजी को एक दिन अवसाद भरे स्वर में रुक्मिणी कहती है- “वैद्यजी, यह रुक्मिणी तो ऐसी रेत है, जिसे जैसी चाहे हवा अपने साथ उड़ा ले जाए...जैसा चाहे पानी बहा ले जाए और तो और जिसके जी में आए अपनी मुट्ठी में कैद कर ले जाए। क्या है इसका अपना, कुछ भी तो नहीं। भला, रेत का भी कोई अपना वजूद होता है?” इसके जबाब में वैद्यजी कहते हैं- “ऐसी बात नहीं है रुक्मिणी। यह तो अपना-अपना सोचने का ढंग है। मैं कुछ कहूँगा तो तुझे लगेगा मैं कोई उपदेश दे रहा हूँ, पर असलियत यह है कि बिना रेत तो क्या हवा, क्या पानी। इनका भी क्या है अपना। रेत बिना कैसे बवंडर, कैसे आँधी और तू कहती है कि रेत का भी भला अपना कोई वजूद होता है।” वैद्यजी के यह विचार धीरे-धीरे रुक्मिणी के जीवन में परिवर्तन की चाहत पैदा करते हैं। रुक्मिणी अपने वेश्या जीवन के समूचे दर्द को सहते हुए, जीवन व्यथाओं के अवसाद में जीते हुए भी उच्च वर्ग की जातियों द्वारा किए गए शोषण का बदला लेना चाहती है। जीवन में अपने देह और कर्म के बलबूते पर बहुत कुछ प्राप्त कर लेना चाहती है। लेखक ने रुक्मिणी के चरित्र को शोषण से मुक्ति प्राप्त करने की दिशा में सक्रीय और चेतनाशील नारी के रूप में पेश किया है। साथ ही यह भी बताया है कि शोषित और अवमानित जीवन जीनेवाले कंजर समाज और उस समाज की स्त्रियों के लिए मुक्ति का मार्ग उच्च जाति के चरित्रों की सहानुभूति के बिना संभव नहीं है। तभी तो उपन्यास की आधी अंतर्वस्तु पूरी होने पर सावित्री मल्होत्रा ‘रेत’ के आख्यान में अपनी उपस्थिति दर्ज करती है। यह सावित्री मल्होत्रा मध्यवर्गीय स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है जो अपनी भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति करने और तरक्की पाने के लिए संघर्षरत है। सावित्री का चरित्र इस उपन्यास का एक दोहरा चरित्र है। वह एक ओर मुरली बाबू जैसे राजनेताओं के इशारों पर चलती है, वहीं दूसरी ओर रुक्मिणी से हमदर्दी जताकर उनके उद्धार की बात करती है। वह अपने जीवन के मध्यवर्गीय अंतद्र्वंद्व®ं से झुझते हुए कोई भी स्वतंत्र निर्णय नहीं ले पाती। सावित्री मल्होत्रा इलाके की राजनीति के मुखिया मुरली बाबू के पीछे लामबंद होकर एक मध्यस्थ के रूप में कार्य करती है। सावित्री की मध्यस्थी गाजूकी में ‘राज्य युवा जनजाति महिला प्रकोष्ठ’ की स्थापना करने और बाद में रुक्मिणी को इस प्रकोष्ठ की अध्यक्ष बनाये जाने में प्रस्तुत है। मुरली बाबू और सावित्री चाहते तो है कंजरों का उद्धार करना पर इसके पीछे भी उनकी अपनी स्वर्थावादिता, सामाजिक वर्चस्व और नेतृत्व की आकांशा छुपी हुई है। यह दोनों भाजपाई राजनीति के सक्रीय नेता है, पर अपने-अपने ढंग से कंजरों का शोषण करते हैं। सावित्री सामाजिक सुधार के नाम पर कमला सदन की स्त्रियों को देह व्यापार से दूर करती है और मुरली बाबू उन्हें धूप-अगरबत्तियाँ बेचने का काम देते हैं। इनके द्वारा कमला सदन की स्त्रियों को राजनीति के चंगुल में फसाया जाता है। जब वह फंस जाती है तो उनका शारीरिक और राजनैतिक स्तर पर किस तरह से दोहरा शोषण किया जाता है। इसे उपन्यासकार ने बड़ी शिद्दत से उजागर किया है। दोहरे शोषण से संतप्त हुई कंजर स्त्रियों को रुक्मिणी न्याय दिलाने का कार्य करती है। वह वोट की राजनीति को समझती है और कंजरों का सिर्फ राजनीतिक स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करनेवालों को उन्हीं के दांव पेचों से पटकनी देकर शोषण से मुक्ति का मार्ग अख्तियार कर लेती है। रुक्मिणी अपने इलाके के चुनाव में बड़ी चतुराई से विधायक के रूप में जीत कर राज्य की उपमंत्री बन जाती है। उपन्यास की जुझारू चरित्र रुक्मिणी के प्रतिनिधित्व में उपन्यासकार ने स्त्री चेतना का स्वर, पिछड़ी जनजातियों की संघर्षशीलता और सामाजिक-राजनैतिक सवालों को एक विजन के तहत मुखर किया है।

यह उपन्यास कंजर जनजाति के उस आन्तरिक लोकतन्त्र का चित्रण करता है जिसकी मिसाल सभ्य कहे जानेवाले- कंजरों के अपने मुहावरे में- कज्जाओं में भी ढूँढना मुश्किल है। कंजरों में ‘मत्था ढकाई’ के लिए तैयार होती दिखती लडकी को पूरे कुनबे के सामने सप्रेम बुलाकर उससे यह रजामन्दी बाकायदा ली जाती है कि वह ‘भाभी’ बनना चाहेगी या ‘बुआ’। उपन्यास में यह प्रसंग कमला-सदन की ‘भाभी’ सन्तों की बेटी पिंकी के द्वारा प्रस्तुत हुआ है। पिंकी काफी संकोच और झिझक दिखाती है और अंततः यह घोषणा करती है कि उसे बुआ ही बनना है भाभी नहीं। बेटी के इस फैसले से उसकी माँ सन्तों क्षणभर विचलित होकर उसे तमाचे रसीद देती है पर जल्दी ही उसे यह अहसास हो जाता है कि भाभी बनने का जीवन कितना अभिशापपूर्ण है। वह खुद ‘भाभी’ होने के कठोर विषैले अनुभवों से गुजर चुकी है। आखिर सन्तों भी अपनी बेटी के फैसले को उचित मान लेती है। कंजर समाज की संस्कृति, परम्परा और पंचायत की शर्ते है। वे अपनी संस्कृति की सुरक्षा अपनी अस्मिता के लिए लड़ते हुए ही कर सकते है, यह उन्हें अच्छी तरह से मालूम है। ‘मत्था ढकाई’ की रस्म में कंजरों के अपने विधि विधान और नियम कानून है। जब किसी युवती को जरायम पेशा में आना होता है तो उससे पूर्व उसकी मत्था ढकाई का परंपरागत नियम अनिवार्य हैं। जिसमें किसी इज्जतदार कज्जा यानी रईस पुरुष से बड़ी रकम ली जाती है और उसके बाद ही नई लडकी को पेशा करने की अनुमति दी जाती है। मत्था ढकाई के समय शराब से लेकर रस्म की सारी चीजों का खर्चा भी इज्जतदार कज्जा पुरुष को करना पडता है। बाद में इसी पुरुष से उस लडकी को आजीवन मुफ्त में संबंध रखने पड़ते हैं। ‘मत्था ढकाई’ होने के बाद ही लडकी का खिलावड़ी बनने का मार्ग खुल जाता है। मतलब यह कि ‘जो एक बार इस लाइन में डल गई, वह जिन्दगीभर बुआ बनी रहेगी, ब्याह नहीं करेगी...और जो भाभी बन गई वह धंधा नहीं करेगी।’ सुशीला की मत्था ढकाई नंदजी ने की थी। इसके बारे में कमला बुआ बताती है, “बैद्जी, हमारे यहाँ जो इज्जतदार मत्था ढकाई करता है, उमर भर उसका जमाई की तरह मान किया जाता है। एक ब्याहता मर्द की तरह अपनी खिलावड़ी के पास आने-जाने की पूरी छूट होती है। उससे कभी पैसे नहीं लिए जाते हैं बल्कि जमाई की तरह पूरे नेग-दस्तूर के साथ उसकी बिदाई दी जाती है। वैसे भी बैद्जी, मत्था ढकाई जिन्दगी में एक दफे ही होती है। ये समझ ले इस बहाने जमाई के चाव-चोंचले पूरे हो जाते हैं।” इसी ‘मत्था ढकाई’ की पद्धति और परम्परा को नकारने की ओर अगे्रषित कंजर स्त्रियों की मानसिकता का भी अंकन उपन्यासकार ने किया है। रुक्मिणी कहती है- “बैद्जी, मैं नहीं पड़ती है इस झमेले में। अपना तो साफ कहना है कि ग्राहक को ग्राहक ही समझना चाहिए। मैं नहीं पालती इस दामाद-जमाई का टंटा। जिसे शौक है पाले। अरे, यह क्या बात हुई कि एक बार मत्था ढकाई क्या करी, उमर भर उसकी गुलामी हो गई। जब गुलामी ही करनी थी, तो जरूरी था बुआ बनना...ब्याह रचाके भाभी ना बनती... और बैद्जी, अगर मत्था ढकाई की उसने रकम दी है, तो बदले में मैंने भी उसे अपनी आबरू उसके हवाले की है। किसी ने किसी पर एहसान नहीं किया है।”

कंजर जाति में अपनी बिरादरी की पंचायत का विशेष महत्त्व रहा है। इस पंचायत के द्वारा विवाह तथा देह-व्यापार से संबंधित विवादों पर निर्णय लेने के लिए अपने कुछ कायदे-कानून एवं आचार-संहिताएँ निर्धारित की गई है। पंचायत का कठोर फैसला भी कंजरों में सर्वोपरि माना जाता है। उपन्यास में पंचायत द्वारा दहेज संबंधी विवाद तथा एक दूसरे के कज्जाओं यानी ग्राहकों को भडकाने या पटाने के आरोप का फैसला किये जाने का चित्रण है। बुआ कहती है, “एक बात बताऊँ बैद्यजी, हमारे कंजरों में कतल भी हो जाए फिर भी पुलिस नहीं आती है। हाँ, हमारी बिरादरी की पंचायत जो फैसला करती है, वह सिर माथे पे। इसलिए मरे मेरी सलाह मान, अपने रस्ते आ और अपने रस्ते जा।” संतो की शादी को लेकर तय की हुई दहेज की रकम को लेकर जब सिकंदर बिरादरी की मान-मर्यादा और कौल-करार से मुकर जाता है, तब कमला बुआ पंचायत में अर्जी करती है। इनके दहेज संबंधी विवाद पर पंचायत का फैसला दोनों पक्षों को मानना पडता है। इसी तरह रेखा और हेमा के बीच का कज्जा तोडने का विवाद तथा बुआ की बेटी माया और सुशीला के आरोप-प्रत्यारोपों के बीच पंचायत का फैसला देखने लायक है। कंजरों की पंचायत में विवाद को सुलझाने के भी अपने कुछ कायदे-कानून हैं। ‘पंचायत के आरंभ में दोनों मुदी की रजामंदी से पंच तय किये जाते हैं। बाद में दोनों मुदी की ओर से धरोड़ के रूप में पाँच तोले सोना मुखिया के पास जमा किया जाता है। पंचों के खर्चे के लिए तीन-तीन हजार, फैसला होने तक धरोड़ रखनेवाले को दो सौ रुपए रोजाना और पंचों को पानी पिलानेवाले को रोजाना सौ रुपए दोनों मुदी को ही देने पड़ते हैं। अगर किसी मुदी ने पंचों का फैसला मानने से इनकार किया अथवा धरोड़ के बारे में पुलिस को खबर दी, तो उसकी धरोड़ जप्त कर ली जाती है।’ कंजरों में इज्जतदारों की तरह किसी ब्याहता स्त्री को छोड़ना आसान नहीं होता। अगर कोई छोड़ना चाहे तो उसे दो मिनट भी नहीं लगते। इसे एक छुपे हुए राज की अनसुलझी गुँथी खुलवाने की दृष्टि से लेखक ने कमला बुआ के शब्दों में मुखर किया हैै। वह कहती हैं, “मरे तू क्या समझ रहा है हमारे यहाँ किसी मान मर्यादा की वजह से नहीं छोड़ा जाता है।... छोड़ने में मिनट लगते हैं दो... पर असल बात यह है कि कंजरों में अगर कोई मर्द अपनी औरत को छोड़ता है, तो उसे मोटा हर्जाना देना पड़ता है...उतना ही जितने में वह उसे ब्याहकर लाया है। अब बता कौन भरेगा दो-दो बार दंड। इसलिए ऐसा मर्द पहली को छोड़ने के बजाय अपने घर में दूसरी बैठा लेता है।” कंजरों में वैवाहिक मान-मर्यादाएँ और पारिवारिक जीवन के नियमों की तरह ही देह-व्यापार से जुड़ी स्त्रियों के लिए भी पंचायत के नियम अत्यंत कठोर रहे हैं। जैसे- किसी कज्जे को तोडनेवाली खिलावड़ी के माथे के बाल काट दिये जाते हैं तथा उसे पाँच-दस हजार तक की रकम का आर्थिक दंड देकर मुक्त कर दिया जाता है। कई बार तो उसे खिलावड़ी का पेशा और जाति बिरादरी से बहिष्कृत भी किया जाता है। इसलिए सहसा कोई पंचों के फैसले से मुकरने या विद्रोह करने का साहस भी नहीं कर पाती।

कंजर जाति के अपने सामाजिक नियम है, अपने देवी-देवता है, अपने उत्सव-त्योहार है। यहाँ तक की कंजरों द्वारा बनाई गई तोड़ के पहली धार वाली अपनी कंजर शराब भी है। वे माना गुरु को आदि देवता और माँ नलिन्या को आदि देवी मानते हैं, इनके लिए भूरा पीर की मजार का अपना महत्त्व है। लेकिन अपना स्कूल और अपना अस्पताल नहीं हैं। शिक्षा के अभाव में वे विकास की सभ्यता से अभी भी कोसो दूर रहे हैं। ‘कंजर’ स्त्रियों द्वारा जिंदगी की कठिन घडी में अपने कुल देवताओं के व्रत रखकर मन्नते माँगी जाती है। उनमें अपने धंधे में मुनाफा होने तथा नये-नये अमीर कज्जा ग्राहकों की प्राप्ति के लिए धार्मिक अनुष्ठान के तहत कर्मकांड भी किये जाते हैं। भूरा की मजार इसी तरह के अनुष्ठान से बनी हुई हैं। जहाँ पर पुत्र प्राप्ति के लिए लोग रात के अंधेरे में सह परिवार जाते रहते हैं। हेमा पंचायत के फैसले के बाद माना गुरु की कृपा मानकर अपने आप को तसली देती हैं। इसी तरह रुक्मिणी अपनी शारीरिक बीमारी के दौरान माना गुरु और माँ नलिन्या की आराधना करती हैं। यहाँ तक की एक-दूसरी कंजरियों के द्वारा आपसी झगड़े और मन-मुटाव के चलते इन्हीं देवी-देवताओं की कस्में खाई जाती है, दूसरों की बुराइयों के लिए भी मानता माँगी जाती है।

भगवानदास मोरवाल ने ‘रेत’ के जरिये स्त्री नैतिकता और स्त्री अस्मिता के समकालीन पहलुओं को सूक्ष्मता से उजागर किया है। वे स्त्री नैतिकता के सवालों को आजादी के बाद बदलती गई सामाजिक स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में उठाते हैं। आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के आग्रह में उच्चकुलीन स्त्रियों द्वारा बड़े-बड़े शहरों में दैहिक मुक्ति के इर्द-गिर्द होनेवाली स्त्री विमर्श की मात्र चर्चा को छद्म साबित करते हैं। इसके जगह सामाजिक जीवन में संघर्षरत् निम्न स्तरीय स्त्रियों के आत्मसम्मान, जागृति और अस्मिता से लैस होने का और प्रत्यक्ष विद्रोह किये जाने का विकल्प प्रस्तुत करते हैं। वे ‘कंजर’ स्त्रियों के जीवन अनुभवों से स्त्री विमर्श का वह आख्यान प्रस्तुत करते हैं, जहाँ समाज का वास्तविक यथार्थ छुपा हुआ है। कमला बुआ तिबारे पर हुए फसाद के दौरान दरोगा से डंके की चोट पर यह कहती हैं कि, “दरोगाजी, जैसे ये इज्जतदार अपनी मेहनत बेचते हैं न, वैसे ही हम अपनी देह बेचते हैं। हमारे लिए तो हमारी यह देह ही हमारी मेहनत है। हमारे लिए तो यह दूसरों की तरह आम काम है।...आगे जब सरपंच कहता है कि, देखा जनाब, धंधे को तो यह औरत मेहनत बता रही है। तब वह सरपंच पर व्यंग कसती है, “क्यों, बिना मेहनत के हो जाता है यह काम! जाके पूछ अपनी जोरू से कित्ती मेहनत लगती है इस काम में। वाह, तुम्हारी मेहनत, मेहनत और हमारी मेहनत धंधा। तुम कहलाओ कमेरे और हम कहलाएँ रामजनी। यह कहाँ का न्याय हुआ दरोगा जी” समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था स्त्री को मात्र उपभोग की वस्तु मानकर भले ही परिचालित होती हो, पर कंजरों की स्त्रियाँ अपनी अस्मिता के लिए देह का इस्तेमाल करना अच्छी तरह से जानती है। बावजूद इसके उनमें अपनी अस्मिता है, अपने शोषण के इतिहास के प्रति जागरूकता है। तभी तो रुक्मिणी यह कहने से चुकती नहीं कि, “कैद में! मरजी से तो बैद्जी इस रुक्मिणी को मर्द तो क्या जिनावर भी रौंद जाए...पर बिना मरजी के, आँख तो उठा जाए कोई ...माना गुरु की सौं बैद्जी, खंते से आँख निकालके हाथ पर रख दूँगी। आखिर इस कंजरी की भी अपनी कोई आबरू है।” इसी तरह कमला बुआ का आजाद देश में अपने शोषण को लेकर विद्रोही स्वर में दरोगा को आहत करना भी जागृति का प्रमाण बन जाता है। वह कहती हैं, “दरोगा जी, एक बात कहूँ। इस मूलक में हम तो आज भी वैसे ही हैं, जैसे फिरंगियों के जमाने में थे। पहले फिरंगियों और उनके दलाल-पिट्ठुओं ने हमारा जीना मुहाल कर रखा था, अब इन देशी फिरंगियों ने।” इस तरह मोरवाल अपने विचारों और तर्कों के आधार पर कंजर जनजाति की स्त्रियों के माध्यम से स्त्री मुक्ति और स्त्री अस्मिता का विद्रोही स्वर मुखर करने का साहस दिखा सके हैं।

अतः ‘रेत’ हिन्दी की औपन्यासिक उपलब्धियों में उल्लेखनीय रचना है। इसमें कंजर जनजाति को उनकी जिजीविषा और आकांक्षा के अनुरूप चित्रित किया गया है। उपन्यास की बुनावट में लेखक ने समकालीन समय की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में कंजर समाज जीवन की चुनौतियों को तत्परता से उजागर किया है।

डॉ. शिवदत्ता वावळकर, असिस्टेंट प्रोफेसर (हिन्दी), एस.एन.डी.टी. कला और वाणिज्य महिला महाविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय पुणे कैम्पस, कर्वे रोड, पुणे-411038 E-mail- shiva.janaisan@gmail-com sndthindipune@gmail.com Mobile- 8600266823