Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
Special Issue on Feminism
इक्कीसवीं सदी के काव्य में चित्रित नारी विमर्श
इक्कीसवीं सदीं एक नये युग की चेतना लेकर आयी है। परन्तु नारी वर्तमान में भी उसी पुरानी पीड़ा के तले दबी हुई है। नारी जीवन के हर क्षेत्र में आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक शोषण का शिकार होती आयी है परन्तु इन सबके साथ स्त्री पारिवारिक शोषण का भी शिकार होती है। नारी उत्पीड़न चाहे घर में हो या बाहर हर कोई इस विषय को गुप्त रखता है वह चाहे स्त्री हो या पुरूष। यही कारण है कि नारी को अधिक उत्पीड़न और शोषण का शिकार होना पड़ता है। नारी समाज द्वारा दी गई चुनौतियों का सामना तो कर सकती है लेकिन पारिवारिक शोषण से निजात का कोई रास्ता नही दिखता क्योंकि अपनों के साथ ही वह जीवन के कुछ पल जीती है बाहर तो उसे वह दुःख, दर्द, पीड़ाओं, शोषण से संघर्ष करना ही है लेकिन घर के अंदर ही जब स्थितियाँ विपरीत हो, परिवार में ही शोषण की भावना निहित हो तो नारी कहाँ जाए? तब तो नारी की स्थिति उस पिंजरे में कैद पक्षी की तरह ही हो जाएगी वह मुक्त होने के लिए फड़फडाएगी ही। स्वतंत्रता व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है फिर नारी को बंधनों में रखना क्या उचित है? नहीं। फिर भी समाज ने नारी पर अपना पुरूषप्रधान समाज शिकंजा कस दिया। इसी शिकंजे से मुक्त होने की व्यथागाथा है–नारी विमर्श।

नारी का विकास, प्रगति, उत्थान, अस्मिता के लिए उसकी प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति भी आवश्यक है। समस्त मानव समाज में आधी जनसंख्या स्त्रीयों की है। समाज के विकास के लिए जरूरी है कि पु़रूष के तरह स्त्री भी प्रगति करे एवं स्त्री को सभी सुख–सुविधाएँ व सम्मान प्राप्त हो। विकास की मुख्यधारा में स्त्री शामिल हो तभी एक सुखमय समाज की कल्पना की जा सकती है। स्त्री और पुरूष के बीच प्रत्येक क्षेत्र में व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, आर्थिक, साहित्यिक असमानताओं की गहरी खाई रही है। इन्हीं असमानताओं का विद्रोह है–स्त्री विमर्श।

इक्क्कीसवीं सदीं की कविता में पूर्ववर्ती कविता की अपेक्षा परिवर्तन आया है लेकिन नारी की स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। धूमिल, मुक्तिबोध से लेकर मंगलेश डाबराल, अरूण कमल, अनामिका, कात्यायनी, कुमार अम्बुज, ऋतुराज, वीरेन डंगवाल, राजेश जोशी, चन्द्रकान्त देवताले, उदय प्रकाश आदि कवियों के काव्यों में पुरूष के समान ही नारी के पक्ष को भी गंभीरता से उजागर किया गया है। इस शोधआलेख में मैंनें अरूण कमल, लीलाधर मंडलोई, लीलाधर जगूड़ी, चन्द्रकान्त देवताले, अनामिका, विष्णु खरे, उदयप्रकाश आदि की नारीवादी कविताओं में चित्रित नारी जीवन को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।

इस सदीं के काव्य में वर्तमान समाज के जीवन प्रसंगों, वर्तमान परिस्थितियों को प्रस्तुत किया किया गया है। वर्तमान जीवन में मनुष्य की विसंगतियों, स्त्री के शारीरिक–मानसिक शोषण, अतृप्त इच्छाओं, नारी पर पु़रूषप्रधान वर्चस्व, पारिवारिक स्थिति, पति–पत्नी के बीच मनमुटाव, तनाव, टूटते रिश्तों की खनक आदि विषयों का चित्रण मिलता है।

आधुनिक विचारों वाले साक्षर व जागृत समाज में भी प्राचीन कुप्रथाएं प्रचलित है। बालविवाह, सतीप्रथा, दहेज, टोनही डायन आदि कुरीतियाँ समाज को शर्मसार करती रही है। ये अलग बात है कि, इनके विरोध में कानून बने हैं परन्तु कानून से किसी व्यक्ति की सोच को नहीं बदला जा सकता। समाचार पत्रों में स्त्री अत्याचारों के न जाने कितने किस्सों के साथ भ्रूण हत्या जैसे गुनाह आए दिन हेडलाइन बन जाते हैं। इन सब अत्याचारों के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या कोई समाज इसकी जिम्मेदारी लेगा? भ्रूणहत्या के दर्द को अपने काव्यसंग्रह "कवि ने कहा" की "औरतें" नामक कविता में उदयप्रकाश जी उजागर करते हुए लिखते है–
"हजारों लाखों छुपाती हैं गर्भ के अंधेरे में,
इस दुनियाँ में जन्म लेने से इंकार करती हुई।
वहाँ भी खोज लेती हैं उन्हें भेदियाँ ध्वति तरंगे,
वहाँ भी भ्रूण में उतरती है हत्यारी कटार।" [१]
इसके विपरीत महानगरीय नारीयों द्वारा गर्भ गिराने एवं माताओं द्वारा मरे हुए बालकों को जन्म देना भी सोचनीय है। अरूण कमल जी अपनी कविता 'इक्कीसवीं शताब्दी की ओर' में लिखते है–
"पहली बार गर्भ धरती युवतियों के गर्भ गिर रहे हैं,
माताएं मरे बच्चों को जन्म दे रही हैं,
और हिजड़े चौराहों पर थपड़ी बजाते सोहर गा रहे हैं,
हम इक्कीसवीं सदी, की ओर जा रहें हैं।" [२]
लीलाधर मंडलोई जी की कविता "कस्तूरी" में नायिका पुरोहितों, पंडितों और दबंगों का सामना करती है। गांवों मे आज भी पुरोहितों द्वारा स्त्रीयों कोि जंदा जलाया जाता है। "कस्तूरी" कविता में कवि ने नारी पर होने वाले अत्याचारों का पर्दाफाश किया है। नायिका साहस, निर्भिकता तथा मुक्त जीवन गुजारना चाहती है परन्तु बंधनों के पाश में वह जकड़ी हुई है। अंत में वह आग की चपेट में अपना दम तोड़ देती है। परन्तु अपने साहस से वह आनेवाले समाज को शिक्षा दे जाती है। मंडलोई जी लिखते है–
"जली नहीं लेकिन कि वह कस्तूरी थी,
आग जो उसके भीतर थी। खिल रही अब भी गाँव में,
कि उसका एक बार होना,
कितना बार होना है इस धरती पर।" [३]
कहीं नारी भारतीय संस्कृति को ही अपना आदर्श मानती हुई अपने जीवन को पूर्ण समझती है। मनुस्मृति में नारी के लिए लिखा है कि, पत्नी का कर्तव्य है कि वह पति की पूजा करे। यदि वह दुश्चरित एवं गुणहीन है तब भी वह उसे देवता समझे। पतिसेवा व पुत्रात्पत्ति ही नारी का धर्म बताया गया है। इस अनुसार पति अपनी पत्नी से सेवा करवाता रहे और नारी मात्र, उसके कहे अनुसार चलती रहे। फिर भी उसे पति अपमानित, पीड़ीत करता रहे, क्या ऐसा व्यवहार अपनी ही पत्नी के साथ शोभनीय है? क्या यह एक पति को शोभनीय है? लेकिन फिर भी भारतीय समाज में पत्नी अभाव ग्रस्तता, बेबसी और शोषण प्रक्रिया से जूझँती हुई दिन–रात पति और उसके परिवार की सेवा करती रही है। वह अपना जीवन परिवार के लिए समर्पित कर देती है।

जीवन की अभाव ग्रस्तता, बेबसी और शोषण प्रक्रिया से इक्कसवीं सदी का कवि भली–भाँति परिचित है। पत्नी की मूक विवशता, सहनशीलता का लाभ पति उठाते रहे है। और पति की ज्यास्तियों का शिकार, पत्नी के दुःख को अरूण कमलजी अपनी कविता 'एक बार भी बोलती' में चित्रित करते हुए लिखते है कि,
"मैंने उसे जब भी जो कहा।
किया उसने
जानते हुए भी बहुत बार कि यह गलत काम है।
उसने वही किया जो मैंने कहा।………
अभी भी मैं समझ नहीं पाया।
कि वह कभी बोली क्यों नहीं।
मरते वक्त तक वह कुछ नहीं बोली।
आँखे बस एक बार डोलीँ और।" [४]
नारी जीवन जिस शोषण पीड़ा का शिकार अपने ही परिवार में होता है, उसकी वेदनामय पीड़ा से इक्कीसवीं सदी की कविता हमें रूबरू कराती है। पुरूषप्रधान समाज में नारी अपनी मरजी से कोई कार्य नहीं कर सकती। यहाँ तक कि अपने पति के साथ बाजार में जाते हुए यदि सड़क पार करनी हो तो भी वह पति से पूछकर करती है। सड़क पर पति की इजाजत लेकर शादी के तीस साल बाद भी डग भरना उसकी बोझीलतां भारीपन और दर्द भरे सफर की दास्ताँन कहता है। लीलाधर जगूड़ी जी लिखते है-
"अकेली औरत शादी के तीस वर्ष बाद भी
पूछती है सड़क पार कर लूँ
वह मर्द को अगुआ करती है
डग भरती है
जैसे जमाना पार कर रही हो
वह दिखती है एक खोए हुए साहस की तरह" [५]
वर्तमान समय में पति अपनी पत्नी को शक के घेरे में रखता है। उसे अपनी ही पत्नी पर बार-बार शक होता है। जैसे उसकी पत्नी उसके पीठ पीछे लाखों गुनाह कर चुकी हो। इसका चित्रण देखिये-
"तुम्हारा पति अभी बाहर है
तुम नहा नहाओ जी भरकर
तुम्हारा पति
एक पालतू आदमी है या नहीं
य्‌ह बात बेमानी है
पर वह शक्की हो सकता है
इसलिए उसकी प्रतीक्षा करो।" [६]
पति शक की नजरों से देखता है इसलिए कवि पत्नी को सलाह देता है कि, कुछ भी करने से पहले अपने पति का इंतजार करो। कैसी विडम्बना है नारी अपने ही पारिवारिक सवालों में, पारिवारिक छोटी-छोटी समस्या में ही उलझी हुई है।

समाज में नारी का कोई अपना स्थान नहीं है। उसके अपने कोई अधिकार नहीं है। विवाह से पहले माता-पिता के अनुरूप और विवाह के बाद पति के अनुरूप ही उसे चलना पड़ता है यह उसकी विवशता है। 'बेजगह' कविता की कवियित्रि इसी दर्द से मुक्ति की बात करती हुई अपनी कविता में लिखती है-
"जिनका कोई घर नहीं होता
उनकी होती है भला कौन-सी जगह?
जे छूट जाने पर
औरत हो जाती है
कटे हुए नाखूनों,
कंघी में फँसकर बाहर आए केशों-सी" [७]
विष्णु खरे जी की कविता "हमारी पत्नियाँ" नारी के विभिन्न रूपों को प्रस्तुत करती है। नारी पर परूषों द्वारा होने वाले अत्याचार नारी के जीवन को नर्कमयी बना देते है। नारी हमेशा से ही अपने परिवार के लिए चिंतित रहती है वह पारिवारिक कार्यो में उलझी ही रहती है। विष्णु खरे जी लिखते है-
"और देखते है
अपनी पत्नियों के आटे की चक्की पर
या राशन की दुकान, बिजली के मिस्त्री या डबलरोटी
वाले के सामने, अपने कई रूपों में
और पहचानते हुए भी हम उसमें एक अजनबी औरत देखते हैं।" [८]
आधुनिक नारी भी पिंजरों में कैद नजर आती है। लीलाधर मंडलोई मर्यादाओं में जकड़ी नारी की व्यथा का चित्रण अपनी गुरूदक्षिणा नामक कविता में लिखते है कि, नारी को भले ही पूजनीय माना गया हो लेकिन नारी सोच-विचार करने हेतु भी मुक्त नहीं है। वे लिखते हैं-
"स्त्रियाँ इतनी गैर मतलब रहीं घरों में
कि उनकी सोच पर कर्फ्यू।" [९]
एक स्त्री की आत्मनिर्भर रहकर ही प्रगति संभव है, वह जब तक स्वंय इस बात को नहीं समझती, तब तक स्त्री को पुरूषप्रधान समाज अपने पैरों की जूती बनाकर ही रखेगा। इसप्रकार इक्कीसवीं सदीं के कवियों ने नारी की दयनीय स्थिति का वर्णन किया है। नारी के जीवन से जुड़ी समस्याओं, बंधनों और उससे मुक्ति के लिए अपनी कलम को सशक्त बनाया है।

संदर्भः-
  1. काव्यसंग्रह -कवि ने कहा-औरतें- किताबघर प्रकाशन-उदयप्रकाश-पृ-९८
  2. काव्यसंग्रह-सबूत-इक्कीसवीं शताब्दी की ओर-वाणी प्रकाशन-अरूण कमल-पृ-७६
  3. काव्यसंग्रह-कवि ने कहा-कस्तूरी-किताबघर प्रकाशन-लीलाधर मंडलोई, पृ–७४
  4. काव्यसंग्रह–सबूत–'एक बार भी बोलती'– वाणी प्रकाशन– अरूण कमल, पृ–१८–१९
  5. काव्यसंग्रह– भय भी शक्ति देता है – राजकमल प्रकाशन– –लीलाधर जगूड़ी, पृ–५१
  6. काव्यसंग्रह–कवि ने कहा– किताबघर प्रकाशन– चन्द्रकांत देवताले, पृ–५१
  7. काव्यसंग्रह–कवि ने कहा–'बेजगह'– किताबघर प्रकाशन– अनामिका, पृ–११–१२
  8. काव्यसंग्रह–कवि ने कहा– किताबघर प्रकाशन –विष्णु खरे, पृ–५१
  9. काव्यसंग्रह–कवि ने कहा–'गुरूदक्षिणा'– किताबघर प्रकाशन –लीलाधर मंडलोई, पृ–७९
डा. गायत्रीदेवी जे. लालवानी, सम्प्रति– आसिस्टंट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, श्री कृष्ण प्रणामी आर्टस्‌ कालेज, दाहोद, गुजरात | सचलभाषः–7984498390 ईमेलः gsvttrust@gmail.com