Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
Special Issue on Feminism
संस्कृति की पक्षधर मिथिलेशकुमारी मिश्र
संस्कृति के पक्षधर में मिथिलेशकुमारी मिश्र को एक आला दरज्जे के साहित्यकार के रूप में गिना जा सकता है। कारण है कि उनकी ज्यादातर रचनाएँ भारतीय संस्कृति के किसी न किसी पक्ष को उजागर करती है। मिथिलेशकुमारी एक जागरुक साहित्यकार रही है। हमें उनके उपन्यास, नाटक आदि को देखकर ज्ञात होता है कि उन्हें भारतीय संस्कृति की चिंता थी। उनकी रचनाएँ भव्य भारत की बातें करती है। फिर इसमें उनके उपन्यास 'सुजान' हो या 'वैरागिन' या ऋषि दधिची के अस्थिदान की महानता से पृथ्वी की रक्षा हेतु की गाथा हो या कबीर के जीवन से जुडी घटनाएँ हो। सभी में भारत की महान संस्कृति की झलक दिखायी देती है। लेखिका ने भारत के महानत्तम् चरित्रों के जीवनवृत को प्रस्तुत कर हमें एक गौरवान्तित इतिहास से रूबरु करवाया है।

संस्कृति का प्रभाव है कि वह अपने आप में पूर्ण होती है। उसके सभी अंश, उसके सभी पहलू एक दूसरे पर अवलम्बित होते हैं। हमारी प्राचीन संस्कृति भव्यातिभव्य थी। वर्तमान में देखा जाए तो भारतीय संस्कृति पर उपनिवेशवाद का प्रभाव कुछ ज्यादा दिखायी देता है। पर भव्य भारत के इतिहास पर नज़र करें तो ज्ञात होता है कि भारत सही में सोने की चिडिया था। मिथिलेशकुमारी मिश्र अपनी रचनाओं में संस्कृति के उसी पक्ष को लेकर बात करती है जिससे एक भव्य भारत की पहचान बनी थी। उनके उपन्यास शीला भट्टारिका, अंजना, लवंगी, मदालसा आदि में हम भारत की महान नारियों के चरित्रों को उजागर करते हुए देखते हैं।

डॉ.मिथिलेशकुमारी मिश्र का 'कबीर' उपन्यास जो मूलत: कबीर के जीवनवृत की घटनाओं को उजागर करता है। इस उपन्यास में कबीर के पारिवारिक, सामाजिक, सुधारवादी तथा जागरुक व्यकितत्व के पक्ष को हम देख सकते हैं। लेखिका ने उपन्यास में कबीर के व्यक्तित्व के ध्वारा यह बात प्रस्तुत की है कि कबीर आज भी प्रासंगिक है। लेखिका इस उपन्यास में कबीर के समय में समाज में चल रहे छूआछूत, धार्मिक अंधश्रध्दा, बाह्याडम्बर आदि को लेकर जो विद्रोह की आग जलायी थी, उस बात को लेकर आज समाज में हो रहे वर्णभेद, धार्मिक बाह्यडम्बर, जात – पात आदि समस्याओं पर चर्चा की है। साथ ही साथ कबीर के जीवन से जुडे नारी चरित्र लोई, कमाली तथा विधवा ब्राह्मणी जैसे चरित्र को गरिमा के साथ चित्रित किया है। नारी चरित्र उपन्यास को गति देते हैं। उपन्यास में लेखिका ने कबीर के समय की सांस्कृतिकता को प्रस्तुत करते हुए समाज में चल रहे कुरिवाजों पर दृष्टिपात कर आज भी समाज में फैले हुए कुरिवाजों की ओर हमारा ध्यान खींचा है। कबीर ने तत्कालीन नाथपंथी योगियों की साधना प्रक्रिया पर भी आक्षेप किया है। कबीर की भक्ति भावना में धार्मिक आडम्बर पर चोंटदार व्यंग्य देखने को मिलता है। कबीर ने हिंदु तथा मुसलमान धर्म में फैली धार्मिक अंधश्रध्दा पर व्यंग्य करके प्रजा को जागृत करने का बीडा ऊठाया था। कबीर तो कहता था कि “कबीरा खड़ा बाज़ार में लिए मुराडा हाथ, जो घर फूंके आपना सो चले हमारे साथ......” इसी बात को ध्यान में रखकर लेखिका ने कबीर के समय में फैली समस्याओं पर ध्यान खींचकर उस समय प्रवर्तीत संस्कृति को उजागर करने का प्रयास किया है। कबीर अपने समय के कटु आलोचक ही नहीं, बल्कि समाज को लेकर स्वप्न द्रष्टा भी है। मिथिलेशकुमारी मिश्र ने उपन्यास में कबीर के अनन्य पक्ष को लेकर कबीर के समाज सुधारक रूप को भी जागृत किया है। उपन्यास में कबीर की दृष्टि समाज के हर तबके के लोगों के कुरिवाज़ पर रही है। मिथिलेशकुमारी जी का कबीर आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी के कबीर जैसा ही है। इस संदर्भ में द्विवेदीजी लिखते हैं - "कबीरदास ऐसे ही मिलन बिंदु पर खड़े थे, जहाँ एक ओर हिंदुत्व निकल जाता था, दूसरी ओर मुसलमानत्व, जहाँ एक ओर ज्ञान निकल जाता है, दूसरी ओर अशिक्षा, जहाँ एक ओर योगमार्ग निकल जाता है, दूसरी ओर भक्ति मार्ग, जहाँ एक ओर निर्गुण भावना निकल जाती है, दूसरी ओर सगुण साघना उसी प्रशस्त चौराहे पर वे खड़े थे। वे दोनों के देख सक्ते थे और परस्पर विरुध्द दिशा में गये मार्गों के गुणदोष उन्हें स्पष्ट दिखाई दे जाते थे"।1 मिथिलेशकुमारी मिश्र ने भी अपने उपन्यास 'कबीर' में कबीर के व्यक्तित्व के सारे पक्षों को चित्रित किया है। उपन्यास में कबीर का अल्लहडपना, घुमक्कडपना, मूँहफट बोलना, नीडरता तथा समाज के पहरेदार रूप को देखा जा सकता है।

जिस प्रकार 'कबीर' उपन्यास में मिथिलेशकुमारी मिश्र ने कबीर के जीवन – कवन के साथ – साथ समाज में फैली छूआछूत, धार्मिक अंध श्रध्दा आदि को उजागर किया है, ठीक उसी प्रकार 'अस्थिदान' उपन्यास में भी प्राचीन कथा को प्रस्तुत किया है। हम जानते है कि ऋषि दधीचि ने पृथ्वी के कल्याण हेतु अपनी अस्थियों का दान दिया था। यह उपन्यास दधीचि के त्यागमयी जीवन को प्रस्तुत करता है। लेखिका ऋषि दधीचि के चरित्र द्वारा दान की महिमा को बताते हुए हमारी महान भारतीय संस्कृति को प्रस्तुत करती है। यह उपन्यास मात्र पुराख्यान न रहेकर अपितु वर्तमान संदर्भ में लोक एवं राष्ट्रहीत में त्याग एवं मंगलकारी चेतना उद्बुध्द करता है। आज जहाँ संत और साधुओं को लेकर आम जनता के मन में विश्वास की भावना कम होती जा रही है। वास्तव में संत की यही परिभाषा है कि वह अपने लिए नहीं बल्कि संसार के लिए, संसार के कल्याण में अपने प्राणों का बलिदान दे जैसा महर्षि दधीचि ने किया। आज संसार में ऐसे दान करनेवाले लोगों की कमी है। आज तो लोग थोड़ा सा दान करके अपनी महानता के बख़ान करते हुए नहीं थकते। लेखिका एसे महान ऋषि के जीवन चरित्र को लेकर भारत की संस्कृति के उस पक्ष को उजागर करती है, जो प्राचीन समय से प्रचलित तो रहा है पर आज भी उस दान के कारण हम पृथ्वी पर जी रहे हैं। कथा प्रचलित ही है कि एक बार इन्द्रलोक पर वृत्रासुर नामक राक्षस ने अधिकार कर लिया तथा इन्द्र सहित देवताओं को देवलोक से निकाल दिया। सभी देवता अपनी व्यथा लेकर ब्रह्मा, विष्णु व महेश के पास गए, लेकिन कोई भी उनकी समस्या का निदान न कर सका। बाद में ब्रह्मा जी ने देवताओं को एक उपाय बताया कि पृथ्वी लोक में दधीचि नाम के एक महर्षि रहते है। यदि वे अपनी अस्थियों का दान कर दें तो उन अस्थियों से एक वज्र बनाया जाये। उस वज्र से वृत्रासुर मारा जा सकता है, क्योंकि वृत्रासुर को किसी भी अस्त्र – शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। महर्षि दधीचि की अस्थियों में ही वह ब्रह्म तेज है, जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता है। इससे अतिरिक्त कोई दूसरा उपाय नहीं है। महर्षि दधीचि विपदा को सुनकर लोक कल्याण हेतु अपने शरीर को समाधी द्वारा त्याग कर अपनी अस्थियों को दान में दे देते हैं। कथा का भाग मात्र इतना ही है पर इसके द्वारा लेखिका ने भारतीय संस्कृति में जो दान की महिमा है उस ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है।

संस्कृति जीवन की विधि है। संस्कृति उस विधि का प्रतीक है, जिसके आधार पर हम सोचते हैं और कार्य करते हैं। भारतीय संस्कृति में धर्म और मोक्ष, आध्यात्मिक संदेश एवं अर्थ और काम की भौतिक अनिवार्यता परस्पर समबध्द है। आध्यात्मिक्ता और भौतिकता के इस समन्वय में भारतीय संस्कृति की वह विशिष्ट अवधारणा परिलक्षित होती है, जो मनुष्य के इस लोक और परलोक को सुखी बनाने के लिए भारतीय मनीषियों ने निर्मित की थी। सुखी मानव-जीवन के लिए एसी चिंता विश्व की अन्य संस्कृतियाँ नहीं करती। लेखिका मिथिलेशकुमारी मिश्र इन सारी तात्विक बातों को ध्यान में रखकर ही अपने उपन्यासों में बात कर रही है। भारतीय संस्कृति में धर्म और मोक्ष तथा आध्यात्मिकता का सुभग समन्वय विधमान है जिसे मिथिलेशकुमारी ने एक विशेष मह्त्त्व के साथ प्रस्तुत किया है। हम देखते हैं कि मिथिलेशकुमारी ने उपन्यासों में जीवन के सारभूत मूल्यों की बात पौराणिक कथा के ध्वारा प्रस्तुत कर मनुष्य जीवन की महानता को बताने का प्रयास किया है। क्योंकि संस्कृति जीवन के निकट से जुडी है। कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि मिथिलेशकुमारी मिश्र एक संस्कृतिचेता रचनाकार रही है। इनकी रचनाएँ भारतीय संस्कृति के अन्यतम् रूप को प्रस्तुत करती है।

संदर्भ
  1. हजारी प्रसाद द्विवेदी, कबीर, पृ. 77-78
डॉ. मनीष गोहिल, एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, श्रीमती आर.डी.शाह आर्टस् एंड़ श्रीमती वी.डी.शाह कोमर्स कॉलेज, धोलका – 382225 (गुजरात)