Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
Special Issue on Feminism
मध्ययुगीन स्त्री लेखन में कृष्ण उपासना
रामचंद्र शुक्ल द्वारा बिभाजित साहित्येतिहास का ढाँचा चतुर्बर्गीय चौखाना है। जो चार कालों में बँटी अधूरी इतिहास है।जिसमे पुंस-साहित्य के साथ स्त्रीवादी साहित्य को तो स्थान मिला पर स्त्री साहित्य व स्त्री लेखन का नोटिस मात्र प्रस्तुत किया गया।हिंदी साहित्य इतिहास लेखन में जब तक यह क्ष्यतिपूर्ती नही की जाती चाहे जितनी भी हिंदी साहित्य का बृहत ओर विशद इतिहास ही क्यों न लिखी जा चुकी हो,वह संक्षिप्त इतिहास से अधिक नही मानी जा सकती। इस दिशा में पहला महत्वपूर्ण प्रयास जरूर 'हिंदी साहित्य का आधा इतिहास' नामक पुस्तक प्रकाशित कर सुमन राजे जी कर चुकीं हैं।परंतु सही स्वरूप में देखा जाए तो यह पुस्तक भी अभी आधी ही है। कारण जब तक पुनः एक सफल प्रयास दोनों इतिहासों के आधेअधुरेपन को जोड़ कर सम्पूर्ण,संपन्न न कर दिया जाए तब तक इतिहास खंडित ही बनी रहेगी। हमारे हिंदी साहित्य में इतिहास से वर्तमान पर्यन्त नारीवाद या स्त्री-लेखन की चर्चा अपर्याप्त हुई है परंतु स्त्री लेखन परंपरा की अवधारणात्मक मूल्यांकन से हमारा समाज हमेशा से कतराता रहा है।मध्यकालीन महिला लेखन का सरोकार साहित्येतिहास के मध्ययुग से जुड़ा है। पूर्वार्ध को भक्तिकाल और उत्तरार्ध को रीतिकाल जो निसंदेह रामचंद्र शुक्ल के द्वारा दिए गए हैं। सुमन राजे का मानना है कि-"जहाँ तक महिला लेखन का सवाल है,उसके लिए इस अन्तर्विभाजन की आवश्यकता नहीं है। पुरुष लेखन और महिला लेखन में एक बहुत बड़ा अंतर साफ-साफ देखा जा सकता है। भक्तिकाल का पुरुष लेखन आचार्यों,मंदिरों,और मठों की परंपरा में विकशित हुआ है। इसमें संप्रदायगत अंतर भी है।…

...इस दृष्टि में भक्तिकालीन महिला लेखन एक बहुत बड़ा मिथक तोड़ता है।...यह अधिकांशतः राजघरानों में लिखा गया,घरों में रहते हुए लिखा गया।" आज तक नारी सम्मान या उसकी महानता त्याग-धैर्य-तपस्या से निर्धारित होती आई है। और यहाँ हम उस समय की बात कर रहे हैं जब स्त्रियों के लिए अनिर्बाय यही रह गया था कि वे विजयश्री वीर पुरुष को उल्लाषित भाव से आरती उतारें। स्वयं को उसकी अर्धांगिनी मान गौरवान्वित महसूस कर आत्मसंतुष्टि कर लें। या अपनी देह को परपुरुष के कामुकता से बचाती हुईं, कुल मर्यादा की रक्षा करते हुए जौहर कर परम-सती विशेषण से मर्यादित करे। ऐसी स्थिति में स्त्रीलेखन का सवाल उठाना सही में जोखिम भरा है। चूँकि शायद ये अनुसन्धान इतिहास के भीतर इतिहास तलाशने जैसी थी। जिसका परिणाम पुरुषवादी अहं के मखमली अँगरक्खे को मैले-कुचले कर कुतर ड़ालते। संविधान द्वारा प्राप्त स्त्री-अधिकार के विरोध प्रदर्शन करती हुई 'कल्याण' के 'नारी विशेषांक'(1948) जैसा अंगरक्खे का रफ़्फ़ु शायद ही आज के दौर में संभव हो पाता ।आज भारत का हवा-पानी बदल चुका है।

सुमन राजे कहती हैं कि-"मध्ययुगीन नवजागरण और भारतीय नव्य आर्यभाषाओं का प्रारंभ लगभग एक साथ ही हुआ है । कहना चाहिए उन्होंने एक दूसरे को संभव बनाया है। भारतीय इतिहास के प्रवाह में जब-जब रेनेसां घटित होते हैं तब तब सामाजिक स्तर में भारी फेरबदल होता है। समाज के कमजोर समझे जाने वाले वर्ग और स्त्री एक उर्वर धरती की तरह विस्तारित होते हैं। यही कारण है कि इन युगों में स्त्री लेखन हुआ भी,संकलित भी हुआ और मूल्यांकित भी।" परंतु शायद पुरुष संसार को उसका अनावृत्त होना भारी पड़ रहा था। इसीलिए उस साहित्य पर साभिप्राय धूल की परत डाल दी गई।

भारतीय हिन्दू धर्म में मनुष्य जन्म के उद्द्येश्य को पुरुषात्मक ढांचों के अनुरूप ही चार पुरुषार्थ में बाँटा गया। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष ये मनुष्य की चार पुरुषार्थ बनी जिसमें स्त्रीत्व की अस्मिता को अगोचरित रखा गया। प्राचीन परंपरा से वर्तमान युग की पौरुष संरक्षण में स्त्री भोग्या बनी, माँ बनी, बहन बनी, कबीर के द्वारा 'माया महाठगिनी' भी बना दी गई। मोक्ष की प्राप्ति वह देव-आराधना या उपासना से नहीं बल्कि पति-पिता-पुत्र की दासी बन कर ही प्राप्त कर सकती थी।स्त्री धरती समान सहनशील होनी चाहिए। जब-जब पुरुषों द्वारा बनया गया दायरा या चौखट लांघती गई वह कुलद्रोहिनी कहलाती गई। कितनी अजीब बात है कि स्त्री का अस्तित्व पुरुष के साहचर्य के बिना हमेशा से दरकिनार होता आया है। चाहे वो वेश्या हो या विधवा उसके लिए एक ही उपमा प्रचलित किए है और वो है 'राँड'।

'स्वाधीनता का स्त्री पक्ष' पुस्तक में अनामिका "कंक्रीट की सड़कें और मीराबाई:मनचिते पुरुष का संधान" शीर्षक आलोचनात्मक लेख में लिखती हैं "पर मध्य काल की स्त्री दृष्टि शोचनीय थी। उपदेशों, आचार संहिताओं,कहावतों,पाठ्य पुस्तकों, ओषधिविज्ञान के ग्रंथों संत कथाओं और रोमांसओं में भी धड़ल्ले से मध्ययुग स्त्रियों को कोंचता था। तीन तरह के अभियोग लगाते थे स्त्री समाज पर जिन से उठकर स्त्रियां धर्म की राह चल देती थी। पहला तो यह कि स्त्रियां बेहद भौतिकतावादी,देहवादी,भोगप्रिय होती हैं।... दूसरा अभियोग यह के स्त्रियाँ भाषा का कचुमर निकाल देती हैं-झूठ बोलने, बक बक करने, गप्प हाँकने, झगड़े और फरियाद करने में । ...तीसरा अभियोग यह की साज सिंगार और दिखावे में स्त्रियों की गहरी रुचि होती है। उनका ज्यादातर समय इसमें ही बीत जाता है कि बाहरी आकर्षण कैसे बनाए रखें,आंतरिक गुणों के विकास पर इनका ध्यान ही नहीं जाता।... इन तीनों ही अभियोगों का एक ही प्रतिकार था संत बन कर दिखा देना। ईव् का चोगा छोड़कर मदर मैरी,वर्जिन मैरी का झिलमिल आवरण डाल लेना। स्त्री काया पर कामनाओं का सिटकिनी सी चढ़ा देना। घर में रहकर तो यह संभव नहीं था, घर से बाहर बस दो ही दरवाजे थे एक गिरजाघर का दूसरा चकला घर का। पहला विकल्प दूसरे से बेहतर था, पर मजेदार बात यह है कि ननरी दोनों को कहते थे।"

मध्ययुग में महिला लेखन का संरक्षण

वास्तविक मुद्दा तो तब से शुरु होती है जब खोज रिपोर्टों का प्रकाशन होना बंद हो जाता है। सवाल ये है कि क्या अनुसन्धान संपूर्ण हो गई या अब उसकी आवश्यकता नहीं रही।इन खोजों में जितने हस्तलिखित सामग्री प्रकाश में आई उनके संरक्षण का प्रयास भी कुछ खास नहीं किया गया। इन सब से ये संकेत तो मिलती ही है कि इन महिला लेखिकाओं के बारे में जानने का आग्रह हम में बची नहीं या फिर शायद इससे पुरुष-बर्चस्व को खतरा है।

मीरा

मीरा ही केवल एक मात्र मध्ययुगीन कवियत्री हुईं जिनको साहित्येतिहास भी उपेक्षा नहीं कर सका। खोज का विषय है कि क्यों नहीं कर सका?शायद इसलिए कि मध्ययुगीन साहित्य में मीरा का जीवन और साहित्य नारी-विद्रोह का रचनात्मक आगाज था। एक मध्ययुगीन समाज में,राजस्थान के राजघराने की रानी 'सती' होने से इनकार करती है। 'लोकलाज' छोड़कर साधु संगति में इकतारा बजा कर पद गाती हैं,पैरों में घुंगरू बांध श्री कृष्ण के प्रेम में वाचाल हो नृत्य करती हैं।
पग घुँघरू बाँध मीरा नाची, रे ।।
मैं तो मेरे नारायण की, आपहि होगइ दासी, रे ।
लोग कहें मीरा भई बावरी, न्‍यात कहैं कुल नासी, रे ।
मध्ययुगिन समाज में मीरा का वैधव्य उन्हें विलासी परिधान,विमुक्त केश,आभूषण,श्रृंगार और न ही मन चाहे भोजन की स्वतंत्रता देती थी। दे सकती थी तो केवल जर्जरित वृक्ष के भांति सांस लेने का अधिकार और मृतक प्राय जीवन अतिवाहित करने का स्वातंत्र्य। ऐसे में मिरा की मुँह चिढ़ाती सामाजिक विद्रोह का विगुल उनकी हत्या का षडयंत्र रचे तो आश्चर्य की बात नहीं हो सकती थी। मीरा के रचनाओं में काव्यभाषा का तीन संस्करण प्राप्त होते हैं- राजस्थानी,ब्रज और गुजराती। तीनों ही भाषाओँ को मिलाकर उनकी रचनाओं की संख्या सौ तक पहुँच जाती है।

मीरा के भाव की अनुभूति किसी दर्शन या संप्रदाय के खांचे में नहीं बिठाई जा सकती। चूँकि मीरा का काव्य उनकी निजी अनुभूति का काव्य है। कृष्ण के गिरिधर रूप उनको काफी प्रिय है-
"मेरे तो गिरिधर गोपाल दुसरो न कोई या
"मैं तो गिरिधर के घर जाऊं"
मीरा का मध्ययुगीन समाज से पलायन कर कृष्ण के गिरिधर स्वरूप की उपासना मेरा ने क्यों किया होगा? कृष्ण का गिरिधारण मूर्ति वह अन्यतम कृष्ण-लीला थी जो पूरे ब्रज की रक्षा इंद्र के कोप से करती हुई गिरिधारी कहलाई। मीरा किससे अपनी रक्षा चाहती थी? पितृसत्तात्मक समाज से! समाज की थोपी स्त्री-कर्तव्य का गठरी ढ़ोते-ढ़ोते जरूर मीरा अवश हो चुकी होंगी। "मीरा का आधुनिक संदर्भ" नामक लेख में सुरेश गौतम लिखते हैं-" कृष्ण का स्तवन मीरा ने 'कांतभाव' से किया है क्योंकि पति की संपूर्ण सेवा की एकमात्र अधिकारिणी पत्नी हुआ करती है।उसने कृष्ण को इसी भाव से देखा और प्रेम के चरम शिखर पर जा वैठी।" परंतु मेरा मानना है हिन्दू सनातनी संस्कार में ईश्वर के अनगिनत अवतारों में मीरा द्वारा कृष्ण अवतार का चयन मात्र संयोग नहीं हो सकता है।तत्कालीन समाज मे कृष्ण भक्ति परंपरा के साथ राम भक्ति परंपरा का भी समान लहर उठ रही थी। राजस्थान में भले ही कृष्ण भक्ति का प्रभाव अधिक रही इससे इनकार नहीं किया जा सकता। परंतु निर्गुण के संत परंपरा के रैदास की वे शिष्या थीं। रामभक्ति परंपरा के मूर्धन्य कवि तुलसीदास से उनका पत्र विनिमय होते रहने की प्रमाण मिलता है।महात्मा बेनी माधव दास ने मूल गोसाईं चरित में मीराबाई और तुलसीदास के पत्राचार का उल्लेख किया है। मीराबाई ने पत्र के द्वारा तुलसीदास से दीक्षा ग्रहण करनी चाही थी।तुलसीदास ने विनय पत्रिका के निम्नोक्त पद प्रतिउत्तर में भेजा था।
"जाके प्रिय न राम वैदेही
तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही"
यह सारी घटनाऐं निर्विघ्न प्रमाणित करते हैं मीरा भक्ति काल के सभी परंपराओं से परिचित थीं। भागवत में कृष्ण को परम पुरुष कहा गया है। ऐसा पुरुष जो सम्पूर्ण है। पूर्ण पुरुष कौन हो सकता है? वह जो पिता की भांति रक्षा करे,पति की भांति प्रेम करे और पुत्र भी हो जो मातृत्व के सुख से विभोर करे। कृष्ण ने ये सारी भूमिकाएं एक साथ निभाई है। इसीलिए वे एक मात्र पुरुष हैं। इस उपक्रम में जीव गोस्वामी और मीराबाई की भेंट प्रसिद्ध है। जब मीरा वृंदावन में जीव गोस्वामी से भेंट करनी पहुंची तो वे उनके शिष्य के जरिए कहलवा भेजे कि वे स्त्रियों के मुख दर्शन नहीँ करते । इसके प्रतिउत्तर मीरा ने यह कह कर दिया कि उनको तो पता था कि वृंदावन में कृष्ण लला ही एक पुरुष हैं,और सब स्त्री।

ताज कवियत्री

मीरा के बाद ताज महत्वपूर्ण कवयत्री मानी जाती हैं। ताज का सर्बप्रथम उल्लेख शिवसिंह सरोज में मिलती है। जिसकी पुष्टि बाद में मिश्रबंधुओं ने भी किया है। उन्होंने ताज का समय 1652 वि माना है जबकि देवीप्रसाद ने सवंत 1700 को। ताज में मीरा जैसी तेवर तो नहीं थी परंतु मुसलमान होते हुए खुल्लमखुल्ला कृष्ण प्रेम में वावली हो अपने को 'हिन्दुआनी' घोषित करना मुग़ल काल में साहसिक कदम था निश्चय।
“नन्द के कुमार कुर्वान तेरी ताणी सूरत पे ।
हों तो तुरकानी हिंदूआनी ह्वे रहूंगी मैं ।।"
पुष्टि संप्रदाय के वार्ता साहित्य में ताज को अकबर की वेगम मानते हुए भवसिंधु के अंत में 'ताज बीबी की वार्ता' दी गई है।

ताज की रचनाओं के सम्बन्ध में भी स्थिति अधिक् स्पष्ट नहीं है। कुछ विद्वान ताज नामक दो कवियत्रीयों का होना मानते हैं। पदों के अतिरिक्त 'बीबी बाँदी का झगरा' भी ताज रचित बताई जाती है।

चन्द्रसखी

मीरा के समान चन्द्रसखी भी राजस्थान में लोकप्रिय रही हैं। उनके गीत आज लोक साहित्य में कंठान्तरित हो चुके हैं। आज उनकी रचनाओं में केवल "चन्द्रसखी भजु बालकृष्ण छिवि" ही उपलब्ध है। लोक कंठ में सुरक्षित रहने के कारण उनकी रचनाएं मीरा की रचनाओं से घुलमिल सी गई हैं। परंतु फिर भी 'चन्द्रसखी की छाप' में उनकी दृष्टि का अंतर देखा जा सकता है। मीरा की प्रिय छाप 'मीरा के प्रभु गिरिधर नागर' है तो चंद्रसखी की 'चन्द्रसखी भजु बालकृष्ण छिवि'। उन्होंने कृष्ण के बालछवि से वात्सल्यता को वरीयता दी। परंतु उनकी श्रृंगारिक पदों की संख्या भी अच्छी खासी मिल जाती हैं।
“सिर की चुनरिया सरक गई है,अपणे हाथ उढ़ा जा। चन्द्रसखी भजु बालकृष्ण छिबि, अपनी सूरत दिखा जा।।"
गंगास्त्री और यमुनास्त्री

इनके द्वारा हस्तलिखित हिंदी पुस्तकों का विवरण मिश्रबंधुओं में उपलब्ध मिलती हैं। वैष्णव सर्वस्व के अनुसार ये दोनों हित हरिवंश की शिष्या थीं। इनका समय 1559-1659 वि है। ध्रुवदास ने भक्तमाल में इनका विवरण प्रस्तुत करते हुए लिखे हैं।-
गंगा जमुना तियनी में परम भगवत जनि।
तिनकी बानी सुनत ही बड़े भक्ति उर आनी।।
मैथिली कवियत्री माधवी

इनके नाम का उल्लेख डॉ. सावित्री सिन्हा ने करते हुए इन्हें महाप्रभु चैतन्य का समकालीन माना है। माधवी द्वारा रचित कुछ फुटकल पद देखे जा सकते हैं -
राधा माधव विलासहिं कुञ्ज क मांझ
तनु-तनु सरस परस रसु पिवह
कमलिनी मधुकर राज।।
प्रतापवाला

प्रतापवाला भी कृष्ण रंग में रंगी कवि कृष्णकली हैं। इनकी श्रीकृष्ण प्रति प्रेम निम्न पद में देखिए-
सखी री चतुर श्याम सुंदर सों मोरी लगन लगी री।
लाख कहो अब एक ण मानूँ उनके प्रीति पगी री।।
मध्ययुग में स्त्री लेखिकाएं कृष्ण की उपासिका हैं। अनामिका 'स्वाधीनता के स्त्री पक्ष' पुस्तक की भूमिका में एक जगह लिखती हैं- “ उसके प्रेम का पात्र बन पाना,उसके टक्कर का पुरुष बन पाना इतना आसान भी नहीं।" युगारम्भ से नारी मरती-तपती अपने भाग्य की नुकीली तलवार के धार पर चलती नर की सेवा करती रही है । पर क्या सेवा प्रेम हो सकता है। प्रेम के लिए पात्रता चाहिए ।प्रेम के लिए नैतिक परिष्कार पहली शर्त है। प्रेम आदर्श से ही संभव है। प्रेम के लिए कृष्ण या शिव जैसे कोई योगी चाहिए जो स्वयं को स्वयं में ही धारण कर दूसरों के दुःख दूर कर सके। “हिंदी काव्य की कलामयी तारिकाएं" में लिखा गया है- “कृष्ण काव्य में कृष्ण का परम सुंदर और सरल रूप ही लिया गया, वह परम मनोहर और परम प्रेमी तथा शीलवान नायक के रूप में विशेषतः चित्रित किए गए हैं। उनका प्रेम यद्यपि लौकिक होता हुआ अलौकिक रहा है साथ ही अन्य भावों के साथ कृष्ण भक्ति में दांपत्य अथवा माधुर्य भाव की ही विशेषता रही है। यही सब ऐसे प्रमुख कारण हैं जिन्होंने हमारी बहुत सी देवियों को कृष्ण काव्य की और आकृष्ट कर उन्हें उसकी ही सुधा धार में निमग्न कर रखा था।"

सहायक सामग्री
  1. राजे, सुमन. हिंदी साहित्य का आधा इतिहास. भारतीय ज्ञानपीठ. नई दिल्ली. 2003
  2. अनामिका. स्वाधीनता के स्त्री पक्ष. राजकमल प्रकाशन. नई दिल्ली. 2012. पृष्ठ- 55 से 79
  3. गौतम, सुरेश. शुक्ल, आशुतोष (संपादक). मीरा का पुनर्मूल्यांकन. केंद्रीय हिंदी संस्थान. आगरा. 2007
  4. चतुर्वेदी, परशुराम (सं). मीराबाई की पदावली. हिंदी साहित्य सम्मेलन. प्रयाग. 2002
  5. सिंह, फतह (सं). मीरा वृहत्पपदवाली (प्रथम भाग). राजस्थान प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान. जोधपुर. 1968
  6. हृदय, श्री व्यथित. हिंदी काव्य की कलामयी तारिकाएं. प्रमोद पुस्तकमाला कटरा. प्रयाग. 1941
  7. राय, कुसुम. हिंदी साहित्य का वस्तुनिष्ठ इतिहास (प्रथम खंड). विश्वविद्यालय प्रकाशन. वाराणसी. 2017
  8. चतुर्वेदी, जगदीश्वर. स्त्री साहित्य, स्त्रीवादी साहित्य, स्त्रीवाद. यूट्यूब.
  9. कल्याण, नारी अंक. संपादक पोद्दार, हनुमानप्रसाद. गीताप्रेस. गोरखपुर. 1948
निहारिका मिश्र, अध्यापिका, हिंदी विभाग, वेदव्यास महाविद्यालय, राऊरकेला, ओडिशा