Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
Special Issue on Feminism
स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी लेखिकाओं की कहानियों में नारी
भारत में परिवर्तित होते समय के साथ-साथ स्त्रियों की स्थिति में भी काफ़ी परिवर्तन होता गया । निःसंदेह वैदिक युग स्त्रियों के लिए स्वर्णकाल रहा, स्त्रियों का इतना सम्मान कभी नहीं हुआ जितना वैदिक काल में होता था । अलग-अलग काल में स्त्रियों की स्थिति में भी बहुत परिवर्तन आता गया, पर यह परिवर्तन नकारात्मक ही आया है । उपनिषद् काल से ही स्त्रियों की स्थिति में धीरे-धीरे गिरावट आती गई । मध्यकाल में तो स्त्रियों को अनेक बर्बर कुरिवाजों में पिसा गया । जवाबदेही से बचने के लिए धर्म और परंपरा की आड़ में स्त्रियों को ज़िन्दा जलाए जानी वाली प्रथाओं से अतिरिक्त शर्म की बात और क्या हो सकती है ? ब्रिटिश काल से स्त्रियों की स्थिति में थोड़ा सुधार होने लगा । स्वतन्त्र भारत में स्त्रियों ने काफ़ी हद तक राहत की साँस ली । स्त्रियों के अधिकारों के लिए कई कानून बनाएं गए, परन्तु यह भी सत्य है कि उच्च वर्ग व शहरी मध्यवर्ग की कुछ महिलाओं को ही समानता व स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है ।

नारी मुक्ति का अपना लम्बा इतिहास रहा है । अनेक नारियों ने नारी मुक्ति के लिए प्रयत्न किए । नारी मुक्ति आन्दोलन के इतिहास में 8 मार्च 1887 का दिन विशेष महत्त्व रखता है । इस दिन न्यूयोर्क की कपड़ा मिलों में काम करने वाली महिलाओं ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया । आगे चलकर इससे प्रेरणा लेकर अनेक महिला संगठन बने, इसलिए 8 मार्च ‘महिला दिवस’ के रूप में मनाया जाता है । सामाजिक परिवर्तन और महिला जागृति के कारण नारीवादी विचारों को बल मिला और समाज में नारी की भूमिका को धीरे-धीरे मान्यता मिलने लगी।

महिला कहानीकारों की बात करे तो समय-समय पर अनेक लेखिकाओं ने बहुत अच्छी कहानियाँ लिखीं, जो पर्याप्त चर्चित भी रहीं लेकिन कुछेक लेखिकाएँ समय के साथ कदम न मिला सकने के कारण साहित्य में स्थायी प्रभाव छोड़ने में असफल रहीं । और धीरे-धीरे उनके प्रतिबिंब धुंधलाने लगे । स्थायित्व के लिए अच्छे लेखन के साथ-साथ सतत लेखन भी आवश्यक है । घर-परिवार, समाज आदि के कारण महिलाओं का कृतित्व बीच रास्ते ही खो जाता है । लेकिन कुछेक इसमें अपवाद भी है। पिछले कुछ दशकों से कहानी लेखिकाओं की एक नई पीढ़ी उभरी है। इन लेखिकाओं ने अपनी ताज़गी और जीवन के प्रति अपने विशिष्ट दृष्टिकोण से अपनी कहानियों में नारी के विविध रूपों को उद्घाटित किया हैं।

स्वातंत्र्योत्तर कहानी लेखिकाओं की कहानियों में नारी के परंपरागत रूपों के कई चित्र अंकित हुए हैं । परंपरागत पुत्री और बहन के रूप में ज़्यादातर कहानियों में परिवार का पालन पोषण करनेवाली बेटी-बहन को चित्रित किया गया है । परंपरागत प्रेयसी के रूप में ऐसी नारियों का चित्रण हुआ है जो पुरुषों द्वारा "यूज़ एण्ड थ्रो" का शिकार हुई हों, और अपना सर्वस्व लुटाकर परिवार समाज के डर से कुछ बोलती नहीं । या ऐसी नारियों का चित्रण हुआ है जो प्रेमी के मरने के बाद या जीवित रहते प्रतीक्षा में पूरी उम्र अविवाहित रहती हैं । परंपरागत पत्नी के रूप में ऐसी नारियों का चित्रण किया गया है जिनको पति अपनी पशु सम्पत्ति मानकर पिटता रहता है, फिरभी ये पत्नियाँ पति को ही परमेश्वर मानती हैं । परंपरागत माँ के रूप में ऐसी नारियाँ हमारे सामने आती हैं, जो अपने संतानों के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं । या ऐसी माताओं का चित्रण किया गया है - उनकी चाहे कितनी ही अवहेलना क्यों न हो पर सन्तानों के प्रति उनके मन में तनिक भी कटुता नहीं । संतान के सुख में ही इन माताओं का सुख है ।

स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी में प्रेम का उन्मुक्त चित्रण भी हुआ है । यदि पुरुष अन्य स्त्री से सम्बन्ध स्थापित कर सकता है, तो यह स्थिति नारी की भी हो सकती है । इस विचारधारा को केन्द्र में रखकर विवाह पूर्व तथा विवाहेतर प्रेम सम्बन्धों पर हिन्दी में अनेक कहानियाँ लिखी गई हैं । स्वतन्त्रता के बाद पुरुष और स्त्री में विवाह के स्थान पर मित्रता के सम्बन्ध सहज होने लगे हैं, परन्तु कई युवतियाँ परम्परागत संस्कारों के कारण प्रेमी से विवाह न करके घुट-घुटकर जीने को विवश हो जाती हैं । मन्नू भण्डारी की 'एक कमजोर लड़की की कहानी' तथा राजी सेठ की 'अमूर्त कुछ' में नायिकाएं अपने प्रेम सम्बन्ध को व्यक्त न कर पाने के कारण इच्छित युवक से विवाह नहीं कर पातीं।

आज भी कई नारियाँ परंपरागत संस्कारों से आक्रान्त होकर प्रेम में त्याग करती दृष्टिगोचर होती हैं । पारिवारिक दायित्वों के कारण भी युवतियाँ अविवाहित रह जाती हैं । राजी सेठ की ‘समान्तर चलते हुए’ तथा मेहरून्निसा परवेज़ की 'विद्रोह' की नायिकाएं पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के कारण विवाह नहीं कर पातीं । तो नासिरा शर्मा की 'खुशबू का रंग' तथा मालती जोशी की 'ढाई आखर प्रेम का' की नायिकाएं प्रेमी की मृत्यु के बाद आजीवन अविवाहित रहती हैं । कई शिक्षित एवं स्वावलम्बी नारियाँ अल्प परिचय में ही पुरुष के जाल में फँसकर अपना सर्वस्व समर्पित कर देती हैं । मन्नू भण्डारी की 'अभिनेता', उषा प्रियम्वदा की 'मछलियाँ', कृष्णा सोबती की 'दोहरी साँझ', मंजुल भगत की 'करवट दर करवट एहसास' आदि कहानियों की नायिकाएँ प्रेमी से धोखा खाने के बाद अकेले रहना स्वीकार करती हैं । अपने साथ हुए अन्याय का प्रतिशोध लेने की बात उनके मन में भी नहीं है ।

हज़ारों वर्षों से सारी समाज व्यवस्था पुरुषों के हाथ में एवं उन्हीं के द्वारा निर्मित होने के कारण पुरुषों ने उसे अपने अनुकूल बना लिया है । अतः नारी दोयम दर्जे का हेय पात्र बनकर घर की चार दिवारी में कैद ही रही । स्वातंत्र्योत्तर काल में नारी को शिक्षा का अधिकार मिला, और वह अपने अधिकारों के प्रति जागृत हुई, अपने पर होते अत्याचार, अन्याय का विरोध कर अपने अधिकारों के लिए विद्रोही बनने पर मजबूर हो गई ।

भाई-बहन या बहन-बहन का सम्बन्ध अत्यन्त प्रेमिल होता है, परन्तु बदलती परिस्थितियों के कारण सम्बन्धों में भी परिवर्तन होता गया । भाई को मिलने वाले सारे अधिकारों की माँग बहनें भी करने लगीं, अगर वह अधिकार वही सम्मान जो भाई को मिलता है, बहनों को न मिला तो वे विद्रोही हो गईं । स्वातंत्र्योत्तर काल की कई कहानियों में बेकार भाइयों का निर्वाह करनेवाली आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर विद्रोही बहनों का निरूपण हुआ है।

स्वातंत्र्योत्तर कहानियों में हमें ऐसी भी प्रेमिकाएं देखने को मिलती हैं जो राधा, लैला, हीर और शीरी वाले परंपरागत प्रेमिका के साँचे में बिलकुल फिट नहीं बैठतीं । इन प्रेमिकाओं को अपने प्रेमी के साथ 'लिव इन रिलेशनशीप' में रहने से कोई आपत्ति नहीं। उषा प्रियम्वदा की कहानी 'प्रतिध्वनियाँ' की वसु विवाह को अर्थ हीन मानती है । तो ' प्रसंग ' कहानी की डॉ. ममता पर पुरुष से सम्बन्ध को सहज मानती है । राजी सेठ की 'दूसरे देशकाल में' और ममता कालिया की 'साथ' की नायिकाएँ विवाह किए बिना ही प्रेमी के साथ पत्नी की तरह रहने लगती हैं । अगर प्रेमी ठगने का प्रयत्न करता है तो हाथ तक उठा लेना इनके लिए आम बात है ('गीता का चुम्बन' - मन्नू भण्डारी) अगर प्रेमी के साथ सम्बन्ध विच्छेद होता है, तो न इनका दिल टूटता है न ये आँसू बहाती हैं । छले जाने पर प्रतिशोध लेने वाली ('मछलियाँ’ - प्रियम्वदा) कई विद्रोही प्रेयसियों का चित्रण स्वातंत्र्योत्तर कहानियों में हुआ है ।

स्वातंत्र्योत्तर कहानी लेखिकाओं ने विद्रोही पत्नी का सर्वाधिक चित्रण किया है । राजी सेठ की 'किस के पक्ष में' में अहं का टकराव है । मृदुला गर्ग की 'हरी बिन्दी' व मन्नू भण्डारी की 'ऊँचाई' में पर पुरुष से सम्बन्ध की बात है । ये पत्नियाँ पति से विद्रोह करने में तनिक भी हिचकिचाती नहीं । वैवाहिक जीवन से कुछ समय अवकाश लेकर ('अवकाश'- मृदुला गर्ग) प्रेमी के साथ रहने वाली पत्नियों का चित्रण भी इस काल मेंहुआ है । राजी सेठ की 'अंधे मोड़ से आगे' और मंजुल भगत की 'नागपाश' में ऐसी पत्नियों को प्रस्तुत किया गया है जो पति को बिना बताए ही गर्भपात करा लेती हैं। माँ से बढ़कर हितैषी कोई नहीं होता, परन्तु कई कहानियों में ('गलत होता पंचतत्र'- राजी सेठ) ऐसी माताओं का चित्रण भी हुआ है जो अपनी तरक्की के रास्ते में बच्चों को रूकावट मानती हैं ।

स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानियों में नारी के कामकाजी रूप का चित्रण भी हुआ है। शिक्षा तथा आर्थिक स्वावलम्बन के कारण आज नारी में स्व की अनुभूति तथा स्वतन्त्रता की भावना प्रबल होती जा रही है । स्त्री ने अपना कार्यक्षेत्र बढ़ाया है । अपनी क्षमता की वृद्धि की है । आज हर क्षेत्र में नारी पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही है । कामकाजी नारियों में विवाहित और अविवाहित दोनों प्रकार की नारियाँ दृष्टिगत होती हैं । मन्नू भण्डारी की 'जीती बाजी हार की' कहानी की नायिका मुरला शिक्षा विभाग में उच्च पद पर कार्य करती है । ममता कालिया की ‘ज़िन्दगी सात घंटे बाद की' कहानी की नायिका आत्मीया सेन प्रोग्राम एक्जीक्यूटिव अफ़सर के पद पर कार्यरत है। राजी सेठ की ' मेरे लिए नहीं' कहानी की नायिका प्रीति कलक्टर का कार्यभार संभालती है । मेहरून्निसा परवेज़ की कहानी 'क्यों नहीं' की गुड़िया भी आई.ए.एस. है । उच्च पद पर कार्यरत इन युवतियों में से ज़्यादातर युवतियाँ विवाह तथा बच्चों को उन्नति का बाधक मानती हैं, और अविवाहित रहने का निश्चय करती हैं । परन्तु कुछ वर्षों बाद उन्हें अपना निर्णय खोखला लगता है । ऑफ़िस के बाद इन्हें अपना जीवन सारहीन और बोझ रूप लगता है ।

आज पारिवारिक रिश्ते अर्थकेन्द्रित बनते जा रहे हैं। उषा प्रियम्वदा की 'ज़िन्दगी और गुलाब के फूल' कहानी की नायिका आत्मनिर्भरता के बाद भाई उपेक्षा करती है । ममता कालिया की 'वे तीन और वह' की नायिका भाई के प्रति संवेदनहीन व्यवहार करती है। भाई-बहन के रिश्ते में जो प्रेम भावना थी वह समाप्त होती जा रही है ।

स्वातंत्र्योत्तर कहानियों में चित्रित अधिकांश नारी चरित्र शिक्षित हैं । उच्चशिक्षा से विभूषित होना उनके व्यक्तित्व की ऊँचाई को दर्शाता है । मंजुल भगत की 'निशा', अरूणा सीतेश की 'सेतुहीन' कहानी की नायिकाएँ पीएच.डी. की उपाधि से युक्त हैं । मन्नू भण्डारी की 'दो कलाकार', अरूणा सीतेश की 'लक्ष्मण रेखा' कहानियों की नायिकाएं एम.ए. तक पढ़ाई किए हुए नारी पात्र हैं । तो कई कहानियों की नायिकाएँ प्राध्यापिका पद पर कार्यरत हैं । शिक्षित और स्वावलम्बी नारी दाम्पत्य जीवन में किसी प्रकार के अंकुश को स्वीकार नहीं करती, दीप्ति खण्डेलवाल की कहानी 'कगार पर' में इस बात को देखा जा सकता है ।

मंजुल भगत की 'बावन पत्ते और एक जोकर', उषा प्रियम्वदा की 'जाले', राजी सेठ की 'किस के पक्ष में', मन्नू भण्डारी की 'ऊँचाई' मृदुला गर्ग की 'अवकाश' आदि कहानियों की नायिकाएं जीवन में आधिपत्यपूर्ण व्यवहार करती हुई विद्रोही नारियाँ हैं। एक सत्य यह भी है कि जो नारियाँ आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है, वही विद्रोही है, और उनमें दाम्पत्य सम्बन्धित परंपरागत संस्कार, आदर्श विलुप्त हो रहे हैं । कहानी लेखिकाओं ने इन अति आधुनिक नारी के साथ-साथ परंपरागत नारी को भी चित्रित किया है, जो पति के अत्याचार सहकर शोषित जीवन जीती है । ममता कालिया की 'रएवाली', मृदुला 'चिथड़ा गुड़िया', राजी सेठ की 'अपने विरुद्ध' मैत्रेयी पुष्पा की 'ललमनियाँ' आदि कहानियों में नायिकाओं का जीवन पति की उपेक्षा से यातनापूर्ण बन जाता है। आज भी परम्परा से चली आ रही पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था में कई नारियों को पति की प्रताड़ना साहनी पड़ती है। इन कहानियों में परंपरागत सहनशील पत्नी को चित्रित किया गया है, जो पति के अत्याचार बर्दाश्त करके वैवाहिक बंधन को निभाती रहती है । स्वातंत्र्योत्तर कहानी लेखिकाओं की कहानियों में 'गरुण पुराण' में वर्णित परंपरागत नारी के सभी रूप मिलते हैं, यथा -
"कार्येषु मन्त्री करणेषुदासी
भोज्येषु माता शयनेषु रम्भा
धर्मानुकूला क्षमाया धरित्री,
भार्या च पाड्गुण्यवतीह दुर्लभा ॥" [1]
स्वातंत्र्योत्तर कहानी लेखिकाओं ने विधवा, परित्यक्ता और तलाकशुदा नारियों का चित्रण भी किया है । कृष्णा सोबती की कहानी 'बदली बरस गई', मंजुल भगत की 'अपना अपना नशा', मन्नू भण्डारी की 'अकेली', और 'बन्ध दराजों का साथ' तथा कृष्णा अग्नहोत्री की 'ओक्टोपस' कहानियों में विधवा, परित्यक्ता आदि नारियों का चित्रण किया गया है। 'ओक्टोपस' कहानी में कृष्णा अग्निहोत्री ने बताया है कि तलाक किसी समस्या का समाधान नहीं, परंतु नई समस्याओं का आह्वान है।

स्वातंत्र्योत्तर लेखिकाओं की कहानियों में ऐसी नारियाँ भी हैं जो संतान के अभाव में अपने आपको अपूर्ण महसूस करती हैं । मालती जोशी की 'ममता ! तू न गई मेरे मन ते' और 'मानिनी' आदि कहानियों में बांझ नारी का चित्रण हुआ है।

कृष्णा सोबती की कहानियाँ 'गुलाबजल गैंडेरियाँ' और 'आजादी शम्मोजान की' में शम्मोजान और मुन्नीजान कोठे में पर रहकर नगरवधू का जीवन जीती हैं, उनका जीवन समाज से कट जाता है। इन कहानियों में वेश्या नारी के यातनामय जीवन पर प्रकाश डाला गया है। अर्थोपार्जन का उचित साधन न मिलने पर कई नारियाँ देहविक्रय करने पर मजबूर हो जाती हैं ।

स्वातंत्र्योत्तर लेखिकाओं की कहानियों में मध्यवर्गीय नारी का चित्रण अधिक हुआ है । उच्च वर्ग का चित्रण बहुत कम है, और निम्न वर्ग की नारी का चित्रण भी मध्यवर्ग की तुलना में कम ही हुआ है। अधिकांश महिला कहानीकार भी इस वर्ग से होने के कारण यह स्वाभाविक भी है । चित्रा मुद्गल की 'शून्य', अरूणा सीतेश की 'लक्ष्मण रेखा', मालती जोशी की 'स्वयंवर', मेहरून्निसा परवेज की 'विद्रोह' आदि कहानियों की नारियाँ मध्यवर्ग से सम्बन्धित हैं । इन कहानियों में पारिवारिक समस्याएँ और पारिवारिक जीवन के विभिन्न आयामों का चित्रण प्रमुख रहा है ।

स्वातंत्र्योत्तर काल में विविध सुविधाओं के कारण सारा विश्व एक इकाई बन गया है, जिस कारण विभिन्न देशों की संस्कृतियों का एक दूसरे पर प्रभाव होने लगा है। साहित्य में भी यह प्रभाव परिलक्षित हुआ है । स्वातंत्र्योत्तर कहानियों में पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव के कारण नई-नई धारणाएँ व्यक्त होने लगी हैं। अविवाहित मातृत्व के प्रति नया दृष्टिकोण भी इन कहानियों में व्यक्त हुआ है। राजी सेठ की कहानी 'दुसरे देशकाल में' इस समस्या को नई दृष्टि से देखती है। स्वातंत्र्योत्तर कहानियों में नारी यौन सम्वन्धों को लेकर स्वतन्त्र चिन्तन करने लगी है । मृदुला गर्ग की 'अवकाश', उषा प्रियंवदा की 'प्रतिध्वनियाँ' आदि कहानियों में नारी की यौन भावनाओं का खुलकर चित्रण हुआ है। आज की नारी पति परायणता को ही स्त्री चरित्र मानने वाली रूढ़ियों का विरोध करने लगी हैं । यौन सम्बन्धों को लेकर नारी के मन में अब कोई अपराधबोध नहीं है । मृदुला गर्ग की 'अवकाश' और उपा प्रिम्वदा की 'प्रितिध्वनियाँ' कहानियों की नायिकाएँ भोग्या नहीं, भोक्ता बनना चाहती हैं ।

महिला लेखिकाओं द्वारा रचित इन कहानियों में नारी की दृष्टि से नारी मन को देखा गया है । इसलिए इन कहानियों में नारी के विशिष्ट अनुभव अपनी प्रामाणिकता के साथ अभिव्यक्त हुए हैं । गर्भधारण, शिशु जन्म, मासिक धर्म आदि से सम्बन्धित अनुभूतियों की अभिव्यक्ति केवल महिला रचनाकारों द्वारा ही संभव है। समकालीन महिला कहानिकारों ने इस प्रकार के विषयों की प्रामाणिक अभिव्यक्ति अपनी कहानियों में की है ।

स्वातंत्र्योत्तर कहानियों से यह स्पष्ट होता है कि परंपरागत जीवन जीने वाली नारी संतुलित होते-होते विद्रोह की और बढ़ गई है । कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि नारी की नई पहचान बन रही है जो भविष्य की मानव सभ्यता और मानव संस्कृति के निर्माण में महत्त्वपूर्ण होगी । आशा है भविष्य की ओर बढ़ते नारी के कदम नारी जीवन को नया आयाम देंगे शुभम्....

सन्दर्भिका
  1. गरुण पुराण, आचारकाण्ड 64 / 6
डॉ.संजय चावड़ा, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, गवर्मेंट आर्ट्स एण्ड कॉमर्स कॉलेज : तालाला (गीर), गुजरात. sanjay10520@gmail.com