Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
Special Issue on Feminism
तमिल के प्रथम महिला साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता श्रीमती राजम कृष्णन
प्रस्तावना

तमिल विश्व के प्राचीनतम भाषाओं में से एक है। तमिलनाडु की राज्य भाषा तमिल है। तमिल साहित्य के विकास में प्रारंभ से ही महिला लेखिकाओं ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है । इन महिला लेखिकाओं के बीच में ही एक ऐसी लेखिका का उदय हुआ जो साहित्य रूपी आकाश में ध्रुव तारा के समान अपने अलग अस्तित्व के कारण जगमगा रही थी जिनका नाम है राजम कृष्णन। राजन कृष्णन अपने समय की एक सुप्रसिद्ध लेखिका हैं। इन्होंने जो भी लिखा है अपने अनुभव के आधार पर लिखा है। इन्होंने सिर्फ काल्पनिक कथाओं के आधार पर लेखन कार्य नहीं किया अपितु क्षेत्रीय सर्वेक्षण के द्वारा भी समाज के निचले या हाशिये में जी रहे वर्ग के समाज के लोगों से मिलकर, उनके जीवन को निकटता से देखकर, उनकी समस्याओं का सही रूप से आंकलन कर उसे अपनी कहानियों में प्रकट करने की कोशिश की है। इस प्रकार के क्षेत्रीय सर्वेक्षण के आधार पर कार्य करके उपन्यास लिखने वालों में राजम कृष्णन का नाम सर्वोपरि है।

जन्म और गृहस्थ जीवन

राजम कृष्णन का जन्म सन्1925 को तिरुच्ची के मुसिरी नामक जगह पर एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम यज्ञ नारायणन और माता का नाम मीनाक्षी है। उस समय के सामाजिक नियमों के अनुसार कम उम्र में उनकी शादी हो गई। इसलिए स्कूली शिक्षा अधूरी रह गई। इनके पति का नाम श्री. मुत्तुकृष्णन था जो कि बिजलीबोर्ड में अभियंता के रूप में कार्यरत थे। पति के प्रोत्साहन की वजह से इन्होंने अपनी पढने की रुचि को आगे भी बढाये रखा और कई प्रकार की किताबें पढ़कर स्वयं 20 साल की उम्र में लिखना शुरू कर दिया था। बड़े संयुक्त परिवार में संघर्षरत राजम कृष्णन को लेखन कार्य द्वारा ही राहत मिलती थी। घर के सारे काम संभालने के बाद इन्हें रात्रि को ही लिखने का समय प्राप्त हो पाता था। बिजली बोर्ड में कार्यरत पति को स्थानांतरण के कारण भारत के अलग-अलग शहरों में रहना पड़ा। राजम कृष्णन ने इसी अवसर का उपयोग अपने लेखन कार्य के लिए किया। राजम कृष्णन ने पारिवारिक कहानीकारों के रूप में महिला लेखिकाओं की छवि को तोड़ दिया। उन्होंने राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक घटनाओं को करीब से देखकर उसके आधार पर अपनी कलम चलायी। लेखन सामग्री के लिए कई ग्रंथों का अध्ययन करने लगी। राजम कृष्णन ने अपनी सामर्थ्य के बलबूते पर दक्षिण भारतीय भाषाएं और अंग्रेजी सीखी। रूसी भाषा में भी इनकी अच्छी पकड थी।

नारी चेतना

राजम कृष्णन ने अपना सारा जीवन नारीवादी मुद्दों को लेकर उसके समाधान के लिए लिखने में लगा दिया। राजम कृष्णन ने 'कालम दोरुम पेण, कालम दोरुम पेण्मै, इंदिय समुदाय वरलाट्रिल पेण्मै (भारतीय सामाजिक इतिहास में नारीत्व),पेण विडुदलै( नारी मुक्ति) जैसे नारी से सम्बंधित निबंध भी लिखे हैं। ‘इंदिय समुदाय वरलाट्रिल पेण्मै’ (भारतीय इतिहास में नारीत्व) नामक पुस्तक में प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक की महिलाओं की स्थिति पर बारह निबंध हैं। ‘कालम तोरुम पेण’ (हर ज़माने में नारी ) नामक निबंध संग्रह के लिए राजम कृष्णन ने नारी को समाज में द्वितीय स्थान में धकेलने के कारण को खोजते हुए यात्रा की । इसी सिलसिले में उन्होंने ‘कालम तोरुम पेणमै’ और ‘यादुमाकिइ निन्द्राय’ जैसे निबंध संग्रहों में उन महिलाओं को सूचीबद्ध किया है जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्धि हासिल की है। नौकरीपेशा नारी की समस्याओं को विलंगु (जानवर), ओसैकळ अडंगिया पिरगु (आवाज़ थमने के बाद) में कन्या भ्रूण हत्या की पृष्ठभूमि में लिखित ‘मन्नगत्तु पूक्कल’ (धरती के फूल) देवसासी व्यवस्था से छुटकारा पाकर अपने लिए अलग जीवन बसानेवाली नारी का चित्रण ‘मानुडत्तिन मगरंदंगल’(मानवता के पराग) में और अपने उपन्यास ‘वीडु’(घर) में एक पचास वर्षीय मध्यम वर्ग की महिला के आंतरिक संघर्षों को सटीक रूप से दर्ज किया जो घर छोड़ने का फैसला करती है। उन्होंने अपने उपन्यासों के द्वारा ये साबित करने का प्रयास किया है कि भारतीय समाज में महिलाओं की मुक्ति संघर्षों के बाद ही संभव हो पायी है। यह कहना कोई अतिशंयोक्ति नहीं होगा कि आज जो नारीवाद का शंखनाद हो रहा है उन सभी रचनाकारों की अग्रदूत राजम कृष्णन हैं। राजम कृष्णन ने कई नारी मुक्ति आंदोलनों में सीधे सम्मिलित होकर कई संघर्षों का भी सामना किया है।

नारीवाद

नारीवादी विचारधाराओं के जड़ें समाज में फैलने के बहुत पहले ही इन्होंने अपने उपन्यासों में नारी के जीवन से सम्बंधित रचनात्मक पहलुओं को नारीवाद की दृष्टि से चित्रित करने का प्रयास किया। राजम कृष्णन की सभी कृतियाँ सामाजिक सरोकार और नारीवादी दृष्टिकोण पर आधारित हैं। उन्होंने सन् 1953 में अपने प्रथम उपन्यास में ‘पेण कुरळ’ (नारी की आवाज़) में संयुक्त पारिवारिक जीवन में एक महिला द्वारा भोगेजाने वाले संघर्ष को दर्ज किया है। उनका एक और उपन्यास 'वीडु'(घर) है। उपन्यास का पात्र यशोदा का पति क्रूरता का प्रतिबिम्ब है, फिर भी यशोदा उसे सहन करती है। वह अपनी लड़की की शादी तक इंतजार कर, फिर एक पत्र छोड़कर घर से निकल जाती है। यह उपन्यास नारी मुक्ति दृष्टिकोण का एक नया आयाम है। राजम कृष्णन ने सोवियत संघ की यात्रा के बाद "अन्नैयर भूमि" (धरती की माता) नामक उपन्यास लिखा था। राजम कृष्णन ने इस उपन्यास में सोवियत संघ में महिलाओं को मिले स्वतंत्रता का वर्णन किया है। इस उपन्यास में प्यार की विफलता के कारण आत्महत्या करने वाली बेबी नामक पात्र और उसी प्रेम विफलता को रचनात्मक रूप से स्वीकार कर जीवन में प्रगति करने वाली अन्ना पात्र की तुलना करके उपन्यास में यह साबित करने की कोशिश की है कि दो भिन्न-भिन्न सामाजिक व्यवस्थाएं अलग-अलग निर्णय लेने का कारण बनता है।

क्षेत्रीय कार्य और लेखन

राजम कृष्णन क्षेत्रीय कार्य के आधार पर लेखन करनेवाली प्रथम लेखिका हैं। उपन्यास, कहानी या लेखन शुरु करने के पहले जिस वर्ग या क्षेत्र विशेष के जिन पहलुओं को उजागर करना चाहती हैं वहाँ के क्षेत्र का भ्रमण करके वहाँ के उन लोगों के बीच में कई महीनों तक रहकर उनके सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक पहलुओं का अध्ययन कर उसके आधार पर पात्रों का गठन किया। रचना धर्मिता के सिद्धांतों के आधार पर उन्होंने समकालीन जीवन की यथार्थता और वास्तविकता को क्षेत्रीय कार्य के जरिए एक दस्तावेज के समान अपनी रचनाओं में व्यक्त किया है। उन्हें अपने लेखन कार्य हेतु बहुत से लोगों से मिलना पडता जिससे हमेशा अपने साथ एक टेप रिकॉर्डर रखती थीं। उनके द्वारा शोध करके लिखा गया प्रत्येक उपन्यास एक पी.एच.डी. शोध प्रबंध के समकक्ष है। सामग्री जुटाने के लिए उन्हें काफी भटकना पडा। फिर भी उन्होंने इसकी चिंता किये बगैर हर जगह बस या पैदल ही चलकर कथा लेखन के लिए क्षेत्रीय कार्य किया।

मछुआरों का जीवन

इन्होंने उपन्यास ‘अलैवाय करैयिल’ (समुद्र तट) में समुद्र तटीय मछुआरों के जीवन की समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया। यह उपन्यास तूत्तुक्कुडी मछुआरों की जीवन गाथा है। इडिन्दक्करै, मणप्पाडु और इसके आस-पास के क्षेत्र में दुर्लभ शार्क मछली मिलती हैं । इसके पंख और पूंछ को ‘तुवी’ कहा जाता है जो अमूल्य है । इससे वहां के हजारों मछुआरों की रोजी-रोटी चलती है। वहाँ रहने वाले मछुआरों की गरीबी और अज्ञानता का फायदा उठाते हुए, धार्मिक संगठनों ने ‘तुवी’ को बेकार सामग्री घोषित कर इसे विलायत के लिए निर्यात कर उससे मिलने वाले पैसे को गिरिजाघर के लिए आय का स्त्रोत बना दिया है। राजमकृष्णन ने समुद्र में श्रम करनेवाले मछुआरों के साथ होने वाले शोषण का चित्रण सत्तर के दशक में किया है। इसी उपन्यास में मछुआरों के धर्मांतरण, उससे उत्पन्न दंगे और उसके कारणों को भी उजागर किया है।

जनजातीय जीवन

सन् 1963 में राजमकृष्णन ने एक उपन्यास ‘कुरिन्जि तेन’ (कुरिन्जि का शहद) की रचना की जो कि नीलगिरि पहाड़ में रहनेवाली पडुगर नामक जनजाति के जीवन पर आधारित है। कुरिन्जि एक फूल का नाम है जो बारह साल में केवल एक बार खिलता है। इस उपन्यास में पडुगर लोगों के जीवन में आये बदलाव को बीसवीं शताब्दी की शुरुआत से लेकर साठ साल तक कुरिंजी फूलों के खिलने की अवधि के आधार पर दर्ज किया गया है। पहाड़ी लोग जो ज्यादातर बाजरा, ज्वार जैसे अनाज़ों की खेती परम्परागत ढंग से करके पहाड़ों और वन संसाधनों की रक्षा करते हुए प्राकृतिक ढंग से अपना जीवन यापन करते थे। पर धीरे धीरे समाज में आये परिवर्तन से प्रभावित होकर वे परम्परागत खेती को छोडकर आधुनिकता के वशीभूत होकर अनाज़ की खेती के स्थान पर नकदी फसल चाय की खेती करने लगे, जिससे उनके सांकृतिक जीवन में आये परिवर्तन एवं परिवर्धन को राजम कृष्णन ने ‘कुरिन्जि तेन’ उपन्यास में चित्रित किया है ।

कन्या भ्रूण हत्या

मदुरै जिले के उसिलम्पट्टि नामक स्थान को ‘कन्या भ्रूण हत्या' का केंद्र माना गया है। जिसकी वजह से राजम कृष्णन ने उसके सामाजिक कारणों से अवगत होने के लिये वहाँ रहकर वहाँ के महिलाओं से मिलकर 'मण्णकत्तु पूक्कल’ (धरती के फूल) नामक उपन्यास लिखकर कन्या भ्रूण हत्या के कारणों को समाज के सामने लाने का प्रयास किया है। इस उपन्यास की प्रस्तावना में इन्होंने लिखा कि ‘जब समाज स्त्री की मानवीय गरिमा को स्वीकार करता है तभी समाज से दहेज को जड से मिटाया जा सकता है। श्रम, उत्पादन और अधिकार में समान रूप से हिस्सा लेनेवाली नारी, शिक्षा और ताकत के कारण अपने को मजबूत बनाती है। समान अधिकार को आधार मानकर जो दम्पति गृहस्थ जीवन चलाते हैं वे ही बेहतर मानव समाज के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।‘

किसान और मज़दूर

‘पादैयिल पडिंद अडिगल’ (पथ पर कदम) उनके महत्वपूर्ण उपन्यासों में से एक है। इसमें ‘मणीयूर मणियम्मै’ के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला गया है। तंजाऊर में प्रचलित लोक गीतों में ‘मनियम्मा’ को आज भी याद करते हैं। तंजाऊर जिले में लंबे अरसे से गुलाम रहे खेतिहर मजदूरों को ऊपर उठने और गुलामी के खिलाफ लड़ने के लिए ‘मनियम्मा’ ने प्रेरित किया।एक ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर कम उम्र में ही विधवा होने पर रूढ़िवादी प्रतिबंधों की अवहेलना कर समाज के निचले वर्ग की सेवा में खुद को समर्पित कर चुकी ‘मनियम्मा’ के जीवन संघर्ष को उपन्यास में दर्ज किया गया है। राजम कृष्णन ने 'करिप्पु मणिकल' नामक उपन्यास में तूत्थूक्कुडी के नमक उद्योग के श्रमिकों के जीवन को दर्शाया है। उपन्यास 'कूट्टू कुंजुगल' में माचिस की फ़ैक्टरी में कार्यरत बच्चों के शारीरिक और मानसिक संघर्ष को मनोवैज्ञानिक ढंग से विस्तारित किया गया है। ‘सेट्रिल मनिदर्गल’ नामक उपन्यास में तंजाऊर जिले में महिला खेतिहर मजदूरों की दुर्दशा को दर्ज किया गया है। इस उपन्यास में किसानों के आंदोलनों का भी जिक्र उपन्यासकार ने किया है ।

संबल घाट के डाकू

सन्1974 में लिखित 'मुल्लुम मलर्न्दतु' नामक उपन्यास में संबल घाट के डाकुओं के संघर्षपूर्ण जीवन को चित्रित किया गया है। इस उपन्यास को लिखने के लिए राजम कृष्णन ने उन डाकुओं से मुलाकात कर वहाँ के भौगोलिक वातावरण के साथ-साथ उनके द्वारा चुने गये इस जीवन के कारणों को भी व्यक्त किया है।

जीवनी साहित्य

राजम कृष्णन ने जीवनी साहित्य भी लिखा है। डॉ. रंगाचारी की जीवनी लिखते समय राजम कृष्णन ने डॉ रंगाचारी के कई रिश्तेदारों, रोगियों से मुलाकात करके उनसे सम्बंधित अनेक सूचनाएं प्राप्त कर उन्हें ऐतिहासिक ढंग से साहित्य के रूप में दर्ज किया। उन्होंने पांचाली शपथ (पांचाली की प्रतिज्ञा) का गायन करने वाले महाकवि भारती का जीवनी साहित्य भी नारिवादी दृष्टिकोण से लिखा। इसके अलावा ‘मणीयूर मणियम्मै’ का जीवनी साहित्य भी लिखा है।

राजनैतिक पृष्ठभूमि पर उपन्यास

राजम कृष्णन राजनैतिक ज्ञान से भी परिपूर्ण थीं।वे दलगत राजनीति में विश्वास नहीं रखती थीं। मार्क्सवादी विचार्धारा के दृष्टिकोण रखनी वाली राजम कृष्णन ने अपने उपन्यासों में मजदूर वर्ग के वास्तविक जीवन को दर्ज किया है जो अन्य लेखको की रचनाओं में कम ही देखने को मिलता है। राजनैतिक आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका पर बल देने वाले कई उपन्यासों की रचनाराजम कृष्णन ने की । इनका 'वलैकरम' नामक उपन्यास गोवा मुक्ति संग्राम पर आधारित है, इसके अलावा 'वेरुक्कुनिर' उपन्यास जो कि कांग्रेस की पृष्ठभूमि पर आधारित है, जिसको साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया जा चुका है, इनका 'रोजा इदलगल’ उपन्यास तमिलनाडु की द्रविड़ पार्टियों की पृष्ठभूमि पर आधारित है, कम्युनिस्ट आंदोलन से जुडी मणलूर मणियम्मै के वास्तविक जीवन को इन्होंने ‘पादैयिल पदिंद अडिगल’ नामक उपन्यास में चित्रित किया है ।

गांधीवादी विचारधारा

राजम कृष्णन ने गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित होकर सादा जीवन व्यतीत किया। वह केवल सूती साडी पहनती थीं। ‘वेरुक्कु नीर’ नामक उपन्यास साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त उपन्यास है। इसकी रचना 1969 में हुई। उपन्यास गांधी के शताब्दी समारोह से शुरु होकर भारत में स्वतंत्रता के बाद गांधीवादी सिद्धांतो में आये परिवर्तन को सामाजिक और राजनैतिक पृष्ठभूमि के धरातल पर दर्शाकर उन सिद्धांतो की विफलता के कारणों को भी चित्रित किया है। कथाक्रम नीलगिरी जिले से शुरू होता है और कोयंबटूर, चेन्नई,कलकत्ता से होते हुए पटनामें जाकर समाप्त होता है। राजनीति में गांधी के नाम का उपयोग एक ट्रेडमार्क के रूप में अपने फायदे के लिये किया जा रहा है, जिसका उल्लेख राजम कृष्णन ने यथार्थ के धरातल पर उपन्यास में अंकित किया है ।

रचनाएँ

राजम कृष्णन की पहली कहानी 'वेल्ली टम्लर’ सावी की 'वेल्लीमनी' में प्रकाशित हुई थी। उन्होंने अलैक्कडलिल, पवित्रा और अल्ली जैसे लघु उपन्यास लिखे। इन्होंने डॉ रंगाचारी की जीवनी, अन्नै भूमि (धरती माता) और मॉस्को जैसी यात्रा वृत्तांत भी लिखे हैं। इन्होंने पच्चीस रेडियो नाटकों की भी रचना की है। राजम कृष्णन ने कहानी, जीवनी साहित्य,निबंधों, रेडियो नाटकों, अनुवादों और बाल साहित्य में भी अपना योगदान दिया है। उन्होंने वेरुक्कु नीर,वलैकरम,कुरिन्जि तेन, मुल्लुम मलर्न्दतु, सेट्रिल मनिदर्गल, कूट्टू कुंजुगल, उत्तरखांडम, पादैयिल पदिंद अडिगल, रोजा इदलगल, मण्णकत्तु पूक्कल आदि चालीस से भी अधिक उपन्यास लिखे हैं। उनके उत्कृष्ट उपन्यासों के कारण उनकी कीर्ति तमिल साहित्य रूपी गगन में देदीप्यमान है।

सम्मान और पुरस्कार

राजम कृष्णन को 'वेरुक्कू नीर' उपन्यास के लिए सन् 1973 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। सन्1975 में, ‘वलैक्करम’ नामक उपन्यास के लिए सोवियत संघ के नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ‘करिप्पुमणिगल’ नामक उपन्यास के लिये सन्1980 में और सेरिल मनिदर्गल नामक उपन्यासके लिए सन् 1983 में ‘साहित्यिक चिंतन’ पुरस्कार प्रदान किया गया। सन्1950 में न्यूयॉर्क हेराल्ड अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार (एशिया से नारीवादी लेखन पुरस्कार), सन् 1953 में कलैमगल नारायणसामी पुरस्कार, सन्1991 में तिरु.वि.क. पुरस्कार आदि से भी वे अलंकृत हुई हैं।

निधन

राजम कृष्णन के रचनात्मक प्रयास पचास वर्षों तक अर्थात 2002 तक चले। राजम कृष्णन की कोई संतान नहीं थी। पति की मृत्यु के बाद उन्होंने अकेले ही अपना जीवन बिताया। अंतिम समय में बीमारी के कारण पोरुर रामचंद्रा अस्पताल में बिताया। राजम कृष्णन के जीवित रहते समय की उनकी किताबें राष्ट्रीयकृत हो गयीं। अक्टुबर 20 सन् 2014, को इसी अस्पताल में उनकी मृत्यु हो गई थी। राजम कृष्णन ने अपना शरीर रामचंद्रा अस्पताल को स्वैच्छा से दान कर दिया था।

निष्कर्ष

राजम कृष्णन को प्रगतिशील विचारधारा की एकअग्रणी लेखिका के रूप में याद किया जाता है। वह तमिल में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त करने वाली पहली महिला लेखिका हैं। उनके लेखन बड़े पैमाने पर मुख्यधारा की पत्रिकाओं में नहीं छपे। बल्कि उन्होंने अपने अधिकांश लेखन को एक अलग पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। इसलिए जनता उनसे थोड़ी कम परिचित है। एक ईमानदार रचनाकार होने के बावजूद उन्हें तमिल लेखन में वह पहचान नहीं मिली जिसकी वे हकदार थीं। पर महानतम तमिल विद्वानों और शोधकर्ताओं के मन में राजम कृष्णन के लेखन का बहुत सम्मान है। उन्होंने अपने उपन्यासों को व्यावसायिक प्रवृत्ति के विपरीत सामाजिक आलोचना के रूप में लिखा। राजम कृष्णन जैसी लेखिकाएं समाज में बहुत दुर्लभ से ही अवतरित होती हैं। तमिल साहित्य जगत के लिए वे वरदान स्वरूप हैं।
डॉ. पी. सरस्वती, सहायक प्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, मद्रास विश्वविद्यालय, चेन्नई- 05