Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
Special Issue on Dalit LIterature
दलित चेतना एवं मोहनदास नैमिशराय - कहानियों के विशेष सन्दर्भ में
सुप्रसिद्ध दलित रचनाकार मोहनदास नैमिशराय दलित चेतना के विषय में एक महत्वपूर्ण स्तंभ के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर चुके हैं |यह बात सर्वविदित है कि दलित साहित्यकारों के साहित्य की मूल संवेदना ही दलित चेतना रही है जिसे उन्होंने अस्त्र के रूप में उपयोग करके अपने समाज को जागृत करने का प्रयास किया है | क्यूंकि चेतना की प्रधानता ही दलित साहित्य में सर्वोपरि है | वे जानते हैं कि दलित समाज में चेतना आने से ही वे अपने अधिकारों तथा समस्याओं का निदान ढूंढ सकने में समर्थ होंगे | इसी दिशा में दलित साहित्यकार मोहनदास नैमिशराय ने दलित चेतना को जिस झुझारू ढ़ंग से अपनी कहानियों में गढ़ लिया है उसने समूचे हिंदी साहित्य में तेहलका मचा दिया| उन्होंने दलित चेतना के द्वारा वंचितों, शोषितों को शब्द दिए| दलित चेतना के सन्दर्भ में मोहनदास नैमिशराय लिखते हैं कि –“दलित चेतना भारतीय जाति-व्यवस्था की कोख से या कहें कि अस्पृश्यता की दारूण वेदना से पैदा हुई है| यह सदियों से सताये हुए लोगों की पीड़ा की सजीव अभिव्यक्ति है |”1 अर्थात नैमिशराय ने भारतीय जाति-व्यवस्था को ही दलित चेतना का उत्स माना है | क्योंकि शोषित वर्ग पर जब असीम शोषण होता है तो एक न एक दिन उस व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह की चेतना प्रस्फुटित हो जाती है|

वस्तुतः दलित चेतना के सूत्रधार ज्योतिबा फुले एवं अंबेडकर मुख्यरूप से रहे हैं | वर्तमान दलित आन्दोलन की नीव इन्हीं से प्रेरित है और दलित आन्दोलन का उद्देश्य भी दलितों में चेतना को उजागर करना रहा है | क्योंकि चेतना के बिना दलित शब्द का कोई औचित्य नहीं है अर्थात वह चेतना के बिना निष्प्राण है | परिणाम स्वरूप ‘दलित’ शब्द के साथ जब चेतना शब्द का संबंध स्थापित हो जाता है तब वह ऐसी संकल्पना का वाहक बन जाता है जिसमें सामाजिक समरसता, स्वतंत्रता, न्याय एवं बंधुत्व की भावना पर बल दिया जाता है | इसीलिए दलित चेतना एक समुदाय विशेष का जातिवाचक शब्द बनकर उनकी सामूहिक चेतना का प्रतिनिधित्व करता है तथा यही चेतना उन्हें हाशिये से उठाकर केंद्र में स्थान देने केलिए प्रेरित करती है और मानव होने का गोरव भी प्रदान करती है| अतः दलित-चेतना विशेष रूप से दलितों की लुटी हुई अस्मिता उनके दबे-कुचले आत्मसम्मान एवं उनके अस्तित्व की पुनः स्थापना में एक प्रखर पक्षधर के रूप में काम करती है |

दलित चेतना की दृष्टी से मोहनदास नैमिशराय को इसका पर्याय भी कहा जाता है एक दलित होने के नाते उन्होंने अपने संपूर्ण साहित्य में दलितों की समस्याओं, उनके मूलभूत अधिकारों के साथ-साथ समाज जीवन से संबंधित चेतना के विविध रूपों पर प्रकाश डाला है| ‘आवाज़ें और हमारा जवाब, इनके दो प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं | इन संग्रहों की अधिकांश कहानियां दलित चेतना से संपन्न हैं जो वंचित समाज की पीड़ा,संत्रास,अपमान,शोषण और दमन के साथ-साथ उनके आत्मगौरव एवं आत्मचेतना का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करती है| नैमिशराय की कहानियों का लक्ष्य न केवल दलित समाज की पीड़ाओं को अभिव्यक्त करने तक सीमित रहा है बल्कि उनके भीतर सुलगते आक्रोश को धीरे-धीरे दहकते विरोध में बदलना भी रहा है | इनकी कहानियां समाज के विविध विषयों के ऊपर लिखी गयी हैं लेकिन दलित चेतना का तत्व उनमें प्रधान रूप में सक्रिय रहा है |

वर्ष 1998 में प्रकाशित आवाज़ें कहानी संग्रह में संकलित अधिकांश कहानियां दलित चेतना से प्ररेत हैं | शीर्ष कहानी आवाज़ें में दलित चेतना जागृत होने पर दलित समाज सवर्णों के दासत्व को ठुकराते हैं | मेहतर समाज के लोग अपने आत्मसम्मान केलिए जूठन के बदले मैला उठाने के व्यवसाय से इंकार करते हैं | मेहतरों के इस विद्रोह से क्रोधित ठाकुर कहते हैं –“ससुरे चमार-भंगियों ने देखो कितना सर उठा रक्खा है ...? दस-बीस साल पहले तो मुंह में ज़बान ही जैसे न थी और अब कहते हैं गाँव में कोई ठाकुर-वकुर नहीं ....|”2. ठाकुर तथा ठाकुर द्वारा प्रस्थापित व्यवस्था का बहिष्कार करना ही दलित चेतना का प्रमाण है | दलितों की वर्तमान पीढ़ी में शिक्षा के कारण आयी परिवर्तन की चेतना को मेहतरों के द्वारा प्रभावी ढ़ंग से दर्शाया है | अधिकार चेतना नामक कहानी बाबा साहब आंबेडकर के संघर्ष से दलितों में उपजी चेतना और उनके प्रति अटूट सम्मान को दर्शाती है जिसको कथाकार ने दलित पत्रकार के माध्यम से चित्रित करने का सार्थक प्रयास किया है | इस कहानी में अम्बेडकर की प्रतिमा स्थापित करते समय सवर्णों और दलितों के मध्य हुए संघर्ष में पुलिस की गोली से दो दलितों की मृत्यु के प्रतिक्रिया स्वरूप दलितों द्वारा पथराव के कारण एक पुलिसकर्मी की हत्या के फलस्वरूप उपजे संघर्ष को दर्शाया गया है जिसमे दलित एक ओर न केवल सवर्ण लोगों की कुंठा और घृणा का शिकार होता है बल्कि वह पुलिस प्रशासन के शोषण तथा पक्षपात का भी उतना ही शिकार होते हैं | कथाकार ने जिस सुन्दरता के साथ दलितों के साहस, चेतना और अस्मिता की रक्षा केलिए उन्हें संगठित होते दिखाया है वैसा वर्णन अन्यत्र नहीं मिलता |

दलित अब दमित होकर नहीं जीना चाहते हैं उनमे सवर्णो के अमानवीय अत्याचारों के प्रति प्रतिशोध की भावना विकसित हो रही है | रीत कहानी में ब्राह्मणवाद की उस दूषित प्रवृत्ति को उजागर किया गया है जिसमें जातिवाद और सामंतवाद की घृणित मानसिकता ने बलात्कार जैसे जघन्य अपराध को भी एक परंपरा बना दिया है | कहानी में लेखक ने शिद्दत से यह प्रश्न उठाया है कि बलात्कार की शिकार हमेशा दलित स्त्री ही क्यों होती है ? गाँव में जब भी उनकी कोई नई बहू आती है तो उसकी सुहागरात पहले जमींदार मनाता है ,जिसे रीत मानकर सब लोग निभाने को विवश थे | बुलाकी की नई नवेली दुल्हन के साथ भी यही हुआ जिसका विरोध करते करते वे किसी तरह अपनी जान बचाकर गाँव से चले जाते है| कथा-नायक बुलाकी पांच साल बाद पूरे प्रशिक्षण के साथ लौटकर अपने गाँव को इस कुरीति से मुक्त करने केलिए जमींदार तथा उसके वंश की हत्याकर अपना प्रतिशोध पूरा करता है | प्रतिशोध की इसी चेतना का उल्लेख क़र्ज़ कहानी के द्वारा भी सशक्त रूप से किया गया है |कहानी का रामदीन गाँव के महाजन से सो रूपये क़र्ज़ लेता है फसल न होने के कारण रामदीन ऋण नहीं चुका पाता है तो ब्याज केलिए महाजन के खेत में काम करना पड़ता है | जूठन और उतरन देने वाले महाजन का क़र्ज़ पांच बढ़ता है | जीतोड़ परिश्रम के कारण रामदीन की मौत हो जाती है |महाजन उसके बेटे अशोक को क़र्ज़ के फेर में फ़साने केलिए पिता की तेरहवीं करने केलिए बाध्य करता है | लेकिन वे इन व्यर्थ की सडी–गली परंपराओं में विश्वास नहीं करता और ना ही वे अपने पिता की तरह क़र्ज़ के फेर में आजीवन गुलाम बनके रहना चाहता है| इसीलिए वह तेरहवीं करने से इंकार करता है| प्रतिक्रिया स्वरूप महाजन अशोक की माँ से कहता है–“नई मान्नेगा तो धोखा खावैगा जिसके बाप-दादों ने म्हारे तलवे चाटे हो,म्हारी गुलामी की हो, म्हारी जूठन खाई हो, उसका बेट्टा म्हारे साथ जुबान लड़ाने की हिम्मत करेगा य्यै हमें कतई बर्दास्त न होगा |”2 गाँव के लोग जिस महाजन को श्रद्धा की निगाह से देख रहे थे उन्हें क्या मालूम था कि माँ बेटी को देख कर उसकी आँखों में वासना का दरिया बहने लगा था| महाजन ने अशोक की माँ रामप्यारी और बेहन कमला का बलात्कार करके उनका क़त्ल भी करता है |यह खबर सुनते ही अशोक शहर से लौटकर आता है और प्रतिकार की अग्नि में जलकर अपनी माँ बेहन की चिता ठंडी होने से पूर्व ही वह महाजन और उसके लठेत उज्जड सिंह की हत्या कर अपना प्रतिशोध पूरा करता है |

प्रतिशोध की चेतना हमें मजूरी कहानी में भी मिलती है | कहानी की सुमति उच्च वर्णियों के शोषण और उत्पीडन का शिकार हो जाती है | वह अपनी मजदूरी मांगने केलिए प्रतिदिन महेश के बंगले पर जाती है तो बार-बार उसे कल-परसों आने को कहकर टरका दिया जाता है |लेकिन एक दिन वह दृढ निश्चय के साथ अपनी मजदूरी मांगने जाती है और कहती है- “म्हारी मजूरी दे आज |..क्यों म्हारे को रोट्टी न चइयै ? भूख तो हमै भी लगै है | म्हारा बेट्टा तीन दिनों से बुखार में तपरा है | तुझे सरम ना आवै है|” 3. भरी सभा में जैसे महेश को किसी ने पत्थर मारा हो उसने तत्काल अपने कुत्ते को सुमति की ओर संकेत किया |जिसने पलभर में सुमति को लहुलुहान किया | वह घायल अवस्था में झोंपड़ी में पहुँच कर मरने से पूर्व अपने बीमार बेटे से प्रतिशोध लेने केलिए प्रेरित करती हुई कहती है –“बेट्टे याद रखना | महेश नाम है उसका | बड़ा होकर अपनी माँ का हिसाब मांगना उससे | एक-एक पाई वसूल करना |”4. उसके ज़ख्म नामक कहानी में जब जमींदार द्वारा कमला नामक दलित लड़की के साथ ज़बरन बलात्कार होता है | तो कमला न्याय पाने केलिए शहर के न्यायालय जाती है तो बाबा उसे शहर का डर दिखाकर रोकने का प्रयास करता है |लेकिन कमला मार्मिक रूप से कहती है-“ बाबा,मेरी इज़्ज़त एक बार लुट गई,दोबारा लुट जाएगी तो कौन-सी धरती फट जावेगी,कौन आसमान टूटकर गिर पड़ेगा ? गरीब के साथ तो हमेशा से बैसा ही होता रहा है |”5. ज़मींदारकी मिलीभगत के कारण कमला को भले ही न्यायालय से न्याय न मिला लेकिन उनका न्यायालय जाना इस बात का प्रमाण है कि दलितों में अपने अधिकारों के प्रति चेतना विकसित हो चुकी है |

दलितों में अपने सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ राजनेतिक चेतना का विकास भी हो रहा है | जगीरा कहानी इस बात का स्पष्ट प्रमाण है |सुखमन अपने पोते जगीरा को उठाकर शहर ले जाता है | जगीरा वहां शिक्षित हो कर नगर-निगम चुनाव लड़ता है परिणामतः वह पार्षद बनकर अपनी बस्ती के विकास केलिए काम करना चाहता है लेकिन उसे भी दलित होने के कारण अपमानित होना पड़ता है | हताश जगीरा को संघर्ष करते रहने की प्रेरणा सुखमन देता है | इस तरह दलित समाज में जगीरा परिवर्तन का प्रतीक बनकर उभरता है|

दलितों की वर्तमान शिक्षित पीढ़ी चेतना संपन्न हैं वे अपनी इच्छा अनुसार जीवन में कुछ कर-गुजरने की चाह रखते हैं |उनमे व्यावसायिक परिवर्तन की चेतना जन्म ले चुकी है| वे अपने बाप-दादाओं के कुत्सित व्यवसाय को त्यागकर सम्मानजनक धंधे की ओर प्रेरित हो रहे हैं | ऐसे ही परिवर्तन का चित्रण हमारा जवाब कहानी में होता है | कथानायक हिम्मत परंपरागत व्यवसाय छोड़ कर खोमचे पर मिठाई बेचने का काम करता है | लेकिन छोटी जाति के व्यक्ति द्वारा मिठाई बेचना ऊँची जाति के लोगों को धर्म भ्रष्ट करने के समान लगता था | अपने मोहल्ले के आस-पास मिठाई बेचने केलिए उसे मना किया जाता है | यहाँ तक कि उसे सवर्णों द्वारा हवालात ले जाने की धमकी भी दी जाती है |लेकिन वह इस व्यवसाय को निरंतर जरी रखता है | एक दिन एक पुलिसकर्मी ने मिठाई वापस करते हुए कहा –“तूने पहले क्यों नहीं बतलाया कि तू छोटी जात से है|” हिम्मत उत्तर में कहता है –“पहले यह बतला,तूने मुझसे मिठाई खरीदी थी या मेरी जात ?”6. इस तरह हाथापाई हो जाती है और सवर्ण बस्ती के कई सारे लोग आकर हिम्मत पर वार करते हैं | हिम्मत सिंह को घायल अवस्था में अस्पताल पहुँचाया जाता है अपनी मौत से पूर्व वे अपने लोगों में चेतना का प्रसार करते हुए कहते हैं –“मैं तो जा रहा हूँ ,पर मेरे बाद इस आन्दोलन को रोकना मत | हर बस्ती से एक आदमी खौमचा लगाये और समता तथा सम्मान के आन्दोलन को आगे बढ़ाये ...जाति-भेद को ख़त्म करे |”7.

व्यावसायिक परिवर्तन की चेतना वर्तमान पीढ़ी में रच-बस गई है| वे इस घृणित पेशे का बहिष्कार करते हैं | महाशूद्र कहानी इसका जीवंत प्रमाण है | कहानी में वर्ण-व्यवस्था की विसंगतियों का सूक्ष्म चित्रण किया गया है | शमशान में शवों का अंतिम संस्कार करने वाले ब्राह्मण आचार्य को जो कुछ पैसे और समान मिलता है उसी से उसके घर का गुज़ारा होता है | लेकिन इसके विपरीत उसे अपने समाज द्वारा अनैतिक आचरण का सामना भी करना पड़ता है |ब्राह्मण उन्हें घर के बाहर ही रखते हैं और उनकी सूरत देखना अपशगुन मानते हैं |इस घृणित व्यवसाय के विरुद्ध आचार्य जी के बड़े बेटे में क्षोभ है वे चलाते हुए कहते हैं –“पिताजी, अब और नहीं सहा जाता | सारी दुनिया हम पर थू-थू करती है | हमें मुर्दे की चमड़ी खींचने वाले से लेकर कफ़न-खसोटू तक कहती है | वे कहते हैं कि हमारे घर का गुज़ारा ही तब चलता है जब कोई मरता है | किसी के घर में अँधेरा होने पर ही हमारे घर में उजाला होता है |”8 इस तरह उपरोक्त कहानियों में दलितों की वर्तमान पीढ़ी में हो रहे व्यावसायिक परिवर्तन की चेतना को सशक्त रूप में दर्शाया गया है |

दलितों में अज्ञानता के कारण सदियों से जो शोषण और उत्पीडन होता आया है | जिसके कारण वे अंधश्रद्धाओं के अधीन होकर आभावग्रस्त तथा अधिकारशून्य जीवन जीते आये हैं | इस कुव्यवस्था के निर्मूलन केलिए सामाजिक स्तर पर उन्हें एक समान भागीदारी दिलाने केलिए ज्योतिबा फुले तथा बाबा साहब अम्बेडकर ने उन्हें शिक्षित होने पर बल दिया है| क्यूंकि शेक्षिक चेतना से ही दलितों में सामाजिक उत्थान संभव है | नैमिशराय ने बाबा साहेब की इसी सोच का अनुसरण करते हुए अपने कथा-साहित्य में उकेरा है | दलितों की शैक्षिक चेतना को विस्तार प्रदान करते हुए गाँव, सुनो बरखुरदार, भीड़ में वह, तुलसा, अपना गाँव आदि कहानियां इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है |बाबा साहब अंबेडकर के शिक्षित बनो और संगठित रहो के सिद्धांत ने दलितों की जीवन दशा को पूरी तरह से बदल दिया है | स्वतंत्रता के बाद की पीढ़ी में विशेष रूप से जो परिवर्तन आया है वह इसका जीवंत प्रमाण है | वे अभावग्रस्त होकर भी अपनी नई पीढ़ी को शिक्षित करना चाहते है | गाँव कहानी इसी दिशा में एक सकारात्मक पहल है | कहानी का सुक्ख्मन नाई का काम करता है अपने सीमित संसाधनों के बावजूद वह अपने दो बच्चों ननकू और सुमेर को पढ़ता है| जिस समय गाँव में शिक्षा पाना बहुत बड़ी बात थी | ननकू की माँ छमिया “अपने बेटे की पढाई पर खुश थी | दसवीं जमात में था इस साल ननकू | गाँव में तीन-चार लड़के ही तो पढ़-लिख रहे थे | बाकि तो सब मिटटी गारा में फंसे थे |...गर्मी की छुट्टियों के बाद परिणाम घोषित हुए तो ननकू द्वितीय श्रेणी में पास हो गया था | यही सब सुनाने केलिए ननकू शहर-गाँव ख़ुशी-ख़ुशी आया | सुक्खमन ने सुना तो ख़ुशी उसे संभले न संभल रही थी |”9

तुलसा कहानी की तुलसा अनाथ है | वह गाँव छोड़ कर अपनी दादी के साथ शहर में ताउजी के यहाँ रहने लगती है | लेकिन वहां उसे मेहर के रूप में रखकर उनका उत्पीडन किया जाता है और उनकी आशाओं का गला घोंट कर उसे अशिक्षित रखा जाता है | लेकिन ताउजी का लड़का सुमित नहीं चाहता कि तुलसा अनपढ़ रहे | कहानी में सुमीत तुलसा नाम से एक नाटक का आयोजन करता है | जिसमे तुलसा के अशिक्षित जीवन का मार्मिक उल्लेख किया जाता है | युवक तुलसा से संबोधित होकर कहता है –
“तुम कितनी पढ़ी-लिखी हो?”
उनके उत्तर न देने पर युवक आशय निकालता है –“तो तुम अनपढ़ हो ?”
‘हाँ में अनपढ़ हूँ | शहर में रहते हुए भी निपट गंवार हूँ |”
तभी दृश्य बदलता है | तुलसा के साथ परिवार के सभी सदस्य थे | वहीं युवक संबोधित होकर कहता है –‘क्या तुम्हारा धर्म तुलसी के पौधे को पानी देना ही है | अपने ही घर में सोलह वर्षों तक तुम एक लड़की को अशिक्षा के अँधेरे में रख सकते हो| कहाँ गया तुम्हारा समता, न्याय और लोकतंत्र का सिद्धांत ..?”10
इसी क्रम में ‘सुनो बर्खुरदार,कहानी में भी दलितों में शैक्षिक चेतना को दर्शाया गया है | नौरंग मेहनत-मजदूरी करके अपने पुत्र मंगल को कठिन परिस्थितियों में शिक्षित करता है | इस तरह दलित समाज अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति जागरूक दिखाई देते हैं | भीड़ में वह कहानी दलित चेतना की दृष्टि से अभूतपूर्व शैली में लिखी गई है| मोहनदास नैमिशराय वेश्या व्यापर से जुडी लालबाई के द्वारा शैक्षिक चेतना को दर्शाता है | लालबाई मजबूरीवश अपना शरीर बेचकर अपने अवैध बच्चे यानि बाबू को पढ़ना चाहती है और उसे अच्छा इन्सान बनाना भी चाहती है | अनेक कठिनाइयों के बाद वह किसी तरह से बाबू को निकट के नगरपालिका स्कूल में प्रवेश दिलाती है| वह सोते-जागते अपने बाबू को बड़ा आदमी देखना चाहती है | लालबाई सपने में देखती है कि “बाबू ने बारहवीं कक्षा पास कर ली है| फिर कालिज में उसका दाखिला हो जाता है | बाबू खूब पढता है | कोठे पर पहले जो लोग बाबू को गालियाँ देते थे,उसका मजाक उड़ाते थे,अब उसे प्यार करने लगे हैं| कोठे के अन्य बच्चे भी धीरे-धीरे पढने लगे हैं कालिज से लौटकर बाबू उन्हें पढ़ाता है |”11

अपना गाँव, कहानी में भी दलितों के उत्थान केलिए शिक्षा को महत्वपूर्ण माना गया है | ठाकुरों के शोषण और उत्पीड़न से मुक्त होने केलिए जब दलित समाज हरिया के नेतृत्व में अपना अलग गाँव बसाने की परिकल्पना पर विचार करते है |लहना गाँव से आये सभी मर्द-औरतें पंचायत में बैठकर यह तय कर लेते है कि नए गाँव में किन-किन चीज़ों का होना ज़रूरी है |
किसी ने कहा- “मंदिर|” झट से दूसरे ने पहले वाले की बात काटते हुए कहा-“मंदिर से पहले स्कूल चईयै |”
हरिया ने सहमति में अपनी गर्दन हिलाई – “हाँ, पैले स्कूल ही चईये| जिसमे म्हारे बच्चे पढ़-लिखकर कुछ बनें |”12
निष्कर्षतः नैमिशराय ने उपरोक्त कहानियों के माध्यम से दलित चेतना के विविध पक्षों पर प्रभावी ढ़ंग से अपनी लेखनी चलाई है| इनके कथानायक सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर रहे हैं | वे सवर्ण वर्ग की पूर्वनिर्धारित अमानवीय व्यवस्थाओं को ध्वस्त करते हुए संगठित रूप से अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हो रहे हैं | नैमिशराय ने अपनी कहानियों में चेतना के प्रवाह को उस स्तर पर लाया है जहाँ उनके पात्र सदियों की पराधीनता से मुक्त होकर अपने वंचित अधिकारों को अर्जित करते नज़र आते हैं| इसीलिए दलितों की वर्त्तमान पीढ़ी अपने अधिकारों के प्रति चेतना संपन्न है | इससे यह स्पष्ट होता है कि दलितों की नई पीढ़ी चेतना संपन्न हो कर प्रस्थापित रूढ़ियों को त्यागकर स्वत: अपने जीवन को नए रूप में गढ़ रहे हैं |

सन्दर्भ सूची
  1. मोहनदास नैमिशराय, आवाज़ें, श्री नटराज प्रकाशन दिल्ली, पृष्ठ-19
  2. मोहनदास नैमिशराय, हमारा जवाब, क़र्ज़, श्री नटराज प्रकाशन दिल्ली, पृष्ठ -21 3.मजूरी, पृष्ट-139, 140
  3. उसके ज़ख्म, पृष्ट -124
  4. हमारा जवाब, पृष्ट- 52, 53
  5. महाशूद्र, पृष्ट-157
  6. गाँव, पृष्ट- 44, 45
  7. तुलसा, पृष्ट- 71
  8. भीड़ में वह, पृष्ट- 151
  9. अपना गाँव, पृष्ट- 68
दाऊद अहमद परे, स्नातकोत्तर हिंदी विभाग, कश्मीर विश्वविद्यालय, हज़रतबल, श्रीनगर, कश्मीर | पिन कूट 190006 सचल भाष-7889897553 ई-मेल daoodahmad80@gmail.com