Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
Special Issue on Dalit LIterature
दोहरे उत्पीड़न को दर्शाती आत्मकथा - दोहरा अभिशाप
जीवन के भोगे हुए यथार्थ को सत्य की कसौटी पर आत्मनिरीक्षण, आत्मविश्लेषण एवं आत्मविवेचन करते हुए अपनी लेखनी द्वारा पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करना आत्मकथा कहलाता है | आत्मकथा में लेखक जीवन का अवलोकन कर उससे जुड़ी घटनाओं, अनुभूतियों तथा विचारों का पुनर्मूल्यांकन करता है | यह गद्य साहित्य की ऐसी विधा है, जिसमें एक ही व्यक्ति लेखक, प्रवक्ता तथा चरित्र तीनों भूमिकाएँ एक साथ निभाता है | आत्मकथा के केन्द्र में लेखक स्वयं रहता है | एक सफ़ल आत्मकथाकार वही होता है जो अपने लेखन में निरपेक्ष तथा तटस्थ रहता है | औपचारिक रूप से हिंदी की पहली आत्मकथा, बनारसीदास जैन की ‘अर्धकथानक’ को माना जाता है | स्वातंत्र्योतर पश्चात आत्मकथा लेखन का विकास तीव्रगति से हुआ, किन्तु लम्बे समय तक इस क्षेत्र में केवल पुरुषों का ही बोल-बाला रहा | बीसवीं सदी के अंतिम दशक में नारी की सोच तथा स्थिति में आए परिवर्तन के कारण सदियों से धारण मौन तथा शोषण को अपना भाग्य समझकर सहते जाने की प्रवृति को त्यागते हुए उसने अपने अस्तित्व और अस्मिता को पहचानते हुए अपने ‘स्व’ एवं ‘आत्म’ को वाणी दी | नारी अपने परम्परावादी, कामिनी तथा भोग्या रूप को नकारते हुए, शिक्षा प्राप्त कर अपने अधिकारों के प्रति जागरुक हो सामने आई | उसने समस्त सामाजिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक वर्जनाओं को त्यागकर सदियों से स्वयं पर हो रहे शारीरिक तथा मानसिक शोषण, उत्पीड़न, अत्याचारों का विरोध किया | आत्मकथा लेखन द्वारा कई लेखिकाओं ने अपने व्यकितत्व के विभिन्न पहलुओं व जीवन यथार्थ को सम्पूर्ण आत्मविश्वास तथा साहस के साथ पाठकों के समक्ष रखा |

दलित साहित्य की अद्वतीय कृति ‘दोहरा अभिशाप’ हिन्दी दलित साहित्य की प्रथम महिला आत्मकथा है, जिसके द्वारा कौशल्या बैसन्त्री ने घर एवं समाज में स्त्री के त्रासदीपूर्ण जीवन, उसकी पीड़ा तथा जीवन की यथास्थिति का यथार्थ वर्णन किया है | तीन पीढ़ियों की महिलाओं (लेखिका की नानी, माँ तथा स्वयं) के संघर्ष और उत्पीड़न की मार्मिक कथा ‘दोहरा अभिशाप’ द्वारा लेखिका ने इस तथ्य को उभारा है कि दलित समाज में स्त्री की स्थिति दोयम दर्जे की है अर्थात् उसकी लैंगिक पहचान उसके दलित होने की पहचान से पहले आती है, वहीं दूसरी ओर कौशल्या बैसन्त्री का यह कथन “पुत्र, भाई, पति सब मुझपर नाराज़ हो सकते हैं, परन्तु मुझे भी तो स्वतंत्रता चाहिए कि मैं अपनी बात समाज के सामने रख सकूँ | मेरे जैसे अनुभव और भी महिलाओं के सामने आए होंगे परन्तु समाज और परिवार के भय से अपने अनुभव समाज के सामने उजागर करने से डरती और जीवन भर घुटन में जीती है | समाज की आँखें खोलने के लिए ऐसे अनुभव सामने आने की जरूरत है |”[1] भारतीय समाज में दलित स्त्रियों की स्वतंत्रता की धारणा को मुखरित करता है |

दलित समाज की स्त्री की समस्याओं, पीड़ा, व्यथा, उत्पीड़न, संघर्ष को लेखिका ने बड़े ही मार्मिक ढंग से अपनी ‘नानी’ तथा ‘माता’ के माध्यम से व्यक्त किया है | लेखिका की नानी जिन्हें वह ‘आजी’ कहती थीं का बालविधवा होने के पश्चात् एक अधेड़ व्यक्ति से पुनर्विवाह, घरेलू हिंसा, पति द्वारा किए अत्याचार के कारण तीन बच्चों के लेकर घर छोड़कर चले जाने का निर्णय, बच्चों के पालन-पोषण हेतु किए संघर्ष, दो बच्चों की मृत्यु तथा बार-बार पति के हस्ताक्षेप के बाद भी उनका जीवन में चुने हुए राह पर अटल रहते हुए, आत्मविश्वास और आत्मनिर्भर हो यह कहना “वे अपनी लड़ाई खुद लड़ेगी, किसी पर बोझ नहीं बनेगी | अपने कफ़न का सामान भी वह स्वयं जुटाएँगी |”[2] उनका आत्मसम्मान और स्वावलम्बन के साथ आजीवन आत्मसंघर्ष कर अपने कफ़न तक की सामग्री मृत्युपूर्ण स्वयं जुटाना उनकी दृढ़ता को दर्शाता है | इसी प्रकार उनकी माँ भागीरथी का जीवन भी संघर्षमय रहा | अशिक्षा, अज्ञान, अंधविश्वास, टोने-टोटके, जात-पात के कठोर दंश में फँसे होने के पश्चात् भी उनकी माता ‘पढ़ो लिखो शिक्षित बनो और आगे बढ़ो’[3] के मंत्र से प्रभावित हो अपने बच्चों को पूर्ण शिक्षा प्रदान करवाने में सफ़ल हो सकीं, किन्तु सामाजिक रीति-रिवाज के बंधन के कारण लेखिका की बड़ी बहन का विवाह छोटी आयु में ही करवाने का दुःख उनकी माता को सदा सालता रहा |

सदा से दबे-कुचले इस अस्पृश्य समाज को शिक्षा से वंचित रखा गया | समाज में जहाँ दलित पुरुषों का शिक्षा प्राप्त करना कठिन था, वहीं किसी स्त्री का शिक्षा ग्रहण करना अपने-आप में बहुत बड़ी बात थी | स्त्री होने के साथ-साथ दलित होने के कारण उन्हें लोगों की ईर्ष्या, षडयंत्र तथा अवरोधों का सामना करना पड़ा | जब अवरोध काम नहीं आए तो उनके चरित्र हनन के भी प्रयास किए गए | स्कूल में लगे पुस्तक चोरी के झूठे आरोप, शिक्षिका का उनके प्रति कड़ा व्यवहार व कटु बोल, जाति-भेद के कारण स्कूल के कार्यक्रमों में भाग न लेना उनके मन में हीनता बोध उत्पन्न कर देता है | लेखिका का साइकिल से कॉलेज जाना सवर्णों के साथ-साथ अपनी जाति के लोगों के लिए भी ईर्ष्या का सबब बन जाता है; जिसके चलते वे पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवाते हैं कि कौशल्या की साइकिल चोरी की है, किन्तु यह तथ्य सामने आने पर उनके परिवार को मात्र पढ़ने-लिखने के कारण इस प्रकार की परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है, इंस्पेक्टर बस्ती-मोहल्ले के लोगों को डांट-फटकार लगाते हैं | ज्ञान के प्रकाश द्वारा उनके जीवन में आए परिवर्तन को उनके ही समुदाय वाले यहाँ तक कि कुछ रिश्तेदार भी सहन नहीं कर पाते और मिलकर उन्हें परेशान करने के नए-नए तरीके ढूंढते हैं |

नारी होने के कारण लेखिका को कई बार शारीरिक शोषण का शिकार भी होना पड़ा | लड़कों द्वारा छेड़ने पर उनका विरोध स्वरूप उनपर हाथ उठाना, अस्पताल के कम्पाउण्डर द्वारा नर्सिंग कोर्स करवाने का आश्वासन देकर झांसे से किसी वृद्ध के पास ले जाने की घटना, मेयर द्वारा रात में बुलाना तथा एक अन्य व्यक्ति का उनके घर पर आकर उनसे बदतमीज़ी करना पुरुषों की स्त्री को केवल भोग्या मात्र समझने की मानसिकता को दर्शाता है | इसी पुरुषवर्चस्वादी मानसिकता का शिकार कौशल्या को विवाह पश्चात् भी होना पड़ा | बाहरी जगत के कटु अनुभव उन्हें अपने विवाहित संबंध में झेलने पड़े | उच्च शिक्षा प्राप्त दलित एक्टविस्ट पति जो विवाह पूर्व सदा लेखिका के प्रति मित्रवत तथा सहयोगपूर्ण व्यवहार रखता था, विवाह पश्चात् उसमें मित्र के स्थान पर पति तथा पति के साथ पुरुष अहम विराजमान हो गए | कौशल्या जी के शब्दों में “देवेन्द्र कुमार को पत्नी सिर्फ खाना बनाने और उसकी शारीरिक भूख मिटाने के लिए चाहिए थी | देवेन्द्र के लिए पत्नी जैसे घर की नौकरानी थी |”[4] प्रसूति काल में पति का उसकी चिंता न करते हुए दौरे पर चले जाना, उन्हें पैसे ना देना कौशल्या जी के लिए किसी प्रताड़ना से कम न था | पति द्वारा असमानता बोध तथा कमतरी का अनुभव करवाना अत्यंत पीड़ादायक था | पति द्वारा पत्नी की अवहेलना उसकी असंवेदनशीलता तथा असहिष्णुता को व्यक्त करता है |

कौशल्या जी ने अन्य दलित महिला पात्रों के माध्यम से स्त्रियों की स्थिति का यथार्थ चित्रण किया है | सखाराम का अपनी पत्नी को ठेकेदार द्वारा छेड़े जाने पर ठेकेदार की अपेक्षा अपनी पत्नी को ही लांछित कर घर से निकालने तथा निर्वस्त्र कर गधे पर घुमाने की घटना को मोहल्ले की महिलाओं के अतिरिक्त उसके माता-पिता द्वारा भी उचित ठहराना; तथा इतना अपमानित होने के पश्चात् उस महिला का आत्महत्या करना यह स्पष्ट करता है कि समाज में महिलाओं को दोयम दर्जे का माना जाता है व गलती किसी की भी हो दण्डित केवल स्त्री को ही किया जाता है मानो जैसे उसका कोई अस्तित्व ही न हो | एक अन्य घटना का वर्णन करते हुए वह बताती हैं कि शारदा नामक लड़की का विवाह उससे बीस वर्ष बड़े श्री डोंगर के साथ होना एक बड़ी सामजिक कुरीति है | दलित समाज में विधवा विवाह को मान्यता प्राप्त है; किन्तु इसे विवाह न कहकर ‘पाट’ कहा जाता है, जिसमें विधवा स्त्री को श्रृंगार करवा बिना मंडप और बैंड-बाजे के रात के समय ससुराल लाया जाता है | पाट के बाद भी स्त्री के गले में सोने या चाँदी का पेंडेंट पहनाया जाता है जो उसके पुनर्विवाह का चिह्न है, जबकि विधुर पुरुष धूमधाम से किसी कुआंरी लड़की से भी विवाह कर सकता था | इसके अतिरिक्त उन्होंने बहुविवाह का भी वर्णन किया है, जिसके चलते पुरुष एक से अधिक विवाह कर सकता था | पाट तथा बहुविवाह का सशक्त उदाहरण हैं उनकी नानी जिनका बालविधवा होने के कारण पहले से ही विवाहित पुरुष से पुनर्विवाह करवाया गया | यह समस्त घटनाएँ समाज के दोहरे चेहरे को उभारते हुए, स्त्री की समस्याओं व प्रताड़नाओं को दर्शाती हैं |

आत्मकथा ‘दोहरा अभिशाप’ में नारी की उपेक्षा व शोषण के अतिरिक्त उसकी दृढ़ता का भी लेखिका ने सशक्त वर्णन किया है | आजी का आत्मसंघर्ष, आत्मनिर्भर होने का भाव अंतिम समय तक उनके आत्मसम्मान को दर्शाता है | कौशल्या जी की माता एक ऐसी दृढ़ महिला के रूप में उभर कर सामने आई हैं, जिन्होंने सामाजिक उपहास तथा अवरोध का सामना करते हुए अपने बच्चों को शिक्षा दिलवाई तथा रूढ़ीवादी और पूर्वाग्रही समाज से उनकी रक्षा की | ‘कमनी अत्या’ की खोजी प्रवृति, समझदारी से गृहस्थी चलाना उनकी यायावरी और परखी चरित्र को उभारती है | वहीं ‘रामकुंवर’ का मिल में मज़दूरी कर आजीविका चलाना, ‘सोगी’ का मरे हुए जानवरों को खरीदकर उनका मांस बेचना तथा ‘ठमी’ का बारीक़ मसाला पीसकर परिश्रम कर अपना घर चलाना उनकी मेहनती व दृढ़ प्रवृति को चित्रित करता है | ‘जाई बाई चौधरी’ और ‘झूला बाई’ जैसी दलित नेत्रियों का अम्बेडकरवादी आंदोलन में अमूल्य भूमिका निभाने के अतिरिक्त दलित बच्चों के लिए पाठशालाएं स्थापित करना दलित समाज के प्रति उनके बहुमूल्य योगदान का उल्लेख करता है |

श्रेष्ठता बोध एक ऐसी मानवगत प्रवृति है जो धर्म, धन, जाति, लिंग को लेकर विकसित होती है | यह श्रेष्ठता बोध ही था जिसके चलते अस्पृश्यों का मंदिर में प्रवेश करना निषेध था | मंदिर में पशु-पक्षी तो प्रवेश कर सकते थे किन्तु दलितों का प्रवेश करना किसी पाप से कम न था | स्वयं को सर्वोत्तम समझने वाले सवर्ण वर्ग के मन-मस्तिष्क में छुआछूत की भावना इतनी गहरी पैठ गई थी कि वह अपने व्यवहार से उन्हें अस्पृशीय होने का बोध करवा देते थे | ऐसी ही कुछ मार्मिक घटनाओं का वर्णन करते हुए कौशल्या बैसन्त्री लिखती हैं कि उनकी माताजी घर की विपरीत परिस्थिति के चलते चूड़ियाँ, कुमकुम आदि बेचने का कार्य करती थी तो उच्च जाति की महिलाएं जब उनके पास अपने हाथों में चूड़ियाँ डलवाने आती तो पुरानी साड़ी पहनती थी और चूड़ियाँ पहनने के बाद स्नान कर लेती | उन महिलाओं का ऐसा व्यवहार उन्हें पीड़ा पहुँचाता किन्तु आर्थिक विपनता के कारण वह अपमान के घूंट पीकर रह जातीं | इसी प्रकार उनके पिता का हेड मिस्ट्रेस द्वारा फ़ीस कम करने पर कृतिज्ञता व्यक्त करते हुए दूर से उनके चरणों में सिर झुकाना ताकि उन्हें स्पर्श न हो उनकी विवशता तथा उच्च जाति के लोगों की संकीर्ण व दंभी मानसिकता का वर्णन करता है |

सामाजिक विसंगतियों का दृढ़तापूर्वक विरोध करने वाली कौशल्या स्वयं जीवन के उस मोड़ पर कमज़ोर पड़ जाती हैं, जिस मोड़ पर उनकी आजी तथा माँ ने साहस और दृढ़ निश्चय कर जीवन को एक नए रूप में ढाला था; अर्थात् जहाँ उनकी आजी और माँ ने बच्चों के पालन-पोषण तथा शिक्षण की ज़िम्मेदारी के साथ नैतिक साहस दिखाया वहीं लोखिका केवल बच्चों की खातिर कमज़ोर पड़ गई | परिवार के लिए अपनी प्राथमिकताओं को द्वितीय स्थान पर रखना, उनके त्याग, समर्पण, बलिदान को अनदेखा करना आदि ने अंततः उन्हें इतना विचलित कर दिया कि वह जीवन के चालीस वर्ष बीत जाने के पश्चात् पुन: सामाजिक कार्यों से जुड़ पाई |

अत: कहा जा सकता है कि ‘दोहरा अभिशाप’ आत्मकथा के माध्यम से लेखिका कौशल्या बैसन्त्री ने समाज द्वारा स्त्री के शोषण, पीड़ा, व्यथा, उसके अस्तित्व व अस्मिता को कुचले जाने, नारी का इसके प्रति विरोध, उसके संघर्ष आदि महत्वपूर्ण पहलुओं को उभारा है | हमारे समाज में शिक्षित या अशिक्षित कोई भी दलित स्त्री हो, उसे दलित और स्त्री होने की असहनीय पीड़ा को एक साथ सहन करना पड़ता है | इस अनुपम दस्तावेज़ में जीवन यथार्थ का ऐसा ताना-बाना है जो इस तथ्य को उजागर करता है कि दलित स्त्री संघर्ष कर निर्धनता, अशिक्षा से तो पार पा सकती है, परन्तु जातिगत पहचान से पार पाना अत्यंत कठिन है | इस पहचान के कारण छोटे से छोटे स्तर पर भी उन्हें अपमान का घूंट पीना पड़ता है | अंततः यह कहना असंगत न होगा कि आलोच्य आत्मकथा द्वारा लेखिका स्त्री को केवल लैंगिक तथा जातिगत पहचान से भिन्न मनुष्य रूप में देखने के लिए प्रोत्साहित व प्रेरित करती हैं |

सन्दर्भ सूची –
  1. बैसन्त्री, कौशल्या. दोहरा अभिशाप, भूमिका
  2. वही, पृ. 29
  3. पासवान, जयराम कुमार, ‘दोहरा अभिशाप’: आत्मकथा में अभिव्यक्त दलित स्त्री जीवन का संघर्ष, मूक आवाज़, Assessed on 21 June, 2021
  4. बैसन्त्री, कौशल्या. दोहरा अभिशाप, पृ.99
डॉ. अमृता सिंह, प्रवक्ता, हिन्दी विभाग, कश्मीर विश्वविद्यालय, श्रीनगर, कश्मीर