कबीर और गुजरात में कबीर – सम्प्रदाय


“मोकों कहाँ ढूंढे बंदे, मैं तो तेरे पास में ।
ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में ।
ना तो कौनो क्रिया-कर्म में, नाही योग बैराग में ।
खोजि होय तो तुरतै मिलिहौ, पलभर की तलाश में ।
कहैं कबीर सुनो भाई साधों, सब सांसों की साँस में ॥”[१]

कुछ आलोचक कबीर जी के इस पद को भले संदिग्ध मानते हो, लेकिन इसमें कबीर साहब के अंतर की अभिव्यक्ति साफ-साफ झलकती है, इसमें कोई दोराय नहीं । कबीर साहब का युग चारों ओर से आपाधापी से भरा हुआ था । सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक आदि क्षेत्रों में विसंगतताएँ, विद्रूपताएँ प्रवर्तित थीं । कबीर के जन्म से पूर्व समाज में विलासिता और हिंसा का दूषित वातावरण था । विलासिता से ऊबी जनता धर्म की ओर मुड़ी तो वहां भी विभिन्न सम्प्रदायों और मतावलम्बियों ने अपने-अपने मत को सही सिद्ध ठहराने के प्रयत्न में बाह्य आचरण पर अधिक जोर दिया । परिणामतः धर्म के सच्चे स्वरूप की जगह पाखण्ड ने ले ली । विलासिता और हिंसा से भागी जनता कोरे आड़म्बर में फँस गयी । धर्म हिन्दू-इस्लाम, शैव-वैष्णव आदि वर्गों में विभक्त होकर जनता के श्रेय के साधन के स्थान पर उन्हें लड़ाने का साधन बन गया । जातिप्रथा भी दूषित हो चुकी थी । समाज के निम्न वर्ग की स्थिति दयनीय थी । राजनीतिक अधिकार समाज के उच्च वर्ग के पास सीमित थे । धनिक वर्ग निर्धन का अत्यधिक शोषण करने लगा था । सत्ता मर्यादित वर्ग के हाथों में थी । बहुसंख्यक वर्ग अभाव, अपमान, अवहेलना, अत्याचार से पीड़ित था । ऐसे भयाक्रान्त माहौल में लगभग चौदहवीं शताब्दी के मध्य में काशी में कबीर साहब का जन्म होता है । उनके जन्म के सम्बन्ध में अनेक मत-मतान्तर प्रवर्तित हैं । जैसे कोई मानते हैं विधवा ब्राह्मणी के कोख़ से कबीर का जन्म हुआ था । लेकिन कबीर-सम्प्रदाय के अनुयायी तो मानते हैं कि कबीर साहब का किसी माँ की कोख़ से जन्म नहीं हुआ, अपितु कमल के फूल में उनका अवतरण हुआ था । सिर्फ़ इतना ही नहीं सम्प्रदाय के अनुयायी मानते हैं कि धरती पर जब-जब आवश्यकता पड़ती हैं कबीर साहब अवतार धारण करते हैं । मृत्यु के पश्चात् भी उन्होंने अनेक भक्तों को दर्शन दिए हैं । कबीर साहब के अवतार के रूप में यह साखी बहुत प्रसिद्ध है –
“शब्द्स्वरूपी देह मम, ज्यौ बादल नभ बीच ।
जब चाहूँ प्रकट करूं, जब चाहूँ लूं खींच ॥”[२]

“कहै कबीर सुनो भाई साधो....” कहनेवाले कबीर की कविताएँ मौखिक रूप से ही आगे बढ़ी । कबीर-वाणी को जन-जन तक पहुँचाने का श्रेय अनिवार्यतः ‘लोक’ को ही दिया जा सकता है । जब वाहक ‘लोक’ हो, तब यह सहज ही है कि प्रदेश, भाषा, आचार-विचार, मूल्य-मान्यताओं आदि का प्रभाव रचनाओं पर भी पड़े । कदाचित् यही सबसे बड़ा कारण है कि आज कबीर साहब की रचनाओं के प्रामाणिक पाठ निर्धारित करने में विद्वानों को बहुत मशक्कत करनी पड़ती है ।

कबीर समाज सापेक्ष रचनाकार है । समाज का श्रेय सदैव उनका लक्ष्य रहा । उनकी यह महानता रही कि किसी भी प्रकार के प्रलोभन या पूर्वग्रह, ड़र या लोभ से बाहर होकर उन्होंने कटु पर शाश्वत सत्य कहा । जाति, भाषा, धर्म, सम्प्रदाय, प्रदेश आदि के भेद में उलझे बिना जहाँ कहीं भी अनाचार, दुराचार, पाखण्ड, भेदभाव देखा, कबीरजी ने करारे प्रहार किये । आज के विषाक्त माहौल में ऐसे ही सुधारक-चिन्तक की आवश्यकता है जो विभिन्न धर्मों के बीच सामंजस्य स्थापित कर वैज्ञानिक धरातल पर धर्म के सिद्धान्तों को परख कर मानव समाज को एक नयी दिशा प्रदान करें । कबीरजी ने कहा था -
“एक न भूला दोय न भूला, भूला सब संसार ।
जानि बूझि के जो नर भूला, ताको वार न पार ॥”[३]

आज संसार के हर एक धर्म के अनुयायी राह भूल चुके हैं, भटक रहे हैं । धर्म के नाम पर मार-काट, लूट-पाट, अत्याचार, बलात्कार आदि को सही ठहराया जा रहा है । काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि सांसारिक विषयों में अटका इन्सान अपने सच्चे स्वरूप को भूला बैठा है । बाह्य विधि-विधानों को धर्म न समझते हुए मानवीयता को, इंसानियत को धर्म माना जाये तो शायद संसार से नफ़रत को कम कर सके ।

कबीर के नाम से स्थापित सम्प्रदाय को लेकर अनेक प्रकार के विवाद हैं । सम्प्रदाय का प्रवर्तन किसने किया, कैसे यह प्रसारित हुआ, कबीर के शिष्य कौन-कौन से, अनेक प्रकार की उपशाखाएँ कैसे विकसित हुयी, बाह्य विधानों का ताउम्र बहुत ही कड़ा विरोध करनेवाले कबीर के नाम से प्रसारित सम्प्रदाय में कैसे और कब इतने सारे बाह्य विधि-विधान प्रवेश कर गये आदि प्रश्न अनुत्तरित हैं ।

कबीरजी धर्म के नाम पर किये जा रहे बाह्याचार के सख्त़ खिलाफ़ थे । इस्लाम के एकेश्वरवाद से प्रभावित कबीर को हिन्दुओं की मूर्तिपूजा और अवतारवाद में तनिक भी आस्था नहीं थी । ‘पाहन पूजै हरि मिलै....’ या ‘कांकर-पाथर जोरि....’ वाली मन्दिर-मस्जिद विषयक उनकी साखियाँ विश्व-प्रसिद्ध हैं । हिन्दुओं के दशावतार, मूर्तिपूजा और बाह्याचार पर करारा प्रहार करते हुए उन्होंने कहा –
“तिहि साहब के लागहु साथा, व्दि दुःख मेटि के होहु सनाथा ।
दशरथ कुल अवतरि नहिं आया, नहिं लंका के राव सताया ।
नहिं देवकी के गर्भ हि आया, नहिं यशोदा गोद खेलाया ।
पृथवी रमन धमन नहिं करिया, पैठि पताल नहीं बलि छलिया ।
न बलिराज से माँडल रारी, नहिं हिरणाकश बधल पछारी ।
बराह रूप धरणि नहिं धरिया, छत्री मारि निछत्री न करिया ।
नहिं गोवरधन कर गहि धरिया, नहिं ग्वाल संग बन बन फिरिया ।
गण्डक शालग्राम नहिं कूला, मच्छ कच्छ होय नहिं जल डूला ।
व्दारावती शरीर नहिं छाडा, लै जगन्नाथ पिण्ड नहिं गाडा ।
कहहिं कबीर पुकारिके, वा पंथे मति भूल,
जिहि राखेहु अनुमान कै, स्थूल नहीं अस्थूल ॥”[४]

भूख से लाखों बच्चे बेहाल हैं, रहने को छत न हो ऐसे अनेकों लोग दयनीय जीवन जी रहे हैं, अस्पताल और उचित इलाज के अभाव में हजारों जाने चली जा रही हैं, उस देश में मन्दिरों के निर्माण और उसके चढ़ावे में करोड़ों रुपये ख़र्च किये जा रहे हैं, हजारों लिटर दूध-घी बहाया जाता हैं । भोलीभाली जनता का शोषण कर फिर मन्दिरों में दान देना, तीर्थों की यात्रायें करना और पूण्य-प्राप्ति के नशे में डूबना; कबीर जैसे सच्चे सन्त, महापुरुष, समाजसुधारक, चिन्तक भला यह कैसे बर्दाश्त करें ? इसीलिए बिना किसी प्रकार का ड़र रखे उन्होंने अविरत पाखण्ड के विरुद्ध अपनी आवाज़ बुलंद रखी । उनका ईश्वर एक है, अविनाशी है । वह निर्गुण-निराकार है । उन्होंने कहा कि ईश्वर एक है और वो जीव के भीतर उसकी अन्तरात्मा के रूप में अवस्थित है । हिन्दू और इस्लाम के बाह्य विधि-विधान को नकारते हुए वे कहते हैं –
“हिन्दू एकादशि करै चौविसो, रोजा मुसलमाना ।
ग्यारह मास कहो किन टारै, एके माह न आना ॥
जो खुदाय मसजिद बसत है, और मुलुक किहि केरा ।
तीरथ मूरति राम निवासी, दुई महँ किनहूं न हेरा ॥
पूरब दिशा हरि के बासा, पच्छिम अलह मुकामा ।
दिल महँ खोज दिल हि में खोजो, यहैं करीमा रामा ॥”[५]

ढ़ोंगी व्यक्तियों ने दुष्प्रचार चला रखा था कि काशी में मरने से स्वर्ग की प्राप्ति और मगहर में मरने पर गधे का अवतार मिलता है । कबीरजी इस मान्यता को नकारते हुए मगहर में अपनी अंतिम साँस लेते हैं । तात्पर्य यह कि उनके मत से हर जगह ईश्वर उपस्थित है । सृष्टि के कण-कण में जो निराकार तत्व उपस्थित है उसे राम कहो या रहीम, ईश्वर कहो या अल्लाह, सब एक है ।

गुजरात में छोटे-बड़े मिल कर लगभग २००० से अधिक कबीर आश्रम-मन्दिर हैं । जामनगर, अंकलेश्वर, लिमडी आदि स्थानों के आश्रम अपनी बहुविध प्रवृत्तियों के कारण देशभर में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके हैं । कबीर साहब के सिद्धान्तों को अपने मत के अनुसार प्रचार-प्रसार करने के साथ-साथ इस सम्प्रदाय व्दारा गौशालायें, प्यासे को पानी, भूखे को अन्न, छात्रों के लिए मुफ़्त में रहने की सुविधा, अस्पताल आदि कई प्रकार की सामाजिक प्रवृत्तियों का संचालन भी बखूबी किया जा रहा है ।

खरसिया, दामाखेड़ा, जमालपुर, जागु-भागु आदि शाखाओं में विभक्त कबीर सम्प्रदाय ज्ञान की द्रष्टि से बहुत ही मूल्यवान होते हुए भी साक्षरता और धनवानों की कमी की वजह से अधिक विस्तृत नहीं हुआ, ऐसा कहें तो अत्युक्ति नहीं होगी । धनिकों के सम्प्रदाय के रूप में आज स्वामिनारायण सम्प्रदाय पूरे विश्व में फैल चुका है । लेकिन कबीर सम्प्रदाय के जो महन्त हुए वे अधिकतर पिछड़ी जातियों के और कम पढ़े-लिखे रहे तथा उनको सम्प्रदाय से बाहर का ज्ञान न के बराबर था । फलतः अपने सम्प्रदाय का अधिक प्रचार-प्रसार नहीं कर पाये । गुजरात में अधिकतर खरसिया पंथ के अनुयायी हैं । वर्तमान में दामाखेड़ा और खरसिया अनुयायी एकदूसरे के प्रति रहे कलह से मुक्त होने लगे हैं ऐसा कुछ अनुयायियों का कहना है और यह अच्छी निशानी है सम्प्रदाय के विकास के लिए ।

जैसा कि पहले बताया कबीर सम्प्रदाय में भी बाह्याचार का प्रचलन अधिक है । सम्प्रदाय ने कबीर के नाम अनेक चमत्कार जोड़ दिए हैं । कबीरजी ने गुरू की अनंत महिमा का निरूपण अपनी कई साखियों में किया । गुरूकृपा बिना आराध्य की प्राप्ति दुष्कर है ऐसा उनका विश्वास था । कबीर-सम्प्रदाय में आज गुरू की यही परंपरा बरकरार है, पर प्रश्न यह उपस्थित होता है कि कितने ऐसे महंत-गुरू है जो भक्तों को ईश्वर से मिला दे ? कबीर साहब की वाणी का यह कथन उनके नाम से प्रसारित सम्प्रदाय के लिए क्या उपयुक्त नहीं है ?
“जाका गुरु भी अंधला, चेला खरा निरंध ।
अंधा-अंधा ठेलिया, दून्यूं कूप पडंत ॥”[६]

कबीरजी ने अवतारवाद की कटु आलोचना की । हमारा दुर्भाग्य कहा जायेगा कि कबीर साहब ने सदा जिस अवतारवाद और मूर्तिपूजा का विरोध किया, उन्हीं के नाम पर स्थापित संप्रदाय आज अवतारवाद और मूर्तिपूजा में उलझ गया है । विभिन्न प्रकार के चौका उत्सव, आरती, नारियल अर्पण विधि आदि बाह्य विधि-विधान कबीर साहब के सिद्धान्तों के विपरीत हैं । सम्प्रदाय के गृहस्थ अनुयायी अधिकतर रूप से हिन्दू विधि-विधानों और मूर्तिपूजा में आस्था रखते नज़र आ रहे हैं । वैसे सम्प्रदाय में एक मत यह भी प्रवर्तित है कि कबीर साहब ने कभी भी वेद, कुरान या पूजा-नमाज का विरोध नहीं किया । खण्डन करते जो-जो पद प्राप्त हैं उसे उनके नाम से किसी अन्य व्यक्ति के लिखे करार दिये गये हैं । लेकिन इस मत में सच्चाई नहीं है । गुजरात में नर्मदा नदी के तट पर शुक्लतीर्थ (भरुच के पास) के समीप स्थित कबीर-बट के बारे में कबीर के अनुयायियों को मानना हैं कि तत्वा एवम् जीवा नामक दो भाइयों की श्रद्धा की रक्षा करने स्वयं कबीर साहब ने सूखी डाली को हरी बना के सच्चे संत का परिचय दिया था । दशावतार को नकारनेवाले कबीर के नाम पर स्थापित सम्प्रदाय में दशावतार की दृढ़ मान्यता है और सृष्टि को धारण करनेवाले तत्व के रूप में शेषनाग की कल्पना की जाती है । अवतारवाद पर प्रहार करनेवाले कबीर को भी अवतारी के रूप में स्थापित कर देना उस महापुरुष के साथ अन्याय है ।

गुजरात के कबीर आश्रमों में से अधिकतर आश्रमों के महन्त त्यागी हैं । लेकिन कबीर साहब ने जिस अर्थ में त्याग की बात कही थी, उसे सम्प्रदाय में कहाँ तक समझा जाता है, यह विचारणीय प्रश्न है । त्याग के बारे में साहब का कहना था –
“त्यागी त्यागी सब कहै, और त्याग सब थोर ।
त्यागी तबही जानिये, त्यागै घट का चोर ॥”[७]

कबीर-सम्प्रदाय में धर्म का सच्चा स्वरूप सामने लाने की पूर्ण क्षमता है । दुर्भाग्य है कि कुछ स्वार्थी लोग अब भगवान के नाम पर, राम और रहीम, ईश्वर और अल्लाह के नाम पर देश को बर्बाद करने पर तुले है और विशेषतः युवा वर्ग, पिछड़ा वर्ग इस साजिश के शिकार होते जा रहे है । ऐसे में कबीर-वाणी ही भटके को राह दिखा सकती है, इसमें कोई शक नहीं । पर इतना अवश्य है कि सम्प्रदाय को अधिक वैज्ञानिक बनाना होगा । यह ध्यान में रखना होगा कि-
“साहब साहब सब कहै, मोहि अंदेशा और ।
साहब सो परिचय नहिं, बैठहुगे किहि ठौर ॥”[८]

अवतारवाद या मूर्तिपूजा का प्रखर विरोध करनेवाले कबीर साहब के सिद्धान्तों पर आधारित धर्म-सम्प्रदाय में मिथ्याचार, पाखण्ड या व्यक्तिपूजा का प्रवेश वर्जित होना ही चाहिए । कबीर साहब को ‘सत्य’-‘अवतारी’ पुरुष न मानते हुए शरीरधारी मनुष्य के ही रूप में स्वीकार कर, कबीरजी के सिद्धान्त- ब्रह्म के अंश स्वरूप जीव-मात्र को स्वीकार करना- अधिक समीचीन जान पड़ता है । वर्तमान दौर में जो सम्प्रदाय अपने सिद्धान्तों को वैज्ञानिक धरातल पर सही साबित कर पायेंगे, उसी सम्प्रदाय का अधिक स्वीकार होगा । धूर्त, पाखण्डी बाबाओं और उनके अनुयायियों की काली करतूतों से भोली जनता अब ऊब चुकी हैं । ऐसे माहौल में सच्ची बात कहने बिना ड़रे किसी न किसी को आगे आना ही होगा ।
“साच कहों तो सब जग खीजै, झूठ कहल नहि जाई ।
कहहि कबीर तेई भौ दुखिया, जिन यह राह चलाई ॥”[९]

सन्दर्भ संकेत :-

  1. १. कबीर विमर्श, पृ. ८३
  2. २. सम्प्रदाय के अनुयायी श्री के. एल. बारिया के मुख से
  3. ३. बीजक, पृ. ६३३
  4. ४. वही, पृ. १४०-१४१
  5. ५. वही, पृ. २६०
  6. ६. कबीर ग्रंथावली, पृ. १११
  7. ७. बीजक, पृ. ६५५
  8. ८. वही, पृ. ५७१
  9. ९. वही, पृ. ३४३

आभारी हूँ – श्री परम पूज्य चरणदासजी बापू साहेब (महन्त श्री, कबीर आश्रम, लिमडी), श्री परम पूज्य पुरुषोत्तमदासजी साहेब (महन्त श्री, कबीर आश्रम, लुणावाडा), श्री के. एल. बारिया (संतरोड़, गोधरा)

प्रा. रवीन्द्र एम. अमीन, हिन्दी विभाग, आर्ट्स एण्ड कोमर्स कोलेज, देहगाम । तहसील:- देहगाम, जिला:- गांधीनगर । संपर्क सूत्र :- ९८२४६६२८२८, ravi6003@gmail.com