अनुवाद के महत्त्व अन्तर्गत; ऊरूभङ्ग की शाब्दिक व्यञ्जनाएँ*


अति प्राचीनकाल में संस्कृत साहित्य केवल श्रुतसाहित्य के रूप में प्रस्थापित था । निरवधि कालपट पर यह परम्परा बढ़ती चली और अर्वाचीन समय में उनमें से एकाधिक परवर्ती भाषाओं का भी जन्म हुआ प्रतीत होता है । संस्कृत भाषा जैसी आद्य भाषा में से अवतरित यह अन्य भाषाओं में अब अनुवाद की अपेक्षा सहज हो जाती है । विशेषकर जब संस्कृत भाषा की कोई कृति का हिन्दी या गुजराती भाषा में अनुवाद होता है तब, मूल में प्रयुक्त कविकर्म का पूर्णतः प्रतिबिंबन अनुवादित कृति में होना बहुत जरूरी बाबत है । क्योंकि कभी कभी एक हि संज्ञा वा अभिधान का अनेक पर्याय उनकी विभिन्न अर्थच्छायाओं के साथ प्रस्तुत करने के हेतु कवि शाब्दिक व्यञ्जनाओं का उपयोग करते हैं । यह शाब्दिक व्यञ्जनाओं का अनुसरण अनुवादित कृति में भी पूर्णरूप से और मूलतः होना अति-आवश्यक है । शायद एसा नहीं होता है । तब मूलग्रन्थ में प्रयुक्त इन शब्दों का मर्म और व्यञ्जना सभी का हनन होता है । एसा अनुवाद मूल कृति के परिप्रेक्ष्य में ज्यादा मूल्यवान नहीं रहता है । इसलिए अनुवाद में व्यञ्जनाओं का सुरक्षित रहना आवश्यक नहीं बल्की अनिवार्य भी है । यह बात ऊरूभङ्ग की व्यञ्जनाओं के माध्यम से विशेष यथार्थ होगी ।

महाकवि भासने ऊरूभंग करुणान्तिका में जगह-जगह पर शाब्दिक व्यंजनाओं का सहेतुक प्रयोग किया है । इस में भी पात्रों के अभिधान (संज्ञाकरण) में की गई व्यंजनाएं अधिक सार्थक प्रतीत होती है ।

(1)

ऊरूभंग की सबसे उत्कृष्ट व्यंजना को सब से पहले देखेंगे । ऊरूभंग के अंतिम दृश्य में भीम की गदा से क्षतविक्षत होकर लहुलुहान जंघाओवाला दुर्योधन रणभूमि में पड़ा है । उस समय धृतराष्ट्र, गान्धारी, दो रानीयों और उसका छोटा सा पुत्र दुर्जय उन्हं मिलने आते हैं । उन सबको देखकर दुर्योधन की व्यथा और बढ़ जाती है । जब पुत्र दुर्जय कहता है कि, पिताजी, में तो आपकी गोद में बैठुंगा । तब द्विगुणित व्यथा से दुर्योधन कहता है, हे पुत्र ! यह परिचित स्थान को छोडकर अब तुम कहीं और जगह पर बैठना । अब दुर्जय आगे पूछता है कि, क्यूं अब महाराज कहाँ जायेंगे ? दुःखी दुर्योधन उत्तर देता है कि, में मेरे सो भाईओं के पीछे जाऊंगा । तब बालसहज निर्दोषभाव से दुर्जय बोल उठता है कि, पिताजी ! आप मुझे भी वहाँ ले जाएंगे ? तब अत्यन्त विवश और करुणभाव से दुर्योधन कहता है, जाओ पुत्र ! यह पात वृकोदर को कहो (गच्छ पुत्र, एवं वृकोदरं ब्रूहि।) यहाँ वृकोदर शब्द में बहुत बडी व्यंजना है । दुर्योधन का कहना है कि, जिस का वृक जैसा उदर है वह वृकोदर (भीम) हम सबको खा गया उसी तरह तुम्हें भी खा जायेगा । यहाँ वृकोदर शब्द की जगह पर भीमसेन या भीम ऐसा अनुवाद करने से उसकी बहुत बडी व्यंजना खतम हो जाएगी । दुर्योधन की विवशता, कारुण्यभाव और वृकोदर की वृकवृत्ति ये सब कविकर्म खतम हो जायेंगे । इसलिए वृकोदर शब्द का अनुवाद यहाँ पर भीमसेन न करते हुए वृकोदर ही रखे वह सर्वथा उचित है । अनुवाद का यह महत्त्व भलीभाँती जानना-समजना और यशोचित वही व्यंजनापूर्ण शब्द का विनियोग करना सबसे बड़ी आवश्यकता है ।

(2)

ऊरूभंग के प्रारंभ में दुर्योधन और भीम के गदायुद्ध का वर्णन है । एक सैनिक द्वारा इस युद्ध का चक्षुचित्रण किया जाता है कि, महाराज दुर्योधन अपनी गदा को घुमाते हैं । उछलकर गर्जना करते हैं । तुरंत अपने बाहु को वापस खींच लेते हैं और शत्रु की युक्ति को नष्ट कर देते हैं । राजा गदायुद्ध में शिक्षान्वित हैं, लेकिन भीम बलवान है । (शिक्षान्वितो नरपतिः बलवांस्तु भीमः) यहाँ दुर्योधन को केवल राजा कहा है । वो भी केवल शिक्षान्वित है ऐसा नरपति । यहाँ उसे दुर्योधन नहीं कहा है । क्योंकि दुर्योधन शब्द में तो जीसे युद्ध में जीतना मुश्किल है वह ऐसी व्यंजना है । और यह श्लोकवर्णन में तो वह पराजित सा लगता है । भीम उसे भारी पड रहा है । इसलिए यहाँ उसे राजा कहना कविने उचित समजा है । और भीम को भीम अर्थात् भयंकर – भय उत्पन्न करने वाला कहा गया है । यहाँ भीम शब्द की व्यंजना प्रसंगोचित है । अब यहाँ वृकोदर और पाण्डुनन्दन का औचित्य नहीं है वो बात अनुवाद के समय भी याद रखना जरूरी बन जाती है ।

(3)

भीम और दुर्योधन का युद्ध अब ज्यादा भीषण बनता है । इस बार भीम का सामर्थ्य थोडा कुछ कम नजर आता है । दुर्योधन अब राजा – नरपति नहीं रहा है । लेकिन सच में दुर्योधन – जिसे युद्ध में जीतना मुश्किल है वैसा हो गया है । अब पराजय की ओर बढते और उपहसनीय बनते भीम को भगवान कृष्ण अपनी जंघा दीखाकर कुछ संज्ञा देते हैं । यहाँ भी कविवर भास कृष्ण के लिए शाब्दिक व्यंजना प्रयोजते हैं । यहाँ कृष्ण को जनार्दन कहा है । क्योंकि वह अब दुःखी और असहाय भीम की सहाय करनेवाला है । इसलिए यहाँ उनको केशव, वासुदेव, पुरुषोत्तम और कृष्ण नहीं कहा है । जनार्दन शब्द की व्यंजना से ही प्रतीत होता है कि भीम को अब सहाय की जरूरत है । और तुरंत आश्वासित हुआ भीम अब मारुति बन जाता है । अर्थात् वह अब पवनपुत्र मारुति की भांति दुर्योधन पर तूट पड़ता है । अब यहाँ उसके प्रयुक्त मारुतिः शब्द उसमें भरी पडी व्यंजना को सार्थक करता है । इसलिए अनुवाद में उसका भी आदर करना चाहिए ।

(4)

भीम और दुर्योधन का युद्ध अब अन्तिम चरण में आ पहोंचा है । तब भीम कृष्ण की संज्ञा अनुसार दुर्योधन की जंघाओं पर गदाप्रहार करता है । यहाँ भी कविने भीम और दुर्योधन के लिए जो व्यंजनायुक्त शब्दों का चयन किया है वह भीम को पाण्डुतनय और दुर्योधन को गान्धारीतनय कहते हैं । जैसे कि अपने करतलों को भूमि पर रगडकर, वेगपूर्ण भुजाओं का मर्दन करके, अधरोष्ठ को पीसकर, क्रोधपूर्ण गर्जना करते हुए पाण्डुपुत्रने धर्म की परवा किये बगैर, युद्ध के नियमों को तोडकर कृष्ण की संज्ञा मिलते ही गान्धारीपुत्र की जंघाओं पर गदाप्रहार किया ।

यहाँ भीम को न भीम कहा, न वृकोदर और न मारुति । किन्तु पाण्डुतनय कहा है । क्योंकि जिसने धर्म को छोड दिया, युद्ध के नियमों को ठुकरा दिया वो भलीभांती पाण्डुपुत्र कहने योग्य ही है । कृष्ण की अनुचित संज्ञा से वो अब पाण्डु-किक्का बन गया है । इसलिए उसे पाण्डुतनय कहा गया है । वैसे दुर्योधन अब युद्ध में अजय नहीं रहा । अपितु गान्धारीतनय बन गया है । क्योंकि जब वो अन्तिमबार नग्नावस्था में गान्धारी के पास गया था तब वही जंघाओं के भाग में उसकी दृष्टि नहीं पड़ी थी । और इसलिए वह भाग दुर्बल रह गया था । और उसी जंघाओने आज उसे हराया है । इसलिए कवि मार्मिक व्यंजनापूर्ण शब्द प्रयोजन करते हुए कहते हैं कि, अब वह न तो दुर्योधन है, न महाराज केवल हारा हुआ गान्धारीतनय है । इतनी उत्कृष्ट व्यंजनासभर यह कविकर्म स्मरणीय और प्रशंसनीय है । उसका अनुवाद में यथाशब्द अुसरण होना आवश्यक है ।

इस प्रकार महाकवि भासने ऊरूभंग में एकाधिक स्थानों पर ऐसी शाब्दिक व्यंजनाओं का सहेतुक विनियोग किया है । अन्य हिन्दी और गुजराती भाषाओं में अनुवाद करते समय उसकी यह मार्मिक व्यंजकता बनी रहे उसी बात में अनुवाद के महत्त्व की सिद्धि और साफल्य है ।

टीप्पण -

• गुजरात आर्ट्स एन्ड कोमर्स कॉलेज (सायम्) अहमदाबाद एवं केन्द्रिय हिन्दी संस्थान, आगरा के संयुक्त उपक्रम में आयोजित यु.जी.सी. अनुदानित, अनुवाद – सिद्धान्त और व्यवहार विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत शोधपत्र दिनांक – 9-10 मार्च, 2015, के.सी.जी. अहमदाबाद ।

  1. 1. ऋग्वेद – मण्डल – 1-, सम्पादक , डॉ. वसन्त भट्ट एवं के.वी. महेता, सरस्वती पुस्तक भंडार, अहमदाबाद, सन् 1992, प्रस्तावना पृ. 1-2 ।
  2. 2. ऊरूभंग – संपादक, सुरेश ज. दवे एवं बी.ए. पटेल, प्रकाशक, सरस्वती पुस्तक भंडार, अहमदाबाद, सन् 1990-91, पृ. 20 दुर्जयः अहमपि खलु ते अंके उपविशामि ।
  3. 3. वही, पृ. 22, त्यक्त्वा परिचित पुत्र यत्र तत्र त्वयास्यताम् । श्लोक 44
  4. 4. वही, पृ. 22, कुत्र न खलु महाराजो गमिष्यति ।
  5. 5. वही, पृ. 22, भ्रातृशतमनुगच्छामि ।
  6. 6. वही, पृ. 22, (गच्छ पुत्र । एवं वृकोदरं ब्रूहि ।)
  7. 7. वही, पृ. 10,
    भीमां गदां क्षिपति गर्जति वल्गमानः
    शीघ्रं भुजं हरति तस्य कृतं भिनत्ति ।
    चारीं गतिं प्रचरति प्रहरत्यभीक्ष्णं
    शिक्षान्वितो नरपतिर्बलवांस्तु भीमः ।।19।।
  8. 8. वही, पृ. 10, एष इयातीमपहास्यमानं भीमसेनं दृष्ट्वा स्वमूरूमभिहत्य कामपि संज्ञा प्रयच्छति जनार्दनः ।
  9. 9. वही, पृ. 10, एष संज्ञया समाश्चितो मारुतिः ।
    संहृत्य भ्रुकुटी.....भूयः समुत्तिजति ।। श्लोक ।।23।।
  10. 10. वही, पृ. 12,
    भूमौ पाणितले निधृष्य तरसा बाहू-प्रमृज्याधिकं
    सन्दष्टोष्ठपुटेन विक्रमबलात् क्रोधाधिकं गर्जता ।
    त्यक्त्वा धर्मधृणां विहाय समयं कृष्णस्य संज्ञासमं
    गान्धारीतनयस्य पाण्डुतनयेनोर्वोविमुक्ता गदा ।।24।।

डॉ. महेशकुमार ए. पटेल, संस्कृत विभागाध्यक्ष, गुजरात आर्ट्स एवं कोमर्स कॉलेज, (सायम्), अहमदाबाद. Emal : maheshpatelsanskrit@gmail.com