गुजरात की मिट्टी में हिन्दी की सुगंध भरनेवाले कवि श्री फूलचंद गुप्ता

मार्क्सवादी एवं प्रगतिशील कवि फूलचंद गुप्ता का नाम आज गुजरात-भर में ही नहीं, बल्कि भारत-भर के हिन्दी के कवि के रूप में लिया जाता है। उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जिले में जन्मे कवि गुजरात को कविता की जमीन, कर्मभूमि एवं वतन बनाकर इस प्रदेश की मिट्टी की सुगंध को भारतभर में महका रहे हैं। गुप्ताजी की कविताओं में वर्तमान जनतंत्र एवं पूँजीपति वर्ग का विरोध करके उन्हे सही दिशा प्रदान करने एवं सामान्य जन-समुदाय में एक नयी चेतना भरने का अथक प्रयत्न देखने को मिलता है। फूलचंद ने अपने समय के प्रश्नों एवं समस्याओं को, मनुष्य के बदलते चेहरे को अपनी कविताओं में रेखांकित किया हैं। इतना ही नहीं, कवि उन समस्याओं से संघर्ष करता है – जूझता है और जो परिणाम मिलता है उसे भोगता भी है । इनकी कविताओं का मुख्य पहलू मनुष्य की संवेदनशीलता और आम-आदमी की पीड़ा है। इसके साथ-साथ स्त्री की पीड़ा, मानवीय संवेदनाएँ, मनुष्य की असंवेदनशीलता, प्रकृति के चित्र, किसान, मजदूर तथा समाज एवं संस्कृति के बदलते रूप, सांप्रदायिक दंगों के चित्र आदि है।
‘इसी माहौल में’ कविता-संग्रह 1996 में प्रकाशित हुआ। इन कविताओं में भावनाशीलता और परिवेश के प्रति सजगता और अकेलेपन से मुक्ति की आकांक्षा का केन्द्रीय भाव है। साथ-साथ मनुष्य और प्रकृति के संबंध को नये ढंग से अभिव्यक्ति मिली है। इस संग्रह की कविताओं के बारे में आलोक गुप्ता कहते हैं कि, “भावनाशीलता और परिवेश के प्रति सजगता फूलचंद की कविता में साथ-साथ आती है। अकेलेपन से मुक्ति की आकांक्षा फूलचंद की कविताओं का केन्द्रीय भाव है, लेकिन यह भाव कविताओं की सीमा नहीं, शक्ति बनता है। इससे जीवन-जगत् के प्रति उन्मुखता बढ़ी है। समष्टि के प्रति प्रकट होता जीवन-राग अपने अँधेरे से निकलने का मुक्ति द्वार बन जाता है। संग्रह की ऐसी कविताएँ विशेष अपील करती हैं, जहाँ वैचारिकता को स्पष्ट करने की चिन्ता को छोड़कर मनुष्य और प्रकृति के संबंध को नए ढंग से अभिव्यक्ति मिली है। आज जब पर्यावरण के प्रति सजगता बढ़ रही है ऐसे परिवेश में मनुष्य और प्रकृति से नए रिश्ते तलाशती कविताएँ अपना विशेष महत्व रखती हैं।” (‘इसी माहौल में’, प्रस्तावना, पृ.6)
इसी संग्रह की ‘मेरे पास दुनिया’, ‘सारी उम्मीदें’, ‘मेरी दुनिया’, ‘और क्या चाहा है मैंने’, ‘मेरे शब्दों पर मत जाओ’, ‘मैं पत्तियों को चूमता हूँ’, ‘अपना गाँव’, ‘आदमी हत्यारे नहीं हो सकते’, ‘वे इतिहास को खेल समझते हैं’, ‘इसी माहौल में’, ‘बैल’, ‘मील का पत्थर’, ‘जीवन मंत्र’, ‘वे जब सो रही थीं’, ‘औरतें और धरती’ आदि कविताएँ महत्त्वपूर्ण हैं। ‘ट्रेन में बेर बेजती औरतें’ कविता कवि की  वास्तविकता से सभर कविता का एवं कवि की सृजन की पैनी दृष्टि का सफल उदाहरण है। कवि एक ऐसी यथार्थ एवं ठोस बात कहते हैं –
“वे अपने फटे हुए
गंदे आँचल से पोछती हैं बेरों को
जैसे वे अपने बच्चों का चेहरा पोछती हैं
.................
बेर उनके लिए यातना है
नर्क की
हमारे लिए
मिठास और सुगंध से लकदक फल हैं” (‘इसी माहौल में’, पृ. 86-87)

समकालीन समय के मानवीय रूप को पहचानकर कवि उसके मायावी रूप एवं उसकी करनी-कथनी के बीच के भेद को भी जान गये हैं, इसीलिए कवि सामान्य-जन का पक्षधर बनकर उनकी पोल खोलते हैं। ‘जाएँगे नहीं वे खाली हाथ’ और ‘वे इतिहास को खेल समझते हैं’ आदि कविता में ‘वे’ शब्द को प्रतीक का रूप देकर पूँजीपति, शोषक, सत्ताधीश एवं महासत्तात्मक जैसे बड़े पूँजीवादी ताकतों पर करारा व्यंग्य करते हैं। आज के वैश्वीकरण एवं बाजारवाद की मायावी दुनिया के बदलते रूप, जब भारत जैसे देश में आकर एक नये विचार को छोड़कर तो चले जाते हैं, पर हमें और हमारी जनता को क्या मिलता है। इसीलिए कवि कहते हैं –
“वे खाली हाथ आएँगे ज़रूर
जाएँगे नहीं वे खाली हाथ” (‘इसी माहौल में’, पृ. 7)

विदेशी महासत्ताएँ इतनी शक्तिशाली पूँजीवादी सभ्यता का आवरण चढ़ाकर सारी दुनिया को खिलौने की तरह समझकर अपने बलबूते पर नचाते हैं तब कवि कहता है –
“वे इतिहास को खेल समझते हैं
और विज्ञान को मज़ाक
वे बीते हुए वक्त को
ओढ़ी हुई चादर समझते हैं” (‘इसी माहौल में’, पृ. 76)

इनके लिए यह दुनिया एक खिलौना है क्योंकि इतिहास, वक्त, सच्चाई और रक्त, विज्ञान के साथ खेल सकते हैं, उनके लिए तो सब एक खिलौना है।
कवि इस देश की मिट्टी को अच्छी तरह पहचानते हैं इसीलिए उनकी समधर्मिता और सांप्रदायिक मूल्यों के जतन की बात ‘6 दिसम्बर 1992’ कविता में देखने को मिलती है। बाबरी ध्वंश की घटना और उसके बाद की सांप्रदायिक घटनाओं को, धर्म के नाम पर होनेवाले पाशवी कृत्य को देखकर और मानवीयता खोती बंजर जमीन के लोगों को देखकर असुरक्षा के भाव को महसूस करते कवि चैन से सो नहीं पाते और कह उठते हैं –
“6 दिसम्बर 1992 के बाद
निरापद नहीं रहा
अंतरिक्ष पतंगों के लिए
चिड़ियों के लिए सरोवर
तितलियों के लिए बगीचास”(‘इसी माहौल में’, पृ. 56)

‘हे राम!’ (गुजरात त्रासदी पर लंबी कविता) ‘पहल’ पुस्तिका जुलाई-2002, जबलपुर से प्रकाशित है। यह यह कविता ‘राख़ का ढेर’ कविता-संग्रह में संकलित की गई है। इस कविता में वर्तमान राजनीति के घिनौने रूप को प्रस्तुत किया गया है। तो दूसरी तरफ पूँजीवादी राज्य मशीनरी के फासीवादी चरित्र को उद्घाटित करने की कोशिश की है। इस कविता में इस घटना के दौरान भोगे हुए अनुभव हैं। यह कविता समग्र भारतवर्ष में चर्चित रही।
इस कविता के बारे में कवि फूलचंद गुप्ता कहते हैं - “यह कविता वर्तमान राजनीति के उस घिनौने रूप को लोगों के समक्ष उघाड़ने का छोटा-सा प्रयास मात्र है, जो आमजन को हिन्दू-मुसलमान में तब्दील कर समाज को विनाश मार्ग पर धकेल रहा है और जो मनुष्य के गौरव का हनन करते हुए एक वर्गहीन, शोषण-विहीन समाज की स्थापना मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। इस मायने में ‘हे राम!’ पूँजीवादी राज्य मशीनरी के फासीवादी चरित्र को उसकी पूरी बेहयाई के साथ निर्ममता से उद्घाटित करने की कोशिश करती है। यह कविता गुजरात की त्रासदी में क्या हुआ है इसका सचित्र दस्तावेज़ तो प्रस्तुत करती ही है उन कारणों की भी पड़ताल करती है जो इस घटना के लिए उत्तरदायी हैं और जिन्हें आम तौर पर नज़रअंदाज कर दिया गया है।”(‘हे राम!’, पृ. 5)
इस कविता में कवि के ये विचार समाज को एक नयी चेतना प्रदान करता है। यहाँ तत्कालीन परिस्थितियों का यथार्थ रूप उभरकर सामने आया है। आज राजनीति एवं सामाजिक संगठनों से जुड़े लोग अपनी खीचड़ी पकाने के लिए इस अगिनकुंड में विषाक्त बीज बो रहे हैं इसी के कारण समग्र गुजरात की सांप्रदायिकता का उदाहरण सांप्रदायिकता का खूनी परिवेश आज पूरे विश्व को निगलने के लिए मुँह फाड़े मगरमच्छ की तरह अपना पंजा फैलाकर कई निर्दोषों को निगल जाता है। कवि ने पूँजीवादी ताकतों, अर्थव्यवस्था से संपन्न या सत्ता नशीन हो जाने के बाद आम जनता पर हो रहे आक्रमण को देखा है। इसमें कवि सामाजिक चेतना उजागर करते हैं।
“कुत्तों की एक नस्ल और है
वे जो सर्वोच्च हैं, बड़े हैं
रहस्यमय कोठियों की
प्रतिबंधित सीमाओं से
अनधिकृत प्रवेश पर जो
दाँत फाड़े खड़े हैं
अपनी कार्यशीलता में
सर्वाधिक अचल हैं, अटल हैं,
अड़े हैं।” (‘हे राम!’, पृ.10)

‘साँसत में है कबूतर’ गुजरात की त्रासदी पर छोटी कविताएँ ‘आकंठ’ पुस्तिका अक्टू-दिसम्बर-2003 पिपरिया, होशंगाबाद से प्रकाशित हुई। ये सभी कविताएँ ‘राख़ का ढेर’ कविता-संग्रह (मानव प्रकाशन, कलकत्ता, 2010) में संकलित की गई हैं। सभी कविताएँ गुजरात की त्रासदी का एक आख्यान हैं। समकालीन जीवन में जिस प्रकार से सांप्रदायिक उन्माद में मनुष्य की अस्मिता खतरे में पड़ी है उसे ही राजनीति अपने लिए सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल करती है और समाज को निरंतर विभाजित करने का काम करती है। वर्ण, धर्म, जाति, उपजाति, अगड़े-पिछड़े अल्पसंख्यक, बहुसंख्यक आदि अनेक विभाजन भी सांप्रदायिकता की बुनियाद में हैं। इन कविताओं में केवल कलंकित देश और समाज ही नहीं है, बल्कि ये कविताएँ इससे अधिक व्यापक फलक पर यात्रा कराती है। मूलत: कवि विश्वसभ्यता के सामने उभर रहे नये संकट से हमारा साक्षात्कार कराता है।
इस संग्रह की कविताओं के बारे में वीरेन्द्र मोहन कहते हैं, - “ये कविताएँ गुजरात की  सांप्रदायिक त्रासदी का एक आख्यान हैं। जो शान्ति प्रिय हैं, शान्ति का प्रतीक हैं और सांप्रदायिक नहीं है, वही संकट में हैं, सांप्रदायिक हिंसा का शिकार भी वही हैं। शान्तिकामी मनुष्य सांप्रदायिक शक्तियों के सामने असहाय हैं। समाज का यह कौन-सा रूप और चरित्र है जो शान्ति की रक्षा करने में समर्थ नहीं है। शायद शान्तिकामी शक्तियाँ समाज के हाशिये पर डाल दी गयी हैं। तब निश्चय ही समाज की वे शक्तियाँ जो समाज-व्यवस्था की  संचालक हैं मूल्यों की रक्षा नहीं कर पा रही हैं या मूल्यों के ध्वंश में वे स्वयं शामिल है।” (‘आकंठ’-पत्रिका, पृ.36-37)
इस संग्रह की ‘पृथ्वी के ठीक सिर के ऊपर’ कविता में तत्कालीन समाज में मनुष्य में विद्यमान पशुता के प्रति घृणा एवं क्रोध व्यक्त करते हुए कहते हैं –
“महासागर में विशाल व्हेल की
भाँति
तैर रही हैं सगर्भा मुर्दा देहें
अभी वे ब्यायेगी
और उनके गर्भ से जन्मेंगे
अरबों मुर्दे” (‘राख का ढेर’ पृ. 86)

आज समाज और समाज की व्यवस्था के लिए कवि अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक लड़ना चाहते हैं। पूँजीवादी सभ्यता एवं जनतंत्र पर प्रहार ‘सड़क से संसद तक’ कविता में किया है।
“यह सबसे उपयुक्त
समकालीन गलियारा है
सड़क से सीधे
संसद तक पहुँचने का” (‘राख़ का ढेर’ पृ. 84)

‘कोई नहीं सुनाता आग के संस्मरण’ कविता-संग्रह 2006, पार्श्व प्रकाशन, अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ। इन कविताओं का कथ्य जनवादी विचारधारा से ओतप्रोत है। पूँजीवादी समाज, सत्ता के खिलाफ़ जन का संघर्ष भी बताया है। इस संग्रह में ‘हारी हुई समस्त लड़ाइयाँ’, ‘केचुँए’ और ‘चिंटियाँ’ कविता में कवि ने सामान्य जन की पीड़ा, आदर्श एवं उम्मीदों से भरे जीवन को भावाभिव्यक्ति देने का प्रयास किया है। कवि चाहता है कि जो कुछ भी हो जाए, लेकिन सामान्य मनुष्य तो हमेशा अजेय ही रहता है और अपना संघर्ष जारी रखता है। चिड़िया आम आदमी की अदम्य जिजीविषा का प्रतीक है। क्योंकि वह कभी आतंक-विस्फोट या आँधी को खत्म नहीं कर सकती।
“कई बार चीटियों ने ढोना चाहा है
पहाड़
और असफल रही है
तोतों ने भर लेना चाहा है
अपनी आँखों में
और खून छलक आया है।”(पृ. 19)

केंचुएँ के माध्यम से कवि का मानना है कि समकालीन समय में सामान्य आदमी सत्ताधीशों और पूँजीपतियों के हथकंडों का शिकार बनकर रह जाता है।
फूलचंद अपनी दीर्घ दृष्टि के माध्यस से अमरिका जैसे पूँजीवादी देशों की होनेवाली दशा का वर्णन ‘कानखजूरा’ कविता में व्यक्त किया है। यह कविता अमरिका के पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के तबाही का एक शसक्त नमूना है। इसी पूँजीवाद के सहारे वह सारे विश्व को अपनी नागचूड में फँसाकर निगल जाना चाहता है। और यही पूँजीवादी विचारधारा सारे भारत-भर में नासूर की तरह अपना पैर जमा रही है। लेकिन इनके पीछे होनेवाली समस्याओं को कभी कवि ने नजरअंदाज नहीं किया। क्योंकि वह अपने साथ हमें और सारी दुनिया को भी अपने साथ डूबो देगा इसी दृष्टिकोण व्यक्त करते हैं –
“अकाल मृत्युपथ पर ढकेल दिया गया यह महा देश
महामारी से ग्रस्त दुघ-मुहा बच्चा है
कहते हैं इसका असली पिता
बावन पैरोंवाला एक महाकाय कानखजूरा है
उत्तरी-दक्षिणी दोनों गोलार्धों पर
जमे हैं उसके दाँत
अँट नहीं पा रहा उसे रक्त”(पृ. 14)

पूँजीवादी व्यवस्था ने हमारे मध्यवर्गी समाज की मानसिकता को इस तरह कुंठित बना दिया है कि वह उन लोगों से अलग हटकर कभी अपने स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार भी नहीं सकते। इसी कारण तो ये लोग आज तक इन्हीं लोगों को अपना हथियार बनाते रहते हैं। और इनके मुँह से अपना गुणगान भी करवाते हैं। उन लोगों की प्रशंसा करना, सर्वश्रेष्ठता के गुणगान करना, विशेषण लगाना तो वे खुश हो जाएँगे, लेकिन कदाचित आप आम आदमी है और सोचना आपकी मजबूरी है तो आपके हालात खराब हो सकते हैं। इसी शासन व्यवस्था एवं पूँजीवाद की हाँसी उड़ाते कवि सामान्य-जन में रही मनुष्यता को ललकार कर उसके मस्तिष्क में चेतना का  संचार करते हैं –
“पूछने पर बताइए
न पूछने पर जोर-जोर से चिल्लाइए कि आप हिजड़े हैं
आप भालू है कालू हैं
आप बगुले हैं बकुले हैं।” (पृ. 34)

समकालीन समय में सामान्य-जन के विकास, समानता एवं बंधुत्व जैसै समान अधिकार की बातें सिर्फ कहने-भर की ही हैं। ये सभी वास्तविकता इतने सालों के गुजरने के बाद भी उपलब्ध नहीं है। इसी सामान्य-जन की पीड़ा, व्यथा और पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति आक्रोश ‘फटी हुई पत्तल’ में व्यक्त करते हैं -
“गली में एक साथ घूम रहे कुत्ते
निर्ममता के झपटेंगे करेंगे एक-दूसरे को लहूलुहान
चाटेंगे
अपने-अपने हिस्से की चाटी हुई जूठन
अलग-अलग खड़े-खड़े देखेंगे
वो जो तटस्थ होंगे
शक्ति संतुलन का
निर्लज्ज खेल।” (पृ. 50)

सत्ताधारी और पूँजीवादी लोग सामान्य आदमी का पूरी तरह शोषण करना जानते हैं। इतना ही नहीं, शोषण करने के बाद उसे जूठी पत्तल की तरह फेंककर अपने पालतु कुत्तों के द्वारा उसे चटवाते हैं, अर्थात् शोषित करते हैं। उसका बचा-खुचा भी लूट लेते हैं और वही लोग आराम से तमाशा देखते हैं। इसके सिवा इस संग्रह की ‘मौत’, ‘यह देश’, ‘जब-जब वे संकट में आते हैं’, ‘खून की नदियाँ, ‘मारे जाएँगे’ और ‘हीन नहीं हैं मेरी जाति’ आदि कविताओं में इस व्यवस्था के क्रिया-कलापों, उनके प्रभावों और  उद्देश्य की जटिलताओं को मूर्त रूप दिया है। आज की व्यवस्था व्यक्ति को अकेला कर देने की क्रिया में मशगूल है। वह आदमी होने की पहली और अनिवार्य शर्त-संवेदना को ही खत्म कर देने के इंतजाम में जुटी है। संवेदना ही व्यक्ति को आदमी यानी सामाजिक बनाती है।
 ‘महागाथा’ कविता-संग्रह अवल्ली प्रकाशन, हिंमतनगर, 2011 में प्रकाशित है। इन कविताओं का मूल कथ्य विश्व, देश और समकालीन जीवन में राजनीति, समाज और जनतंत्र की चिंताएँ व्यक्त हुई हैं। समकालीन समय में संसदीय लोक-प्रणाली व्यवस्था को देखकर कवि आकुल-व्याकुल होकर ‘बदला नहीं है कुछ भी उसमें, पर’ कविता में कहते हैं –
“संसद एक प्रेत-सभा है
जहाँ नित एकत्र होती हैं
पिशाचों की आत्माएँ
पैशाचिक आत्माएँ
करती हैं जहरीली चर्चाएँ
इनसानों की जिन्दगी के खिलाफ
यहाँ आजादी से
.............
नहीं खड़ा किया जा सकता पग पर
कोई चंदन-वृक्ष” (पृ.25)

संसद लोगों की समस्याओं की च्रर्चा के लिए नहीं बनी है और न ही लोगों के दुःखों को दूर करने के लिए, उपाय ढूढने के लिए। वह तो प्रकाशहीन मणि के समान है। जिस पर काले-काले नागों का पहरा है। कार्यपालिका भ्रष्टाचार का गढ है, विधायिका पूँजिपतियों का जुआखाना और न्यायपालिका इन तीनों की स्थिति आज वेश्या जैसी हो गई है, जिन्हें पूँजीपतियों के दरबार में जब चाहे नचाया जा सकता है। कवि संसदीय प्रणाली के विकल्प सुझाते हैं कि सर्वहारा समाजवादी सशस्त्र क्रान्ति ही इस सड़ी हुई मरणासन्न व्यवस्था का एकमात्र विकल्प है। जो इस पूँजीवादी व्यवस्था का मूल से ध्वस्त करके एक नई बेहतर व्यवस्था की स्थापना करेगी।
वर्तमान लोकतांत्रिक पूँजीवादी आर्थिक समाज व्यवस्था में सबसे बुरी दशा मध्यवर्गीय मनुष्य की है। वह हमेशा द्विधाग्रस्त मनःस्थिति से जीवित रहने के लिए अभिशप्त है। उसकी दशा घड़ी के लोलक के सदृश्य है। जो स्थिरता की खोज में इस ओर से उस ओर भटकता रहता है और उसके जीवन में स्थिरता कभी नहीं आती। फूलचंद मध्यवर्ग बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे मध्यवर्गीय सामाजिक स्थिति से वाकिफ है इसीलिए ‘आत्मबोध’ कविता में वे कहते हैं कि मजदूर वर्ग और मध्यवर्ग के हितों के लिए, उन दोनों की मुक्ति के लिए सबसे पहले उन्हें संगठित करना होगा और फिर उन्हें उनके वर्गीय हितों से परिचित कराना होगा। उन्हें क्रान्तिकारी चेतना से संपन्न करना होगा, जिससे कि क्रान्ति संपन्न हो सके और शोषण से उन्हें छुटकारा मिले। इसीलिए कवि कहते हैं–

“मैं आग हूँ
अगर सच चाहते हो
यह व्यवस्था तोड़ना
और ध्वंस करना
फिर बनाना आदमी सबको
उठाओ अब मुझे
इन अक्षरों के बीच से
और ले चलो
..............
गले लगाऊँगा
और उन शोषित-उपेक्षित-चिर
मानवाकृतियों को
उठा, एकत्र कर सबको
फिरूँगा रक्त से रक्त, हाथ से हाथ
और आँख से आँख के बीच
फिरेगी आग ऐसी
चाहते हो
सब उसे मैं कर दिखाऊँगा”(पृ. 50)

‘कोट की जेब से झाँकती पृथ्वी’ कविता-संग्रह रुचिर प्रकाशन, हिंमतनगर, 2012 से प्रकाशित हुआ। इन कविताओं का मूल कथ्य विश्वव्यापी मानवीय-शोषण में व्यस्त अमानवीय और क्रूर पूँजीवादी व्यवस्था के चेहरे से नकाब हटाना है। कवि का मूल स्वर ‘विश्वमानव-प्रेम’ है। इस संग्रह की कविताओं को समझने के लिए फूलचंद गुप्ता के वैश्विक दृष्टिकोण को समझे बिना उनके सृजनात्मक व्यक्तित्व को समझा जा सकता है और न ही उनके अंदर प्रवाहित ‘विश्वप्रेम’ को। - “फूलचंद बेचैनी के कवि हैं। पूरा विश्व उनके स्वजनों में सम्मलित है और जब तक उनका संसार पूरी तरह से शोषण-मुक्त और सुखमय नहीं हो जाता, उनकी बेचैनी बरकरार रहेगी।”(‘कोट की जेब से झाँकती पृथ्वी’, फ्लैप से उद्धृत)
अमरिका जैसे महसत्तात्मक देश की साम्राज्यवादी नीति पर कवि कहते हैं -
“वे महत्वाकांक्षी हैं
उन्होंने कई-कई बार रटा है
तहजीब का फलसफा
कई रतजगे किए हैं सफलता के लिए
और अब वे -
सारी दुनिया को तमीज सीखा रहे हैं
जो फूहड़, असभ्य हैं
उन्हें सभ्य बनाना होगा
जो गँवार हैं
सीखना होगा संस्कार”( ‘विश्वगुरु’, पृ.1)
एवं
“आज जब
हत्या
बलात्कार
लूटो और मारो काटो
की चीख-पुकार में
...............
पंजाब या कश्मीर हो गया हो
मैं तब भी जी रहा हूँ”(एक खूबसूरत कविता, पृ.104)

आदि कविताएँ फूलचंद के व्यापक वैश्विक सरोकार की सशक्त दाहरण हैं।
‘दीनू और कौवे’ कविता-संग्रह पार्श्व प्रकाशन, अहमदाबाद, 2012 में प्रकाशित हुआ। इन कविताओं का मूल कथ्य सर्वहरा वर्ग, आम-आदमी की विडंबनाएँ, राजनीतिक विषमताएँ और शासक और शोषक वर्ग की मन:स्थितियाँ, सांप्रदायिकता, देश-प्रेम, राजनीति-व्यवस्था, माँ, बच्चे, बढ़ती हुई महँगाई, कवि का अस्तित्व, समकालीन राजनीति या राजनीतिकों की सभ्यता को कवि अपनी संवेदनाओं के माध्यम से व्यक्त किया है। पूरे संग्रह में हर जगह पर कवि का आक्रोश देखने को मिलता है। इस संग्रह की ‘दीनू और कौवे’ महाकाव्यात्मक आख्यान की कविता है। इस कविता में कविश्रमिक वर्ग का प्रतिनिधित्व करनेवाला एक साधारण सजदूर है। इसमें पूँजीवादी व्यवस्था और उसके द्वारा किये जा रहे सर्वहारा वर्ग के शोषण का साम्राज्यवादी और वैश्विक स्वरूप को उद्घाटित करता है –
“मैंने कहा --
दीनू।
कौवा मात्र एक पक्षी नहीं
कौवा एक संस्कृति है, संस्कार है
सभ्यता है
तुम नहीं जानते
हरगिज़ नहीं पहचानते
इन सांस्कृतिक, सभ्य कौवों को


वे कौवे ही हैं
...............
कौवे
जीवित
नर-भक्षक!”(पृ.95)

यह एक वैश्विक षड्यंत्र को पाठकों के समक्ष सरल शब्दों में सहजता से उद्घाटित कर देनेवाला विश्वसनीय दस्तावेज़ है। कवि दीनू को इसी चेतना से लैस करते हुए संगठित होकर पूँजीवाद के इस गढ पर हमला करने की ताकीद करता है। दीनू की इस पीड़ा के लिए जिम्मेदार क्रूर व्यवस्था का साफ-साफ और स्पष्ट चेहरा है। इतना ही नहीं अपनी वर्तमान पीड़ा से मुक्ति का एकमात्र मार्ग भी है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था, अन्याय और असमानता को जायज ठहरानेवाली व्यवस्था है। इसी सच्चाई को कवि ‘लोकतंत्र’ कविता में व्यक्त करते हैं –
“वो जीवित रहा शत वर्ष
निर्विध्न, निर्विकार
सोचे, जाने बगैर उसने
औरों को भूखा, प्यासा, लज्जित किया।” (पृ.79)

कवि हमेशा दीर्घदृष्टा होता है इसीलिए फूलचंद अपने बच्चों को एक पक्षी के माध्यम से कवि वर्तमान समाज की तुलना अंधे कुँए से करते हुए आगामी पीढ़ी को नये समाज की रचना की प्रेरणा ‘अपने बेटे के लिए’ कविता में बताते हैं –
“इसीलिए मेरे बेटे!
तुम अपना घोसला
किसी खुली पहाड़ी पर
या किसी ऊँचे पेड़ पर बनाना
अपने
चूँ-चूँ कर रहे बच्चे के मुँह में
पहला दाना डालने के पहले
उन्हें
आसमान तलक उड़ना सिखाना!”(पृ.77)

फूलचंद की कविताएँ आम-आदमी की पीड़ा की कविताएँ हैं। श्रमिक वर्गकी आम स्त्रियों की थकी हुई जिह्वा पर कवि अपनी कविताओं को लोकगीत की तरह रख देना चाहता है। जिससे की वे महिलाएँ चक्की चलाते समय, कुटते-पीसते समय, घरेलू काम करते समय उन कविताओं को गुन-गुनाये और नई ऊर्जा प्राप्त करें। ‘ओ मेरी कविताओ’ कविता में कवि कहना चाहता है कि उसकी कविताएँ आम-आदमी के दुःखों और उनकी पीड़ाओं का गान बन जाएँ। उसकी कविताएँ लोगों के दिलों में धड़कन बनकर रहे। आम-आदमी इन कविताओं को अपनी समझकर अपनाएँ।
“जाओ तुम बैठ जाओ
थकी हुई औरतों की जिह्वा पर
ओ मेरी कविताओ!
------
कि लोगों के दिलों में धड़को
लोग तुम्हें अपनाएँ।”(पृ. 80)

‘ख्वाबख्वाहों की सदी है’ रुचिर प्रकाशन, हिंमतनगर, 2009 में प्रकाशित है। इस संग्रह की ग़ज़लें कवि के खिन्न एवं अशांत मनोदशा में लिखी हुई हैं। ये ग़ज़लें कवि की आत्मकथाएँ हैं। साथ-साथ समाज में संस्कारहीनता, अन्याय और शोषण की मन:स्थिति देखने को मिलती है। कवि का मूल भाव हताशा का नहीं, किंतु उदासी और असंतोष यहाँ देखा जा सकता है। हालाँकि यह उदासी और असंतुष्टि आत्मलक्षी नहीं है।
फूलचंद को परंपरागत जीवन-दर्शन को यहाँ ग़ज़लियत प्राप्त हुई है। समग्रत: से अवलोकन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि ग़ज़लकार फूलचंद उर्दू के मिर्जा गालिब हिन्दी के दुष्यंत कुमार तथा गुजराती के मरीज, गनी एवं बेफाम आदि ग़ज़लकारों की परंपरा के शायर हैं। उन्हें प्रयोगखोरी में रुचि नहीं है। उनके पास कहने के लिए जो कुछ है, वह ठोस है। एक शे’र देखिए –
होंठ से हँस के लगा ले, छेड़ दे एक बार धुन
बाँसुरी व्याकुल है, छाती में हवा भरपूर है। (पृ.8)

छाती में भरपूर हवा का होना यानि की आत्म-शक्ति तथा जीवन-रस से भरपूर होना। पूरे संग्रह से गुजरने के पश्चात् अनेक जगहों पर कवि की जुझारु-वृत्ति के दर्शन होते हैं। यही जुझारु-वृत्ति से संभवत: फूलचंद की ग़ज़लों का उचित मिज़ाज़ भी बनता है।
रात है, तूफ़ान है, और नाव है मज़धार में
तैर जाएगा समझ ले, हाथ ही पतवार है। (पृ.4)

इसके पश्चात् तो कवि ने आधुनिक सभ्यता और दंभ पर इतना तीखा व्यंग्य किया है, जो गौरतलब है –
कितने शरीफ लोग हैं, बोलें टटोल कर
जैसे खरीद लाए हैं, भाषा दुकान से। (पृ.1)

ग़ज़लकार व्यंजना में अधिक बोलते हैं। उनका कटाक्ष कलेजे में उतर जाए इतना तीक्ष्ण और जला डाले इतना ऊष्ण होता है। किन्तु कुछ समय बाद ही उनके व्यंग्य के पीछे छिपी मानवीय संस्पर्श हमें कवि के साथ सम्मत होने के लिए विवश कर देता है।
संग्रह की एक ग़ज़ल का मतला देखिए –
तू अकेला राह सूनी, और मंजिल दूर है
किंतु संकट पर विजय, इन्सान का दस्तूर है।(पृ.2)

संदर्भ:

  1. ‘इसी माहौल में’, पार्श्व प्रकाशन, अहमदाबाद, प्र.सं.पा 1996
  2. ‘कोई नहीं सुनाता आग के संस्मरण’, पार्श्व प्रकाशन, अहमदाबाद, प्र.सं. 2006
  3. ख्वाबख्वाहों की सदी है’, रुचिर प्रकाशन, हिंमतनगर, 2009
  4. ‘राख़ का ढेर’, मानव प्रकाशन, कलकत्ता, प्र.सं. 2010
  5. ‘महागाथा’, अरवल्ली प्रकाशन, हिंमतनगर, प्र.सं. 2011
  6. 'गांधी अंतरमन’, अरवल्ली प्रकाशन, हिंमतनगर, प्र.सं. 2011
  7. 'दीनू और कौवे’, पार्श्व प्रकाशन, अहमदाबाद, प्र.सं. 2012
  8. ‘आकंठ’ पत्रिका, दिसम्बर-2003, अंक-33

डॉ. अमृत प्रजापति
गर्वमेन्ट आर्ट्स एवं कॉमर्स कॉलेज, कडोली
ता. हिंमतनगर, जि. साबरकांठा
चलभाष : 9426881267

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