આસ્વાદ-સમીક્ષાલેખ

ऋग्वेद ( 01 ) के दीर्घतमस् ऋषि कें अग्नि सूक्तों का दर्शन *

ऋग्वेद का प्रधान देवता इन्द्र हैं । उनके बाद 200 सूक्तों में अग्नि देवता कि स्तुति की गई हैं । वैदिक देवतासृष्टि में इन्द्र कि लोकप्रियता ज्यादातर हैं । लेकिन उनके तुरन्त बाद अग्निदेवताका स्थान भी प्रभावक रहा हैं । ऋग्वेद के मण्डलों का संग्रथन उनके ऋषिओं कि दृष्टि से किया गया हैं । दूसरे मण्डल से शुरु कर के आठवें मण्डल तक के सारे मन्त्र अच्छी तरह से सुग्रथित हैं । क्योकि इस प्रत्येक मण्डल के कोइ एक ही ऋषि निश्चित हैं । जैसे कि दूसरे मण्डल के ऋषि गृत्मसद हैं । तीसरे मण्डल का विश्वामित्र,चौथे का वामदेव,पाँचवें का अत्रि, छठे का भारद्वाज, साँतवे का वसिष्ठ और आँठवे मण्डल का ऋषि कण्व, अंगिरा और उनके वंशज हैं । लेकिन पहले,नवमे और दशमे मण्डल का कोई एक ऋषि नहीं हैं । इन तीन मण्डलों में एकाधिक ऋषिओं की रचनायें अकत्रित हुई हैं ।[1]पहले मण्डल की रचना में मधुच्छदस् ,कण्व मेधातिथि,आजिगर्ति शुनःशेप, आंगिरस हिरण्यस्तूप, आंगिरस सव्य, आंगिरस कुत्स, गोतम, अगस्त्य, कक्षीवान् और दीर्घतमस् जैसे अनेक ऋषिओं का प्रदान हैं । इन सब ऋषिओं में दीर्घतमस् ऋषि का दर्शन कुछ विशिष्ट प्रकार का देखा गया हैं । परन्तु उनसे पहले दीर्घतमस् ऋषि कौन थे?उनका नाम दीर्घतमस् कैसे पडा ?वह भी जानना जरूरी हैं ।

आंगिरस कुल का एक सूक्तदृष्टा ऋषि दीर्घतमस् ममता एवं उचथ्य ऋषि का पुत्र था । इसलिये उसको मामतेय और औचत्थ ये दो उपनाम प्राप्त हुएँ थे ।[2] बृहस्पति के शाप के कारण वो जन्म से अन्धा था ।[3 एवं 4]इसलिये इसे दीर्घतमस् अर्थात् ‘ दीर्घ अन्धकार ’ ऐसा नाम प्राप्त हुआ था । यह ऋषि सौ वर्षो तक जीवित रहा ।5 सौ साल की बूढी उमर में उसने केशव परमेश्वर कि उपासना की । उस से इसे दृष्टि प्राप्त हुई ।इस दीर्घतमस् ऋषि संबंधी अन्य कथाँयें महाभारत शान्तिपर्व,मत्स्यपुराण और वायुपुराण में भी प्राप्त होती हैं। सभी कथाओं में ऋषि को अन्धा ही बताया गया हैं ।

यह दीर्धतमस् ऋषि ने ऋग्वेद के पहले मण्डल में 140 से 164 तक कें सूक्तों कि रचना की हैं । ये सभी सूक्त अग्नि, मैत्रावरुण,विष्णु और अश्विनौ देवता संबंघी सूक्त हैं । दीर्धतमस् ऋषि ने अग्नि देवता संबंधी ग्यारह (140 से 150 )सूक्तो कि रचना कि हैं । इस अग्नि देवता विषयक सूक्तों कि विशेषता यह हैं कि,अन्य मण्डलों में अन्य ऋषिओंने अग्नि देवता से प्रकाश के अलावा उत्तम रत्न,धन औरपुत्रादि कि कामना कि हैं । लेकिन यह दीर्धतमस् ऋषि ने अग्नि देवता से निरंतर प्रकाश कि ही कामना कि हैं । जैसे कि,

कृधि रत्नं सुसनितर्धनानां स घेदग्ने भवसि यत्समिद्धः ।
स्तोतुर्दुरोणे सुभगस्य रेवत्सृप्रा करस्ना दधिषे वपूंषि ।। (ऋ. 3: 18 :5 )[6]

उपर्युक्त तीसरे मण्डल के मन्त्र में ऋषि विश्वामित्रकहते हैं कि, धन कि अभिलाषा वाले को अच्छी तरह देने वाले हे अग्नि! सुवर्ण और अश्वादि धनों में जो उत्तम धन रत्न हैं वह रत्न तुम हमको दीलाओं । क्योकि जब हम आप को समिधादि कि आहुति देतें हैं, तब दीप्तिमान् बने हुए आप धन के दाता बन जाते हो । इस प्रकार यहाँ ऋषि विश्वामित्र अग्नि देव से प्रकाश के अलावा श्रेष्ठ रत्नों कि अभिलाषा रखते हैं ।

सातवे मण्डल में ऋषि वसिष्ठ भी अग्नि देव से प्रकाश के साथ साथ श्रेष्ठ रत्नों कि याचना करते हैं । जैसे कि,

दा नो अग्रे धिया रयिं सुवीरं स्वपत्यं सहस्य प्रशस्तम् ।
न यं यावा तरति यातुमावान् ।। (ऋ. 7: 1 :5 )[7]

हे (शत्रुओं को) हराने में कुशल (सहस्य) अग्नि !हमारे स्तोत्र से खुश हो कर हमको वीर पुत्र और अच्छे अपत्य रूप धन (रयिम्) प्रदान करे । जिस धन को यातु प्रयोग करने वाले शत्रु भी नष्ट न कर शके ।

उपर्युक्त दोनों मण्डल में ऋषिजन अग्नि देव से प्रकाश के अलावा श्रेष्ठ रत्नों, पुत्र-पौत्रादि और धन-समृद्धि कि अभिलाषा भी रखते हैं । लेकिन दीर्धतमस् ऋषि ने अपने अग्नि देवता संबंधी सूक्तों में निरंतर प्रकाश कि ही कामना कि हैं । यह ऋषि ने कभी पुत्रादि और धन-समृद्धि कि कामना क्यूँ नहीं कि हैं वो बात भी यहाँ घ्यानास्पद और विचारणीय हैं । जिस ऋषि नाम दीर्घतमस् याँ ने कि गाढ अंधकार हो उस ऋषि को भला रत्नों, पुत्र-पौत्रादि और धन-समृद्धि कि अभिलाषा कैसे हो सकती हैं । उसके लिये तो सब से पहले अपने नेत्र रूप ज्योति कि आवश्यकता धन से ज्यादा जरूरी हैं । इसी वजह से यह ऋषि ने अपने सूक्तों मे केवल प्रकाश,ज्योति और द्युति कि ही याचना कि हैं । दीर्धतमस् ऋषि के अग्नि देवता संबंधी सूक्तों में इस प्रकार का विशिष्ट दर्शन पाया जाता हैं ।

यहाँ और दों बाते भी नोंधपात्र हैं ।

(1) दीर्धतमस् ऋषि ने अपने सूक्तों में कहीं भी इन्द्र देवता के लिए कोई पूरा सूक्त नहीं लिखा हैं । जिस समय में संसार के सारे ऋषि इन्द्र कि उपासना करते थे उसि समय यह ऋषि अग्नि कि उपासना में व्यस्त दिखते हैं । क्योकि इन्द्र से ज्यादा इस ऋषि को अपने नेत्रों के प्रकाश के लिये अग्निदेव कि आवश्यकचा ज्यादा थी ।

(2) दीर्धतमस् ऋषि ने अपने सूक्तों में जिन अन्य ऋषियों कि उपासना कि हैं । उन में भी सब देवता ऐसा प्रतित होता हैं कि, उन सब के पास से भी ऋषि एक या दूसरी तरह से अपने नेत्रज्योतिओं कि ही कामना करते हैं । जैसे कि मित्रावरुण कि उपासना का हेतु उन्हों ने दिये शापशमन का हो सकता हैं । विष्णु कि स्तुति में भी सूर्य कि ही उपासना हो सकती हैं । क्योकि उस समय में सूर्य को शंखचक्रगदापद्म वाले विष्णु नहीं बल्के सूर्य के रूप में पूजा जाता था । और अश्विनौ देवता देवो के वैद थे । सायद उनके पास से कोई औषधी मील जाय और अपने को नेत्रज्योति प्राप्त हो जाय इस बिचार से भी ऋषि ने इन देवताओं कि उपासना कि हों । इस प्रकार इन सभी देवताओं से ऋषि ने केवल प्रकाश कि ही कामना कि हैं ।

यह बात को 140 वे सूक्त के मत्रो के साथ देखीए ।

* एकसौ चालीसवे सूक्त के पहले मन्त्र में अग्नि कि स्तुति करते हुए ऋषि कहते हैं कि, हे अग्निदेव ! आप हमारे घर(योनिम्) को सुन्दर कान्ति से भर दो । यहाँ ऋषि अग्नि के लिये ज्योतिरथम्, तमोहनम्,शुक्रवर्णम् और शुचिम् जैसे विशेषणों का प्रयोग करते हैं ।

वेदिषदे प्रियधामाय सुद्युते धासिमिव प्र भरा योनिमग्नये ।
वस्त्रेणेव वासया मन्मना शुचिं ज्योतिरथं शुक्रवर्णं तमोहनम् ।।(ऋ. 1: 140 :1 )[8]

* दूसरे मन्त्र में अग्नि को मुख और जिह्वा से हविषादि को भक्षण करने वाला और (अन्धकार पर ) विजयी होने वाला कहा हैं ।वह अत्यन्त बलवान और अन्धकारादि दोषों का निवारण करने में समर्थ हैं ।

अभि द्विजन्मा त्रिवृदन्नमृज्यते संवत्सरे वावृधे जग्धमीं पुनः ।
अन्यस्यासा जिह्वया जेन्यो वृषन्य1 न्येन नमिमो मृष्ट वारणः ।। (ऋ. 1: 140 :2 )[9]

* तीसरे मन्त्र में अग्नि को जिह्वा निकाल ने वाला (प्राचाजिह्वम्), अच्छी तरह से संगृहित रखने योग्य( आ साच्यं कुपयम्) और यजमान के यश बढाने वाला (पितुः वर्द्धनम् )कहा गया हैं ।

* चौथे मन्त्र में अग्नि को वेगवान् (जुवः),गमनशील (अजिराज्ञः),प्रकाशवाले मार्ग पर चलने वाला(रघुस्यदः),पवन के समान वेगीला( वातजूताः) और मननशील (मनवे)कहा हैं । यहाँ अग्नि के प्रकाशमानादि गुणों कि प्रशंसा हैं ।

मुमुक्ष्वो3मनवे मानवस्यते रघुद्रुवः कृष्णसीतास ऊ जुवः ।
असमना अजिरासो रघुष्यदो वातजूता उप युज्यन्त आशवः ।। (ऋ. 1: 140 :4 )[10]

* पाचवे मन्त्र में कहा हैं कि अग्नि कृष्णवर्ण के अन्धकार को दूर करके प्रकाश करता हुआ (वर्पः)पृथ्वी पर बिजली कि भाँती प्रकाशको फैंलाता हैं ।

* छठे मन्त्र में कहा हैं कि, अग्नि बैल के समान(वृषेव) बलशाली हैं । जिसकी ज्वालाओं को पकडना मुश्किल हैं ।(दुर्गृभिः शृंगाः) अपने शरीर को प्रकाशित करता हुआ वह निरंतर प्रज्वित होता हैं ।

* सातवे मन्त्र में अग्नि को प्रकाशमान् होने के कारण सुख फैंलाने वाला और हविषादि पदार्थो को ग्रहण करने वाला कहा हैं ।अग्नि अपने पूर्व से विद्यमान् तेजोमय रूप को दोनों लाक में प्रकाशित करता हैं ।

* आठवे मन्त्र में अग्नि को अग्रगण्य(अग्रुवः),प्रशंसनीय ज्वालाओं वाला(केशिनीः),पुनःपुनः बढने वाला(पुनः ऊर्ध्वाः) और परम प्राणवान् (परम असुम्)कहा हैं ।

* नवमे मन्त्र में अग्नि को वेगयुक्त ( ज्रयः) और वाजपक्षी (श्येनी) जैसा कहा हैं ।

* दशमे मन्त्र में अग्नि को अपने अन्नवाले गृहो में प्रकाशित होनें को कहा हैं । अपनी शैशववाली ज्वालाओं को छोड के अधिक प्रकाश फैलानें को भी बिनती कि हैं ।

अस्माकमग्ने मघवत्सु दीदिह्यध श्र्वसीवान्वृषभो दमूनाः ।
अवास्या शिशुमतीरदीदेर्वमेव युत्सु परिजर्भुराणः ।।(ऋ. 1: 140 :10 )[11]

* ग्यारहवे मन्त्र में कहा हैं कि, हे अग्नि ! आपका जो अधिक प्रकाशमान् तेज(शुक्र) हैं वह ही हमारे लिए मनोहर धन हैं । यहाँ ऋषि अग्नि से अन्य कोई प्रकार के धन कि कामना नहीं करते हैं ।केवल अग्नि के पिरकाशमान् तेज को हि धन मानते हैं ।

इदमग्ने सुधितं दुर्धितादधि प्रियादु चिन्मन्मनः प्रेयो अस्तु ते ।
यत्ते शुक्रं तन्वो3रोचते शुचि तेनास्मभ्यं वनसे रत्नमा त्वम् ।। (ऋ. 1: 140 :11 )[12]

(सायणभाष्यम् – हे अग्ने ! ते तव तन्वः शरीरस्य घृतेनोज्ज्वलिताया ज्वालायाः,शुचि निर्मलं,शुक्रं दीप्तं यत् तेजः रोचते तेन सह रत्नं रमणीयं मणिमुक्तादिकं अस्मभ्यं वनसे अस्मान् संभजस्व ।।)

यहाँ सायणाचार्य भी ‘ रत्नम् आ वनसे ’ का अर्थ लक्षणा से रमणीय तेजरूप मणिमुक्तादि को बाँटने वाला ऐसा करते हैं । यहाँ भौतिक सम्पतिरूप रत्न कि बात नहीं हैं लेकिन निर्मल प्रकाशरूप रत्न कि बात हैं । यहाँ विशेष बात यह हैं कि, ऋग्वेद के पहले मन्त्र में ऋषि मधुच्छदस् अग्नि के लिए ‘होतारं रत्नधातमम्’ शब्द का विनियोग करते हैं ।13 वहाँ भाष्य में सायणाचार्य ‘ रत्नधातमम् ’ का अर्थ ‘यागफलरूपाणां रत्नानामतिशयेन धारयितारं पोषयितारं वा ’ अर्थात् ‘यज्ञफल के परिपाक रूप से प्राप्त हुए अनेक रत्नों से हे अग्निदेव ! तुम हमारा पोषण करो ’ ऐसा करते हैं ।यहाँ रत्न शब्द का अर्थ भौतिक समृद्धि के सन्दर्भ में हैं । लेकिन दीर्घतमस् ऋषि के अग्नि सूक्त के संदर्भ में सायणाचार्य भी ‘ रत्नम् आ वनसे ’ का अर्थ लक्षणा से प्रकाश रूप रत्न ही करते हैं । इस से यह प्रतित होता हैं कि दोनों ऋषिओं का शब्द चयन एक प्रकार का हैं लेकिन उस के अर्थ में भिन्नता दिखाई देती हैं ।

बारहवे मन्त्र में अग्नि को यजमान को संसार पार कराने वाली नाँव दिलाने को कहा हैं । और यजमान के पुत्रादि को जनन-मरणादि बहुदुःखात्मक संसार में से ब्रह्मलोक में ले जाने कि बिनती कि गई हैं । यहाँ भी ऋषि भौतिक सुखों कि याचना के अलावा आध्यात्मिक कल्याण कि इच्छा रखते हैं ।

इस प्रकार यह पूरे सूक्त में अग्नि के प्रकाशमान् गुणों कि प्रशंसा हैं । अग्नि प्रकाश का अधिष्ठाता देव हैं । इसलिए ऋषि अपना तमस् दूर करने के लिए अग्नि कि इस प्रकार कि उपासना करते हैं । ऋषि को धन-समृद्धि और पुत्रादि से ज्यादा अपनें नेत्रों की ज्योतिओं कि जरुरत हैं । इस विशिष्ट प्रकार का दर्शन यह सूक्त में देखा गया हैं ।

एकसों इक्तालीसवे सूक्त में भी अग्नि को अन्नसाधक(पृक्षः) कहा हैं । इसलिए वह पृथ्वी स्थान पर रहते हैं । दूसरे विद्युत् रूप से अन्तरिक्ष स्थान में और द्युलोक में आदित्य कें किरणों कि प्रवृत्ति के लिए कार्यरत हैं । यहाँ अग्नि को ऐश्वर्युक्त( ईशानासः ),मेधाविन् (सूरयः), युवतमः,अत्यन्तनवीन(नव्यसीषु),सनातन वेगवाला(सनाजुवः),बहुभिः स्तूयमान् और न्यायधीश(अर्यमा) कह कर अपना तमस् दूर करने कि ही बात ऋषि कहते हैं ।

एकसों तैतालीसवे सूक्त में ऋषि कहते हैं कि, हे अग्निदेव ! जिस उत्तम अंतरिक्ष में आप व्याप्त हो वह अन्तरिक्ष कि उत्तमता,प्रकाश और पवित्रता पृथ्वी को प्राप्त हो ।यहाँ भी ऋषि प्रकाश कि ही कामना करते हैं । ऋषि अन्त में कहते हैं कि, हे मनुष्यो ! संसार को जानने वाले (विश्ववेदसम्) और सर्वत्र जाने वाले (अरिरे) अस अग्नि को आपके गृहों में (स्वेदमे) प्रशंसायुक्त वाणियोओं से (गीर्भिः) अच्छी तरह प्राप्त करें ।

एकसों चवालीसवे सूक्त में कहा हैं कि, जो मनुष्य हविष्प्रदानादि से अग्नि को धारण करता हैं वह उसकी प्रकाशमान् (स्रुचः) दक्षिणा को प्राप्त करता हैं । दिवस और रात में पूज्यमान् अग्नि पूर्वे अंगारावस्था में जीर्ण था किन्तु इन्धनावस्था में तरुण हो जाता हैं । ऐसा अग्नि जरा रहित हो जाता हैं । ऋषि अन्त में कहते हैं कि, हे अग्नि ! आप हमारे हविष का सेवन करो ।स्तुति से प्रसन्न हो और स्थावर-जंगम के प्रति अनुकूल बनो ।

एकसों पैतालीसवे सूक्त में ऋषि कहते हैं कि, हे यजमानो ! आप अग्निदेव से (स्वर्गादि के बारे मे पूछीये । क्योकि वह सब जगह जाता हैं । इसलिए वह इस विषय में विशेषज्ञ (चिकित्वान्) हैं ।यहाँ भी ऋषि स्रगादि के बारे में जानना चाहते हैं लेकिन और कोइ धनादि कि याचना नहीं कि हैं ।

अग्नि देवता सम्बन्धी उपर्युक्त सूक्तों में ऋषि दीर्घतमस् ने कहीं भी कोई धन,रत्न, पुत्र-पौत्रादि और भौतिक समृद्धि कि लालसा,याचना या माँग नहीं कि हैं । अग्निदेव से केवल प्रकाश माँग ने वालायह ऋषि दीर्घतमस् का उपर्युक्त सूक्तों का दर्शन इस दृष्टि से विशिष्ट प्रकार का देखा गया हैं । ऋग्वेद में कोई एक हि देवता का दर्शन इस प्रकार से भी हुआ करता था यह बात भी ऐसे सूक्तों से स्पष्ट होती हैं । ।

ૐૐૐૐૐ

* 45 Session, ALL INDIA ORIENTAL CONFERENCE, Rashtriya Sanskrit Vidyapeetha, Tirupati, Andhrapradesh. Date: 02 to 04 June 2010, Reaserch paper presentation in Vedik Section.)

संदर्भः–

(1)ऋग्वेद-7 मण्डलःसंपादकः डॉ.वसन्तकुमार भट्ट ,प्रकाशकः सरस्वती पुस्तक भंडार,अहमदाबाद,सन्.1999 प्रस्तावना पृ.40
(2) प्राचीन चरित्रकोशः संपादकः सिद्धेश्वर शास्त्री चित्राव ,प्रकाशकः भारतीय चरित्रकोश मण्डल पूना,सन्.1964 प्रस्तावना पृ.274
(3)ऋग्वेद-संहिताः(सायणभाष्यसमेत्) संपादकः डॉ.वी.के.राजवाडे,प्रकाशकः वैदिक संशोधन मण्डल,तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ,सन्.1894, (सायणभाष्यम्- अत्रेतिहासमाचक्षते उचथ्यबृहस्पति नामानौ द्वौ ऋषि आस्ताम् । तत्र उचथ्यस्य ममता नाम भार्या । सा च गर्भिणी । तां बृहस्पतिर्गृहीत्वा अरमयत् । शुक्रनिर्गमनावसरे प्राप्ते गर्भस्थं रेतः प्रावादीत् हे मुने रेतो मा त्याक्षीः पूर्वमहं वसामिरेतःसंकरं मा कार्षीः इति ।एवमुक्तो बृहस्पतिः बलात् प्रतिरुद्धरेतस्कः सन् शशाप । हे गर्भ त्वं यतो रेतोनिरोधमकरोः अतस्त्वं दीर्घं तमः प्राप्नुहि जात्यन्धो भवेति । एवं शप्तो ममतायां दीर्घतमा अजायत ।स चोत्पन्नः तमोव्यथया अग्निमस्तोषीत् । स च स्तुत्या प्रीतः आन्ध्यं प्रयहरदिति ।तदिदमत्रोच्यते । (ऋ.1 : 147 : 3 )पृ. 909-910.
(4) THE BRHAD-DEVATA : ( Part – II Translation & notes) By: Arthur Anthony Macdonell, Pub :Motilal Banarasidass,Delhi, AD: 1965 (Second Issue) ( 4: 11 to 15 & 4 : 21 to 25 ) page: 128 to 131.
(5) ऋग्वेद-संहिताः(सायणभाष्यसमेत्) संपादकः डॉ.वी.के.राजवाडे,प्रकाशकः वैदिक संशोधन मण्डल,तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, सन्.1894.
दीर्घतमा मामतेयो जुजुर्वान्दशमे युगे ।
अपामर्थं यतीनां ब्रह्मा भवति सारथिः ।। ( ऋ 1 : 158 : 6 ) पृ. 946.
(6) ऋग्वेद-संहिताः(सायणभाष्यसमेत्) संपादकः डॉ.वी.के.राजवाडे,प्रकाशकः वैदिक संशोधन मण्डल,तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, सन्.1897. पृ. 262
(7)ऋग्वेद-7 मण्डलःसंपादकः डॉ.वसन्तकुमार भट्ट ,प्रकाशकः सरस्वती पुस्तक भंडार,अहमदाबाद, सन्.1999. पृ. 5 – 6.
(8) ऋग्वेद-संहिताः(सायणभाष्यसमेत्) संपादकः डॉ.वी.के.राजवाडे,प्रकाशकः वैदिक संशोधन मण्डल,तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, सन्.1897. पृ. 877
(9) ऋग्वेद-संहिताः(सायणभाष्यसमेत्) संपादकः डॉ.वी.के.राजवाडे,प्रकाशकः वैदिक संशोधन मण्डल,तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, सन्.1897. पृ. 877
(10) ऋग्वेद-संहिताः(सायणभाष्यसमेत्) संपादकः डॉ.वी.के.राजवाडे,प्रकाशकः वैदिक संशोधन मण्डल,तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, सन्.1897. पृ. 878
(11) ऋग्वेद-संहिताः(सायणभाष्यसमेत्) संपादकः डॉ.वी.के.राजवाडे,प्रकाशकः वैदिक संशोधन मण्डल,तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, सन्.1897. पृ. 879 (सायणभाष्यम्– शिशुमतीः अवास्य शैशवतीर्जाला विहाय भृशं दीपस्व)
(12) ऋग्वेद-संहिताः(सायणभाष्यसमेत्) संपादकः डॉ.वी.के.राजवाडे,प्रकाशकः वैदिक संशोधन मण्डल,तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, सन्.1897. पृ. 880
(13) ऋग्वेद-संहिताः(सायणभाष्यसमेत्) संपादकः डॉ.वी.के.राजवाडे,प्रकाशकः वैदिक संशोधन मण्डल,तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ, सन्.1897.
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ।। (ऋ. 1 , 1 , 1 )

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प्रा. डो. महेशकुमार ए.पटेल
गुजरात आर्टस एवं कोमर्स कॉलेज,
अहमदाबाद,गुजरात.